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शैक्षिक पर्यवेक्षण के कार्य | Functions of Educational Supervision in Hindi

शैक्षिक पर्यवेक्षण के कार्य | Functions of Educational Supervision in Hindi
शैक्षिक पर्यवेक्षण के कार्य | Functions of Educational Supervision in Hindi

शैक्षिक पर्यवेक्षण के विभिन्न कार्यों का वर्णन कीजिए।

शैक्षिक पर्यवेक्षण के कार्य (Functions of Educational Supervision)

कार्यों को उचित गति ही उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक होती है। शैक्षिक पर्यवेक्षण के कार्य भी ऐसे ही होते हैं, जो शैक्षिक उन्नति के लिए सहायक होते हैं। जो काम करने योग्य होते हैं, इन्हें ही ‘कार्य’ कहा जाता है। अतएव कार्यों के अभाव में या कार्यों की गति रुक जाने से छोटा या बड़ा किसी प्रकार का संगठन या प्रशासन असफल ही हो जाता है। शैक्षिक पर्यवेक्षण के कतिपय प्रमुख कार्यों का उल्लेख निम्नलिखित पंक्तियों में किया जा रहा है-

  1. नेतृत्व प्रदान करना (To provide Leadership),
  2. नीति निर्धारण (To formulate policies)
  3. सम्बन्धित व्यक्तियों की कार्यक्षमता में वृद्धि (To Improve the Efficiency of the Personnel),
  4. मानवीय सम्बन्धों में सुधार (Improvement in Human Relationship),
  5. समूह के अन्तरक्रिया सम्बन्धों में सुधार (Improvement in Group Interaction),
  6. शिक्षण-अधिगम अवस्थाओं का अध्ययन (Study of Teaching-Learning Conditions),
  7. शिक्षण अधिगम अवस्थाओं में सुधार (Improvement in Teaching-Learning Conditions),
  8. शैक्षिक उत्पादन में वृद्धि (Increaserment in the Product of Education),
  9. पर्यवेक्षण में सुधार (Improvement in Supervisory Function) ।

शैक्षिक पर्यवेक्षण के उपर्युक्त कार्यों के सम्बन्ध में संक्षिप्त जानकारी निम्नलिखित पंक्तियों में दी जा रही है-

1. नेतृत्व प्रदान करना – शैक्षिक पर्यवेक्षण का प्रमुख कार्य ‘नेतृत्व’ का प्रशिक्षण समझा जाता है। जनतन्त्रात्मक देश में तो ‘नेतृत्व’ की नितान्त आवश्यकता होती है। कोई भी पर्यवेक्षण सम्पूर्ण उत्तरदायित्व का वहन स्वयं अकेला होकर नहीं करता। वह अपनी सहायता के लिए अन्य सहनेताओं का भी चयन करता है, जिससे उसके कार्य में सुविधा होती है तथा अन्य व्यक्तियों को भी ‘नेतृत्व’ करने के अवसर मिलते हैं। वर्तमान युग में प्रजातान्त्रिक सिद्धान्तों का सर्वत्र व्यापक प्रभाव दिखाई पड़ता है। प्रजातान्त्रिक पद्धति का विकास समान अवसरों को प्रदान करने तथा सभी व्यक्तियों को सम्मानित समझने में होता है। शैक्षिक पर्यवेक्षण का प्रमुख कार्य भी अपने समूह के सभी व्यक्तियों का आदर करना तथा इस प्रकार उन्हें प्रोत्साहन देना है, जिससे वे कार्यों में पूरा सहयोग प्रदान करें। इस भावना के अन्तर्गत पर्यवेक्षण केवल परामर्शदाता एवं संकलनकर्ता के रूप में होता है, अन्य सभी व्यक्ति स्वयं को नेता मानकर समय तथा परिस्थिति के अनुसार उत्तम कार्य करने के लिए अभ्यस्त हो जाते हैं। जिस समूह के कार्य केवल एक ही नेता (पर्यवेक्षक) की प्रतीक्षा में अधूरे पड़े न रहकर अन्य व्यक्तियों के सहयोग से सम्पन्न होते हैं, वह समूह ‘नेतृत्व शक्ति’ का उत्तम प्रशिक्षण देने वाला समझा जाता है।

शैक्षिक कार्यों में पूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिए विभिन्न मतों को प्रकट करने वाले एवं विभिन्न स्वभावों के व्यक्तियों को एक साँचे में ढालने का कार्य महत्वपूर्ण समझा जाता है। अनेकता में एकता, भेद में अभेद तथा बिखरी हुई शक्तियों को एकीकृत करने का महान कार्य वास्तव में ‘नेतृत्व शक्ति’ द्वारा ही किया जा सकता है। शैक्षिक पर्यवेक्षण का प्रमुख कार्य किसी एक उद्देश्य की पूर्ति के लिए सभी व्यक्तियों का सहयोग प्राप्त करना है, परन्तु यह कार्य तभी सम्भव है, जब मुख्य पर्यवेक्षक अन्य व्यक्तियों के हृदय में अपनेपन (We feeling) की भावना को सफलतापूर्वक भर देता है। इस सम्बन्ध में चेस्टर नरें (Chester T Mc-Nerney) के अनुसार-“यदि पर्यवेक्षण प्रभावकारी है, तो यह भी आवश्यक तथा पूर्णतया विश्वसनीय है कि जिन सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किसी एक अथवा कुछ व्यक्तियों पर उत्तरदायित्व सौंपा जाता है। वे अन्य व्यक्तियों को ठीक प्रकार से उत्साहित करके उनके अनुभवों का पूरा लाभ उठाते हैं और इस प्रकार शैक्षिक प्रक्रिया का उत्तम लाभ छात्र-छात्राओं को प्राप्त होता है।”

वास्तव में, “नेतृत्व” के अभाव में व्यक्तियों की अन्तर्निहित क्षमताओं का विकास सम्भव नहीं होता। कैम्पबैल तथा ग्रेग के अनुसार — “नेतृत्व ऐसी सम्पूर्ण प्रक्रिया है, जिसके द्वारा मानवीय तथा भौतिक स्रोतों को उपलब्ध किया जा सकता है तथा उन स्रोतों को किसी भी कार्य के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रभावकारी बनाया जा सकता है।”

