इतिहास के प्रमाणित स्त्रोत के रूप में प्राथमिक स्त्रोतो का वर्णन कीजिए ।
अथवा
प्राथमिक स्त्रोत से क्या अभिप्राय हैं इतिहास के प्राथमिक स्त्रोत के प्रमुख प्रकारों का वर्णन कीजिए।
अथवा
पुरातात्विक स्त्रोत प्राथमिक स्त्रोत के सबसे सशक्त माध्यम हैं, इस कथन का परीक्षण कीजिए।
किसी भी देश की संस्कृति का उत्थान-विकास उसके इतिहास द्वारा ही. जाना जा सकता हैं। इतिहास निर्माण के लिए इतिहास विषयगत प्राथमिक स्त्रोतो को आधार बनाता हैं। इन स्त्रातों में शिलालेख, प्राचीन खण्डहर, भग्नावशेष, स्थापत्य एवं चित्रकला के नमूने, काव्य, कथा, ख्यात वंशावलिया शासकों द्वारा जारी किये गये परवाने गोपनीय दस्तावेज; दानपत्र, पट्टे; सिक्के और राजकीय प्रशासन से संबंधित खाते बहियाँ तथा विदेशी यात्रियों के वृतान्त आदि को इतिहास लेखन में प्राथमिक स्त्रोत के रूप में मान्यता दी जाती हैं। यद्यपि इन स्त्रोतों में राजनैतिक-प्रशासनिक इतिहास की जानकारी अधिक मिलती हैं। साथ ही समाज और संस्कृति की सूचनाएँ भी प्राप्त होती हैं।
1. पुरातात्विक स्त्रोतः- पुरातात्विक स्त्रोत से अभिप्राय उत्खन्न से प्राप्त सामग्री से हैं। जिसके अध्ययन द्वारा इतिहास ऐतिहासिक कालक्रम का निर्धारण करता हैं। वास्तु और शिल्प शैलियों का वर्गीकरण करता है। धार्मिक विश्वास पूजा पद्धति और सामाजिक आर्थिक जीवन का विश्लेषण कर सकता हैं। भारत के प्राचीन और मध्यकाल की पुरातात्विक सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। सिन्धु घाटी व विभिन्न स्थानों पर हुई खुदाई से प्राप्त सामग्री से भारत के प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास का ज्ञान होता हैं।
2. शिलालेख:- पत्थर की शिलाओं पट्टियों भवनों-गुफाओं की दीवारों, मन्दिरों, मठों तथा स्तम्भों, तालाबों- बावड़ियों और खेतों के मध्य जमीन में गढी हुई शिलाओं पर उत्कीर्ण शिलालेख कहलाते हैं। दुर्गों के भीतर भी शिलालेख पाये जाते हैं। शिलालेख संस्कृत, हिन्दी, फारसी, अरबी, उर्दू व स्थानीय भाषाओं में उत्कीर्ण हैं। इतिहास का तिथि-क्रम निर्धारित करने तथा विषय संबंधित तथ्यों की तत्कालिक व मौलिक जानकारी प्राप्त होती हैं। सामन्तों, रानियों तथा समृद्ध नागरिकों द्वारा किये गये निर्माण तथा सतियों की महिमा के गुणगान का भी उल्लेख हैं।
अशोक के अभिलेख हर्षवर्धन का गेजाम अभिलेख आदि उत्कीर्ण सूचनाओं से प्राचीन इतिहास निर्माण में सहायता मिलती हैं। जिन शिलालेखों में मात्र किसी शासक की उपलब्धियों की योग्यता यशोगाथा का वर्णन होता हैं उसे प्रशस्ति कहते हैं।
भारत में मुस्लिम सत्ता की स्थापना के फारसी और उर्दू भाषाओं में उत्कीर्ण लेख मस्जिदों, दरगाहों, कब्रों, राजभवन, सरायों, तालाबों तथा मार्गों पर उपलब्ध हैं। जहाँ मुस्लिम राजनीतिक प्रभुत्व अधिक समय तक रहा जो इतिहास निर्माण में तुलनात्मक व मौलिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।
दानपत्र या ताम्रपत्र:- प्राचीनकाल में राजा-महाराजाओं, रानियों, सामन्तों एवं धनाढ्य वर्ग के लोग जो भूमि या अन्य स्थायी सम्पत्ति जो स्थायी तौर पर दान-पुण्य के रूप में अनुदान में दी जाती थी ताम्रपत्र संस्कृत व स्थानीय भाषा में अधिक होते थे इनका आकार सामान्यत 8″x6″ अथवा 12″ x 8″ (इंच) होता था। इन ताम्रपत्रों को राज परिवार के इष्टदेव के नाम से प्रारम्भ किया जाता था जैसे-श्रीगणेशाय नमः रामोजयतिःश्री राधाकृष्ण: श्री सीता राम आदि। राजा की धर्मपरायणता धार्मिक विश्वासों तथा व्यक्ति विशेषों की जानकारी भी सम्मिलित की जाती थी। पुर के ताम्रपत्र (1535 ई.) से हाड़ा रानी कर्मवती द्वारा जौहर में प्रवेश करते समय दिये गये भूमि अनुदान की जानकारी मिलती हैं।
