प्रकृतिवादी शिक्षा में अनुशासन एवं शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्धों की विवेचना कीजिए ।
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प्रकृतिवादी शिक्षा में अनुशासन
प्रकृतिवादी शिक्षा में अनुशासन एवं शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्ध- प्रकृतिवादी आत्मा के आध्यात्मिक स्वरूप को स्वीकार नहीं करते, ये उसे एक पदार्थजन्य क्रियाशील तत्त्व मानते हैं। इनके अनुसार प्राकृतिक ‘स्व’ से शासित होना ही सच्चा अनुशासन है। इस अनुशासन की प्राप्ति के लिए ये किसी भी बाहरी हस्तक्षेप का विरोध करते हैं। ये न तो दण्ड व्यवस्था में विश्वास करते हैं और न शिक्षक द्वारा प्रभाव डालने की क्रिया में इनका तर्क है कि दण्ड से बच्चों की मूल प्रवृत्तियों का दमन होता है और उनके व्यक्तित्व का विकास सही रूप में नहीं हो पाता। शिक्षक द्वारा प्रभाव डालने को भी ये अच्छा नहीं समझते। इनका तर्क है कि इस प्रकार बच्चे शिक्षक के अच्छे-बुरे सभी गुण ग्रहण कर लेते हैं। कुछ प्रकृतिवादियों का विश्वास है कि प्रकृति स्वयं एक शिक्षिका है जो मनुष्य को अनुशासन की शिक्षा भी देती है। जब मनुष्य कोई दुष्कर्म करता है तो प्रकृति स्वयं उसे दण्ड देती है। रूसो के अनुसार अनुशासन की स्थापना बच्चों की गलतियों के प्राकृतिक परिणामों द्वारा ही होनी चाहिए। इस प्रकार रूसो प्राकृतिक दण्ड व्यवस्था में विश्वास रखते थे।
हरबर्ट स्पेन्सर भी प्राकृतिक दण्ड व्यवस्था में विश्वास रखते थे। इनका विचार था कि जिस कार्य को करने में मनुष्य को सुख मिलता है उसे वह स्वीकार करता चलता है और जिस कार्य को करने में उसे कष्ट होता है उसे त्यागता चलता है। स्पेन्सर का यह सिद्धान्त सुख-दुःख के सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है। इनका तर्क था कि प्रकृति मनुष्य के कार्यों के लिए उसे सुख-दुःख प्रदान करती है।
हक्सले ने रूसो और स्पेन्सर के इन विचारों का विरोध किया और कहा कि प्रकृति द्वारा उचित अनुशासन की कल्पना नहीं करनी चाहिए। इनके अनुसार प्रकृति की दण्ड व्यवस्था बड़ी कठोर और तर्कविहीन है। प्रकृति अज्ञान से की गई गलती और जानबूझ कर की गई गलती पर एकसा दण्ड देती है। उसके यहाँ असमर्थता और अपराध दोनों के लिए एक ही दण्ड होता है। ओले बरसते समय आप चाहे किसी सुकृत्य के लिए घर से बाहर निकलें और चाहे किसी कुकृत्य के लिए, दोनों ही दशा में प्रकृति आपका सर फोड़ देगी। अतः अनुशासन सम्बन्धी यह विचारधारा किसी को भी मान्य नहीं होनी चाहिए। हक्सले के अनुसार हमें बच्चों को अपना स्वाभाविक विकास करने की स्वतन्त्रता तो देनी चाहिए पर इसके साथ-साथ उन्हें कुछ उत्तरदायित्वों से भी लाद देना चाहिए, तभी उनका व्यवहार सन्तुलित हो सकता है।
शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्ध
रूसो शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक को कोई महत्त्व नहीं देते थे। इनका कहना था कि शिक्षक तो दूषित समाज का ही एक अंग होता है, उससे बच्चों के सुधार की आशा नहीं की जा सकती। ये बच्चों को प्रकृति की गोद में रखकर उनके स्वतन्त्र विकास करने के पक्ष में थे। इस प्रकार ये प्रकृति को ही शिक्षक मानते थे। परन्तु इनकी इस बौखलाहट से तो कोई भी सहमत नहीं हो सकता। जीवविज्ञानवादी प्रकृतिवादी बच्चे की प्रकृति को महत्त्व देते हैं। इनके अनुसार प्रत्येक बच्चे में कुछ मूल प्रवृत्तियाँ होती हैं और उसका विकास इन्हीं मूल प्रवृत्तियों पर निर्भर करता है। इस दृष्टि से बच्चों में इतनी भिन्नता होती है कि शिक्षक सभी बच्चों को एक-सा नहीं बना सकते। अतः शिक्षक के लिए यह आवश्यक है कि वह बच्चों को अपनी रुचि, रुझान, योग्यता एवं आवश्यकताओं के अनुसार विकास करने के लिए पर्यावरण तैयार करे, सीखेंगे तो वे स्वयं करके और स्वयं अपने अनुभवों के द्वारा। इस प्रकार प्रकृतिवादी शिक्षक को ज्ञान देने वाला नहीं अपितु बच्चों के लिए यथा पर्यावरण तैयार करने वाला मानते हैं। प्रकृतिवादी शिक्षक से इतनी ही आशा करते हैं कि वह बच्चों के स्वाभाविक विकास में सहायक हो ।
प्रकृतिवादी बालक को शिक्षा का केन्द्र मानते हैं। बच्चा शिक्षा ग्रहण करने के लिए पैदा नहीं होता अपितु उसका विकास करने के लिए शिक्षा का निर्माण किया जाता है। फिर, सभी बच्चे समान नहीं होते। वे छोटे प्रौढ़ भी नहीं होते जो उन्हें प्रारम्भ से ही प्रौढ़ों का सा ज्ञान दिया से जा सके। प्रकृतिवादी बच्चे की प्रकृति-उसकी मूल प्रवृत्तियों, रुचि, रुझान, योग्यताओं और आवश्यकताओं का पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं और बच्चे को वही सिखाते हैं जिसके कि वह योग्य है और जिसके सीखने में वह रुचि दिखाता है।
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