आत्म-प्रत्यय के विकास के संबंध में ब्रिक एरिकसन के विचार लिखिए।
बच्चों में आत्म-प्रत्यय के विकास के संबंध में ब्रिक एरिकसन के विचार उल्लेखनीय हैं। एरिकसन का मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति मनो-सामाजिक विकास की आठ अवस्थाओं में से विकसित होता है। ये आठों अवस्थाएँ नई-नई चुनौतियाँ तथा इसी के साथ नये-नये संकट, नई-नई योग्यताएँ एवं शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन अवस्थाओं के दौरान व्यक्ति को आत्म एवं वास्तविकता के बारे में परिवर्तनशील धारणाएँ स्थापित करनी होती है। एरिकसन का मानना है कि प्रत्येक अवस्था में सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रकार की विशेषताएँ होती हैं।
प्रत्येक अवस्था की आयु सीमा, सबलता-निर्बलता तथा पर्यावरणीय प्रभावों पर नीचे चर्चा की जा रही है:
1. विश्वास बनाम अविश्वास – प्रथम वर्ष : एरिकसन का मानना है कि स्वस्थ व्यक्तित्व को अपने आत्म के प्रति विश्वास की आवश्यकता होती है। इसी के साथ उसे दुनियां के प्रति भी विश्वास आवश्यकता होती है। यह विश्वास आयु के प्रथम वर्ष में ही विकसित होता है। विश्वास उत्पन्न हो इसके लिए शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक दोनों प्रकार का आराम बच्चे को प्राप्त होना चाहिए। एक बच्चे में विश्वास की भावना माता-पिता के साथ संबंध की गुणवत्ता से उत्पन्न होती है न कि सिर्फ भोजन व शारीरिक देखभाल से। यदि माता-पिता की देखभाल में स्नेह का अभाव हो या उपेक्षा का भाव हो तो बच्चे में अविश्वास उत्पन्न होगा जो कि बाद के सभी विकासों पर बुरा प्रभाव डालेगा। विश्वास की भावना का मूल है आशा। आशा का अभिप्राय है- योग्यता में विश्वास जो आगे चल कर सफल होगी।
2. स्वशासन बनाम लज्जा (2-3 वर्ष) – इस अवस्था में बच्चे चलायमान हो जाते हैं तथा अपने व्यवहार पर नियंत्रण की भावना प्राप्त करते हैं। वे मैं, तुम, मेरा-तेरा को समझने लगते हैं। यदि माता-पिता बच्चों की पर्यावरण पर नियंत्रण करने की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं तो उनमे-स्वशासन की भावना विकसित होती है, पर यदि माता पिता रोक-टोक करे या बच्चों पर प्रतिबंध लगाये या उन्हें उनकी इच्छानुसार कार्य न करने दे तो उनमें लज्जा का भाव जाग्रत होगा तथा उन्हें अपने पर शंका होने लगेगी; जैसे इस आयु का बच्चा घर पर चाय के कप धोना चाहता है, पर माता-पिता तोड़े जाने या चोट लग जाने के भय से उन्हें मना कर देते हैं। फलतः उनका आत्म-प्रत्यय प्रभावित होगा। एरिकसन का मानना है कि इस आयु में बच्चों पर ज्यादा प्रतिबंध नहीं लगाना चाहिए। विपरीत इसके उनको स्वतंत्रता देनी चाहिए। ऐसा करने से बच्चों में इच्छाशक्ति जाग्रत होगी।
