पन्त की प्रसिद्ध कविता ‘नौका-विहार’ की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
‘नौका-विहार’ प्रकृति के सुकुमार कवि तथा चतुर चितेरे सुमित्रानन्दन पन्त की सर्वश्रेष्ठ के कविताओं में से एक है। डॉ. नगेन्द्र ने लिखा है- “पन्त की कविताओं में ‘नौका-विहार’ अपने चित्रों के लिए प्रसिद्ध है। वास्तव में, शब्द और तूलिका में इतना निकट सम्बन्ध हिन्दी का कोई कवि स्थापित नहीं कर सका।” डॉ. नगेन्द्र की यह उक्ति किसी भी प्रकार अत्युक्ति अथवा अतिशयोक्ति नहीं है, बल्कि सही-सही मूल्यांकन है। इस कविता की रचना सन् 1932 ई. में हुई थी, जब कवि कुछ समय के लिए कालाकाँकर के राजमहल में अतिथि बनकर रह रहा था। यह समय पन्त की ‘गुंजन’ नामक | कविता संग्रह की रचना का युग था। जब वह एक ओर तो प्रकृति के आकर्षण में पूर्ववत् बँधा हुआ | प्रकृति के श्रेष्ठतम चित्र अंकित कर रहा था, साथ ही उसका शाश्वतवादी और नियतिवादी विचारक दर्शन के क्षेत्र में विचरण करता, अपना मन्तव्य, दार्शनिक मान्यताएँ व्यक्त करता चलता था। उस | समय उस पर दार्शनिक चिन्तन का गहन प्रभाव था। उनका कवि जीवन के रहस्य को समझने का प्रयत्न कर रहा था। समझने की इस प्रक्रिया में पहले की-सी बालसुलभ जिज्ञासा न रहकर दार्शनिक सिद्धान्तों से बोझिल गम्भीरतां आ गयी थी। इसी कारण पन्त की इस काल की कविताओं में अधिकांशतः चिन्तन की जटिलता, दुरूहता और गम्भीरता ने मिल करके हल्की-सी नीरसता उत्पन्न कर दी है। नौका-विहार कविता थोड़ा-सा इसका अपवाद है। इसमें प्रकृति अपने उन्मुक्त मनोरम रूप में अंकित हुई है।
ग्रीष्मकालीन गंगा में चाँदनी में नहायी रात्रि में, ‘नौका-विहार’ करते हुए कवि के मन में जो अनुभूतियाँ हुईं, वही इस कविता में लिपिबद्ध हैं। प्रकृति का मानवीकरण, अमूर्त का मूर्तिकरण, संगीतात्मकता, कल्पना, दार्शनिकता, वैयक्तिता आदि भावों के अतिरिक्त छायावाद के कलापक्ष का पूर्वोत्कर्ष इस कविता में दिखायी पड़ती है। सन् 1932 छायावाद का उत्तर काल था। अब तक पन्त जी की कविताओं में प्रेम, सौन्दर्य तथा दर्शन पूर्णतया सजीव एवं परिपक्व रूप में व्यक्त होने लगे थे। इस बात को पुष्ट करते हुए स्वयं पन्त जी ने लिखा है— “प्राकृतिक चित्रणों में भावनाओं का सौन्दर्य मिलाकर उन्हें ऐन्द्रिय चित्रण बनाया है, कभी-कभी भावनाओं को ही प्राकृतिक सौन्दर्य मिलाकर उन्हें ऐन्द्रिय चित्रण बनाया है, कभी-कभी भावनाओं को ही प्राकृतिक सौन्दर्य का लिबास पहना दिया है।” नौका-विहार में कवि ने चन्द्रिका-स्नान, रात्रि में प्रकृति और नौका-विहार का जो वर्णनात्मक चित्र प्रस्तुत किया है, वह निश्चल अथवा अस्थिर नहीं है, बल्कि उसकी गति में क्षिप्रता है तथा रंग और क्रियाशीलता का गहन आकार भी समाहित है। प्रकृति की चित्रमयता में ही कवि ने प्रेम की बहुमुखी कार्यगतियों वाली भंगिमा का अनुपम समन्वय दिखाया है।
