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राष्ट्रीय आन्दोलन का शिक्षा पर प्रभाव (1905-1921) | राष्ट्रीय शिक्षा की माँग | राष्ट्रीय शिक्षा के सिद्धान्त | राष्ट्रीय शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना

राष्ट्रीय आन्दोलन का शिक्षा पर प्रभाव (1905-1921) | राष्ट्रीय शिक्षा की माँग | राष्ट्रीय शिक्षा के सिद्धान्त | राष्ट्रीय शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना
राष्ट्रीय आन्दोलन का शिक्षा पर प्रभाव (1905-1921) | राष्ट्रीय शिक्षा की माँग | राष्ट्रीय शिक्षा के सिद्धान्त | राष्ट्रीय शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना

राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन से आप क्या समझते हैं ? राष्ट्रीय आन्दोलन का शिक्षा पर क्या प्रभाव पड़ा ? विवेचना कीजिए।

राष्ट्रीय आन्दोलन का शिक्षा पर प्रभाव (1905-1921) [Effect on Education of National Movement (1905-1921)]

1857 ई० का स्वतन्त्रता संग्राम भारतीय राष्ट्रीयता के अंकुर का प्रथम प्रस्फुटन था। 1885 ई० में ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई और उसके फलस्वरूप राष्ट्रीयता के जल से सिंचित होकर वह अंकुर परिपल्लवित होने लगा। 1905 ई० में बंगाल के विभाजन ने उसे वास्तविक रूप प्रदान किया। इसी वर्ष कोलकाता में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ जिसमें ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध स्वतन्त्रता आन्दोलन प्रारम्भ करने का निश्चय किया गया। इस आन्दोलन के चार मुख्य अंग थे-

  1. स्वराज्य की प्राप्ति,
  2. विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार,
  3. स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग और
  4. राष्ट्रीय शिक्षा की माँग ।

राष्ट्रीय शिक्षा की माँग (Demand of National Education)

1905 ई० के बंगाल-विभाजन ने राष्ट्रीय आन्दोलन एवं ‘राष्ट्रीय शिक्षा की माँग’ को गति प्रदान की। ज्यों-ज्यों राष्ट्रीय आन्दोलन तेज होता गया त्यों-त्यों शिक्षा के राष्ट्रीयकरण तथा स्वदेशीकरण की माँग बढ़ती गयी और भारत के कोने-कोने में भारतीय शिक्षा के अंग्रेजीकरण का विरोध होने लगा। महात्मा गांधी और श्रीमती एनी बेसेण्ट ने भारतीय शिक्षा के अंग्रेजीकरण की प्रबल आलोचना की।

महात्मा गांधी ने ‘यंग इण्डिया’ पत्र में एक लेख प्रकाशित कराया जिसमें भारतीय शिक्षा के विदेशी स्वरूप की घोर निन्दा की गई। महात्मा गांधी ने इस शिक्षा के चार प्रमुख दोष बताये, जो निम्न हैं-

  1. यह शिक्षा अन्यायपूर्ण शासन से सम्बन्धित है।
  2. इस शिक्षा में भारतीय संस्कृति को कोई स्थान नहीं है और यह विदेशी संस्कृति पर आधारित है।
  3. इस शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य मस्तिष्क का विकास है वह हृदय को प्रभावित नहीं करती। उसमें हस्त-कार्यों हेतु कोई स्थान नहीं है।
  4. इस शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा है जो एक विदेशी भाषा होने के कारण वास्तविक ज्ञान प्रदान नहीं कर सकती।

श्रीमती एनी बेसेण्ट ने भारतीय शिक्षा के अंग्रेजीकरण की तीखी आलोचना की और राष्ट्रीय शिक्षा की माँग की। उन्होंने कहा- ‘राष्ट्रीय जीवन और राष्ट्रीय चरित्र को अधिक शीघ्रता और निश्चित रूप में निर्बल बनाने के लिए इससे अधिक उत्तम उपाय और कोई नहीं हो सकता है कि बालकों की शिक्षा पर विदेशी प्रभावों और विदेशी आदर्शों का प्रभुत्व हो ।’

राष्ट्रीय शिक्षा के सिद्धान्त अथवा विशेषताएँ (Theories or Features of National Education)

भारतीय राष्ट्रनायकों और शिक्षाविदों ने भारत में जिस राष्ट्रीय शिक्षा की माँग की उसके प्रमुख सिद्धान्तों अथवा विशेषताओं का उल्लेख निम्नवत् किया जा रहा है-