निस्संदेह कहा जा सकता है कि सामूहिक भावना एवं प्रयास को बढ़ावा देने के लिए शैक्षिक पर्यवेक्षण का ‘नेतृत्व’ प्रदान करने का कार्य अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसी भावना के फलस्वरूप एक समूह के व्यक्ति आपस में घनिष्ठ बनते हैं एवं अपनी योग्यताओं का ठीक प्रकार परिचय देते हैं।

2. नीतियों का निर्धारण करना – शिक्षा के क्षेत्र में उचित नीतियों का निर्धारण करना शैक्षिक पर्यवेक्षण का महत्वपूर्ण कार्य है। नीति निर्धारण में यद्यपि जनता के मत को प्रमुख श्रेय दिया जाना चाहिए, किन्तु भारतवर्ष जैसे विकासशील देश में, जहाँ की जनता को अभी जनतान्त्रिक पद्धति के लिए अभ्यस्त कराया जा रहा हो, शैक्षिक नीति निर्धारण का कार्य नहीं सौंपा जा सकता। इसीलिए शैक्षिक पर्यवेक्षण का यह कार्य और भी अधिक उत्तरदायित्वपूर्ण है। शिक्षा वास्तव में एक उद्देश्य पूर्ण प्रक्रिया है। व्यक्तियों की शक्तियों एवं योग्यताओं का उचित विकास तथा समाज की आवश्यकताओं के अनुकूल ही शिक्षा प्रणाली की व्यवस्था करना शिक्षा का महान् उद्देश्य हुआ करता है। शिक्षा के उद्देश्यों एवं लक्ष्यों का निर्माण करने में तथा शिक्षा की योजना में सामाजिक आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाता है। समाज के व्यक्तियों द्वारा अनेक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की जाती है, राज्य सरकारें भी शिक्षा पर अतुलित धनराशि व्यय करती हैं एवं शिक्षण संस्थाओं में अध्यापक एवं प्रशासन शैक्षिक उन्नति के लिए पूर्ण प्रयास करते हैं, परन्तु इन सभी व्यक्तियों का प्रयास निष्फल तथा प्रभावहीन हो जाएगा, यदि शिक्षा के क्षेत्र में उचित एवं लाभकारी नीतियों को निर्धारित नहीं किया जाता।

“पर्यवेक्षण का नीति निर्धारण” करने का कार्य इतना सुनिश्चित होना चाहिए, जो किसी भी संस्था या संगठन के लिए उचित निर्देशन दे सके। उचित निर्माण करने के अभाव में न तो सुदृढ़ योजना को बनाया जा सकता है तथा न कार्यों का संचालन ठीक प्रकार से हो पाता है। योजना का निर्माण तथा कार्यान्वयन तथा मूल्यांकन का उत्तरदायित्व वस्तुतः शैक्षिक पर्यवेक्षण का ही होता है। अतः उपयोगी नीतियों को निर्धारित करने के पश्चात् हो शैक्षिक पर्यवेक्षण को अन्य कार्यों में सफलता मिल है। शैक्षिक पर्यवेक्षक का प्रथम कर्त्तव्य होना चाहिए कि वह सामुदायिक आवश्यकताओं पर ध्यान रखते हुए ही नीतियों का निर्धारण करे। वस्तुतः नीति एवं योजना का सामुदायिक आवश्यकताओं से अविच्छिन्न सम्बन्ध होता है। जैसा “बार, बर्टन तथा बुकनर” ने भी लिखा है-“नीति तथा योजना को सम्पूर्ण समुदाय की आवश्यकताओं के समीप रखा जाता है।”

नीति निर्धारण के लिए देश की जनता को जागरूक बनाने की परमावश्यकता है। शिक्षा के नवीन पहलुओं एवं नवीन उपागमों पर जनता द्वारा किया गया गहन चिन्तन शिक्षा विशारदों, शिक्षा मन्त्रियों तथा शैक्षिक पर्यवेक्षण को उत्साहित अवश्य करेगा। जिस जनता के लिए शैक्षिक नीतियों को निर्धारित किया जाता है, वह यदि शैक्षिक प्रक्रिया के महत्वपूर्ण कार्यों में भाग न ले तो यह हास्यास्पद तथा दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है। शैक्षिक पर्यवेक्षण के ‘नीति निर्धारण’ कार्य के अन्तर्गत जनता को शिक्षा के प्रति चिन्तनशील बनाना भी प्रमुख कार्य समझा जाता है।

3. व्यक्तियों की कार्यक्षमता में वृद्धि- शैक्षिक पर्यवेक्षण की सम्पूर्ण गतिविधि शिक्षकों के शिक्षण कार्य को उन्नत बनाती है। शिक्षण संस्थाओं में यद्यपि शिक्षकों के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति भी कार्य में लगे रहते हैं, फिर भी शैक्षिक पर्यवेक्षण का मुख्य कार्य शिक्षकों को परामर्श देना, शिक्षण अवस्थाओं में सुधार करना तथा शिक्षण सामग्री को उन्नत बनाना ही समझा जाता है। आधुनिक पर्यवेक्षण के अनुसार शैक्षिक पर्यवेक्षक का प्रमुख उत्तरदायित्व शिक्षकों की योग्यताओं का विकास करना माना जाता है। शिक्षक योग्य हो सकते हैं, वे शिक्षण-कौशल में भी निपुण हो सकते हैं, फिर भी किसी विद्यालय के लिए उनकी अधिकाधिक उपयोगिता क्या तथा किस प्रकार सम्भव हो सकती है, इसका सही निर्देशन शैक्षिक पर्यवेक्षण ही दे सकता है। शैक्षिक पर्यवेक्षण अध्यापकों को इस प्रकार की नेतृत्व शक्ति प्रदान करता है, जिससे वे व्यावसायिक कुशलता को प्राप्त करते हैं एवं शिक्षण संस्थाओं की दशाओं में सुधार करते हैं। फिर भी अध्यापकों में यह व्यावसायिक कुशलता एवं शिक्षण योग्यता तब तक अंकुरित नहीं होती, जब तक उसमें आत्मबोध की भावना और जिज्ञासा उत्पन्न न हो। आवश्यकता तथा जिज्ञासा के कारण व्यक्ति कुछ करने या सीखने के लिए विवश होता है। शैक्षिक पर्यवेक्षण में जिज्ञासा को अंकुरित करने का महत्वपूर्ण कार्य करता है। इस सम्बन्ध में मुरील क्रोसवे के अनुसार- “पर्यवेक्षण के मुख्य कार्यों में सर्वप्रमुख कार्य शिक्षकों की सहायता करना तथा उन्हें उनकी आवश्यकताओं का बोध कराना है जिससे वे विकास कर सकें।”