सिक्के:- भारतीय इतिहास का प्रमुख स्त्रोत मुद्रायें या सिक्के हैं जो विभिन्न समयों में शासकों द्वारा लोहे, ताँबा, चाँदी, सोने व मिश्रित धातुओं के सिक्के प्रचलित किये सिक्के केवल आर्थिक समृद्धि के प्रतीक ही नहीं वरन् भारतीय इतिहास, शासकों में विदेशी संबंध, भाषा का ज्ञान आदि कई प्रकार की ऐतिहासिक जानकारी देते हैं। सिक्कों पर लेख; चिन्ह तथा तिथि व मूल्य के रूप में अंक उत्कण होते हैं।
अजमेर के चौहान शासकों के चाँदी व ताँबे के सिक्के 11 वीं से 13 वीं सदी के इतिहास की जानकारी देते हैं। इस काल के सिक्कों या मुद्राओं को द्रम, विशोषक रूपक या दीनार आदि नामों का प्रयोग किया जाता था। चौहान नरेशों में अजयराज, सोमेश्वर व पृथ्वीराज तृतीय के सिक्के आदि हैं प्राचीनकाल से ही सिक्के दैनिक लेनदेन व्यापार, वाणिज्य, राजकीय आय एवं आर्थिक अवस्था के आधार स्तम्भ रहे हैं। राजनीतिक दृष्टि से सिक्के शासकों की प्रभुसत्ता के प्रतीक माने जाते थे अतः लगभग सभी शासकों ने अपने शासनकाल में सिक्के जारी किये थे। इन सिक्कों से हमें बहुत उपयोगी जानकारी प्राप्त होती हैं। सिक्कों से शासकों की धार्मिक वृत्ति तत्कालीन समाज में प्रचलित वेशभूषा, लिपिभाषा तथा आर्थिक अवस्था का बोध होता हैं।
(iii) पुरालेखीय स्त्रोत:- पुरालेख वह लिखित लेख, नक्शे व छपी सामग्री हैं जो सरकार द्वारा प्राप्त होती हैं जो प्रशासनिक संस्था या अधिकारी द्वारा संभाल कर रखे जाने के लिए किसी अधिकारी को सौंपी जाती हैं अतः जब प्रकाशित या हजी हुई सामग्री, लेख और नक्शे को बड़ी सुरक्षा में रखने की व्यवस्था की जाये तभी वह पुरालेख बनता हैं।
फारसी भाषा में लिखित फरमान, मन्सूर, रूक्का, निशान, हस्बुल हुक्म, रूटकेयात, परवाना तथा वकील रिर्पोट्स महत्वपूर्ण पुरालेख सामग्री हैं। इनमें से फरमान, मन्सूर व रूक्के राजकीय आदेश होते थे जो स्वयं मुगल सम्राट द्वारा जारी किये जाते थे। ये शाही वंश से संबंधित लोगों, मनसबदारों तथा विदेशी शासकों के नाम से जारी किये जाते थे। मुगल सम्राट द्वारा जारी किये गये शाही कागजातों पर सम्राट की मुद्रा होती थी।
आधुनिक ब्रिटिश काल की पुरालेखीय सामग्री अधिकांशतया फाइले और प्रोसीडिंग्ज दस्तावेज राष्ट्रीय अभिलेखागार दिल्ली में प्रचूर मात्रा में सुरक्षित हैं। उनके द्वारा ब्रिटिश सरकार के विभिन्न राज्यों के साथ ईस्ट इण्डिया कम्पनी की संधियों, राजनीतिक संबंध, शासकों से वसूल किये जाने वाले खिराज, राजपूत शासकों के दरबार में ब्रिटिश समर्थक दलों, सैनिक बटालियनों की स्थापना, व्यापार वाणिज्य, चुंगी शुल्क, परिवहन एवं संचार व्यवस्था, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक संबंधी महत्वपूर्ण जानकारी मिलती हैं अतः प्राचीन मध्य व आधुनिक इतिहास का वैज्ञानिक अध्ययन पुरालेखीय सामग्री के तुलनात्मक अध्ययन आदि सम्भव हो सकता हैं।
