समाजीकरण का क्या अर्थ है ? समाजीकरण की प्रक्रिया के मुख्य स्तरों को संक्षेप में समझाइये।
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व्यक्ति का समाजीकरण (Socialization of the Individual)
समाजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो नवजात शिशु को सामाजिक प्राणी बनाती है। इस प्रक्रिया के अभाव में व्यक्ति सामाजिक प्राणी नहीं बन सकता। इसी से सामाजिक व्यक्तित्व का विकास होता है। सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत के तत्त्वों का परिचय भी इसी से प्राप्त होता है। समाजीकरण से न केवल मानव जीवन का प्रभाव अखण्ड तथा सतत रहता है, बल्कि इसी से मानवोचित गुणों का विकास होता है और व्यक्ति सुसभ्य व सुसंस्कृत भी बनता है। संस्कृति का हस्तान्तरण भी समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा ही होता है। समाजीकरण की प्रक्रिया के बिना व्यक्ति सामाजिक गुणों को प्राप्त नहीं कर सकता है। अतः यह एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया मानी जाती है।
समाजीकरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Socialization)
समाजीकरण नवजात शिशु को सामाजिक बनाने की एक प्रक्रिया है। बच्चे को सामाजिक मान्यताओं के बारे में अवगत कराना, समाज में रहना सिखाना और व्यक्तित्व का निर्माण करना ही समाजीकरण है। प्रमुख विद्वानों ने समाजीकरण की परिभाषा इस प्रकार दी है-
1. बोगार्डस (Bogardus) के अनुसार- “समाजीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक कल्याण हेतु एक-दूसरे पर निर्भर रहकर व्यवहार करना सीखते हैं और जिसके द्वारा सामाजिक आत्म-नियन्त्रण, सामाजिक उत्तरदायित्व तथा सन्तुलित व्यक्तित्व का अनुभव प्राप्त करते हैं।”
2. ग्रीन (Green) के अनुसार- “समाजीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बच्चा सांस्कृतिक विशेषताओं, आत्मपन (Selfhood) और व्यक्तित्व को प्राप्त करता है।”
3. जॉनसन (Johnson) के अनुसार- “समाजीकरण एक प्रकार का सीखना है, जो सीखने वाले को सामाजिक कार्य करने के योग्य बनाता है। “
4. डेविस (Davis) के अनुसार परिवर्तन करने की इस प्रक्रिया के बिना, जिसे हम समाजीकरण कहते हैं, समाज एक पीढ़ी से भी आगे स्वयं को सन्तुलित नहीं रख सकता और न ही संस्कृति जीवित रह सकती है। इसके बिना व्यक्ति सामाजिक प्राणी भी नहीं बन सकता है। “
समाजीकरण की विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि समाजीकरण व्यक्ति को सामाजिक बनाने की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति को सामाजिक तथा योग्य प्राणी बनाना है ताकि वह अपनी प्रस्थिति एवं भूमिका के अनुसार कार्य कर सके। समाजीकरण के द्वारा ही संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होती है।
समाजीकरण की विशेषताएँ (Characteristics of Socialization)
समाजीकरण की विभिन्न परिभाषाओं से इसकी निम्नलिखित प्रमुख विशेषताओं का पता चलता है-
- समाजीकरण का कार्य समाज में रहकर ही सम्भव है, समाज से अलग रहकर नहीं।