इस प्रकार उत्तम शैक्षिक पर्यवेक्षण वही होता है, जिसमें अध्यापक अधिकाधिक कार्य करते हैं अथवा जिसमें शिक्षक आलसी तथा सुस्त न होकर अधिक जागरूक रहते हैं। बार, बर्टन तथा ब्रुकनर की इस सम्बन्ध में स्पष्टोक्ति उल्लेखनीय है— “जिस पर्यवेक्षकीय कार्य में शिक्षक भाग लेते हैं, उसमें शिक्षकों की इतनी उन्नति नहीं होती, जितनी उस कार्य में, जहाँ शिक्षक क्रियाशील होते हैं तथा पर्यवेक्षक भाग लेने वाला होता है।”

इस प्रकार शिक्षकों को शिक्षण कार्य के प्रति अधिकाधिक जागरूक बनाना शैक्षिक पर्यवेक्षण का कार्य ही समझा जाता है।

शिक्षकों की उन्नति में शैक्षिक पर्यवेक्षण कई प्रकार से सहायक हो सकता है। यथा-सेवाकालीन प्रशिक्षण के द्वारा शिक्षकों की सहायता की जा सकती है, अनुभवी शिक्षकों के शिक्षण अनुभवों का लाभ उठाते हुए कोई कार्य अवश्य किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त यदि शिक्षकों एवं शैक्षिक पर्यवेक्षक के बीच सद्भावना होती है तथा शिक्षकों को कार्य करने की स्वतन्त्रता रहती है तो उत्तम शिक्षण प्राप्त करने का उद्देश्य सरलतापूर्वक प्राप्त हो जाता है। शैक्षिक पर्यवेक्षण के क्षेत्र में पर्यवेक्षक एवं शिक्षक दोनों ही एक-दूसरे से सीखने का प्रयास करते हैं। पर्यवेक्षण के अन्तर्गत सृजनात्मक तथा प्रभावशाली शिक्षण कार्यों को अपनाना ही शिक्षकों को सही दिशा प्रदान करना है। पर्यवेक्षक को शिक्षकों के साथ छात्रों के व्यवहार का अध्ययन करना होता है, छात्रों की आवश्यकताओं को समझना पड़ता है और इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए साधनों को भी जुटाना पड़ता है। शिक्षक तथा पर्यवेक्षक गम्भीर अध्ययन करने के पश्चात् . ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। सारांश में यह कहा जा सकता है कि सहयोग, सद्भावना, समायोजन तथा स्वतन्त्रता की भावना को अपनाकर ही शैक्षिक पर्यवेक्षक शिक्षकों की व्यावसायिक उन्नति के कार्य में सफल हो सकता है।

4. मानवीय सम्बन्धों में सुधार – किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास उस पर्यावरण पर अधिक आश्रित होता है। जहाँ उसे जीवन व्यतीत करना होता है। परिवार के प्रेम, सहानुभूति, उदारता, परोपकार आदि मानवीय गुणों को जिस व्यक्ति ने समीपता से देखा है, वे गुण उस व्यक्ति में स्वयं ही आ जाते हैं। इसके अतिरिक्त परिवार एवं समाज में व्याप्त परिस्थितियाँ व्यक्ति को निराश, उदार एवं खिन्न बनाती हैं तो व्यक्ति समाज के प्रति कुण्ठामस्त हो जाता है। किसी संस्था अथवा समाज में रहकर व्यक्ति प्रेम, सम्मान तथा सहानुभूति की भावना को प्राप्त करता है तो उसके व्यक्तित्व में सुरक्षा एवं आत्मविश्वास जागृत हो जाता है। उसका चरित्र भी उज्ज्वल होता है और वह जिस कार्य को करता है, उसमें सफलता ही प्राप्त करता है। वास्तव में, मानवीय सम्बन्धों की श्रेष्ठता एक ऐसी मधुर औषधि है, जिससे समूह के प्रत्येक व्यक्ति का सही उपचार किया जा सकता है एवं समूह के सभी कार्यों को उन्नत किया जा सकता है।

शैक्षिक पर्यवेक्षण का मुख्य कार्य शैक्षिक क्षेत्र में लगे हुए सभी व्यक्तियों के प्रति उत्तम मानवीय सम्बन्ध की भावना को प्रदर्शित करना है। जनतन्त्रात्मक नियमों के आधार पर निस्संकोच कहा जा सकता है कि मानवीय सम्बन्धों की स्थापना अन्य व्यक्तियों को सम्मानित समझने की भावना पर ही आश्रित होती है। शैक्षिक पर्यवेक्षक कोई भयावह और स्वेच्छाचारी व्यक्ति नहीं होता है। जिस संस्था में शिक्षकों को उन्नति करने के अवसर प्रदान किए जाते हैं, जहाँ उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सभी शिक्षकों के हृदय में समान रूप से रुचि जागृत की जाती है एवं सभी को उत्तरदायी समझा जाता है, वहाँ मानवीय सम्बन्धों की स्थापना निश्चित रूप से होती है। इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि एक समूह के अन्तर्गत कुछ व्यक्तियों को एकत्रित करना मात्र ही मानवीय सम्बन्धों की स्थापना नहीं कहा जा सकता। इस विषय में किम्बाल विल्स (Kimbal Wiles) के अनुसार-“प्रार्थना करने से ही उत्तम मानवीय सम्बन्धों का लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता, जब व्यक्ति एक साथ रहते हैं तथा अपने सहयोगियों के साथ कार्य करते हैं तो उनमें अनुकरण करने से स्वयं ही उत्तम मानवीय गुण विकसित हो जाते हैं।”

