शिक्षाशास्त्र / Education

रूसो की निषेधात्मक शिक्षा | Rousseau’s prohibitive education in Hindi

रूसो की निषेधात्मक शिक्षा | Rousseau's prohibitive education in Hindi
रूसो की निषेधात्मक शिक्षा | Rousseau’s prohibitive education in Hindi

रूसो की निषेधात्मक शिक्षा पर प्रकाश डालिए।

निषेधात्मक शिक्षा

बाल्यकाल में नैतिक, बौद्धिक एवं शारीरिक प्रशिक्षण के लिए रूसो निषेधात्मक शिक्षा का समर्थक है। वह कहता है— “मैं निषेधात्मक शिक्षा उसे कहता हूँ जो ज्ञान देने से पूर्व ज्ञान ग्रहण करने वाले अंगों को दृढ़ बनाती है। निषेधात्मक शिक्षा का तात्पर्य सुस्ती का समय नहीं, वरन् उसके बिल्कुल विपरीत है। यह किसी प्रकार के सद्गुण प्रदान नहीं करती वरन् भूलों से बालकों को बचाती है। वह बालक को सत्य की ओर जाने के लिए उस समय प्रेरित करती है जबकि बालक इसे समझ लेने की अवस्था प्राप्त कर लेता है तथा गुणों को ग्रहण करने की प्रेरणा तब देती है जब बालक अच्छाई-बुराई पहचानने एवं उसके प्रति प्रेम अथवा घृणा की क्षमता प्राप्त कर लेता है।” अतः रूसो के अनुसार प्रारम्भिक शिक्षा हमेशा निषेधात्मक होनी चाहिए। रूसो का कहना है कि बालक सदैव सक्रिय रहे ताकि उनके हाथ, पैर, कान, आँखें आदि अंग मजबूत हो जायें, क्योंकि इन्हीं की सहायता से बालक अनुभवों द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है अर्थात् ये ही बालक के प्रथम शिक्षक हैं। निषेधात्मक शिक्षा के अन्तर्गत अग्नलिखित बातों का विशेष महत्त्व है—

1. पुस्तकीय शिक्षा का विरोध– रूसो ने बालको के लिए पुस्तक को आहितकर बताया। है। वह कहता है— “पुस्तकें बालक और वस्तुओं के बीच में व्यवधान डालती हैं और उसे अनुभव द्वारा सीखने नहीं देती।” उसके अनुसार बालक स्वभावतः खेल तथा ज्ञानेन्द्रियों के प्रयोग द्वारा ही सीख लेगा। इस प्रकार वह पुस्तकीय ज्ञान को बालकों के लिए भारस्वरूप मानता है।

2. समय बचाने की शिक्षा का निषेध – रूसो के अनुसार समय का सदुपयोग की अपेक्षा समय खोने की शिक्षा देना अधिक श्रेयस्कर है। समय बचाने के लिए वह बालकों को उपदेश देकर कुछ सिखाने के पक्ष में नहीं है। उनका कहना है कि यदि बालक दिन भर खेलता रहे तो चिन्तित होने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि वह अपने अनुभवों का निरन्तर पुनर्निर्माण ही तो कर रहा है, फिर इससे अच्छी शिक्षा और क्या हो सकती है?

3. बौद्धिक ज्ञान की अवहेलना— बौद्धिक शिक्षा के क्षेत्र में निषेधात्मक शिक्षा का तात्पर्य बालक को किसी प्रकार का निर्देशन देना है। रूसो तत्कालीन शिक्षा पद्धति को बदलना चाहता था जो केवल बौद्धिक विकास की ओर ध्यान देती थी तथा अन्य व्यक्तियों के विकास की अवहेलना करती थी। रूसो के अनुसार, इस काल में बालक के मस्तिष्क को ढलने अथवा प्रेरित करने का कोई प्रयास न किया जाये, क्योंकि बाल्यावस्था तो तर्क के सोने का समय है।

4. आदतों का बहिष्कार– बालक को किसी भी प्रकार की आदत का दास नहीं होने देना चाहिए। वह कहता है कि कोई भी आदत न डालना ही उसकी एकमात्र आदत होगी।” “The only habit of Emile will be allowed to form is to contract no habit at all.”

5. शिक्षक की आवश्यकता- रूसो को बालक के नैसर्गिक विकास में शिक्षक का हस्तक्षेप करना सही नहीं लगता था। शिक्षक के प्रति रूसो का कथन है – “अपने शिष्य को शाब्दिक पाठ न पढ़ाकर उसे यथासम्भव क्रिया द्वारा शिक्षा दीजिए। जब क्रिया द्वारा शिक्षण प्रायः असम्भव हो तभी शब्दों का सहारा लिया जाये।” रूसो बालक को शिक्षक के लिए एक पुस्तक मानता है, जिसका गहन अध्ययन ही उसका मुख्य कार्य है। वह बालक के लिए शिक्षा में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है तथा उसे स्वेच्छानुसार कार्य करने का अवसर प्रदान करता है।

6. प्रचलित मान्यताओं का विरोध- रूसो ने कहा है कि शिक्षा में जितनी प्रचलित रूढ़ियाँ हैं, उनके विपरीत काम करो, तभी तुम सदा ठीक कार्य पर चल सकोगे।

7. प्रत्यक्ष नैतिक सिद्धान्तों का अभाव- रूसो बालकों को केवल एक ही उपदेश हैं कि “किसी को कष्ट मत दो।” इसके अतिरिक्त वह बालक को किसी प्रकार का उपदेश देने के पक्ष में नहीं हैं। उनका कहना है कि अनुकरणीय कार्यों के परिणाम ही उसे सही मार्ग दिखा सकेंगे अर्थात् यदि बालक आग में हाथ डालता है तो डालने दो। जलने पर जान जायेगा कि भविष्य में ऐसा नहीं करना चाहिए। इस प्रकार से प्राप्त की हुई शिक्षा उसके लिए स्थायी और लाभप्रद सिद्ध होगी। इसीलिए वह कहता है कि धर्म और नैतिकता का भार बालक पर मत डालो, अवसर आने पर वह उसे स्वयं सीख लेगा।

8. सामाजिक सम्बन्धों की उपेक्षा- रूसो अपने समकालीन समाज में प्रचलित कुरीतियों से बालक की रक्षा करना चाहता है। इसीलिए उसने एमील की शिक्षा की व्यवस्था समाज से दूर एकान्त में की थी। वह बालक को उस समय तक समाज में प्रवेश करने की आज्ञा नहीं देना चाहता जब तक कि बालक का ज्ञान परिपक्व नहीं हो जाता। उसका विचार था कि बालक की कोमल भावनाओं पर प्रभाव डालकर समाज उसे नष्ट कर देता है। अतः बालक को समाज से दूर रखना चाहिए।

9. शारीरिक शिक्षा – शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में निर्बाध शिक्षा का तात्पर्य यही है कि बालक स्वतन्त्र रूप से खेले, विचारे, कार्य करे, सादा भोजन करे, साधारण कपड़े पहने। वह स्वास्थ्य सम्बन्धी कृत्रिम उपचार का पक्षपाती नहीं है। वह चाहता है कि बालक को खुली वायु में विचरण करने एवं ज्ञानेन्द्रियों को विकसित होने का अवसर मिले।

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Anjali Yadav

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