3. उपक्रम बनाम अपराध (4-5 वर्ष) – इस अवस्था में बच्चे समझने लगते हैं कि वे क्या हैं उनमें कल्पना शक्ति का पर्याप्त विकास हो जाता है तथा भाषा पर अच्छी पकड़ आ जाती है। उनके सम्मुख नये-नये कार्यों को करने; जैसे कपड़े पहनना, – नहाना-धोना आदि की चुनौती होती है। यदि माता-पिता उन्हें ऐसे कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं तो उनमें-उपक्रम का भाव प्रबल होगा। विपरीत इसके यदि माता पिता उन्हें डाँटें तो उनमें अपराध बोध जागेगा। उपक्रम की भावना से बच्चों में आगे चलकर कार्य करने के लिए पहल करने का भाव सुदृढ़ होगा।
4. परिश्रम बनाम हीन भावना (6-11 वर्ष) – इन वर्षों में बच्चे शीघ्रता से सीखने, योजना बनाने तथा वस्तुओं का निर्माण करने के लिए तत्पर होते हैं। उनमें परिश्रम करने का भाव होता है। यदि माता-पिता तथा अध्यापक बच्चों के कार्यों को हतोत्साहित करते हैं तो बच्चों में हीन भावना आ जाती है। परिश्रम करने देने से या व्यस्त रहने देने से बच्चों में निपुणता का भाव उत्पन्न हो जाता है।
5. पहचान बनाम पहचान का संकट (12-18 वर्ष)- इस अवस्था में किशोर अपनी भूमिकाओं को पहचानने लगते हैं। अपने लिंग की भूमिकाओं के प्रति वे सजग हो जाते हैं। यदि वे अपनी भूमिकाओं में सफल होते हैं तो उनमें मनोसामाजिक पहचान का भाव सुदृढ़ हो जाता है अन्यथा उनमें अपने बारे में असमंजस पैदा हो जाता है।
6. घनिष्ठता बनाम पृथकता (18-35 वर्ष) : एरिकसन के अनुसार घनिष्ठता का अर्थ है- मित्रों के साथ सच्ची एवं परिपक्व मनो-सामाजिक घनिष्ठता विकसित करने की क्षमता। इसी के साथ यह अन्य लोगों की देखरेख करने की योग्यता है। यदि प्रौढ़ इस भाव को प्राप्त करने में विफल होते हैं तो उनमें पृथकता या अकेलेपन का भाव पनपता है। घनिष्ठता का मूल भाव है प्रेम-प्यार; जिसका एरिकसन के अनुसार अर्थ है- पारस्परिक श्रद्धा की भावना ।
7. उत्पादनशीलता बनाम अवरोधन (35-65 वर्ष)- मध्य आयु में आते-आते लोग समाज एवं अपने बच्चों के भविष्य के बारे में सोचने लगते हैं। एरिकसन इसको अगली पीढ़ी को स्थापित करने तथा उसका मार्गदर्शन करने की चिन्ता के रूप परिभाषित करता है। यदि उत्पादनशीलता (सृजनशीलता) का भाव प्रौढ़ों में न हो तो वे अवरोधन का शिकार हो जाते हैं। उनमें उदासी का भाव जाग जाता है। उत्पादनशीलता के पीछे मूल भावना है – देख-रेख करने की भावना जिसका अभिप्राय है कि व्यक्ति अगली पीढ़ी के कल्याण के लिए उत्तरदायित्व ग्रहण करते हैं।
8. सत्य-निष्ठा बनाम निराशा (65 वर्ष के आगे)- यदि व्यक्ति अपने जीवन पर संतोष के साथ दृष्टिपात करता है अर्थात् वह अपने बीते जीवन पर संतोष अनुभव करता है तथा देखता है कि उसने विजय एवं निराशाओं को अच्छी तरह स्वीकार्य किया है तो उसे सत्य-निष्ठा या इमानदारी का भाव प्राप्त होता है। इसके विपरीत उसमें निराशा का भाव जागता है।
इस तरह हम देखते हैं कि एरिकसन के अनुसार आत्म-प्रत्यय का विकास निश्चित अवस्थाओं में होता है। इसके विकास में जीवन में आने वाली परिस्थितियों की अहम् भूमिका होती है। इन परिस्थितियों से ही सकारात्मक एवं नकारात्मक आत्म-प्रत्यय का विकास होता है।
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