शिक्षा मनोविज्ञान / EDUCATIONAL PSYCHOLOGY

सीखने के अन्तर्दृष्टि एवं तलरूप सिद्धान्त

सीखने के अन्तर्दृष्टि एवं तलरूप सिद्धान्त
सीखने के अन्तर्दृष्टि एवं तलरूप सिद्धान्त

सीखने के अन्तर्दृष्टि एवं तलरूप सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।

सीखने के क्षेत्र में साहचर्य तथा क्षेत्र सिद्धान्तों के कारण अनेक अवधारणाओं का विकास हुआ। सीखने का अर्थ है संज्ञान होना अर्थात् किसी घटक या प्रक्रिया की सम्पूर्ण जानकारी तथा कौशल का अधिगम कर नवीन ज्ञान तथा कौशल को ग्रहण करने की क्षमता स्वयं में उत्पन्न करना। इसी तथ्य के आधार पर हम यहाँ दो सिद्धान्तों की चर्चा कर रहे हैं।

1. पूर्णाकारवाद अन्तर्दृष्टि (Gestalt Theory)

गेस्टाल्ट का अर्थ समग्र रूप से है। पूर्णाकारवाद के अनुसार व्यक्ति किसी वस्तु को आंशिक रूप से नहीं, अपितु पूर्ण रूप से सीखता है। क्षेत्र सिद्धान्तों में विश्वास करने वालों का विचार है कि- “अधिगम व्यक्ति के वातावरण के प्रति अवबोध तथा आविष्कार के सम्बन्ध को सिद्धान्त कहते हैं।” दिए गए उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा।

आगे प्रस्तुत चित्र में x x चिन्ह किसी विशेष चिन्ह का बोध नहीं देते हैं, अपितु जिस प्रकार ये चिन्ह रखे हुए हैं वे कुल मिलाकर P का बोध देते हैं।

पूर्णाकारवाद का जन्मदाता जर्मनी का मनोवैज्ञानिक वेरटीमर (Max Wertheimer) कहा जाता है। थोर्प एवं मूलर ने बेरटीमर के सिद्धान्त की व्याख्या इस प्रकार की है- “वेरटीमर के सिद्धान्त का फोकसी बिन्दु यह तथ्य है कि जब मानवीय आँख एक के बाद दो चाक्षुष उद्दीपनों को देखती है तो उसकी प्रतिक्रिया ऐसी होती है कि उन उद्दीपनों का पैटर्न युगपत् बनता है।” वेरटीमर के सिद्धान्त को आगे बढ़ाने में कॉफका (Kurt Kolfka) तथा कोहलर (Wolfgang Cohler) ने योग  दिया है।

वेरटीमर का विचार रहा है कि सम्पूर्ण बड़ा है और कुछ उसका अंश है (The whole is greater than the sum of its parts) | मनोवैज्ञानिकों ने पूर्णाकारवाद की परिभाषा इस प्रकार दी है— ” पूर्णाकारवाद उत्तेजनात्मक परिस्थिति को समझने की विधि है।” (A gestalt is the pattern configuration on form of apprehending a stimulus situation)।

पूर्णाकारवाद के नियम और अन्तर्दृष्टि

पूर्णाकार के मूल में अन्तर्दृष्टि विद्यमान रहती है। क्षेत्र की सारी व्यवस्था के सन्दर्भ में समस्या के पूर्ण समाधान का प्रकट होना ही अन्तर्दृष्टि की कसौटी है।

पूर्णाकारवाद या अन्तर्दृष्टि के नियम इस प्रकार हैं-

1. संरचनात्मक (Structured)- पूर्णाकारवाद में अधिगम की सम्पूर्ण प्रक्रिया उस समय पूर्ण मानी जाती है, जबकि प्रक्रिया का निश्चित रूप (Proper structure) प्रकट होता है।

2. समरूपता (Similarity) – जो वस्तुएँ आकार में समान होती हैं, उनका पूर्णाकार रूप अन्तर्दृष्टि में उसी प्रकार प्रकट होता है।