शैक्षिक पर्यवेक्षण को मानवीय सम्बन्धों की स्थापना करने के लिए अथक प्रयास करना पड़ता है। इसके लिए पर्यवेक्षक को कुछ जरूरी बातों की ओर अवश्य ध्यान देना चाहिए।

मानवीय सम्बन्धों की स्थापना हेतु सुझाव

1. शैक्षिक पर्यवेक्षक को अपने सहयोगियों की योग्यता एवं ईमानदारी के प्रति पूर्ण आस्था एवं विश्वास होना चाहिए। पर्यवेक्षक को यह पूर्ण विश्वास होना चाहिए कि समूह की क्रियाओं को करने के लिए समूह का प्रत्येक व्यक्ति योग्यता रखता है। अतएव पर्यवेक्षक द्वारा समूह के सभी व्यक्तियों को कार्य करने के लिए समान अवसर प्रदान किए जाने चाहिएँ,. जिससे सभी व्यक्ति उत्साहपूर्वक कार्यों में भाग ले सकें तथा समस्याओं का निराकरण करने में भागीदार बन सकें।

2. शैक्षिक पर्यवेक्षक द्वारा ऐसे उत्साहजनक तथा प्रेरणायुक्त वातावरण की रचना की जानी चाहिए, जिसमें पर्यवेक्षक के साथ सहयोगी विचारों का खुलकर आदान-प्रदान कर सकें, जिसमें सहयोगियों की सहयोगात्मक भावना का पूरा लाभ उठाया जा सके। इसके अतिरिक्त यदि नवीन प्रयोगों में शैक्षिक पर्यवेक्षक तथा शिक्षक एकजुट होकर कार्य करते हैं तो सम्बन्धों में पर्याप्त सुधार होता है।

3. शैक्षिक पर्यवेक्षक के मस्तिष्क में स्वयं को बड़ा समझने की भावना (Superiority) नहीं रहनी चाहिए। उसे अपने समस्त सहयोगियों को समान स्तर वाला ही समझना चाहिए। पर्यवेक्षक के किसी भी कार्य में शासन करने की भावना का प्रदर्शन नहीं होना चाहिए। उसका कर्त्तव्य है कि वह प्रत्येक कार्य में सेवा भावना को ही प्रमुख समझे। पर्यवेक्षक की यह भावना उसके सहयोगियों में ‘सुरक्षा’ तथा ‘आत्म-विश्वास’ की भावना को उत्पन्न करेगी।

4. शैक्षिक पर्यवेक्षक का शिक्षकों के प्रति व्यवहार अत्यन्त मृदुल तथा मानवीय होना चाहिए, क्योंकि पर्यवेक्षक शिक्षकों का शिक्षक या सहायक नहीं होता है, अपितु वह भी उसमें से एक व्यक्ति ही होता है। एक समूह में एक साथ रहते हुए तथा सहयोगियों पर सद्भावनापूर्ण विश्वास रखकर ही मानवीय सम्बन्धों में वृद्धि की जा सकती है। वास्तव में, यह कार्य किसी भी संस्था का प्राण होता है। संस्था की उन्नति व सफलता मानवीय सम्बन्धों की मधुरता में ही व्याप्त होती है।

5. चतुर शैक्षिक पर्यवेक्षक को कार्य की सफलता का श्रेय स्वयं न लेकर समूह के व्यक्तियों को ही देना चाहिये। अपनी त्रुटियों को स्वीकार करने में भी पर्यवेक्षक को संकोच नहीं करना चाहिये। अन्य सहयोगियों की त्रुटियों के कारण यदि कार्य में विघ्न न पड़े या असफलता मिले तो इसके लिये सहयोगियों को दोषी कभी नहीं ठहराना चाहिये। वास्तव में, किसी भी कार्य की योजना तथा कार्यान्वयन आदि के लिये शैक्षिक पर्यवेक्षक ही पूर्ण रूप से उत्तरदायी होता है। इस उत्तरदायित्व का वहन पर्यवेक्षक को प्रसन्नतापूर्वक करना चाहिये। शैक्षिक पर्यवेक्षण को गुण अत्यन्त आकर्षक, असाधारण एवं महत्वपूर्ण होता है।

 5. समूह के अन्तर्क्रिया सम्बन्धों में सुधार – शैक्षिक पर्यवेक्षण का कार्य समूह के सभी व्यक्तियों को इस प्रकार उत्साहित करना है, जिससे वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति में प्रत्येक व्यक्ति का पूरा सहयोग प्राप्त हो सके। शैक्षिक पर्यवेक्षक को समूह के व्यक्तियों में इस प्रकार की भावना उत्पन्न करनी चाहिए, जिससे कि वे एक-दूसरे को निकटता से जान सकें तथा उन्हें एक-दूसरे की कार्यक्षमता का भी ज्ञान हो सके। अन्तर्क्रिया सम्बन्ध में सुधार करने के लिए पर्यवेक्षक को कुछ विशेष बातों की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहिए। जैसे समूह के व्यक्ति एक-दूसरे के प्रति ऐसा आचरण करें, जिससे आदर भाव में वृद्धि हो सके और एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के उत्तम कार्यों की प्रशंसा कर सके। समूह के समस्त कार्यों के निर्णयों में सभी व्यक्तियों का परामर्श लिया जाना चाहिए। परामर्श लेते समय व्यक्तियों को अपने विचार स्पष्ट करने की पूरी स्वतन्त्रता होनी चाहिए। जो भी निर्णय लिए जाएँ, उनके प्रति समूह के व्यक्ति पूर्णतया आस्था प्रकट करें। आन्तरिक (शिक्षक) और बाह्य (समुदाय, जनता) व्यक्तियों के उद्देश्यों एवं सद्विचारों को निर्णय लेते समय प्राथमिकता देने का प्रयास किया जाना चाहिए। वास्तव में, सामूहिक चिन्तन एवं विचार करने की प्रणाली ही अन्तर्क्रिया सम्बन्धों को बढ़ावा देती है। समूह का प्रत्येक व्यक्ति विचाराभिव्यक्ति हेतु स्वतन्त्र होना चाहिए। सभी सदस्यों को किए जाने वाले कार्यों का स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए। उन्हें यह भी विश्वास होना चाहिए कि असाधारण परिस्थिति के आ जाने पर या अत्यावश्यक कारणों के उत्पन्न होने पर सभी सदस्यों की इच्छानुसार कार्य प्रणाली में परिवर्तन किया जा सकता है। सारांश यह है कि समूह के सदस्यों एवं शैक्षिक पर्यवेक्षक के बीच किसी संशय, अविश्वास अथवा धोखे की दीवार नहीं होनी चाहिए। पर्यवेक्षक यदि इसी प्रकार का स्पष्ट तथा सरल व्यवहार करता है तो समूह के व्यक्ति भी उसे पूर्ण सहयोग देते हैं। यदि किसी समूह के व्यक्तियों को यह आशंका निरन्तर बनी रहती है कि शैक्षिक पर्यवेक्षक द्वारा उनकी इच्छा के विपरीत कोई आकस्मिक परिवर्तन कर दिया जाएगा तो उनका उत्साह शिथिल हो जाता है, कार्य तथा उद्देश्य के प्रति वे अविश्वासी बन जाते हैं और अकर्मण्य बनकर जैसे-तैसे जीवन यापन करते रहते हैं। अतएव योग्य एवं कुशल शैक्षिक पर्यवेक्षक को जनतान्त्रिक नियमों का अनुसरण करते हुए अपने समूह के व्यक्तियों पर पूरा भरोसा रखना चाहिए और उन्हें कार्य करने के लिए उपयुक्त अवसर स्वतन्त्रतापूर्वक प्रदान करने चाहिएँ ।