- समाजीकरण व्यक्ति को सामाजिक परम्पराओं, प्रथाओं, रूढ़ियों, मूल्यों, आदर्शों आदि का पालन करना और विपरीत सामाजिक परिस्थितियों में अनुकूलन करना सिखाता है। में
- व्यक्ति का बाह्य पदार्थों और प्रवृत्तियों से परिचय कराना और तद्नुरूप अनुकूलन करना समाजीकरण के द्वारा सम्भव है।
- समाजीकरण सीखने की प्रक्रिया है, जो व्यक्ति को समाज में सामाजिक भूमिका के निर्वाह के योग्य बनाती है।
- मात्र जैविक प्राणी से सामाजिक प्राणी बनने के लिए भी समाजीकरण की आवश्यकता होती है।
- मानव की मूलप्रवृत्तियाँ समाजीकरण द्वारा विकसित होती हैं।
- समाजीकरण द्वारा संस्कृति, सभ्यता और अन्य अनगिनत विशेषताएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती हैं, और जीवित रहती हैं।
- समांजीकरण की प्रक्रिया व्यक्ति में ‘स्व’ का विकास करती है, जिससे उसमें व्यक्तित्व का विकास होता है।
समाजीकरण के सोपान अथवा स्तर (Stages of Socialization)
समाजीकरण सीख की एक प्रक्रिया के रूप में जन्म से मृत्यु तक चलती रहती है। व्यक्ति का समाजीकरण किन-किन सोपानों (अवस्थाओं) में होता है इसके बारे में निश्चित रूप से कुछ भी बताना कठिन है। इसका प्रमुख कारण व्यक्ति-व्यक्ति तथा सीखने की शक्ति में भिन्नता का पाया जाना है। पारसंस (Parsons) और जॉनसन (Johnson) ने समाजीकरण की प्रक्रिया के किशोरावस्था तक चार सोपान बताए हैं, जोकि निम्नलिखित हैं-
1. मौखिक अवस्था (Oral stage) – मौखिक अवस्था शिशु के जीवन की सबसे प्रारम्भिक अवस्था है। समाजीकरण के इस प्रथम सोपान में आवश्यक लक्ष्य मौखिक निर्भरता स्थापित करना है। इस सोपान में शिशु का सम्बन्ध परिवार के प्रत्येक सदस्य से नहीं हो पाता है। जॉनसन के अनुसार, शिशु माता (या अन्य पोषककर्त्ता) पर अधिक निर्भर होता है। परिवार के अन्य सदस्यों के लिए बालक महज एक ‘सम्पदा’ या ‘खिलौना’ है। शिशु की मुख्य समस्या भूख, प्यास, ठण्ड तथा गर्मी लगना है। इसके बाद वह अपनी भूख पर कुछ नियन्त्रण करना सीख जाता है तथा शिशु माँ के शारीरिक सम्पर्क का आनन्द महसूस करता है। इस अवस्था में शिशु और माता मिले हुए रहते हैं। सामान्यतः यह स्तर एक अथवा डेढ़ वर्ष तक का होता है।
2. शौच अवस्था (Anal stage) – यह अवस्था प्रत्येक परिवार तथा समाज में भिन्न-भिन्न होती है। जॉनसन के अनुसार, अमेरिकी मध्यम वर्ग में सम्भवतः यह प्रथम वर्ष में शुरू होकर तृतीय वर्ष में समाप्त हो जाती है। भारतीय समाज में इसकी डेढ़ या दो वर्ष की आयु मानी जा सकती है। इस अवस्था में शिशु को शौच प्रशिक्षण (Toilet training) दिया जाता है तथा अपेक्षा की जाती है कि वह स्वच्छता से रहे। इस अवस्था में उसे थोड़ा बहुत अनुचित व उचित का ज्ञान भी दिया जाता है। शिशु की देखभाल के साथ उसे प्यार तथा स्नेह दिया जाता है। इसके साथ ही साथ शिशु भी इसका प्रत्युत्तर प्यार से देता है। अगर शिशु उचित कार्य करता है तो उसे स्नेह दिया जाता है तथा गलत कार्य करने पर उसकी भर्त्सना की जाती है या डाँटा जाता है। अब शिशु परिवार में अन्य सदस्यों को पहचानने लगता है और उनके व्यवहार शिशु को प्रभावित करने लगते हैं। शिशु अपने व्यवहार पारिवारिक मूल्यों के अनुरूप करने लगता है।
