अनुसंधान के प्रमुख प्रकारों का वर्णन कीजिये।
सामाजिक अनुसन्धान के प्रकार
उद्देश्यों के आधार पर सामान्यतः सामाजिक अनुसन्धान के निम्नलिखित प्रमुख प्रकारों की चर्चा की जाती है-
- (क) विशुद्ध मौलिक सैद्धान्तिक अनुसन्धान
- (ख) व्यवहारिक अनुसन्धान
- (ग) क्रियात्मक अनुसंधान ।
विशुद्ध अनुसंधान- मौलिक व विशुद्ध अनुसंधान का तात्पर्य सामाजिक अनुसंधान के उस स्वरूप से है जिसमें सामाजिक जीवन व घटनाओं के सम्बन्ध में मौलिक सिद्धान्तों एवं नियमों को खोजा जाता है और इसका लक्ष्य नवीन ज्ञान की प्राप्ति व वृद्धि तथा पूर्व ज्ञान की द्वारा उसका परिमार्जन तथा परिवर्तन करना है इस प्रकार के अनुसंधान के अन्तर्गत नवीन सिद्धान्तों के एवं नियमों की खोज नवीन परिस्थितियों एवं समस्याओं के उत्पन्न होने के परिणामस्वरूप की जाती पुनः परीक्षा है। यह खोज इस उद्देश्य से की जाती है कि इन नवीन सिद्धान्तों का वर्तमान परिवर्तित परिस्थितियों के साथ मेल बैठ जाय और उनके सम्बन्ध में नवीनतम ज्ञान के आधार पर विद्यमाय परिस्थितियों की चुनौतियों का अधिक सफलतापूर्वक सामना कर सकें। इ प्रकार स्पष्ट है कि मौलिक अनुसंधान की प्रकृति पूर्णतया सैद्धान्तिक है क्योंकि इसका उद्देश्य किसी व्यावहारिक समस्या का समाधान करना नहीं है बल्कि सामाजिक घटनाओं के सम्बन्ध में ज्ञान की प्राप्ति, वृद्धि एवं शुद्धीकरण करना होता है। चूँकि इस अनुसंधान का प्रमुख लक्ष्य सत्य की खोज करना है, अतः इस प्रकार का अनुसंधान करने वाला अनुसन्धानकर्ता समस्त घटनाओं के अनुसंधान में केवल इसी लक्ष्य की प्राप्ति में सजग व प्रयत्नशील रहता है। जब वह किसी घटना का अध्ययन करता है तो उसके सम्बन्ध में उसको ज्ञान की प्राप्ति होती है, जब वह नवीन घटनाओं के सम्बन्ध में अनुसंधान करता है तो विद्यमान ज्ञान की वृद्धि होती है और जब वह वर्तमान परिस्थितियों के सन्दर्भ में पुराने नियमों तथा सिद्धान्तों की पुनः जाँच करता है तो उनके सम्बन्ध में उसके ज्ञान में आवश्यक सुधार व हेर-फेर होता है इस प्रकार स्पष्ट है कि मौलिक व विशुद्ध अनुसंधान के अन्तर्गत न केवल सामाजिक जीवन व घटनाओं के सम्बन्ध में मौलिक सिद्धान्तों एवं नियमों को खोजा जाता है बल्कि इनके सम्बन्ध में पहले से प्राप्त ज्ञान का पुनः परीक्षा द्वारा परिमार्जन एवं परिवर्द्धन किया जाता है।
व्यावहारिक अनुसन्धान- व्यावहारिक अनुसंधान का तात्पर्य सामाजिक अनुसंधान के उस स्वरूप से है जिसका सम्बन्ध सामाजिक जीवन के व्यावहारिक पक्ष से होता है और वह सामाजिक समस्याओं के सम्बन्ध में ही नहीं बल्कि व्यावहारिक जीवन के अन्य पहलुओं जैसे- सामाजिक नियोजन, सामाजिक अधिनियम स्वास्थ्य सम्बन्धी नियम, शिक्षा, धर्म, मनोरंजन, न्यायालय आदि से सम्बन्धित विषयों के सम्बन्ध में भी अनुसंधान करता है। व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित होने के कारण हमें इसका तात्पर्य यह न लगा लेना चाहिए कि व्यावहारिक शोध का कार्य समाज-सुधार, सामाजिक व्याधियों का उपचार, सामाजिक नियमों का निर्माण व सामाजिक नियोजन को व्यावहारिक रूप प्रस्तुत करना है बल्कि इसका कार्य तो केवल