समस्या विधि के गुण एवं सीमाओं को लिखिये।
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समस्या विधि के गुण
यह विधि मानव जीवन की आवश्यकताओं के अनुरूप होती है। इसलिए अधिकांश शिक्षा-विद् समस्या विधि को सबसे ज्यादा महत्व देते हैं। समस्या विधि मनुष्य को जीवन जीने व समझने के लिए तैयार करती हैं।
समस्या विधि के गुण अग्रलिखित हैं :-
1. विद्यार्थी केन्द्रित :- आज सभी इस बात पर बल देते हैं कि शिक्षण विधि विद्यार्थी केन्द्रित हो और समस्या विधि इस आवश्यकता को उचित रूप से पूरा करती है। इस विधि में विद्यार्थी ही केन्द्र बिन्दु होता हैं क्योंकि विद्यार्थियों की मानसिक और बौद्धिक क्षमताओं को ध्यान में रखकर ही इस विधि का प्रयोग किया जाता है और इस विधि में विद्यार्थी अपने अनुभव से ही सीखते हैं।
2. विद्यार्थियों की सक्रियता :- इस विधि का प्रयोग इस प्रकार किया जाता है कि इसमें छात्र सक्रिय रुप से भाग ले सकें चूँकि इसमें विद्यार्थियों को स्वयं निष्कर्ष निकालने होते हैं इसलिए वे समस्या के प्रारम्भ से आखिर तक उसमें अपना सक्रिय भाग अदा करते हैं। यह सक्रियता स्वतन्त्रा रुप से उन पर छोड़ दी जाती है। उनकी सक्रियता में उनकी मानसिक एवं बौद्धिक शक्तियों का पूरा सहयोग रहता है। यह सक्रियता शिक्षण को सफल एवं उपयोगी बनाती हैं।
3. आलोचनात्मक निर्णय शक्ति का विकास :- समस्या विधि से विद्यार्थियों को विभिन्न तथ्यों का विश्लेषण करने और अपने निष्कर्ष निकालने होते हैं। इस तरह उनमें आलोचनात्मक निर्णय शक्ति के बल पर वे आज के युग में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं तथा वर्तमान लोकतन्त्र के कार्यकलापों की आलोचना व उपयोगिता में हिस्सा ले सकते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि यह विधि बच्चों को लोकतंत्रात्मक जीवन की ओर अग्रसर करती हैं।
4. सजीवता :- इस विधि से विद्यार्थियों में जीवन की समस्यापूर्ण स्थितियों का सफलतापूर्वक सामना करने का प्रशिक्षण मिलता है। मनुष्य को जीवन भर समस्याओं से सामना करना पड़ता हैं परन्तु इन समस्याओं का सफलतापूर्वक सामना वही मनुष्य कर पाता है जिसे समस्याओं के साथ जूझने तथा चिन्तन एवं क्रियाशक्ति से उसका समाधान ढूंढने का प्रशिक्षण एवं अभ्यास हो। इसलिए यह विधि सजीव स्थितियों के अनुरुप और जीवन के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण को विकसित करती है।
5. सहिष्णुता :- समस्या विधि में उपयोगी समाधान ढूंढने के लिए विद्यार्थियों को विधि विचारधाराओं को जानना और समझना पड़ता है। इससे उनमें सहिष्णुता का विकास होता है जो कि भावी जीवन के लिए उपयोगी सिद्ध होती हैं।
6. उदारपूर्ण दृष्टिकोण:- इस विधि में विद्यार्थियों की समस्याओं के विभिन्न पहलुओं को जानने का अवसर मिलता हैं। समस्या के विभिन्न पहलुओं को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने के कारण उनमें उदारता का विकास होता है तथा वे सबकों जानने व समझने का प्रयास करते हैं।
7. दायित्वता की भावना का विकास :- इस विधि में छात्रों को स्वतन्त्र रुप से 15 कार्य करने की अनुमति होती है। इस विधि मे उन पर कोई बात लादी नहीं जाती है। उन्हें चिन्तन, मनन, चयन, निर्णय, करने के लिए पर्याप्त स्वतन्त्रता दी जाती है। ऐसा करने से उनमें दायित्व व उपक्रम की भावना का विकास होता है।
8. अध्यापक तथा छात्रों में अच्छे सम्बन्ध :- किसी भी तरह के शिक्षण के लिए छात्र अध्यापक के सम्बन्ध मधुर होने अति आवश्यक हैं। समस्या विधि में अध्यापक और विद्यार्थी एक दूसरे को अच्छी तरह समझने लगते हैं तथा उनका व्यवहार मधुर एवं सौहार्दपूर्ण होता है। वे एक दूसरे का साथ लेकर अपनी समस्या का निदान करते हैं। अध्यापक का प्रत्येक विद्यार्थी के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। वह प्रत्येक विद्यार्थी का उसकी आवश्यकतानुसार उसका उचित मार्गदर्शन करता है। इस प्रकार अध्यापन कार्य एक सुरुचिपूर्ण कार्य बन जाता है।