3. समीपता (Proximity)- इस नियम के अनुसार जो वस्तुएँ आकार में समान होती हैं, वे एक समूह के रूप में प्रकट होती हैं।

4. समापन (Closure) – मानव मस्तिष्क में स्थित क्षेत्र को बन्द करने की प्रक्रिया इस नियम में पाई जाती है। किसी एक समस्या पर ध्यान केन्द्रित करना इसी नियम के अन्तर्गत आता है।

5. निरन्तरता (Continuity) – इस नियम के अनुसार अपने समान वाली वस्तुओं से प्रत्यक्षीकरण के सम्बन्ध बनते हैं।

कोहलर द्वारा किए गए प्रयोग

अन्तर्दृष्टि की पुष्टि करने के लिए कोहलर ने सुलतान नामक चिम्पांजी पर प्रयोग किए। यद्यपि उसने अपने प्रयोग कुत्ते तथा मुर्गियों पर भी किए, परन्तु उसका यही प्रयोग बहुत प्रसिद्ध है।

कोहलर ने अपने प्रयोग को चार पदों में विभक्त किया है—(1) सुलतान को पिंजड़े में बन्द किया। पिंजड़े में डण्डा रख दिया और पिंजड़े के बाहर केला। सुलतान ने केले को प्राप्त करने के अनेक प्रयत्न किए, परन्तु उसे सफलता न मिली। ने निराश होकर बैठ गया। कुछ देर बाद उसने अचानक डण्डा उठाया और उसके द्वारा केला अपने पास खिसका लिया। (2) दूसरे पद में कोहलर ने पिंजड़े में ऐसे दो डण्डे रख दिए, जो आपस में जोड़े जा सकते थे। केला इतनी दूर रखा गया कि वह डण्डे की सहायता से उसे प्राप्त नहीं कर सकता था। अनेक प्रयत्नों के पश्चात् उसने दोनों डण्डों को जोड़ लिया और केला प्राप्त कर लिया। (3) तीसरे पद में कोहलर ने केले को पिंजड़े की छत में इस प्रकार लटकाया कि वह उछल कर भी उसे प्राप्त ने कर सके। उसने पिंजड़े में सन्दूक रख दिया। अनेक प्रयत्नों के प्रश्चात् सुलतान सन्दूक पर चढ़ा और केले प्राप्त कर लिए। (4) प्रयोग के चौथे पद में कोहलर ने पिंजड़े में एक के स्थान पर दो सन्दूक रखे तथा केलों को अधिक ऊँचाई पर लटकाया। पहले तो वह एक सन्दूक की सहायता से ही केला प्राप्त करने का प्रयत्न करता रहा। बाद में उसने एक सन्दूक के ऊपर दूसरा सन्दूक रखा और उस पर चढ़ कर केला प्राप्त कर लिया।

कोहलर ने चिम्पांजी के पश्चात् एक छोटी लड़की पर प्रयोग किया। उसने 25 मास की एक लड़की, जिसने कुछ सप्ताह पूर्व चलना सीखा था, को लिया। उसने लगभग दो मीटर की दूरी पर एक खिलौना रख दिया। उसके दूसरी ओर एक बाधा उत्पन्न कर दी अर्थात् संदूक आदि रख दिया। उसने खिलौने को देखा धीरे से खिसकी, फिर हँसी और सन्दूक के दूसरी ओर घूम कर खिलौने के पास गई।

कोहलर के प्रयोग ने यह सिद्ध कर दिया कि पशु में अन्तर्दृष्टि उत्पन्न होने से पूर्व समस्या के सभी अंगों के मध्य सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है। तभी वह उनका पुनर्गठन कर सकता है। यहाँ पर एक बात स्पष्ट है कि पशुओं में अन्तर्दृष्टि से पूर्व ‘अन्वीक्षा तथा विश्रम’ (Trial and error) पाया गया था। एक बार समस्या के समाधान कर लेने पर पशुओं में अनुभवों का स्थानान्तरण (Transfer of experience) पाया गया। अन्तर्दृष्टि निकट सम्बन्ध पशु की शक्ति पर निर्भर करता है।