व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित विषयों एवं समस्याओं के सम्बन्ध में यथार्थ व उपयोगी ज्ञान प्रदान करना है जिसका उपयोग समाज-सुधारक, राष्ट्रीय नेता, प्रशासक, अधिकारी आदि अपने-अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिये उपयोग करते हैं। इस सन्दर्भ में श्रीमती यंग ने ठीक ही लिखा है, “ज्ञान की खोज का एक निश्चित सम्बन्ध लोगों की प्राथमिक आवश्यकताओं तथा कल्याण से होता है। वैज्ञानिकों की मान्यता यह है कि समस्त ज्ञान सारभूत रूप से उपयोगी इस अर्थ में है कि यह एक सिद्धान्त के निर्माण में या एक कला को व्यवहार में लाने में सहायक होता है। सिद्धान्त एवं व्यवहार आगे चलकर प्रायः एक दूसरे से मिल जाते हैं।”
इस कथन से स्पष्ट होता है कि व्यावहारिक अनुसंधान, व्यावहारिक जीवन की अनेक समस्याओं एवं घटनाओं के सम्बन्ध में नवीन ज्ञान की वृद्धि करता है जिसके आधार पर हम इन पर नियन्त्रण प्राप्त कर सकते हैं। श्री स्टाउफर ने सामाजिक विज्ञान में व्यावहारिक अनुसंधान के तीन महत्वपूर्ण योगदानों की ओर संकेत किया है- (1) कतिपय सामाजिक तथ्य किस प्रकार समाज के लिए उपयोगी हैं, इनके सम्बन्ध में विश्वसनीय प्रमाणों को प्रस्तुत करना, (2) इस प्रकार की प्रविधियों का उपयोग तथा विकास करना जो कि मौलिक अनुसंधान के लिए भी उपयोगी सिद्ध हो तथा (3) इस प्रकार के तथ्यों तथा विचारों को प्रस्तुत करना जो कि समान्यीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित कर सकें।
क्रियात्मक अनुसंधान- व्यवहारिक अनुसंधान का एक अन्य रूप क्रियात्मक अनुसंधान कहलाता हैं। जहाँ व्यावहारिक अनुसंधान में किसी समस्या के समाधान के लक्ष्य को सामने रखकर में अध्ययन किया जाता है, वहीं क्रियात्मक अनुसंधान में सामाजिक समस्या से सम्बद्ध अध्ययनों के निष्कर्षों को मुख्यतः किसी योजना या कार्यक्रम को कार्यान्वित करने के लिए उपयोग में लाया जाता है। अतः इस प्रकार के अनुसंधान का मुख्य लक्ष्य वांछित प्रतिफल है। ध्यान दें, व्यवहारिक अनुसंधान की अपेक्षा क्रियात्मक अनुसंधान एक ओर शुद्ध अनुसंधान की तरह घटना का वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत करता है और दूसरी ओर निष्कर्षों को योजना कार्य के अनुसार लागू करता है। एक ओर – यह वैज्ञानिकता के निकट है, तो दूसरी ओर, यह समाजसुधार एवं समाजकार्य की सीमाओं को छूता है। गुडे एवं हाट ने इसे परिभाषित करते हुए लिखा है कि “क्रियात्मक अनुसंधान उस कार्यक्रम का भाग है, जिसका लक्ष्य विद्यमान परिस्थितियों को परिवर्तित करना होता है, चाहे वह गंदी बस्तियों की अवस्थाएँ हो या प्रजातीय तनाव तथा पक्षपात हो या संगठन की प्रभावशीलता हो ।”
चूँकि क्रियात्मक अनुसंधान का प्रत्यक्ष एवं प्राथमिक सम्बन्ध सुधार एवं क्रिया से है, इसलिए यह व्यावहारिक अनुसंधान के अधिक निकट है। लेकिन अध्ययन-पद्धति एवं अन्य दृष्टि से यह सैद्धान्तिक अनुसंधान की सीमाओं का उल्लंघन नहीं करता। एक सैद्धान्तिक समाजशास्त्री या मानवशास्त्री ही क्रियात्मक अनुसंधान सम्पन्न करने में सक्षम होता है।
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