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आत्म-प्रत्यय एवं आत्म की अवधारणा से आपका क्या अभिप्राय है?

आत्म-प्रत्यय एवं आत्म की अवधारणा से आपका क्या अभिप्राय है?
आत्म-प्रत्यय एवं आत्म की अवधारणा से आपका क्या अभिप्राय है?

आत्म-प्रत्यय एवं आत्म की अवधारणा से आपका क्या अभिप्राय है? आत्म-प्रत्यय के घटक भी बताइये।

आत्म-प्रत्यय पद दो शब्दों से मिलकर बना है- आत्म + प्रत्यय इनमें आत्म का अर्थ है- जो कुछ कोई होता है। आत्म ‘जटिल समग्रता’ है जिसका विकास सामाजिक अन्तः क्रियाओं के परिणामस्वरूप होता है। इसकी परिभाषा विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न रूप में दी हैं।

आत्म-प्रत्यय का अर्थ

आत्म-प्रत्यय का सामान्य अर्थ है- अपने बारे में धारणा या विचार। यह व्यक्ति का अपने स्वयं के बारे में दृष्टिकोण या प्रत्यक्षीकरण है। वस्तुतः आत्मप्रत्यय उन सब का कुल योग है जिसे वह अपना कह सकता है। “उन सबका” का अभिप्राय उन प्रत्यक्षीकरणों, विश्वासों एवं मूल्यों से है जिनको व्यक्ति अपनी विशेषताओं के भाग के रूप में देखता है।

आत्म-प्रत्यय की परिभाषाएँ –

1. लोवे के अनुसार, “आत्म-प्रत्यय अपने आत्म के प्रति दृष्टिकोण है।”

2. ऑलपोर्ट ने आत्म-प्रत्यय की परिभाषा देते हुए लिखा है, ” आत्म वह कुछ है जिसके प्रति हम तत्काल सजग होते हैं। हम इसे अपने जीवन के केन्द्रीय व निजी क्षेत्र के रूप में मानते है। अतः यह हमारी चेतना, हमारे व्यक्तित्व तथा हमारे संगठन में महत्वपूर्ण भाग है। इस तरह यह हमारे जीवन का केन्द्र है।”

3. जर्सील्ड ने इसे ‘व्यक्ति की अन्दर की दुनिया’ कहा है। वह इसे एक व्यक्ति के विचारों, भावनाओं, प्रयासों तथा उम्मीदों, भय तथा कल्पनाओं व अपने महत्व के प्रति दृष्टिकोणों का एक मिश्रित रूप मानता है।”

इस तरह आत्म प्रत्यय व्यक्तित्व प्रतिमान के केन्द्र का महत्वपूर्ण आधार माना जाता है। यह व्यक्ति को सुदृढ़ता प्रदान करता है।

4. हरलॉक के अनुसार, “आत्म प्रत्यय वे प्रतिमाएँ हैं जो व्यक्ति स्वयं अपने संबंध में रखते हैं। आत्म प्रत्यय में व्यक्ति के वे विश्वास होते हैं जो एक व्यक्ति अपने शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और संवेगात्मक विशेषताओं के संबंध में रखता है। इसमें आकांक्षाएँ और उपलब्धियाँ भी सम्मिलित होती हैं। संक्षेप में आत्म-प्रत्यय में व्यक्ति की वे प्रतिमाएँ निहित होती हैं जो उसके शारीरिक और मनोवैज्ञानिक विशेषताओं के समन्वय से होती हैं।”

उपर्युक्त परिभाषाओं का सार यह है कि आत्म-प्रत्यय अपने स्वयं के बारे में धारणा या दृष्टिकोण है। दूसरे शब्दों में व्यक्ति अपने बारे में क्या विचार या सोच रखता है वही उसका आत्म-प्रत्यय है। अपने स्वयं के बारे में छवि जो मस्तिष्क में बनती है वही आत्म-प्रत्यय कहलाता है।

आत्म-प्रत्यय के घटक

आत्म प्रत्यय के निम्नांकित तीन घटक हैं-

  1. प्रत्यक्षीकरण संबंधी घटक
  2. प्रत्यात्मक घटक
  3. अभिवृत्यात्मक घटक

1. प्रत्यक्षीकरण संबंधी घटक – यह व्यक्ति की अपनी शक्ल-सूरत, शरीर तथा दूसरों पर अपने प्रभाव के बारे में मानसिक छवि है। इसे प्रायः शारीरिक आत्म प्रत्यय भी कहा जाता है।

2. प्रत्यात्मक घटक- यह व्यक्ति की अपनी विशिष्ट विशेषताओं, उसकी योग्यताओं, एवं अयोग्यताओं के प्रति अवधारणा है। यह ईमानदारी, आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, साहस एवं इनके विरोधी गुणों से निर्मित होता है। इसे मनोवैज्ञानिक आत्म प्रत्यय भी कहा जाता है।

3. अभिवृत्यात्मक घटक- यह व्यक्ति की अपने बारे में भावनाएँ, उसकी अपनी वर्तमान परिस्थिति एवं सम्भावनाओं के प्रति दृष्टिकोण है। इसी के साथ यह अपने महत्व के बारे में भावना तथा अपने स्वाभिमान, अपमान, गर्व तथा शर्म, विश्वास, मूल्य, आदर्श, आकांक्षाएँ तथा प्रतिबद्धताओं के प्रति दृष्टिकोण है जो उसके जीवन दर्शन का निर्माण करते हैं।

आधुनिक अध्ययनों से प्रकट हुआ है कि आत्म-प्रत्यय के चार वर्ग हो सकते हैं:-

(i) मूल आत्म-प्रत्यय – यह व्यक्ति की अपने बारे में जैसा वह है, अवधारणा है। इसमें उसकी शक्ल-सूरत के प्रति अवधारणा, उसकी योग्यताओं तथा अयोग्यताओं के संबंध में विचार, उसकी जीवन में भूमिकाओं एवं पद, परिस्थिति, उसके मूल्य, विश्वास एवं आकांक्षाएँ आदि के संबंध में विचार शामिल हैं।

(ii) अस्थाई आत्म-प्रत्यय – यह व्यक्ति की अपने बारे में अस्थाई धारणाएँ हैं।

(iii) सामाजिक आत्म-प्रत्यय – यह अन्य व्यक्तियों की एक व्यक्ति के प्रति धारणा है। व्यक्ति वह ही हो जाता है जैसा लोग उसके बारे में सोचते हैं।

(iv) आदर्श-आत्म-प्रत्यय – यह जैसा व्यक्ति होना चाहता है, वह आत्म-प्रत्यय है। भविष्य में वह क्या बनना चाहता है, उसके बारे में सोच व धारणा इसके अन्तर्गत आती हैं।

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Anjali Yadav

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