कोहलर ने पूर्णाकारवाद में अन्तर्दृष्टि को इस प्रकार बताया है- “एक अधिक तकनीकी अर्थ में अन्तर्दृष्टि का अर्थ हल को एकाएक पकड़ लेना है, जिससे एक ऐसी प्रक्रिया आरम्भ होती है, जो परिस्थिति के अनुसार चलती है और हल प्रत्यय ज्ञान की क्षेत्र संख्या के संदर्भ में होता है।”

आलपोर्ट द्वारा किए गए प्रयोग

आलपोर्ट ने नर्सरी विद्यालयों के 44 बच्चों पर परीक्षण किए। इन बच्चों की आयु 19 मास से लेकर 49 मास तक थी। ये प्रयोग कोहलर द्वारा किए गए प्रयोगों के समान थे। सुन्दर खिलौनों को आलमारी के ऊपर रख दिया गया। उन्हें आलमारी पर चढ़ने के सभी साधन प्राप्त थे। बच्चों ने सन्दूक, मेज, कुर्सी आदि के प्रयोग से खिलौने प्राप्त कर लिए।

आलपोर्ट के प्रयोग ने यह सिद्ध किया कि चिम्पांजी की अपेक्षा मानव शिशुओं में अन्तर्दृष्टि अधिक होती है।

अन्तर्दृष्टि पर प्रभाव डालने वाले प्रतिकारक

अनेक प्रयोगों ने उन प्रतिकारकों की भी व्याख्या की है, जो अन्तर्दृष्टि पर प्रभाव डालते हैं। ये प्रतिकारक इस प्रकार हैं –

1. बुद्धि- अन्तर्दृष्टि का सम्बन्ध प्राणी की बुद्धि से होता है। चिम्पांजी की अपेक्षा मनुष्य अधिक बुद्धिमान होता है। इसलिए उसमें अन्तर्दृष्टि अधिक पाई जाती है।

2. अनुभव– अनुभवों से किसी समस्या को सुलझाने में बहुत योग मिलता है। समस्या को सुलझाने में अनुभवी व्यक्ति की अन्तर्दृष्टि एक-दूसरे से सम्बन्धित नहीं है। अनुभवों का स्थानान्तरण एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में होता रहता है और वे अन्तर्दृष्टि के विकास में महत्वपूर्ण योग देते हैं।

3. समस्या का प्रत्यक्षीकरण (Perception) – जब तक समस्या का पूर्णरूप से प्रत्यक्षीकरण नहीं होता, तब तक अन्तर्दृष्टि सम्भव नहीं है। अन्तर्दृष्टि पर समस्या की रचना भी प्रभाव डालती है।

4. अन्वीक्षा तथा विभ्रम (Trial and error) – कुछ मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि अन्तर्दृष्टि के मूल में ‘अन्वीक्षा’ तथा ‘विभ्रम’ रहता है। क्रिया कोई भी हो उसके मूल में प्रयत्न अवश्य रहते हैं।

पूर्णाकरवाद : आलोचना

पूर्णाकारवाद ने मनोविज्ञान के क्षेत्र में नवीन मान्यताओं एवं अभिधारणाओं को जन्म दिया है। पूर्णाकारवाद इस बात को मानता है कि सम्पूर्ण अपने हिस्सों से बड़ा होता है। हिलगार्ड (Hilgard) के अनुसार- “इस मत की रोचक एवं महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि वह ऐसे उपयोगी व्यवहार की व्याख्या करता है, जो पूर्ण रूप से मानसिक अवस्थाओं एवं यांत्रिकता की उपेक्षा करता है।”