पर्यवेक्षक को संस्था के समस्त कार्यक्रमों की योजना का निर्माण सभी सदस्यों का परामर्श लेकर करना चाहिए। शिक्षण संस्था में यदि शिक्षकों की संख्या अधिक हो तो प्रतिनिधियों का चयन कर लेना चाहिए। साथ ही विभिन्न प्रकार के कार्यों के लिए समितियाँ बनानी चाहिए। प्रत्येक समिति के संयोजक अपने सहयोगियों के साथ सौंपे हुए कार्य को स्वतन्त्रतापूर्वक कर सकें, इसके लिए पर्यवेक्षक को अवसर प्रदान करने चाहिएँ। ये समितियाँ अपने कार्य क्षेत्रों से सम्बन्धित कुछ प्रस्तावों को सभी सदस्यों के विचार-विमर्श हेतु प्रस्तुत कर सकती हैं। कोई भी कार्य सहमति एवं सर्वसम्मति से ही किया जाना चाहिए। पर्यवेक्षक को विचार प्रकट करते समय अथवा निर्णय लेते समय स्वामित्व या प्रभुत्व का प्रदर्शन कदापि नहीं करना चाहिए। ऐसे अवसरों पर पर्यवेक्षक का अधिकारिक रूप या स्वामित्व की भावना समूह के सदस्यों में निराशा, अकर्मण्यता, असुरक्षा एवं आशंका को जन्म देती है। पर्यवेक्षक द्वारा मुख्य कार्यों के लिए अतिरिक्त समय में अपने सहयोगियों से मधुरतापूर्वक वार्तालाप करना चाहिए। स्वतन्त्र वातावरण में तथा अनौपचारिक रूप से साथियों से परामर्श लेना वास्तव में अन्तर्क्रिया सम्बन्ध को ही बढ़ावा देता है। इस प्रकार समूह के प्रत्येक व्यक्ति को कर्मण्य एवं सहयोगी बनाया जा सकता है। शैक्षिक पर्यवेक्षण का समूह के अन्तर्क्रिया सम्बन्ध को उत्तम बनाना, महत्वपूर्ण तथा परमोपयोगी कार्य होता है।

6. शिक्षण-अधिगम अवस्थाओं का अध्ययन- शैक्षिक पर्यवेक्षण का क्षेत्र आधुनिक युग में अत्यन्त व्यापक है। पूर्व समय में कक्षाओं का निरीक्षण, शिक्षकों का छिद्रान्वेषण, आर्थिक अनुदानों की आय-व्यय का निरीक्षण, शिक्षा के सम्बन्ध में सामान्य निर्देशन देना ही पर्यवेक्षण का कार्य समझा जाता था, किन्तु आधुनिक पर्यवेक्षण की दृष्टि “छात्र, शिक्षक, पाठ्यक्रम, पाठ्य-पुस्तक, शिक्षण सामग्री, मूल्यांकन, पाठ्य सहगामी तथा पाठ्येत्तर क्रियाओं” की ओर रहती है। सीखने वाले छात्र एवं सिखाने वाले शिक्षक की विभिन्न अवस्थाओं में सुधार करने का उत्तरदायित्व भी पर्यवेक्षण का ही होता है। सारांश में कहा जा सकता है कि शिक्षा की सम्पूर्ण क्रिया में वांछनीय परिवर्तन करना शैक्षिक पर्यवेक्षण का प्रमुख कार्य है। शैक्षिक पर्यवेक्षण का मुख्य उद्देश्य सीखने की परिस्थितियों में आवश्यक सुधार करना है। इसके लिए पर्यवेक्षक को अधिकाधिक गहन अध्ययन करने की आवश्यकता है। पर्यवेक्षक का इस सम्बन्ध में दृष्टिकोण एवं सर्वेक्षण अत्यन्त व्यापक होना चाहिए। उसे संस्था या विभाग के समस्त छात्रों तथा शिक्षकों की संख्या का ठीक ज्ञान होना चाहिए। छात्र इस समय किस प्रकार के पाठ्यक्रम का अध्ययन कर रहे हैं एवं कक्षा भवनों में शिक्षक किस प्रकार की शिक्षण सामग्री का प्रयोग कर रहे हैं, इस सम्बन्ध में शैक्षिक पर्यवेक्षक को स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए। इसके अतिरिक्त नवीनतम उपागमों, नवीन शिक्षण विधियों, नई तकनीकी एवं नवीन अनुसन्धानों के विषय में भी पर्यवेक्षक को अद्यतन जानकारी होनी चाहिए। शैक्षिक पर्यवेक्षक का उत्तरदायित्व केवल शैक्षिक कार्यक्रमों का निरीक्षण करना ही नहीं है, जिस सामाजिक वातावरण में संस्था स्थापित है, उसके प्रति भी पर्यवेक्षक को समन्वयात्मक दृष्टि रखनी पड़ती है। शिक्षण संस्था को समुदाय के निकट किस प्रकार रखा जा सकता है, इसका पर्यवेक्षक को विशिष्ट अध्ययन अवश्य करना चाहिए। शिक्षा के उद्देश्यों के परिप्रेक्ष्य में शैक्षिक पर्यवेक्षण कितना सही कार्य कर रहा है, इसका अध्ययन भी पर्यवेक्षक को करना चाहिए। इतना स्वीकार करने योग्य है कि शैक्षिक पर्यवेक्षक जितना अध्ययनशील, समस्याओं के प्रति सजग एवं नवीनतम ज्ञान के प्रति जिज्ञासु होता है, शैक्षिक पर्यवेक्षण उसी अनुपात में प्रभावशाली होता है।