नौका-विहार कविता में प्रकृति के रम्य रूपों की प्रधानता है तथा उभरते प्रकृति के अनेक अनुपम और हृदयग्राही बिम्बों ने इसे अद्भुत काव्य-सौन्दर्य से मंडित कर दिया है। इस कविता के सन्दर्भ में एक विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि रचना के प्रारम्भ में पन्त का ‘कवि-रूप सचेत और सक्रिय रहा तथा दार्शनिक एवं चिन्तक रूप सुषुप्तावस्था में रहा। लेकिन अन्त में कवि तन्द्रिल हो गया और दार्शनिक चिन्तक रूप जाग उठा, जिसने आकर्षक मधुर वातावरण के प्रभाव और सौन्दर्य को धूमिल कर दिया। अन्तिम अंश में यह कविता एक आध्यात्मिक सन्देशवाहिका का रूप धारण कर लेती है। पन्त ने प्रकृति के विभिन्न चित्रों की सृष्टि करते हुए सर्वात्मवादी दर्शन के अनुसार ससीम की असीम के प्रति जिज्ञासा, अस्थिर और परिवर्तनशील संसार में नित्य और वास्तविक सत्य को पाने की आकांक्षा तथा चिन्तन और अनुभूति से सत्य का साक्षात्कार होने के पश्चात् उत्पन्न होने वाले आशावाद, उल्लास आदि को अत्यन्त सरल, बोधगम्य और आकर्षक रूप में प्रस्तुत किया है। कविता के अन्त में संसार, जीवन तथा ईश्वर सभी को नित्यता का सन्देश कवि के आस्थावान् स्वरूप का परिचायक है। इस चिन्तक-बोझिलता के बावजूद इस कविता में चिन्तन की जटिलता दुरूहता और नीरसता लेशमात्र नहीं है, साथ ही मनोरम प्रकृति-चित्रण, सशक्त कला और संवेदनाओं के समन्वय ने इसे अनुभूत रूप में आकर्षक बना दिया है। नौका-विहार का अन्तिम छन्द दर्शन-प्रधान होने के कारण रस-भंग कर देता है और प्रकृति के रम्य चित्रों में रमा मन एक झटका-सा खाकर झुंझला उठता है।
दार्शनिक विचारों की गहनता और दुरूहता ने कविता के आरम्भ में चली आती मनोहर, कोमल प्रकृति के विभिन्न छोटे-मोटे चित्रों की सरस धारा को जैसे एकाएक झटका देकर तोड़ डाला हो। इस अन्तिम छन्द के अतिरिक्त शेष सम्पूर्ण कविता श्रेष्ठतम् काव्यकला का अनुपम उदाहरण है। प्रकृति के ऐसे मनोरम छोटे-छोटे खण्ड-चित्र हिन्दी में अन्यत्र विरले ही हैं। पन्त का असली कविरूप यही मैने वह प्रकृति के कोमल, मनोहर, मधुर, आकर्षणयुक्त सौन्दर्य के बड़े कुशल चिरेते हैं, परन्तु ऐसे मनोरम तथा रसवन्ती वातावरण में दर्शन की यह दखलंदाजी पाठक के सौन्दर्य-तोष को, उसकी रस-नग्नता और तन्मयता को एकाएक निर्मम आघात कर भंग कर देती है। यदि पन्त दर्शन के मोह जाल से मुक्त हो पाते, तो उनकी काव्य-प्रतिभा किन उच्चातिढच्च कला-सीमाओं का स्पर्श करने में सहज समर्थ है, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।
वस्तुतः कविता का क्षेत्र दर्शन का है ही नहीं दर्शन तो इस क्षेत्र में घुसपैठिये जैसा लगता है, नितान्त अनांवित आगन्तुक। कविता भाव-सौन्दर्य के क्षेत्र में ही खिलती है, चिन्तन उस पर टाट का-सा बोरा डाल देता है। पन्त का दर्शन-बोध व्याघात उत्पन्न करता है, अन्यथा कवि-रूप में तो अद्भुत और अनन्त है। निम्नलिखित पंक्तियाँ दर्शनीय है, जो कविता के प्रारम्भ की रहै और पाटक को अद्भुत प्रकृति-सौन्दर्य का दर्शन कराती है-
