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नारीवाद का अर्थ एंव विशेषताएँ | Meaning and Features of Feminism
नारीवाद शब्द का प्रयोग सामान्यतया उस विचारधारा और आन्दोलन के लिये किया जाता है जिसका उद्देश्य सदियों से चले आ रहे पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को मुक्ति दिलाना है। नारीवाद एक ऐसा विश्वव्यापी आन्दोलन है जो समकालीन में नारी की अधीनस्थ और अवपीड़ित स्थिति को समाप्त करके उन्हें पुरुष के समकक्ष स्थान दिलाने का आकांशी है।
आधुनिक नारीवादी चिन्तन का प्रारम्भ 18वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों से माना जाता है। 19वीं शताब्दी से लेकर अभी तक के वर्षों में नारीवादी गतिविधियों के अनेक रूप प्रकट हुए हैं। इसे विद्वानों ने ‘नारीवाद की लहरों के नाम से सम्बोधित किया है। नारीवाद की पहली लहर का समय 19वीं शताब्दी के मध्य से लेकर 20वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों तक माना जाता है जबकि दूसरी लहर जिसे उग्र महिलावाद के नाम से जाना जाता है का समय 60 के दशक के अन्तिम वर्षों में माना जाता है। साठ के दशक में उपजे नारीवाद का मुख्य उद्देश्य यह प्रदर्शित करता था कि सभी महिलायें एक ही प्रकार के शोषण का शिकार होती है परन्तु वर्तमान नारीवाद पुरुष प्रधान समाज में नारी की भिन्न-भिन्न स्थिति की चर्चा तो करता ही है, साथ ही महिला के आपसी सम्बन्धी की भी विवेचना करता है।
नारीवाद का अभिप्राय ( Meaning of Feminism )
नारीवाद वह विचारधारा है जो नारी को उसका खोया हुआ स्थान अति प्रतिष्ठा दिलाने की पक्षधर है। नारीवाद की अवधारणा का प्रयोग निम्नलिखित संदर्भों में किया जाता है-
- यह एक सामाजिक राजनीतिक सिद्धान्त और व्यवहार है जो समस्त महिलाओं को पुरुषों के प्रभुत्व और शोषण से मुक्त कराने का आकाँक्षी है।
- यह एक विचारधारा है जो सभी नारी द्वेषी विचारधाराओं और व्यवहारों के विपरीत है।
- यह महिला की पुरुष के प्रति अधीनता और महिला के विश्वव्यापी उत्पीड़न की प्रकृति से सम्बन्धित एक दार्शनिक सिद्धान्त है।
- यह एक सामाजिक आन्दोलन है जिसका आधार स्त्री-पुरुष संघर्ष है।
वैसे देखा जाये तो प्रारम्भिक नारीवाद की शुरूआत जॉनलॉक के प्राकृतिक अधिकारों की अवधारणा से होती है। जे. एस. मिल ने अनेक तकों के आधार पर महिलाओं को पुरुषों के समान अवसर देने का प्रबल समर्थन किया। बूबोयर तथा बैटीफ्रीडन जैसे लेखकों ने आगे चलकर महिला आन्दोलन को प्रखर बनाया।
नारीवाद सामान्यतया वह विचारधारा और आन्दोलन है जिसका उद्देश्य है जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं को पुरुषों के बराबर स्थान प्राप्त हो । परम्परागत रूप से और समकालीन जीवन में भी महिलाओं को अधीनस्थ और अवपीड़ित स्थिति ही प्राप्त है। नारीवाद का लक्ष्य है इस अधीनस्थ और अवपीड़ित स्थिति को समाप्त कर उन्हें परिवार, समाज, राज्य और समूचे विश्व के स्तर पर पुरुष के समकक्ष स्थान दिलाना। इस प्रकार एक पंक्ति में नारीवाद, नारी समानता (पुरुष से समानता), नारी एकता और नारी सशक्तिकरण का आन्दोलन है। नारीवाद की मांग है कि नारी को अपना हक (समानता का हक), अपने अधिकार और अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व चाहिए। नारीवाद एक विश्वव्यापी आन्दोलन है, कुछ देशों में यह अपने विकास के उच्च स्तर पर है, कुछ देशों में अपेक्षाकृत कम विकसित स्तर पर। सिमोन दिबोवा की प्रसिद्ध पुस्तक The Second Sex में विस्तार में बतलाया गया है कि स्त्री-पुरुष का भेद समाजीकरण का परिणाम है। समाजीकरण (समाज से जुड़े समस्त वातावरण) से उत्पन्न इस स्थिति को दूर कर समान व्यक्तियों के लिए समान अधिकारों की अधिकार के रूप में मांग नारीवाद है।
नारीवाद के लक्षण या विशेषताएँ
नारीवाद के प्रमुख लक्षण या विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. नारीवाद मैरिज सिस्टम या विवाह संस्कार (एक स्त्री और एक पुरुष के बीच काम सम्बन्धों को मर्यादित करने की व्यवस्था) और परिवार संस्था का विरोधी नहीं है वरन् इस बात पर बल देता है कि परिवार का मूल आधार पुरुष के प्रति स्त्री का समर्पण नहीं वरन् पुरुष और स्त्री दोनों का एक-दूसरे के प्रति समर्पण और पति-पत्नी के बीच समानता या स्त्री-पुरुष की समानता होनी चाहिए नारीवाद पुरुष को धिक्कारना नहीं है, पुरुष को अस्वीकार करना नहीं है पुरुष को केवल समानता, पूर्ण समानता के आधार पर स्वीकार करना है। नारीवाद विवाह विरोधी या परिवार विरोधी तो नहीं है, लेकिन इस बात पर अवश्यक ही बल देता है कि विवाह और परिवार नारी के लिए केवल उतनी ही सीमा तक आवश्यक है, जितना सीमा तक यह पुरुष के लिए आवश्यक है।