7. शिक्षण-अधिगम अवस्थाओं में सुधार – शिक्षण अधिगम की समस्त अवस्थाओं का अध्ययन करने के पश्चात् शैक्षिक पर्यवेक्षक इस दिशा में आवश्यक सुधार करने योग्य बनता है। अपने सभी सहयोगियों का सहयोग प्राप्त करके शैक्षिक पर्यवेक्षक, शिक्षण अधिगम की अवस्थाओं में पर्याप्त सुधार कर सकता है। वर्तमान युग में शिक्षण तथा अधिगम के तीन स्तरों को निरन्तर दृष्टि में रखा जाता है। ये स्तर हैं—(1) स्मृति स्तर (Memory level), (2) बोध स्तर (Understanding level), (3) चिन्तन स्तर (Reflexive level) । आज केवल छात्रों को कुछ सामग्री कण्ठस्थ कराना ही पर्याप्त नहीं है वरन् उनकी बुद्धि में इस प्रकार वृद्धि करना आवश्यक समझा जाता है, जिससे वे अधिक चिन्तनशील तथा सर्जनात्मक बन सकें। शैक्षिक पर्यवेक्षक को वैयक्तिक विभिन्नता के सिद्धान्त को सम्मुख रखकर ही शिक्षा की व्यवस्था करनी होती है। मन्दबुद्धि, औसत बुद्धि एवं तीव्र बुद्धि वाले छात्रों के लिए पाठ्यक्रम की व्यवस्था करनी पड़ती है। प्रतिभावान् छात्रों को अधिकाधिक सर्जनात्मक बनाने के लिए परम्परागत पाठ्यक्रम पर ही आश्रित नहीं रहा जा सकता। इसके लिए पाठ्यक्रम के नवीन सिद्धान्तों की ओर ध्यान आकर्षित करना पड़ता है। पाठ्यक्रम बालकेन्द्रित तथा अनुभव केन्द्रित होना चाहिए, जिससे बालकों की लगातार उन्नति हो सके। वास्तव में, जो बातें छात्रों के पूर्व अनुभवों में व्याप्त हैं, उन्हीं के आधार पर नवीन ज्ञान देना श्रेयस्कर होता है। पाठ्यक्रम में भी इसी बात का अवश्य ध्यान रखना चाहिए। बार बर्टन तथा ब्रुकनर के अनुसार— “सीखने की प्रक्रिया का निर्देशन शिक्षक के उस ज्ञान पर आश्रित होता है, जिसे वह छात्रों की पृष्ठभूमि तथा विशेषताओं पर आधारित करता है।”

छात्रों के अतिरिक्त शैक्षिक पर्यवेक्षक को शिक्षकों की व्यावसायिक उन्नति की ओर भी ध्यान आकर्षित करना पड़ता है। शिक्षक ज्ञानवान हो सकते हैं, वे शिक्षण कौशल में भी चतुर हो सकते हैं, फिर भी उन्हें लगातार अध्ययन की आवश्यकता होती है। नवीन अनुसन्धान तथा नए विचार शैक्षिक जगत में ज्ञान वृद्धि करते रहते हैं। शैक्षिक पर्यवेक्षकों द्वारा नूतन सामग्री से शिक्षकों का परिचय कराया जाना चाहिए। पुराने एवं अनुभवी अध्यापकों को भी नई प्रकार की शैक्षिक तकनीकी का ज्ञान दिया जाना चाहिये, जिससे वे परम्परागत तथा पुरानी पद्धतियों को छोड़ सकें। इस सम्बन्ध में सेवाकालीन प्रशिक्षण, विचार गोष्ठियों एवं शैक्षिक सम्मेलनों का आयोजन करने में शैक्षिक पर्यवेक्षण को सचेत रहना चाहिए। शिक्षकों की कुशलता एवं ही समस्त शैक्षिक कार्यक्रमों की सफलता में सहायक होती है। इस सम्बन्ध में किम्बाल विल्स के अनुसार-“अध्यापकों तथा वास्तविक विकास विभागीय कार्यक्रमों के आयोजनों द्वारा होता है। इस प्रकार आयोजनों में शिक्षक उत्साहित होते हैं समस्याओं को खोजते हैं और उनका समाधान करते हैं, निर्णय लेने में सहयोगी होते हैं। इस प्रकार के वातावरण को बनाने का प्रयास निरन्तर किया जाना चाहिए, जिसमें शिक्षकों की रचनात्मकता तथा सर्जनात्मकता का मूल्यांकन हो सके तथा जहाँ मत भिन्नता को उत्तम निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए एक आवश्यक साधन माना जाता हो।” वस्तुतः, शिक्षकों की योग्यता में वृद्धि करने के लिए शैक्षिक पर्यवेक्षक को निरन्तर चिन्तनशील होना चाहिए।