(1) भारतीय नियन्त्रण- भारत के राष्ट्रीय नेता और राष्ट्रप्रेमी शिक्षाविदों ने भारतीय शिक्षा पर विदेशी नियन्त्रण को पूर्णतया अनुचित कहा। उन्होंने यह माँग की कि शिक्षा पर भारतीयों का पूर्ण नियन्त्रण होना चाहिए। इस सम्बन्ध में श्रीमती एनी बेसेण्ट ने अत्यन्त स्पष्ट – शब्दों में कहा- ‘भारतीय शिक्षा – भारतवासियों द्वारा नियंत्रित, भारतवासियों द्वारा निर्मित और भारतवासियों द्वारा संचालित की जानी चाहिए।’

(2) शिक्षा के आदर्श- राष्ट्रीय शिक्षा के आदर्श राष्ट्र के प्रति प्रेम और धार्मिक भावना का विकास होना चाहिए। श्रीमती एनी बेसेण्ट ने राष्ट्रीय शिक्षा के आदर्शों को स्पष्ट करते हुए कहा- ‘भारतीय शिक्षा को भक्ति, ज्ञान एवं नैतिकता के भारतीय आदर्श प्रस्तुत करने चाहिए और उसमें भारतीय धार्मिक भावना का समावेश होना चाहिए।’

(3) मातृभूमि के प्रति प्रेम- तत्कालीन भारतीय शिक्षा प्रणाली के अन्तर्गत राजभक्ति की शिक्षा दी जाती थी। राष्ट्रीय नेताओं ने राष्ट्रीय शिक्षा सिद्धान्तों के अन्तर्गत ऐसी प्रणाली विकसित करने का सुझाव दिया जो मातृभूमि के प्रति प्रेम उत्पन्न करे। श्रीमती एनी बेसेण्ट ने कहा कि छात्रों को इस प्रकार की शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए जिससे उनमें मातृभूमि के प्रति प्रेम और आदर का भाव उत्पन्न हो ।

(4) राष्ट्रीय चरित्र का विकास- राष्ट्रवादी नायकों ने यह मत व्यक्त किया कि तत्कालीन शिक्षा-व्यवस्था राष्ट्रीय चरित्र का विकास करने में सक्षम नहीं है। इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए जो राष्ट्रीय चरित्र का विकास करने में सक्षम हो। श्रीमती एनी बेसेण्ट ने राष्ट्रीय शिक्षा पर बल देते हुए यह कहा- ‘राष्ट्रीय शिक्षा को राष्ट्रीय चरित्र का विकास करना चाहिए।’

(5) भारतीय भाषाओं पर बल- भारत के नेताओं ने यह कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा में भारतीय भाषाओं के अध्ययन पर बल देकर इन्हीं भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया जाना चाहिए।

(6) ब्रिटिश आदर्शों की समाप्ति- तत्कालीन शिक्षा भारतवासियों के सम्मुख ब्रिटिश आदर्शों को प्रस्तुत करती थी। राष्ट्रनायकों का यह विचार था कि यह आदर्श भारतीयों के लिए अहितकर है। अतएव उन्होंने इस शिक्षा का विरोध किया और भारतीयों के लिए भारतीय आदर्शों को उपयुक्त बताया। श्रीमती एनी बेसेण्ट ने स्पष्ट किया- ‘ब्रिटिश आदर्श, ब्रिटेन के लिए अच्छे हैं, किन्तु भारत के लिए भारत के आदर्श ही अच्छे हैं।’

(7) व्यावसायिक शिक्षा पर बल- भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन की एक प्रमुख विशेषता स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग थी। स्वदेशी वस्तुओं का निर्माण पर्याप्त मात्रा में तभी हो सकता था जबकि भारतीय उद्योगों को बढ़ावा मिले। भारतीय उद्योगों को बढ़ावा देने और स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग हेतु व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था आवश्यक था राष्ट्रीय नेताओं का यह भी विचार था कि देश की आर्थिक समस्या और भारतीयों की निर्धनता को दूर करने के लिए भी व्यावसायिक शिक्षा आवश्यक है। इसी कारण उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा में औद्योगिक एवं व्यावसायिक शिक्षा की समुचित व्यवस्था पर बल दिया।

(8) पाश्चात्य ज्ञान पर बल- यह ठीक है कि राष्ट्रीय शिक्षा के अन्तर्गत भारतीय आदर्शों और भारतीय भाषाओं पर बल दिया गया परन्तु साथ ही राष्ट्रीय शिक्षा के समर्थकों का यह भी विश्वास था कि आधुनिक वैज्ञानिक युग में भारत का अन्य देशों से सम्पर्क होना आवश्यक था और इस कारण उन्होंने इस बात पर बल दिया कि भारतीय छात्रों को पाश्चात्य ज्ञान और विज्ञानों का अध्ययन अनिवार्य रूप से करना चाहिए। लाला लाजपत राय का विचार था- ‘मेरे विचार से भारत में यूरोपीय भाषाओं, साहित्यों और विज्ञानों के अध्ययन को प्रोत्साहित न करने का प्रयास मूर्खता और पागलपन होगा।’

