शैशवावस्था तथा बाल्यावस्था में खेलों पर प्रकाश डालिये। खेल सम्बन्धी सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
1. शैशवावस्था में खेल – खेल, बालक के जीवन का आवश्यक अंग हैं। बालक का अधिकांश समय खेल में ही बीतता है। बालक जब एक हाथ से दूसरे हाथ में किसी वस्तु को रखता है, या किसी वस्तु को फेंकता है तो वह उसके लिए खेल ही है। बालक खेल को इसलिए पसन्द करता है कि वे उसके लिए सरल न होकर कठिन होते हैं। शैशवावस्था में सरल प्रकार के खिलौने बच्चों के लिए अच्छे रहते हैं। इसी समय रिड़कने वाले खिलौने, बजने वाले खिलौने भी उपयोगी होते हैं। नरम गुड़ियाँ, ऊनी खिलौने जिसमें पशुओं की आकृति हो, बालक पसन्द करते हैं। दो वर्ष की अवस्था में बालक नकल करने लगता है। जैसा माँ-बाप तथा भाई-बहन करते हैं, वैसी ही वह नकल करने का प्रयत्न करता है।
शैशवावस्था में बच्चे अपने ही स्तर पर अपने-आप खेलना पसन्द करते हैं। बच्चे को अभिव्यक्ति के अधिकाधिक अवसर दिये जाने चाहिएँ। सूसन गोल्ड बग एवं माइकेल लेविस ने यौन भिन्नता के कारण माता तथा खिलौने के प्रति बालकों के व्यवहार का अध्ययन किया और यह निष्कर्ष निकाला कि लड़कियाँ संकट पड़ने पर लड़कों की अपेक्षा माता को सहायता के लिए अधिक पुकारती हैं।
2. बाल्यावस्था में खेल – शैशवावस्था में बालक के खेल घर तक सीमित होते हैं, परन्तु बाल्यावस्था में उसके खेल का क्षेत्र घर से बाहर हो जाता है। चोर-सिपाही, आँख-मिचौनी, कोड़-जमाल शाही, खो-खो आदि समूह खेलों की ओर बालक की रुचि विकसित होती देखी गयी है। इस अवस्था में क्रियात्मक खेलों में बालक अधिक भाग लेता है। चित्रांकन, अभिनय तथा दिवास्वप्न में खोया रहता है. भावी जीवन की तैयारी भी वह करता है। कभी डॉक्टर बनता है, कभी इंजीनियर, कभी नेता तो कभी अभिनेता बनता है। स्वतन्त्र अभिव्यक्ति वाले खेलों से बालक के मन की कुंठायें समाप्त होती हैं और उसे विकास के अवसर प्राप्त होते हैं। इस अवस्था में रचनात्मकता की ओर भी उसका ध्यान रहता है। घरौंदे बनाना, गुड्डे-गुड़ियों का ब्याह आदि उसकी सृजनात्मक शक्ति की ओर संकेत करते हैं।
जरशील्ड ने खेलों के द्वारा प्रसन्नता तथा सन्तुष्टि की प्राप्ति की ओर संकेत किया है। उसकी प्रसन्नता उसको अधिक सक्रिय करती है। जो खुशी वह खेल से प्राप्त करता है, वह उसकी अपनी खोज होती है।
खेल में क्रोध, आक्रमण आदि की अभिव्यक्ति भी होती है। दूसरों को सताना, सुबकना, अभद्र होना, अत्याचार करना, बदला लेना तथा असामाजिक अथवा समाज विरोधी कार्य भी प्रकट होते हैं। ऐसी अवस्था में अभिभावकों का दायित्व यह हो जाता है कि वे खेल की दिशा बदल दें, परिस्थितियाँ बदल दें।
खेल के सिद्धान्त
खेलों की अभिव्यक्ति तथा आवश्यकता को देखते हुए विद्वानों ने अनेक सिद्धान्तों की कल्पना की है। कुछ मुख्य सिद्धान्त इस प्रकार हैं-
1. भावी जीवन की तैयारी का सिद्धान्त– कार्ल ग्रूस द्वारा प्रतिपादित यह मत अधिक प्रख्यात है। उनके अनुसार बालक मूल-प्रवृत्यात्मक कार्यों में लगा रहता है। बच्चे पशु-पक्षियों को प्यार करते हैं। लड़कियाँ गुड़ियों से खेलती हैं। ये सभी खेल भावी जीवन की सम्भावनाओं को प्रशिक्षण देते हैं।