पाठ्यक्रम भी शैक्षिक प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है। पाठ्यक्रम को निरन्तर नवीन तथा सीखने वालों की आवश्यकताओं के अनुकूल बनाया जाना चाहिए। उसके अन्तर्गत परिवार एवं सामुदायिक जीवन से सम्बन्धित सुपरिचित बातों का समावेश किया जाना चाहिए। इसके लिए भी शैक्षिक पर्यवेक्षक की दृष्टि व्यापक होनी चाहिए।

बालकों को हम जैसा बनाना चाहते हैं या शिक्षा के जिन उद्देश्यों को प्राप्त करना चाहते हैं, उसके अनुकूल ही पाठ्यक्रम का निर्माण करना अत्यन्त आवश्यक है। वार, बर्टन तथा बुकनर के अनुसार-“पाठ्यक्रम निर्माण की सफलता ही छात्रों में वांछित परिवर्तन ला सकती है तथा सीखने की परिस्थितियों को भी आवश्यकता के अनुकूल बना सकती है।” पाठ्यक्रम को शिक्षाशास्त्रियों ने दौड़ का मैदान कहा है, जिसके अन्तर्गत दौड़ते रह कर ही अन्तिम उद्देश्य तक पहुँचा जा सकता है। इसलिए पाठ्यक्रम को समय एवं समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप बनाने के लिए शैक्षिक पर्यवेक्षक को अथक प्रयास करना चाहिए।

छात्रों, शिक्षकों तथा पाठ्यक्रम की उन्नति करने के अतिरिक्त शैक्षिक पर्यवेक्षक को शिक्षण संस्था की साज-सज्जा (Equipment) के कार्यों की ओर भी ध्यान देना चाहिए। छात्र उसी संस्था में रुचिपूर्वक पढ़ते हैं एवं शिक्षक भी उसी विद्यालय में पढ़ाकर गौरवान्वित होते हैं, जहाँ प्रयोगशालाएँ, पुस्तकालय आदि उत्तम स्तर पर सुव्यवस्थित की जाती है। छात्रों को विज्ञान आदि प्रयोगशालाओं में प्रयोगात्मक कार्य करने के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध होनी चाहिए। वास्तव में, छात्रों एवं शिक्षकों को अनेक प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करना शैक्षिक पर्यवेक्षक का मुख्य कार्य समझा जाता है। शिक्षकों की सेवा सुरक्षा का प्रबन्ध भी शैक्षिक पर्यवेक्षक को कुशलतापूर्वक करना चाहिए। सेवा काल में यदि शिक्षक आशंकारहित भयमुक्त होते हैं, उनके समक्ष यदि अकारण सेवा समाप्ति का डर न रहे, तभी वे शैक्षिक कार्यों में अधिकाधिक सहयोग दे सकते हैं। वास्तव में शिक्षण संस्था के सामाजिक तथा भौतिक वातावरण को अधिकाधिक उन्नत बनाने के लिए शैक्षिक पर्यवेक्षक को निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए। शिक्षण एवं अधिगम की सभी परिस्थितियों को जितना उन्नत किया जाएगा, शैक्षिक पर्यवेक्षण भी उतना ही सफल समझा जाएगा। छात्र-शिक्षक दोनों मिलकर शिक्षण तथा अधिगम की क्रियाओं में अधिकाधिक योगदान दे सकें, इसके लिए पर्यवेक्षक को अथक प्रयास करना चाहिए।

8. शैक्षिक उत्पादन में वृद्धि – किसी भी देश के महान् उद्देश्यों की प्राप्ति शिक्षा के माध्यम से ही की जाती है। शिक्षा के उद्देश्य राष्ट्र के उद्देश्यों से अलग नहीं समझे जाते। उदाहरण के लिए, प्रत्येक राष्ट्र अपने नागरिकों की सर्वांगीण उन्नति में विश्वास रखता है, शिक्षा का उद्देश्य भी छात्रों की शक्तियों एवं योग्यताओं को विकसित करना समझा जाता है। शिक्षा ही भावी नागरिकों को इस योग्य बनाती है, जिससे वे समाज के कार्यों में कुशलतापूर्वक भाग ले सकें। शैक्षिक पर्यवेक्षण के सभी उद्देश्यों में यही बात मूल रूप से निहित होती है। शैक्षिक पर्यवेक्षण शिक्षण प्रक्रिया का निरन्तर मूल्यांकन करता रहता है। पर्यवेक्षक को निम्नलिखित बातों की ओर सदैव जागरूक रहना पड़ता है-

  1. क्या शिक्षा की प्रक्रिया शिक्षा को पूँजी (Education as an investment) मानने के लक्ष्यों में सहायता कर रही है ?
  2. शिक्षकों का प्रभावशाली शिक्षण छात्रों के ज्ञानार्जन में कहाँ तक सहायक है ?
  3. क्या विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा राष्ट्रीय लक्ष्यों की पूर्ति में सहायक है ?
  4. शैक्षिक प्रक्रिया में नवीनतम उपागम किस सीमा तक शिक्षा की गुणात्मक वृद्धि में सहायक है ?
  5. क्या विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा उत्पादन कार्यों में सहायक सिद्ध हो सकती है ?