समस्या विधि की सीमाएं :-
इतनी बहुत सी उपयोगिताओं के होते हुए भी समस्या विधि की अपनी कुछ सीमाएं हैं। यह विधि अपने आप में पूर्ण विधि नहीं है। इसमें भी बहुत से दोष हैं जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। मुख्य रूप से इसकी निम्नलिखित सीमाएं हैं :
1. समय की अधिक खपत :- इस विधि की प्रमुख कमी यह है कि यह बहुत ज्यादा समय ले लेती हैं। इस विधि में समस्या के प्रस्तुतीकरण से लेकर समाधान प्राप्ति तक विभिन्न अवस्थाओं से गुजरना पड़ता हैं जबकि अध्यापक के पास पाठ्यक्रम तथा समय सारणी की सीमाओं के कारण इतना समय नहीं होता हैं। लाभ प्राप्त करने के लिये समय की आवश्यकता पड़ती है।
2. औसत विद्यार्थियों के लिए कम सहायक :- इस विधि की एक समस्या यह है कि यह औसत विद्यार्थियों के लिए उपयुक्त नहीं हैं। इस विधि में देखने से तो यह लगता हैं कि इसमें सभी बच्चे सक्रिय रुप से भाग लें रहे हैं जबकि अकसर इसका उलटा होता है। प्रतिभा सम्पन्न विद्यार्थी इसमें अधिक भाग लेते हैं, और विद्यार्थी या तो मूक दर्शक बने रहते हैं या फिर वे प्रतिभा सम्पन्न बच्चों की हाँ में हाँ मिलाते रहते हैं। अकसर प्रतिभाशाली छात्रों के निष्कर्षों को ही अन्तिम मान लिया जाता है और उसमें औसत विद्यार्थियों के निष्कर्ष रह ही जाते हैं। अतः यह विधि सभी छात्रों के लिए समान रुप से उपयोगी नहीं हैं।
3. नीरसता का डर :- यह विधि अधिक समय लेती हैं इसलिए नीरसता आने का डर रहता है। इसमें कई कई दिन भी लग जाते हैं और विद्यार्थी समान रूप से इसमें भाग नहीं ले पाते। एक ही समस्या की तरफ बच्चों को बार बार प्रेरित करना थोड़ा कठिन कार्य हैं और अभिप्रेरणा का अभाव नीरसता का जनक होता हैं।
4. संदर्भ सामग्री की कमी :- इस विधि में छात्रों को समय-समय पर संदर्भ सामग्री की बहुत आवश्यकता रहती हैं। इसके बिना समस्या का प्रमाणिक समाधान प्राप्त नहीं किया जा सकता। बहुत से विद्यालयों में संदर्भ सामग्री का अभाव रहता है जिसके परिणामस्वरुप विद्यार्थी और अध्यापक इस विधि को कारगर ढंग से प्रयोग में नहीं ला सकते।
5. हमेशा अच्छे परिणाम नहीं :- समस्या विधि में कई बार वे परिणाम नहीं निकल पाते जिनकी हम अपेक्षा करते हैं। संतोषजनक परिणामों के अभाव में विद्यार्थियों तथा शिक्षक का उत्साह कम हो जाता है और इससे इस विधि की विश्वसनीयता में कमी आ जाती है। छात्रों को ऐसा लगने लगता है कि जैसे उन्होंने अपना समय व शक्ति व्यर्थ बेकार कर दी है।
6. प्रशिक्षित अध्यापकों की आवश्यकता :- इस विधि में समस्या का चयन तथा उसके समाधान तक अध्यापकों को विशेष तकनीकी कुशलता का प्रयोग करना होता हैं परन्तु हमारे पास ऐसे बहुत कम शिक्षक होते हैं जो इस कार्य में पूर्ण रुप से दक्ष होते हैं। विशिष्ट प्रशिक्षण, अभ्यास से ही इस विधि का सफल प्रयोग सापेक्ष है अन्यथा हमारी समस्या का संतोषजनक समाधान नही हो पाता हैं। एक कम प्रशिक्षित अध्यापक इसमें अटक कर रह जाता हैं और इससे स्थिति असंतुलित हो जाती है। यही कारण है कि स्कूलों में इस विधि का प्रयोग नाम मात्र का ही हो पाता हैं।
को इतनी सीमाओं के होते हुए भी यह विधि बहुत कारगार है और इसकी इन सीमाओं भी किया जा सकता एक कुशल शिक्षक इन कमियों को दूर करने में अपना दूर सहयोग दे सकता । अध्यापक अपने प्रशिक्षण काल से ही इन कमियों को दूर करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर इस प्रशिक्षण का नवीनीकरण किया जा सकता हैं। इस विधि के कार्यान्वयन के लिए पर्याप्त समय दिया जाना चाहिये। संदर्भ सामग्री की व्यवस्था करनी चाहियें तथा कुशलतापूर्वक इसका संचालन करना चाहिये ताकि सभी विद्यार्थी अपनी मानसिक एवं बौद्धिक योग्यताओं के साथ इसमें भाग ले सकें। इस विधि की उपर्युक्त उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए इसका यथासंभव प्रयोग किया जाना चाहिये।
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