“शान्त, स्निग्ध ज्योत्स्ना उज्ज्वल, अपलक अनन्त नीरव भूतल ।
सैकत शय्या पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म विरल,
लेटी है, श्रान्त, क्लान्त, निश्चल।”
इस प्रकार पाठक के सम्मुख अधूरा चित्र और अधिक पूरा हो जाता है। उसका मन रात्रि के समय गंगा की अपरिमित शोभा की कल्पना करता हुआ उसमें लीन हो जाता है। वर्णन की स्वाभाविकता और निरीक्षण की सूक्ष्मता भी पायी जाती है। कवि का ध्यान प्रकृति की सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु पर भी गया है, जिसका वर्णन रोचक ढंग से किया है। “निश्चल जल के शुचि दर्पण पर ज्योतितकर नभ का अन्तस्तल ।” कवि ने उपमा का सहारा लेकर गंगा की तुलना तपस्वी बाला से और नौका की उपमा हंसिनी से की है, जो अपनी मंथर गति से चलती है- “तापल-बाला-सी गंगा निर्मल…… चंचल अंचल-सा नीलाम्बर ।” तथा मृदु मन्द, मन्थर-मन्थर……. तिर रही खोल पालों का पर।” सम्पूर्ण कविता में सुकुमार कल्पनाओं और कोमल भावों का सुन्दर परिपाक है। कहीं भी कर्कश भाव नहीं हैं। फलतः पाठक भी पढ़ते-पढ़ते इसे कोमल भावों में डूबने-उतराने लगता है। जैसे— “जिनके लघु दीपों का अंचल….रूपहले कचों में ही ओझल।” इसमें अनुभूति की तीव्रता की अधिकता है, साथ ही प्रसाद एवं माधुर्य भावों की झलक स्पष्ट है, जिससे कविता का सौन्दर्य बहुत बढ़ गया है। कविता में समाहित अनुभूतिमयता को महसूस करके ऐसा लगता है, मानो अनुभूति वाणी का माध्यम लेकर व्यक्त होना चाहती है।
सम्पूर्ण कविता में मनोहर, प्राञ्जल और सुकुमार कल्पना का सम्यक् समन्वय देखने को मिलता है। यथा-
“चाँदी के सीपों की झलमत नाचती रश्मियाँ जल में चल रेखाओं-सी खिंच तरल सरल।
लहरों की कविताओं में खिल, सौ-सौ शशि सौ-सौ उड्डु झिल-मिल फूले-फूले जल में फेनिल।
कविता के अन्त में दार्शनिकता के पुट से कविता में रस भरा अवश्य होता है, लेकिन काव्य सौन्दर्य को क्षति नहीं पहुँचती, बल्कि पाठक को विचार करने के लिए सामग्री छोड़ जाती है। कविता की भाषा प्रौढ़ और उसमें शब्द-चित्रों की अधिकता है। संस्कृत के तत्सम शब्दों की बहुलता के कारण भाषा प्रौढ़ हो गयी है। कहीं-कहीं ध्वन्यात्मक शब्दों का भी प्रयोग किया गया है, जैसे झलमल, रलमल आदि। साथ ही इसमें रहस्यवादी भावनाओं से तथा दार्शनिक कल्पनाओं से प्रकृति का श्रृंगार हुआ है। नवीन और प्राचीन उपमाओं के प्रयोग से इस कविता की भावव्यंजकता और प्रभावोत्पादकता अधिक बढ़ गयी है। भाव और कला के समायोजन द्वारा कवि ने ऐसे अनेक संश्लिष्ट चित्र प्रस्तुत किये हैं, जो श्लाघनीय हैं।
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