वास्तव में, उपर्युक्त सभी ऐसे कार्य हैं, जो शैक्षिक उत्पादन प्रक्रिया में सहायक हैं। ‘शिक्षा का उत्पादन’ (Product of education) वास्तव में देश के नवयुवकों की योग्यता से सम्बन्धित होता है। शिक्षा के द्वारा यदि किसी देश में कुशल डॉक्टर, इन्जीनियर, वैज्ञानिक, तकनीकी विशेषज्ञ, कलाकार एवं कुशल नेताओं का निर्माण किया जाता है तो वह शिक्षा का श्रेष्ठ उत्पादन ही कहा जाता है। इन सभी योग्य व्यक्तियों का निर्माण कक्षा भवनों से ही किया जाता है, उत्तम व्यक्ति होने के बीज शैक्षिक संस्थाओं में ही अंकुरित किए जाते हैं, शुरू में ही हमें यह देखना होता है कि हम अपने छात्रों को किस प्रकार की और किस ढंग से शिक्षा दे रहे हैं। आज के युग में होनहार व्यक्तियों की योग्यताओं को प्राथमिकता दी जाती है। यह स्वीकार किया जाता है कि भौतिक साधनों की अपेक्षा मानव अधिक महत्वपूर्ण है, पाठ्यक्रम निर्माण की अपेक्षा शिक्षक का व्यक्तित्व अधिक प्रभावशाली है और शिक्षण की अपेक्षा अधिगम अधिक आवश्यक है। इस कथन का सारांश यही है कि सभी प्रकार की कुशलताओं के मूल में मानवीय योग्यता ही प्रधान है। छात्रों के नैतिक, आध्यात्मिक, शैक्षिक तथा ‘नेतृत्व शक्ति’ के विकास में प्रभावशाली शिक्षक का योगदान सर्वाधिक होता है । अतः यदि शिक्षा प्रक्रिया की उत्पादकत्ता में वृद्धि करनी है तो शिक्षक के व्यक्तित्व को तथा उसके आस-पास के वातावरण को शिक्षण-अधिगम परिस्थितियों के अनुकूल बनाना होगा। इस सम्बन्ध में ‘Muriel Crosby’ के अनुसार- “प्राचार्य एवं पर्यवेक्षक का उत्तरदायित्व नेतृत्व की दशाओं को ठीक प्रकार से देखना है, जिससे शिक्षक अधिकाधिक प्रभावशाली अधिगम को सीख सकें।”

शिक्षा के विस्तृत कार्य भार को अकेला शैक्षिक पर्यवेक्षक ही नहीं सम्भाल सकता। शिक्षा को उत्पादन कार्यों में किस प्रकार अधिकाधिक उपयोगी बनाया जाए, इसके लिए शिक्षण संस्था के सभी सहयोगियों से विचार-विमर्श करने के पश्चात् शैक्षिक पर्यवेक्षक को कोई निर्णय लेना चाहिए। शैक्षिक पर्यवेक्षक को निरन्तर सावधान रहना चाहिए। विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा राष्ट्रीय लक्ष्यों की पूर्ति में सहायक बनी रहे। यदि विद्यालयों की शिक्षा बालकों को योग्य नागरिक बनाने में सक्षम नहीं हो रही है, यदि शिक्षित नवयुवक धनोपार्जन करने के लिए योग्य नहीं बन रहे हैं, यदि शिक्षा की सम्पूर्ण प्रक्रिया विद्यालय की शैक्षिक प्रगति के स्तर में वृद्धि नहीं कर रही है तो शैक्षिक पर्यवेक्षक को मूल्यांकन की प्रक्रिया को अपनाना चाहिए। मूल्यांकन (Evaluation) एक ऐसी प्रक्रिया है, जो वर्तमान परिस्थिति की वास्तविक परीक्षा करके भावी उन्नति के लिए उपयुक्त सुझाव देती है। मूल्यांकन प्रक्रिया में नैदानिक (Diagnostic) एवं चैकित्सिक (Remedial) दोनों ही पक्ष विद्यमान होते हैं। उत्तम शिक्षा व्यवस्था के लिए कुशल शैक्षिक पर्यवेक्षक को चैकित्सिक साधन तत्काल अपनाने चाहिएँ। जिस समय और जहाँ कहीं भी उत्तम शैक्षिक सामग्री, प्रभावशाली शिक्षक, सुव्यवस्थित पाठ्यक्रम एवं उत्तम शिक्षण विधि की आवश्यकता हो, उसका प्रबन्ध अतिशीघ्र किया जाना चाहिए।

किसी विशिष्ट संस्था में शिक्षा प्राप्त किए हुए छात्र समाज में रहकर यदि उत्तम आचरण करते हैं, समाज के कार्यों में उत्तम भागीदार बनते हैं एवं अपनी और समाज की सच्ची सेवा करते हैं तो यह कहना होगा कि वह शिक्षण संस्था शिक्षा की समुचित उत्पादन प्रक्रिया में सहायक हो रही है। शैक्षिक पर्यवेक्षकों एवं शिक्षा अधिकारियों का कर्त्तव्य तो सभी शिक्षण संस्थाओं को आदर्श स्वरूप प्रदान करना है। शिक्षण संस्थाओं की वास्तविक शैक्षिक उन्नति को परखने के लिए मापन और मूल्यांकन के आधुनिकतम साधनों रेटिंग स्केल, चेक लिस्ट, साक्षातीकरण, निरीक्षण आदि का प्रयोग किया जा सकता है। इसमें सन्देह नहीं कि मूल्यांकन की उत्तम व्यवस्था शैक्षिक उन्नति में पूर्ण रूप से सहायक होती है। विविध साधनों और कार्यक्रमों द्वारा शैक्षिक पर्यवेक्षक को शिक्षा के उत्पादन कार्य में पूर्ण सहयोग देना चाहिए।

9. पर्यवेक्षण कार्य में सुधार – शैक्षिक पर्यवेक्षण के सभी कार्य शिक्षण संस्थाओं की उन्नति एवं शैक्षिक प्रक्रिया के स्तर में वृद्धि करने के लिए आवश्यक तथा महत्वपूर्ण होते हैं। शैक्षिक पर्यवेक्षण वास्तव में शिक्षा प्रक्रिया की उन्नति का है मूलाधार है।

कभी-कभी कार्याधिक्य के कारण शैक्षिक पर्यवेक्षण भी कभी-कभी पथभ्रष्ट हो सकता है। अपने सिद्धान्तों, आदर्श व्यवहारों तथा सुनिश्चित कार्यों की लीक से शैक्षिक पर्यवेक्षक भी परिस्थितिवश हट सकता है। इसलिए स्वयं निर्देशकों को भी सदैव स्वनियन्त्रण एवं स्वनिर्देशन का पालन अवश्य करना चाहिए और पर्यवेक्षण के सम्पूर्ण कार्य को उपयोगी तथा उद्देश्यपूर्ण बनाने के लिए शैक्षिक पर्यवेक्षक को भी अधिक सजग रहना चाहिए। स्वयं पर नियन्त्रण रखने तथा अपने समस्त उत्तरदायित्वों का उचित निर्वाह करने से ही शैक्षिक पर्यवेक्षण का कार्य उन्नति की दिशा में निरन्तर अग्रसर होता है।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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