व्यावसायिक अर्थशास्त्र / BUSINESS ECONOMICS

ब्याज का तरलता पसन्दगी सिद्धान्त | Liquidity Preference Theory of Interest in Hindi

ब्याज का तरलता पसन्दगी सिद्धान्त | Liquidity Preference Theory of Interest in Hindi
ब्याज का तरलता पसन्दगी सिद्धान्त | Liquidity Preference Theory of Interest in Hindi

ब्याज के तरलता पसंदगी सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। Explain critically the liquidity preference theory of Interest.

ब्याज का तरलता पसन्दगी सिद्धान्त (Liquidity Preference Theory of Interest)

ब्याज के तरलता पसंदगी सिद्धान्त का प्रतिपादन लार्ड जॉन मेनार्ड कीन्स ने किया है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘रोजगार, व्याज और द्रव्य का सामान्य सिद्धान्त’ में इस सिद्धान्त का उल्लेख किया है। लार्ड कीन्स के अनुसार ब्याज एक विशुद्ध मौद्रिक घटना है। इसका कारण यह है-प्रथम, ब्याज दर की गणना मुद्रा के रूप में की जाती है और द्वितीय, ब्याज की दर का निर्धारण मुद्रा की माँग एवं मुद्रा की पूर्ति के द्वारा होता है।

कीन्स के अनुसार, ब्याज बचत का पुरस्कार न होकर तरलता पसंदगी के परित्याग का पुरस्कार है। उनके शब्दों में, “ब्याज एक निश्चित अवधि के लिए तरलता के परित्याग का पुरस्कार है।” लोगों को नकदी के रूप में अपनी आय को रखने की प्रवृत्ति को त्यागने के लिए उन्हें कुछ न कुछ पुरस्कार अवश्य ही देना होगा। इस तरलता पसंदगी के परित्याग के लिए दिए जाने वाले पुरस्कार को ही कीन्स ने ब्याज कहा है। यदि लोगों में अपनी आय को नगदी के रूप में रखने की प्रवृत्ति अधिक है तो ब्याज की दर ऊँची होगी, जिससे लोग ऊँची ब्याज के में अपनी नगदी का परित्याग करने के लिए तैयार हो जायेंगे। इसके विपरीत यदि लोगों में लालच अपनी आय को तरल या नगदी के रूप में रखने की प्रवृत्ति कम है तो ब्याज की दर भी कम हो जायेगी।

कीन्स के अनुसार जिस प्रकार वस्तु का मूल्य उसकी माँग एवं पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों द्वारा निर्धारित होता है, ठीक उसी प्रकार ब्याज की दर का निर्धारण भी मुद्रा की माँग एवं पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों द्वारा होता है। मुद्रा में माँग लोग अपनी आय को तरल रूप में रखने के लिए करते हैं, जबकि मुद्रा की पूर्ति एक समय विशेष में अर्थव्यवस्था में उपलब्ध मुद्रा की मात्रा से होती है। जहाँ माँग व पूर्ति बराबर होती हैं वहीं ब्याज दर का निर्धारण होता है।

मुद्रा की माँग (Demand of Money)

कीन्स के अनुसार मुद्रा की माँग का अर्थ लोगों द्वारा अपनी आय को नगदी के रूप में रखने से है। लोग मुद्रा की माँग तीन उद्देश्यों के लिए करते हैं-

(1) लेन-देन के उद्देश्य – व्यक्ति अपनी आय का एक भाग दैनिक आवश्यकता की वस्तुओं को खरीदने के लिए नकदी के रूप में रखना चाहता है। इसे ही लेन-देन के उद्देश्य से की गयी मुद्रा की माँग कहा जाता है। लेन-देन के उद्देश्य से मुद्रा की माँग ब्याज दर से प्रभावित नहीं होती।

(2) सावधानी उद्देश्य — लोग अपनी आय का एक भाग आकस्मिक रूप से आने वाले संकटों; जैसे बीमारी, दुघर्टना, बेरोजगारी, मृत्यु, मुकदमा आदि से सुरक्षा प्राप्त करने के लिए नकदी के रूप में रखते हैं। यह लोगों की आय पर निर्भर होता है तथा ब्याज दर से प्रभावित नहीं होता है ।