राष्ट्रीय शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना (Eastablishment of National Educational Institution)

1905 ई० में बंगाल-विभाजन की घोषणा की गयी। इस घोषणा के फलस्वरूप समस्त भारत में असंतोष की लहर उत्पन्न हो गयी। भारतीय विद्यार्थियों ने अपने असंतोष को व्यक्त करने हेतु सभायें कीं और जूलूस निकाले। उन्होंने बंगाल विभाजन की तीखी आलोचना की। कठोर अनुशासन में विश्वास करने वाले कर्जन के लिए उनके ये कार्य असह्य थे। कर्जन ने बंगाल विभाजन का विरोध करने वाले नेताओं पर दमन-चक्र चलाया और छात्रों को राजनीति से अलग रहने की आज्ञा दी। उसने स्पष्ट रूप से यह घोषित किया कि उसकी आज्ञा का उल्लंघन करने वाले विद्यार्थियों को शिक्षा संस्थाओं से निकाल दिया जायेगा। विद्यार्थियों ने उसके आदेशों की अवहेलना करते हुए शिक्षा संस्थाओं का बहिष्कार किया।

देश के प्रति प्रेम रखने वाले उत्साही विद्यार्थियों ने शिक्षा का समुचित प्रबन्ध करना अपना राष्ट्रीय कर्त्तव्य माना। फलस्वरूप भारत के विभिन्न भागों में राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की गयी। इस कार्य का नेतृत्व बंगाल ने किया। बंगाल में श्रीगुरुदास बनर्जी की अध्यक्षता में ‘राष्ट्रीय शिक्षा प्रसार समिति’ (National Education Expansion Committee) का गठन किया गया जिसने सम्पूर्ण बंगाल में 51 हाईस्कूलों का नवनिर्माण किया। रवीन्द्रनाथ टैगोर, रास बिहारी बोस तथा अरविन्द घोष के प्रयासों के फलस्वरूप ‘नेशनल कॉलेज’ की स्थापना की गयी।

‘राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन’ जितनी तेजी से प्रारम्भ हुआ उतनी तेजी से आगे नहीं बढ़ सका। 1911 ई० में ‘बंगाल विभाजन’ की समाप्ति की घोषणा कर दी गयी और इसके साथ ही राष्ट्रीय शिक्षा के प्रति उत्साह समाप्त हो गया। परिणाम यह हुआ कि राष्ट्रीय शिक्षा की लगभग सभी संस्थायें बिखरने लगीं, परन्तु 1920 ई० में समय ने फिर करवट बदला। ‘माण्टेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार’ से निराश होकर महात्मा गांधी ने ‘असहयोग आन्दोलन’ प्रारम्भ किया। उन्होंने अपने देशवासियों से स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना और निर्माण का आह्वान किया। परि यह हुआ कि सभी प्रान्तों में ‘राष्ट्रीय विद्यालयों’ की स्थापना हुई। इनमें प्रमुख थे- ‘बंगाल राष्ट्रीय विश्वविद्यालय’, ‘काशी विद्यापीठ’, ‘बिहार विद्यापीठ’ और ‘गुजरात विद्यापीठ’ तथा ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ ।

महात्मा गांधी का ‘असहयोग आन्दोलन’ चल रहा था कि फरवरी, 1922 ई० में एक हिंसात्मक घटना हो गयी। 1922 ई० में चौरी-चौरा नामक स्थान पर इस आन्दोलन ने हिंसात्मक रूप धारण कर लिया। महात्मा गांधी को जब यह समाचार मिला तो वे अत्यन्त व्यथित हो गए और उन्होंने अपना ‘असहयोग आन्दोलन’ स्थगित कर दिया। इसके परिणामस्वरूप ‘राष्ट्रीय शिक्षा – आन्दोलन’ को धक्का लगा तथा वह लगभग लुप्त हो गया। इस बात पर हर्ष-विषाद व्यक्त करते हुए डॉ० एस० एन० मुकर्जी ने स्पष्ट कहा- ‘यह राष्ट्रीय शिक्षा के लिए प्रथम संगठित आन्दोलन था, परन्तु यह बहुत समय तक जीवित नहीं रहा।’

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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