(iv) समसामयिक अभिलेख:- प्रो. गोटचाक लुईस ने अपनी कृति जनरलाइजेशन इन द राइटिंग ऑफ हिस्ट्री 1963 में लिखा कि समसामयिक या समकालीन अभिलेख एक ऐतिहासिक महत्वपूर्ण दस्तावेज या साक्ष्य हैं जिससे सम्बद्ध व्यक्ति को अपने कार्य सम्पादन के लिए आदेश, निर्देश और अनुदेश दिये जाते हैं। अनुदेश दस्तावेज, नियुक्ति पदच्युत सूचना, युद्धभूमि के आदेश, विदेश मंत्रालय से किसी राजदूत के भेजे हुए आदेश आशुलेखन (स्टेनोग्राफिक) ध्वनि लेखन, रिकॉर्डस व्यापार या विधि संबंधित पेपर्स, हुण्डी विधेयक वरीयतनामा, कर अभिलेख, नोटबुक स्मरण पत्र आदि समसामयिक अभिलेख हैं।
(v) शासकीय दस्तावेजः वित्तीय आंकडें, जनगणना प्रतिवेदन, राष्ट्रीय या प्रादेशिक वार्षिकी विवरण यदि शासकीय दस्तावेज हैं। प्रो. गार्डिनर ने इन शासकीय दस्तावेजों को प्राथमिक स्त्रोत मानने में संदेह व्यक्त करते हुए कहा हैं कि शासकीय दस्तावेज भिन्न भिन्न दलों की सरकारों द्वारा अपने पक्ष को मजबूत बनाये रखने के लिए भी अपने अपने तरीके से तैयार किये जाते हैं जिसमें फर्जी आंकड़ों की सम्भावना भी रहती हैं। ‘वर्तमान में राजनीतिक दल इसके प्रमाण हैं।
(vi) सार्वजनिक दस्तावेज:- (संस्मरण और आत्मकथायें) ये दस्तावेज इतिहासकार लेखन में घटना, तथ्य, समय, वंशावली आदि की जानकारी देने में सहायक होते हैं परन्तु यह अधिक विश्वसनीय नहीं होते हैं। इनको लिखने वाला लेखक अपने प्रारम्भ के स्मरण के सत्यता की कसौटी पर न लिखकर स्मृति के आधार पर ही लिखता हैं। ये जाली लेखक द्वारा भी लिखे जाने से अविश्वसनीय हो सकते हैं। अपनी प्रतिज्ञा को ध्यान में रखकर भी लिखे जाते हैं, इसीलिए इतिहासकार इनका उपयोग करते समय अन्य समसामयिक, शासकीय, गोपनीय प्रतिवेदन साहित्यिक स्त्रोतों आदि से तुलनात्मक अध्ययन करता हैं।
(vii) समाचार-पत्र:- ये महत्वपूर्ण व विश्वसनीय होते हैं क्योंकि घटना के घटित होने के साथ ही प्रकाशित कर दिये जाते हैं। समाचार पत्रों में सूचना, आंकड़ों का विवरण जनमत एक स्त्रोत के रूप में प्रयोग में लिया जाता हैं परन्तु इन सार्वजनिक दस्तावेजों से भी विश्वसनीयता व सत्यता का अभाव दृष्टिगत हो रहा हैं। समाचार पत्रों के सम्पादक, संवाददाता, पत्रकार दलगत राजनीति तथा आर्थिक प्रलोभन के प्रभाव आकर सत्य तथ्य को प्रकाशित नहीं करते हैं। उदाहरण के लिए ब्रिटिश सरकार ने भारतीय भाषाओं (वनक्यूिलर प्रेस) में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों को दुराग्रह वश समय-समय पर प्रतिबन्धित कर दिया था। वे ब्रिटिश सरकार का भारतीयों के प्रति दुराग्रही, शोषणात्मक व अत्याचारपूर्ण व्यवहार के तथ्यों को प्रकाशित करते थे।
(viii) प्रश्नावली: किसी प्रश्न पर लागों के विचार संग्रह करके बनायी गयी प्रश्नावली को एक नवीन प्रणाली के रूप में प्राथमिक स्त्रोत में प्रयोग करता है। प्रश्नावली हैं को एवं इतिहासकार बड़ी सावधानी से तैयार करता हैं अर्थात् प्रश्नों के माध्यम से वह उत्तरदाता को विश्वास में लेकर ही ऐतिहासिक सत्यता की जाँच पड़ताल करता हैं।