2. मूल प्रवृत्यात्मक सिद्धान्त- मूल प्रवृत्यात्मक सिद्धान्त के प्रतिपादक विलियम मैक्डूगल हैं। उनके अनुसार, खेल बालकों की प्रवृत्तियों पर आधारित होते हैं। वे कहते हैं- “खेल पूर्व-पक्व मूल प्रवृत्तियों द्वारा निर्धारित होते हैं। इनमें अनेक मूल-प्रवृत्तियों को परिपक्वता प्रदान करने की प्रवृत्ति पाई जाती है। “
3. अतिरिक्त शक्ति का सिद्धान्त- इस मत के प्रतिपादक हरबर्ट, स्पैंसर एवं शीलर रहे हैं। इस मत के अनुसार-खेलों हैं द्वारा मनुष्य की अतिरिक्त शक्ति व्यय होती है। बालकों में यह शक्ति अधिक पाई जाती है। उन्हें कोई शारीरिक-मानसिक कार्य नहीं करना पड़ता, परन्तु बहुत-सी क्रियाएँ ऐसी हैं, जिनमें अतिरिक्त शक्ति की आवश्यकता नहीं पड़ती, यद्यपि वे शक्ति के निर्माण का माध्यम हैं। यह सिद्धान्त यह नहीं बताता कि खेल किस प्रकार एक निश्चित रूप ग्रहण कर लेते हैं।
4. पुनर्प्राप्ति का सिद्धान्त- इस मत का प्रतिपादन लोजारस ने किया था। इस मत के अनुसार खेल के द्वारा व्यक्ति अपनी खोई शक्ति को पुनः प्राप्त कर लेता है और स्वस्थ अनुभव करता है।
5. पुनरावृत्ति का सिद्धान्त- पुनरावृत्ति सिद्धान्त के प्रतिपादक जी० स्टेनले हॉल हैं। इनके अनुसार, व्यक्ति उन्हीं खेलों को खेलता है जिनमें उसके पूर्वजों का विकास हुआ था। दौड़ना, भागना, काटना, लड़ना, निर्माण करना आदि खेल हैं, जो मानव के पूर्वज आदि काल से करते आये हैं। हॉल के अनुसार “प्रजातीय रूप में वास्तविक खेल नया नहीं है। मैं खेल को गल्यात्मक आदत के रूप में, भूतकालीन प्रजाति की आत्मा के रूप में एवं आधारभूत कार्य मानता हूँ।”
6. खेल ही जीवन है- इस मत के प्रतिपादक जॉन ड्यूई (John Dewey) हैं। उनके मतानुसार, सभी मनुष्य सक्रिय होते हैं। वे हर समय किसी न किसी कार्य में लगे रहते हैं। क्रियाशीलता मनुष्य तथा जीवन, दोनों का गुण है। खेलों में अन्तः अवयव (Intra Organic) उद्दीपन से जीवन के सुख तथा दुःख का अनुभव होता है। जीवन की पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए व्यक्ति खेल का सहारा लेता है।
7. रेचन सिद्धान्त- अरस्तू ने इस मत का प्रतिपादन किया था। मनुष्य अपने जीवन में अनेक कार्यों को पूरा नहीं कर सकता। अनेक भावना-ग्रन्थियों का निर्माण, संवेगात्मक अस्थिरता एवं नियन्त्रण को खेलों के माध्यम से दूर कर लेते हैं। खेल मानसिक दुर्बलता दूर करने का महत्त्वपूर्ण साधन है।
8. विश्राम का सिद्धान्त- इस मत के प्रतिपादक पैट्रिक हैं। इस मत के अनुसार थकान को दूर करने के लिए विश्राम आवश्यक है। पैट्रिक का विश्वास है— “आधुनिक सभ्यता अवधान के केन्द्रीकरण, भावात्मक तर्क एवं सूक्षमतम माँसपेशियों पर निरन्तर दबाव डालती है, इससे थकान दूर होती है।” इसलिए थकान को दूर करने के लिए खेल आवश्यक है और इनसे विश्राम मिलता है।
9. पूर्वाभिनय का सिद्धान्त – पुर्वाभिनय सिद्धान्त के प्रतिपादक मेलब्रेक थे। इस मत का विकास कार्ल ग्रूस ने किया। कार्ल ग्रूस के अनुसार- “खेल द्वारा बच्चे अपने भावी जीवन का अभिनय करते रहते हैं। कुत्ते का पिल्ला दूसरे कुत्तों के पिल्लों के साथ खेलता है। मुँह में कपड़ा उठाकर भागता है। मानव शिशु भी उसकी प्रकार भावी जीवन की तैयारी करने के लिए अनेक प्रकार के खेल खेलता है। बच्चों द्वारा घरौंदे बनाकर खेलना उसी अभिनय का एक दृश्य है।”
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