2. नारीवाद इस बात पर बल देता है कि योग्यता और क्षमता की दृष्टि से, नारी किसी भी रूप में पुरुष से कम श्रेष्ठ नहीं है तथा उसे आवश्यक शिक्षा, ज्ञान और प्रशिक्षण प्राप्त कर प्रतियोगी जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के समान स्तर पर कार्य करने का अधिकार होना चाहिए। वह पुरुष से प्रतियोगिता करने की क्षमता रखती है तथा उसे यह अधिकार प्राप्त है।
3. नारीवाद इस बात पर बल देता है कि राजनीति में नारी को लगभग बराबरी की भागीदारी (कम से कम एक-तिहाई भागीदारी अवश्य ही) प्राप्त होनी चाहिए। महिलाएँ न केवल राजनीति में भाग लेने की योग्यता और क्षमता रखती है वरन् वे इस कार्य के लिए पुरुषों की तुलना में अधिक योग्य और सक्षम हैं। राजनीतिक क्षेत्र में श्रीमति गांधी, श्रीमती भण्डारनायके, माग्रेट थैचर और गोल्डा मायर आदि महिलाओं ने जिस सुयोग्य नेतृत्व का परिचय दिया, उससे यह बात प्रमाणित हो जाती है।
4. नारीवाद इस बात पर बल देता है कि यदि नारी को उत्थान और विकास कि दिशा में आगे बढ़ना है तो यह कार्य नारी एकता और संगठन तथा स्थानीय प्रादेशिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर नारी-नारी सहयोग के आधार पर ही सम्भव है।
विभिन्न देशों के अधिकार पत्रों में नारी-पुरुषों के लिये समान अधिकार की बात कही गयी है। संयुक्त राष्ट्र शंघ द्वारा मानवीय अधिकारों का सार्वलौकिक घोषणापत्र स्वीकार किये हुए इतना अधिक समय व्यतीत हो चुका है लेकिन आज तक भी महिला वर्ग के हित और अधिकार सुरक्षित नहीं है। महिला वर्ग की इस गिरी हुई स्थिति के मूल कारण महिलाओं में शिक्षा का अभाव तथा आर्थिक आत्मनिर्भरता का अभाव है। इसके अतिरिक्त महिलाओं की स्थिति में सुधार के मार्ग में एक प्रमुख बाधक तत्व है- सामाजिक कट्टरता, धार्मिक कट्टरता, और अन्धविश्वास।.
भारत में महिला संगठन (Women’s Organisation In India )
विगत कुछ वर्षों में स्त्री द्वारा पुरुष के साथ समानता की खोज एक सार्वभौमिक तथ्य बन चुकी है। इस माँग के कारण कुछ नारी संगठनों ने नारियों में चेतना जाग्रत करने और उनकी स्थिति में सुधार जाने की दृष्टि से प्रयत्न किये हैं। मध्यम वर्गीय महिलाओं ने कीमतों में निरन्तर वृद्धि के मुद्दे को उठाया है और घरेलू स्त्रियों ने पुरुषों के साथ समानता की माँग की है। सर्वप्रथम चेन्नई में भारतीय महिला संघ का गठन किया गया। इसके बाद विभिन्न महिला संगठनों के प्रयत्नों से देश में अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की स्थापना की गई है। इस संगठन के अलावा विश्वविद्यालय महिला संघ, भारतीय ईसाई महिला मण्डल, अखिल भारतीय स्त्री शिक्षा संस्था एवं कस्तूरबा गाँधी स्मारक ट्रस्ट आदि स्त्री संगठनों ने स्त्रियों की नियोग्यताओं को दूर करने, सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने और स्त्री शिक्षा का प्रसार करने की दृष्टि से कार्य किया है। विश्वव्यापी स्तर पर भी नारियों की स्थिति में सुधार के लिये कुछ प्रयत्न किये गये हैं। नारी संगठनों के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप नारियों की स्थिति में सुधार के लिये भारत अधिनियम पारित हुए हैं जैसे- हिन्दू विवाह अधिनियम, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनिम, दहेज में कुछ प्रतिषेध अधिनियम आदि। यही नहीं कुछ अन्य संवैधानिक प्रयत्न भी किये गये हैं जिसमें पंचायत संस्थाओं और नगर पालिकाओं के चुनाव में एक तिहाई पद महिलाओं के लिये आरक्षित किये गये हैं तथा संसद में महिला आरक्षण विधेयक पर बहस निरन्तर जारी है। जिसमें विधानसभा और लोकसभा में एक तिहाई पद महिलाओं के लिये आरक्षित होने की बात कही गई है ताकि महिलायें निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल हों और नीति निर्माण के स्तर पर उनकी सहभागिता रहे।
इस प्रकार अधिकारों की दृष्टि से नारी और पुरुष में भेद करना उतना ही अनुचित है जितना लिंग के आधार पर भेदभाव करना। किसी भी सभ्य समाज में स्वतन्त्रता और अधिकार की दृष्टि से महिला और पुरुष में कोई भेद नहीं किया जाता है उन्हें समान अधिकार मिलना चाहिए जो एक सुसंस्कृत सुसभ्य समाज की कसौटी है।
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