इस सिद्धान्त की प्रमुख आलोचनाएँ इस प्रकार हैं-

1. पूर्णाकारवाद मनोविज्ञान तथा शिक्षा दर्शन का सम्मिलित रूप है।

2. पूर्णांकारवाद के नियमों के अनुसार प्रत्येक प्रकार का अधिगम नहीं किया जा सकता, जैसे-लिखना, पढ़ना, बोलना आदि।

3. कुछ विद्वानों का विचार है कि पूर्णाकारवाद में निहित अन्तर्दृष्टि पशुओं तथा बच्चों पर लागू नहीं होती, क्योंकि उनमें चिन्तन का अभाव रहता है; पर दैनिक व्यवहार में यह देखने में आता है कि छोटे-छोटे बालक भी अन्तर्दृष्टि का प्रयोग करते हैं।

4. पूर्णाकारवाद में अन्वीक्षा तथा विभ्रम किसी न किसी स्तर पर आवश्यक हैं।

पूर्णाकारवाद : शिक्षा

जैसा कि कहा जा चुका है कि पूर्णाकारवाद अनुभवों की सम्पूर्णता पर बल देता है। इस सिद्धान्त में व्यर्थ के प्रयत्नों को निरुत्साहित किया जाता है। व्यक्ति के समक्ष समस्या तथा उसके समाधान के सभी उत्पादन प्रस्तुत कर दिए जाते हैं। अन्तर्दृष्टि की सहायता से व्यक्ति की समस्या का समाधान करता है। अध्यापक पूर्णाकारवाद का उपयोग शिक्षा में इस प्रकार कर सकता है-

1. वातावरण- अंध्यापक को चाहिए कि वह बालक के समक्ष इस प्रकार का वातावरण प्रस्तुत करे कि बच्चे स्वयं अधिगम के लिए प्रेरित हों। अधिगम की क्रिया का विकास स्वयं होना चाहिए।

2. पूर्ण समस्या – अध्यापक को चाहिए वह छात्रों को समस्या का पूरा ज्ञान कराए। यदि समस्या के प्रति ज्ञान अपूर्ण है तो अन्तर्दृष्टि नहीं होगी। किसी भी समस्या में उस समय तक सूझ उत्पन्न नहीं होती, जब तक उसका पूर्ण रूप से ज्ञान न हो जाए। अतः यह आवश्यक है कि सार्थक पाठ पढ़ाए जाएँ। इसीलिए अब अक्षर नहीं, शब्द पढ़ाने पर बल दिया जाता है।

3. उत्पादक क्रियाएँ– अध्यापक को चाहिए कि वह ऐसी क्रियाएँ कराएं, जिनका सम्बन्ध उत्पादन से हो । ऐसा करने से वे क्रियाएँ एक सम्पूर्ण क्रिया का रूप धारण कर लेती हैं।

4. विषय संगठन- अध्यापक को पाठ का संगठन इस प्रकार करना चाहिए कि वह सम्पूर्णता प्राप्त कर ले और अन्तर्दृष्टि उत्पन्न करने योग्य बन जाए।

5. सामान्यीकरण- अध्यापक को चाहिए कि वह पढ़ाई गई सामग्री का सामान्यीकरण कर ले। ऐसा करने से विषय स्पष्ट हो जाता है।

6. आकांक्षा का स्तर- अध्यापक नवीन ज्ञान देते समय देख ले कि छात्रों का मानसिक तथा शारीरिक स्तर इस योग्य भी है कि वे नवीन ज्ञान को ग्रहण कर सकते हैं। यदि उनकी आकांक्षा (Aspiration) का स्तर सामान्य है तो वे सामान्य ज्ञान ही को भली-भाँति ग्रहण कर सकते हैं।

2. अधिगम का तलरूप सिद्धान्त (Topological Theory of Learning)