3. ऑडिपल अवस्था तथा गुप्तावस्थाकाल (Oedipal stage and latency) – जॉनसन के अनुसार, अमेरिकी मध्यम वर्ग में यह सोपान प्रायः चौथे वर्ष से आरम्भ होकर बारह-तेरह वर्ष की आयु तक रहता है। इस अवस्था में बालक पूरे परिवार का सदस्य हो जाता है तथा परिवार की सभी प्रकार की भूमिकाओं से परिचय प्राप्त कर लेता है। इसमें शिशु यौनिक व्यवहार से पूर्ण रूप से परिचित नहीं होता है, लेकिन यौन भावना का जन्म होना शुरू हो जाता है। इस अवस्था में बालक से आशा की जाती है कि वह अपने लिंग के अनुरूप व्यवहार करे अर्थात् लड़का है तो लड़के के समान और यदि लड़की है तो लड़की के समान व्यवहार करे। वैसे पहले-पहल बालक अपने लिंग तथा प्रस्थिति के साथ पूर्ण सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाता है। ऐसी दशा में उद्वेग एवं ईर्ष्या के भाव का जन्म होता है, किन्तु बाद में वह नियन्त्रण सीख लेता है। जब वह यह अनुभव कर लेता है कि मैं लिंग विशेष का सदस्य हूँ तो उसकी विपरीत लिंग वाले सदस्यों के प्रति रुचि बढ़ जाती है। ऑडिपल संकट प्रायः छह वर्ष की आयु तक चलता है और फिर गुप्तावस्थाकाल होता है। गुप्तकाल की अवस्था में ही ऑडिपस कॉम्पलैक्स (Oedipus complex) तथा इलेक्ट्रा कॉम्प्लैक्स (Electra complex) जन्म लेते हैं। ऑडिपस कॉम्पलैक्स लड़के की उस भावना को कहते हैं, जिसके अनुसार वह अपनी माँ से प्यार करता है तथा चाहता है कि उसका पिता माँ से प्यार न करे। इसके विपरीत, इलेक्ट्रा कॉम्पलैक्स में लड़की चाहती है कि उसका पिता केवल उसे प्यार करे न कि उसकी माता से। फ्रायड का कहना है कि इन भावनाओं का सीख में विशेष महत्त्व है। न इस स्तर में बालक प्रत्येक क्रिया को दूसरों के अनुसार करने की चेष्टा करता है। वह यह अनुभव करने लगता है। कि माँ और पिता का स्थान भिन्न है। उसमें विभेदीकरण की प्रवृत्ति का जन्म होने लगता है।
4. किशोरावस्था (Adolescence) – सामान्यतः किशोरावस्था, जो प्रायः यौवन का आरम्भ माना जाता है, को विद्वानों ने संकटकालीन स्थिति कहा है। इस अवस्था में बालक स्वतन्त्रता की माँग करना प्रारम्भ कर देता है। परिवार के साथ-साथ बालक इस अवस्था में शिक्षण संस्था, खेल-कूद के साथी, पड़ोस और समाज के नए अथवा अपरिचित सदस्यों के सम्पर्क में आता है। किशोरावस्था में शारीरिक परिवर्तन शुरू हो जाते हैं तथा उस पर यौन सम्बन्धी प्रतिबन्ध लगा दिए जाते हैं। इसके कारण उसमें प्रतिबन्ध लगाने वाले वयस्क सदस्यों के प्रति उम्रभाव जन्म ले लेता है। इस अवस्था में बालक को सांस्कृतिक आदर्शों तथा मूल्यों से परिचय करवाकर उन पर चलने के लिए बाध्य किया जाता है। ऐसी अवस्था में तनाव का बना रहना स्वाभाविक है। यदि इस अवस्था में माँ-बाप सूझ-बूझ से कार्य न करें तो बच्चा बिगड़ भी सकता है। इस अवस्था में सीखने के प्रति रुचि जाग्रत होती है। वह अन्य समूहों से अपने समाज के व्यवहार तथा ढंग सीखने लगता है तथा उसे अनुभव होने लगता है कि उसे किस प्रकार के कार्य करने चाहिए। वह यह भी जानने लगता है कि अपने समूहों की आशा के अनुरूप कार्य न करने पर उसे असम्मान की दृष्टि से देखा जाएगा। उसके विचारों में क्रम तथा