(ix) साहित्य:- साहित्य समाज का दर्पण होता हैं। तत्कालीन राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक व भौगोलिक सूचनाओं के विश्वसनीय प्रमुख स्त्रोत ही साहित्यिक स्त्रोत होते हैं। जैसे वैदिक साहित्य, महाकाव्य, पुराण, स्मृति-प्रशस्ति, वंशावली इत्यादि। भाविक ने अपनी कृति द नेचर ऑफ हिस्ट्री में लिखा हैं कि इतिहासकार किसी युग विशेष के प्रमाणिक या काल्पनिक साहित्य की उपेक्षा भी नहीं कर सकता और न उस पर अन्यय रूप से विश्वास कर सकता हैं। साहित्यकार की भांति इतिहासकार भी समसामयिक समाज का प्रतिनिधि तथा काल एवं परिस्थितियों की अनिवार्यता की उपज होता हैं। वह समसामयिक सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति करता है। प्राचीन, मध्य व आधुनिक साहित्य के स्त्रोतों के द्वारा देश काल और समसामयिक परिस्थितियों में इतिहास का लेखन करता है। इतिहास लेखन में अपेक्षाकृत वैज्ञानिक पद्धति का निर्वाह करते हुए लिखे गये ग्रंथों में सबसे पहले बाणभट् का हर्षचरित हैं। कल्हण की राजतरंगिणी भी एक ऐतिहासिक कृति हैं। बाण हर्ष का समसामयिक था और इस ग्रंथ में वर्धन वंश का आरंभिक इतिहास तथा अपने संरक्षक शासक हर्ष का जीवन वृतान्त दिया हैं। इस ग्रंथ में उल्लेखित घटनाओं की पुष्टि अभिलेखित साक्ष्यों से भी होती हैं। राजतरंगिणी का लेखन 1148 ई. में प्रारम्भ हुआ यह किसी एक शासन वंश का ही नहीं अपितु कश्मीर का सामान्य इतिहास हैं। इसमें पूर्ववर्ती शासन वंशी इतिहासों को भी स्त्रोत बनाया गया हैं तथा घटनाओं का भी यथार्थ रूप में चित्रण किया गया हैं।
(x) विदेशी विवरण:- इतिहास लेखन में विदेशी लेखकों तथा समय-समय पर यहाँ आये विदेशी यात्रियों के विवरण से भी अधिकांश रचनाएं समसामयिक होने के कारण विशेष महत्व रखती हैं। प्राचीन काल में सबसे पहले यूनानियों ने भारतीय भूगोल तथा इतिहास के प्रति अपनी रूचि को प्रदर्शित किया। सिंकदर के भारत अभियान के साथ नियकिस, आनिसिकाइरस तथा अरिटोबुलुस तथा परवर्ती लेखक क्विंटस, कर्टियस, स्ट्रोबो, प्लूटार्क, ऐरी मेगस्थनीज (इंडिका) आदि लेखकों की मूल रचनाये तो विद्यमान नहीं हैं परन्तु उनके उद्ववरण परवर्ती लेखकों ने अपनी पुस्तकों में किया हैं। गुप्तकाल की फाहयान (309-414 ई. ) तथा हर्षवर्धन के समय यूवानच्चांग (629-645 ई.) नामक चीनी यात्री बौद्ध ग्रंथों के संग्रह कर अध्ययन करने के उद्देश्य से भारत आये। 13वीं शताब्दी भत्वा नलिन, तिब्बती लेखक तारानाथ ने कंग्यूट और तमूर नामक ग्रंथ लिखे जिनमें भारती इतिहास की घटनाओं की जानकारी प्राप्त होती हैं। महमूद गजनवी के आक्रमणों के समय मुस्लिम पर्यटक व लेखक अलबरूनी ने किताब उल हिन्द, सुलेमान ने सिलसिलात उल ववारीख तथा अलमसूदी ने मरूज उल जदा ऐतिहासिक कृतियों की रचना की। अलबरूनी की 1030 ई. में लिखी तहरीक-ए-हिन्द रचना तत्कालीन भारत की सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक एवं राजनीतिक स्थिति का बोध कराती हैं। अरबी भाषा में इब्नबतूता की रचना रेहला से भारत की भौगोलिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक और राजनीति की जानकारी प्राप्त होती हैं। 17 वीं शताब्दी में बर्नियर, ट्रेवनियर आदि यूरोपियों यात्रियों के विवरण आदि इतिहास लेखन में प्राथमिक स्त्रोत के रूप में महत्वपूर्ण रहे हैं।
इस प्रकार एक इतिहासकार अपने अनुसंधान कार्य को प्राथमिक स्त्रोतों के आधार पर वस्तुनिष्ठ एवं वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान करता हैं। आलोचनात्मक विधियों के द्वारा सत्य की कसौटी पर रखते हुए अपने इतिहास को वर्तमान उपयोगी बनाने का प्रयास करता हैं। प्राथमिक स्त्रोत इतिहास लेखन की प्रमाणिकता विश्वसनीयता को सिद्ध करने के मापदंड हैं।
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