तलरूप सिद्धान्त का प्रतिपादन पूर्णाकारवाद के प्रतिपादकों के मित्र कुर्टलेविन (Kurtlewin) ने किया था। कुर्टलेविन के मत का आधार वातावरण में व्यक्ति की स्थिति है। उसके अनुसार- व्यक्ति के व्यवहार को समझने के लिए व्यक्ति की स्थिति को उद्देश्यों से सम्बन्धित मानचित्र में निर्धारित करना एवं प्रयत्नों को जानकारी आवश्यक है।” लेविन ने मानव व्यवहार को गणित के आधार पर समझाने का प्रयत्न किया है।

तलरूप सिद्धान्त में लेविन ने जीवन-विस्तार, शक्ति तथा बाधाओं पर विजय के प्रयत्न का वर्णन किया।

1. जीवन विस्तार (Life space)- जीवन विस्तार से अर्थ है उस वातावरण से, जिसमें व्यक्ति रहता है और निरन्तर प्रभावित होता है। जीवन के मानचित्र में व्यक्ति एक से दूसरे स्थान तक विचरण करता रहता है। इस वातावरण में व्यक्ति और उनके मनोविज्ञान का सम्बन्ध भी है। व्यक्ति अनेक कठिनाइयों का सामना करके उन पर विजय प्राप्त करता हुआ अपने लक्ष्य पर पहुँचता है। निम्न चित्र से यह स्पष्ट हो जाएगा। इस चित्र में बालक (C) वातावरण में अनेक प्रकार की कठिनाइयों को हल करता हुआ अपने उद्देश्य (G) पर पहुँचता है।

2. शक्ति (Valence) – मानव जीवन में व्यक्ति सदैव उद्देश्यों से प्रेरणा प्राप्त करता है। उद्देश्य कभी धनात्मक (Positive) और कभी ऋणात्मक (Negative) शक्तियाँ रखते हैं। धनात्मक उद्देश्य का अर्थ यह है कि व्यक्ति उससे प्रेरित होकर उद्देश्य की ओर बढ़ता रहता है। ऋणात्मक उद्देश्य से व्यक्ति पीछे हटता है।

स्पष्ट है कि अधिगम के इस सिद्धान्त में बालक के समक्ष ऋणात्मक तथा धनात्मक शक्तियाँ उपस्थित रहती हैं, जो अधिगम को प्रेरणा देती हैं।

3. अवरोध (Barrier) – व्यक्ति अपने उद्देश्य तक सहज रूप में ही नहीं पहुँचता। उद्देश्य तक पहुँचने में उसके मार्ग में अनेक बाधाएँ उपस्थित होती हैं। ये बाधाएँ व्यक्ति को सहज ही उद्देश्य प्राप्त नहीं करने देतीं। यदि बालक को बाधाओं पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रेरणा मिलती रहती है तो वह अपने लक्ष्य तक पहुँच जाता है अन्यथा निराश होकर बैठ जाता है। अध्यापक की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि वह बालक को बाधाओं पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रेरणा दे।

लेविन ने अधिगम की क्रिया में मनोवैज्ञानिक वातावरण तथा प्रेरणा को अधिक महत्व दिया है। लेविन ने अधिगम के मार्ग में आने वाली बाधाओं पर विजय प्राप्त करने तथा लक्ष्य तक पहुँचने का उपाय भी बताया है।

लेविन ने अधिगम को वातावरण का संगठन माना है। वह अधिगम को समस्या नहीं मानता है। अधिगम में उसने पुरस्कार (Reward) तथा दण्ड (Punishment) को अधिक महत्व दिया है। पुरस्कार से प्रेरित होकर बालक किसी कार्य को करने के लिए अधिक प्रयत्नशील होता है। दण्ड के भय से बालक अधिगम के लिए प्रेरित नहीं होता।

तलरूप सिद्धान्त: मूल्यांकन

जैसा कि बताया जा चुका है कि तलरूप सिद्धान्त के जन्मदाता कुर्टलेविन ने जीवन के वातावरण को अधिगम का आधार माना है। लेविन का विचार कॉफका (Koffka), कोहलर (Kohler) तथा वेरटीमर (Werthimer) के पूर्णाकार मत (Gestalt view) से मिलता है। लेविन ने अपने मत में प्रेरणा (Motivation) को अत्यधिक महत्व दिया है। उसने अधिगम के आधारों में (1) आकांक्षाओं के स्तर (Level of aspirations), (2) उद्देश्यों का आकर्षण (Goal attractiveness), (3) स्मृति की गति (Dynamics of memory), (4) पुरस्कार एवं दण्ड (Reward and punishment) को अधिक प्रश्रय दिया है।