तर्क आने लगते हैं। किशोरावस्था को समाजीकरण का अन्तिम चरण नहीं समझा जाना चाहिए। वयस्क होने के बाद, मृत्युपर्यन्त तक समाजीकरण की प्रक्रिया चलती रहती है। इस अवस्था में परिवार, पड़ोस, मित्र-समूह, शिक्षण संस्थाओं का पर्याप्त प्रभाव तथा योगदान रहता है। वस्तुतः किशोर का मूल व्यक्तित्व इसी अवस्था में निर्मित हो जाता है। इस मूल व्यक्तित्व में बाद में किसी प्रकार का परिवर्तन करना अत्यन्त कठिन हो जाता है। इसीलिए समाजीकरण की विभिन्न अवस्थाओं में किशोरावस्था को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है
गिलिन तथा गिलिन (Gillin and Gillin) ने समाजीकरण की प्रक्रिया को तीन सोपानों में विभाजित किया है-प्रथम, बाल्यावस्था (The child), द्वितीय, युवावस्था (The youth), तथा तृतीय, प्रौढ़ावस्था या वयस्क (The adult) अवस्था । उन्होंने समाजीकरण में जो कारक योगदान देते हैं, उनका भी उल्लेख किया है, जिससे निम्न दी गई सारणी द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है—
गिलिन तथा गिलिन के अनुसार समाजीकरण की प्रक्रिया
शिशु | युवक | वयस्क |
1. अभिभावक | 1. दूसरे युवा | 1. पत्नी |
2. दूसरे बालक | 2. अभिभावक | 2. बच्चे |
3. पढ़ाई व चलचित्र | 3. बृहत् समाज | 3. निवास |
4. शिक्षक तथा कक्षा के लड़के | 4. चर्च, राजनीतिक दल तथा स्कूल | 4. पड़ोसी |
5. दूसरे बच्चे | 5. समूह | 5. चर्च |
लुण्डबर्ग (Lundberg) ने समाजीकरण की प्रक्रिया को एक सूत्र द्वारा समझाने का प्रयास किया है—व्यक्ति x समाज = व्यवहार (Individual x Society = Behaviour) | उनके अनुसार समाजीकरण की प्रक्रिया न तो व्यक्ति की जैविक प्रकृति से प्रभावित होती है और न सामाजिक कारकों से, वरन् इन दोनों की पारस्परिक अन्तर्क्रिया से प्रभावित करती है। अतः हम कह सकते हैं कि समाजीकरण व्यक्ति और समाज का योग नहीं, बल्कि गुणनफल है।
समाजीकरण के अभिकरण या माध्यम अथवा संस्थाएँ (Agencies or Means or Institutions of Socialization)
समाजीकरण एक जटिल प्रक्रिया है। इसमें विभिन्न अभिकरणों, संस्थाओं तथा माध्यमों का योगदान रहता है। इसके प्रमुख अभिकरण, साधन अथवा माध्यम निम्नलिखित हैं-
1. परिवार (Family) – परिवार प्राथमिक समूह । सी० एच० कूले ने स्वीकार किया है कि आदर्शों तथा सामाजिक स्वभाव के निर्माण में परिवार प्राथमिक होते हैं। मनुष्य सर्वप्रथम जिस समूह के सम्पर्क में आता है, वह परिवार ही है। इसलिए इसका प्रभाव काफी स्थायी होता है। माँ उसे दूध पिलाती है तथा उसकी रक्षा करती है। पिता तथा परिवार के अन्य सदस्य शिशु के साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार करते हुए उसकी आवश्यकताओं को पूर्ण करने का प्रयत्न करते हैं। इससे शिंशु के मन में सुरक्षा की भावना पनपती है। वह जानने लगता है कि किस प्रकार के कार्य व व्यवहार करने से उसे किस प्रकार का सम्मान प्राप्त होगा। इसके साथ-साथ, उसे भाषा का ज्ञान भी परिवार से ही प्राप्त होता है। परिवार के प्रत्येक सदस्य के अपने विचार, व्यवहार के ढंग आदि होते हैं, किन्तु बच्चे के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण सभी उसके साथ घनिष्ठता से रहते हैं। इस प्रकार बच्चा उनसे अनुकूलन करना सीखता है। कुछ बड़ा होने पर वह नियम एवं परम्पराओं के अनुसार कार्य करना सीखता है। यदि परिवार में कोई कमी है या समाजीकरण त्रुटिपूर्ण रहा है तो उस दशा में व्यक्ति का व्यक्तित्व विघटित हो जाता है। परिवार के माध्यम से बच्चा अपने सामाजिक व्यवहार, भाषा, कपड़े पहनने का ढंग, भोजन का तरीका और अपनी संस्कृति के अनुरूप व्यवहार करना सीखता है।
कुछ विद्वानों ने परिवार की समाजीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका को ध्यान में रखते हुए इसे संस्कृति और परम्पराओं का वाहक कहा है। काफी हद तक यह बात ठीक भी है। अपनी संस्कृति के बारे में बच्चे को ज्ञान सर्वप्रथम परिवार में ही होता है। परिवार ही समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित करने का एक प्रमुख माध्यम है।
2. क्रीड़ा समूह (Play group) – बच्चा जब कुछ बड़ा होता है तो वह क्रीड़ा समूह के सम्पर्क में आता है। इसके अधिकतर सदस्य उसकी उम्र के ही होते हैं। क्रीड़ा समूह में यह खेलता है। विभिन्न बालकों की रुचि, विचारधारा आदि का प्रभाव उस पर निरन्तर पड़ता है तथा जिसमें वह आकर्षण पाता है उसे अपना लेता है। क्रीड़ा समूह में सामाजिक सम्बन्धों से अनुकूलन आदि बातें भी बच्चा जान जाता है। एक ही आयु समूह होने के कारण क्रीड़ा समूह समाजीकरण का महत्त्वपूर्ण अभिकरण माना जाता है।
3. पड़ोस (Neighbourhood) – पड़ोस के कार्यों को दो रूपों में देखा जा सकता है-प्रथम, पड़ोसियों के व्यवहार तथा विचारों के ढंग का प्रभाव बालक पर पड़ता है तथा वह उनका अनुकरण प्रारम्भ कर देता है। दूसरे, उसके व्यवहार पर भी नियन्त्रण पड़ोस ही रखता है। इस प्रकार, बालक उचित कार्यों को करने का प्रयत्न करता है|
4. शिक्षा संस्थाएँ (Educational institutions) – विद्यालयों अथवा शिक्षण संस्थाओं में मनुष्य का बौद्धिक विकास होता है। वहाँ वह पढ़ाई व पाठ्य-पुस्तक को पढ़ने के अतिरिक्त अपनी संस्कृति का ज्ञान प्राप्त करता है तथा उसका अन्य संस्कृतियों से परिचय होता है। अनुशासन तथा आज्ञापालन जैसी बातें भी बच्चा शिक्षा संस्थाओं में ही सीखता है। यदि स्कूल के अध्यापकगण एवं सहपाठी ठीक नहीं हैं तो बच्चा अनुशासनहीन बन जाता है। अगर वातावरण अनुकूल एवं प्रजातान्त्रिक है तो बच्चे का विकास पूर्ण रूप से होता है। शिक्षण संस्थाओं में वह नए मित्रों तथा शिक्षकों के सम्पर्क में आता है और उनसे वार्तालाप व विचारों का आदान-प्रदान करता है। इससे उसके विचारों तथा व्यवहार में सामाजिकता आ जाती है।
5. अन्य संस्थाएँ (Other institutions) – व्यक्ति के समाजीकरण में मत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली अन्य संस्थाओं को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
(अ) अनिवार्य संस्थाएँ (Compulsory institutions) – इसके अन्तर्गत ऐसी संस्थाएँ आती हैं, जिनमें व्यक्ति को अनैच्छिक रूप से प्रवेश करना पड़ता है। कुछ ऐसी संस्थाएँ निम्नांकित हैं—