(3) सट्टा उद्देश्य – कीन्स के अनुसार लोग अपनी आय का एक भाग नगदी के रूप में इसलिए भी रखते हैं कि पूँजी बाजार में आये उतार-चढ़ाव से लाभ कमा सकें। नकदी के रूप में मुद्रा की इस माँग को सट्टा उद्देश्य के लिए तरलता की माँग कहते हैं। बॉण्डों एवं प्रतिभूतियों को खरीदने से लोगों को ब्याज मिलता है। लोग इस आशा से कि भविष्य में इनके मूल्य बढ़ेंगे, इन्हें वर्तमान में ही अपनी नगदी आय से खरीद लेते हैं। परन्तु जब वे अनुभव करते हैं कि भविष्य में बॉण्डों और प्रतिभूतियों की कीमतें गिर जायेंगी तो वे इन्हें वर्तमान में ही बेचकर अपनी आय को नकदी के रूप में रखना चाहते हैं। अतः सट्टा उद्देश्य के लिए नकदी की माँग ब्याज की दरों में होने वाले परिवर्तनों पर निर्भर होती है।

मुद्रा की पूर्ति (Supply of Money)

मुद्रा की कुल पूर्ति के अन्तर्गत मुद्रा के सिक्के तथा साख मुद्रा सभी को सम्मिलित किया जाता है। मुद्रा की पूर्ति देश के मुद्रा अधिकारी अथवा देश के केन्द्रीय बैंक द्वारा की जाती है।

कीन्स के अनुसार एक निश्चित समय अवधि में मुद्रा की पूर्ति स्थिर रहती है। अतः मुद्रा की पूर्ति रेखा एक खड़ी रेखा होती है। मुद्रा की पूर्ति एवं वस्तु की पूर्ति में एक महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि जहाँ मुद्रा की पूर्ति एक स्टाक है, वहीं वस्तु की पूर्ति एक प्रवाह होती है। मुद्रा की पूर्ति ब्याज की दर को प्रभावित करती है; किन्तु ब्याज की दर मुद्रा की पूर्ति को प्रभावित नहीं करती। उसका कारण यह है कि मुद्रा की पूर्ति सरकार के नियन्त्रण में होती है। यह एक निश्चित अवधि में स्थिर रहती है।

ब्याज की दर का निर्धारण (Determination of Interest Rate)

ब्याज की दर उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ पर द्रव्य की माँग रेखा तथा द्रव्य की पूर्ति रेखा एक-दूसरे को काटती हैं।

रेखाचित्र में मुद्रा की माँग का वक्र LP मुद्रा की पूर्ति के वक्र MM को A बिन्दु पर काटता है। अतः ब्याज की दर OR निर्धारित होगी। मुद्रा की पूर्ति स्थिर रहने पर यदि तरलता पसंदगी बढ़ जाती है तो ब्याज दर बढ़ जायेगी। इसके विपरीत तरलता पसंदगी कम हो जाने पर ब्याज दर भी कम हो जायेगी।

सिद्धान्त की आलोचनाएँ (Criticism)

(1) पूँजी की उत्पादकता पर ध्यान नहींकीन्स का सिद्धान्त द्रव्य की माँग के अन्तर्गत पूँजी की उत्पादकता पर ध्यान नहीं देता, यह उचित नहीं है। द्रव्य की माँग केवल द्रव्य को नकद रूप में रखने के लिए नहीं की जाती बल्कि उत्पादक द्रव्य की माँग पूँजीगत वस्तुओं में विनियोग करने के लिए भी करते हैं। चूँकि पूँजी में उत्पादकता होती है अतः माँग पक्ष में पूँजी की उत्पादकता पर विचार न करना सही नहीं है।

(2) एकपक्षीय एवं अपर्याप्त— यह सिद्धान्त एकपक्षीय एवं अपर्याप्त है, क्योंकि यह ब्याज निर्धारण में केवल माँग पक्ष को ही महत्व देता है। कीन्स तो द्रव्य की पूर्ति को एक स्वतंत्र परिवर्तनशील तत्व मान लेते हैं। किसी समय पर द्रव्य की पूर्ति मौद्रिक अधिकारी द्वारा निर्धारित होती है। इस प्रकार द्रव्य की पूर्ति बाहरी शक्ति द्वारा निश्चित होती है।

(3) आपातकालीन निर्धारण – यह सिद्धान्त केवल अल्पकाल में ब्याज निर्धारण को बताता है। यह व्याज निर्धारण की दीर्घकालीन शक्तियों पर प्रकाश नहीं डालता।

(4) अनिर्धारण दर— कीन्स के सिद्धान्त की सबसे महत्वपूर्ण तथा गम्भीर आलोचना यह है कि इस सिद्धान्त के अनुसार ब्याज की दर अनिर्धारणीय है।

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Anjali Yadav

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