तलरूप सिद्धान्त पर विशेष रूप से ये आक्षेप लगाए गए हैं-

1. तलरूप सिद्धान्त का प्रभाव समाज विज्ञान तथा प्रेरणा पर अधिक पड़ा है। अधिगम उससे अधिक प्रभावित नहीं हुआ है।

2. तलरूप सिद्धान्त उस मान्यता तक नहीं पहुँचता है, जहाँ अधिगम के सिद्धान्तों को प्रयोग के लिए चुना जाता है।

3. लेविन ने व्यक्ति को महत्व दिया है। उसके सिद्धान्तों को इस समीकरण से व्यक्त किया जाता है- B= f (PE)

इस सूत्र में B, व्यवहार के लिए: 1, कार्य (Function); P, व्यक्ति के लिए; E कुल वातावरण के लिए व्यक्त किया गया है।

4. इस सिद्धान्त के प्रमुख पारिभाषिक शब्द गणित से लिए गए हैं। तलरूप (Topology) भी गणित की एक शाखा है। शक्ति (Valence), संतुलन (Equilibrium) तथा क्षेत्र शक्ति (Field forces) को सिद्धान्त की व्याख्या के लिए अपनाया है। लेविन ने कहा भी है— “मुझे ऐसा लगता है कि श्यामपट पर अंकित चित्र मनोविज्ञान में समस्या का हल प्रस्तुत करता है। ” केवल वह समस्या की व्याख्या ही नहीं है, बल्कि वास्तविक प्रत्यय का प्रतिनिधित्व भी करता है। तलरूप सिद्धान्त शिक्षा तलरूप सिद्धान्त का मुख्य आधार है-व्यक्ति, वातावरण, बाधाएँ, बाधाओं पर विजय और उद्देश्य प्राप्ति; अतः शिक्षा के क्षेत्र में इसका विनियोग इस प्रकार किया जा सकता है-

1. अध्यापक का कार्य अधिगम के लिए वातावरण उपस्थित करना है। यदि अध्यापक उचित वातावरण उपस्थित नहीं करेगा तो बालक के समक्ष अनेक ऐसी बाधाएँ आयेंगी, जिनसे घबराकर वह कार्य को अधूरा छोड़ देगा।

2. अध्यापक को चाहिए कि वह समस्या का ज्ञान स्पष्ट रूप से छात्रों को दे। समस्या का स्पष्ट ज्ञान छात्रों को प्रेरणा देता है।

3. अध्यापक को यह ध्यान रखना चाहिए कि पढ़ाई जाने वाली सामग्री का उद्देश्य छात्रों के अनुकूल हो। यदि पढ़ाए जाने वाले विषय का उद्देश्य बालक के मानसिक स्तर से ऊँचा हुआ तो अधिगम निष्फल हो जाएगा। बच्चों के समक्ष उद्देश्य स्पष्ट होना चाहिए।

4. किसी भी कार्य को आरम्भ करने से पूर्व बालकों को उस कार्य को करने की प्रेरणा भी देनी चाहिए।

5. बालकों की आवश्यकताएँ उनके शारीरिक तथा मानसिक विकास के साथ-साथ बदलती रहती हैं। अध्यापक को चाहिए कि वह बालकों की आवश्यकताओं को समझें तथा उन्हें आवश्यक निर्देशन भी दें।

6. बालकों के मानसिक तनावों को दूर करें।

7. विद्यालय तथा कक्षा का वातावरण उचित रूप से बनाया जाना चाहिए। अच्छा वातावरण अनेक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर देता है।

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Anjali Yadav

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