(i) धार्मिक संस्थाएँ (Religious institutions) – व्यक्ति का धर्म से परिचय उस आयु में ही करा दिया जाता है, जब वह धर्म को समझता भी नहीं है। धार्मिक संस्थाओं से व्यक्ति में नैतिकता, सच्चरित्रता, पवित्रता, कर्त्तव्यपरायणता, त्याग तथा बलिदान और शान्ति एवं न्याय के प्रति अनुराग विकसित होता है। दूसरों के प्रति सहिष्णुता व सभी प्राणी समान हैं, इस तरह के विचारों को बच्चा इन्हीं संस्थाओं से ग्रहण करता है। धर्म व्यक्ति को उचित और अनुचित का ज्ञान देता है। इस प्रकार धर्म के द्वारा मनुष्य के समाजीकरण में सबसे बड़ी सहायता मिलती है।
(ii) आर्थिक संस्थाएँ (Economic institutions) – आर्थिक संस्थाओं का सम्बन्ध मुख्यतः मनुष्य के जीविकोपार्जन से होता है। इन संस्थाओं के माध्यम से व्यक्ति परिश्रम, प्रतिस्पर्द्धा, उद्देश्यपूर्णता, सहयोग व भविष्य की चिन्ता आदि परमावश्यक गुणों की प्राप्ति करता है। आर्थिक संस्थाएँ व्यक्ति को विभिन्न व्यवसायों एवं व्यापारिक संघों में बाँटती है। इनका प्रभाव उसके व्यक्तित्व पर निरन्तर पड़ता रहता है
(iii) राजनीतिक संस्थाएँ (Political institutions)- व्यक्ति जैसे-जैसे अपने जीवन की अनेक समस्याओं से जूझता है, त्यों-त्यों उसके जीवन में राजनीतिक संस्थाओं का प्रवेश होता है। इन संस्थाओं के द्वारा वह अपने वास्तविक विचारों का निर्माण करता है। राजनीतिक संस्थाएँ व्यक्ति को शासन, कानून, अधिकार, कर्त्तव्य तथा अनुशासन से परिचित कराती हैं। राजनीतिक प्रशासन का प्रकार तथा व्यक्ति को मिली स्वतन्त्रता भी उसके व्यक्तित्व को काफी सीमा तक प्रभावित करती है। व्यक्ति विभिन्न राजनीतिक दलों की विचारधाराओं में से किसी एक विचारधारा को (जिसे वह अपने विचारों के अधिक नजदीक समझता है) समर्थन करना शुरू कर देता है। साथ ही, नेताओं का अनुकरण करके और चुनाव इत्यादि राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेकर व्यक्ति काफी कुछ सीखता है।
(ब) ऐच्छिक संस्थाएँ (Optional institutions) – इसके अन्तर्गत ऐसी संस्थाएँ आती हैं जिनमें व्यक्ति का प्रवेश स्वाभाविक रूप से नहीं होता, बल्कि वह अपनी इच्छा अथवा अन्य व्यक्तियों के आग्रह पर ऐसी संस्थाओं के सम्पर्क में आता है, जिनका निर्माण व्यक्तियों द्वारा अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों के संचालन और पूर्ति के लिए स्वयं किया जाता है। इनसे व्यक्ति का समाजीकरण और अधिक पुष्ट तथा विस्तृत होता जाता है। ऐच्छिक संस्थाएँ हमें प्रथा, परम्परा, आचार-विचार के ढंग, व्यवहार के तौर-तरीके, आपसी संगठन तथा किसी त्रुटिपूर्ण परम्परा अथवा विचार का संगठित विरोध करना सिखाती हैं।
ऐच्छिक संस्थाओं में विवाह का प्रमुख स्थान है। कुछ समाजशास्त्रियों का मत है कि विवाह व्यक्ति के समाजीकरण को काफी हद तक पूर्णता की प्राप्ति कराने वाला माध्यम है। इसके कारण व्यक्ति में इतने उच्च सामाजिक मूल्यों का समावेश होता है कि वह पूर्ण व्यक्तित्व को प्राप्त करता है और समाज को नई इकाइयाँ प्रदान करता है। विवाह के द्वारा वह उत्तरदायित्व, धैर्य, त्याग, पारिवारिक कल्याण, परोपकार और दूरदर्शिता के पाठ ग्रहण करता है।
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