शिक्षण विधियाँ / METHODS OF TEACHING TOPICS

डाल्टन पद्धति का क्या तात्पर्य है ? डाल्टन-पद्धति का उद्देश्य, कार्य प्रणाली एंव गुण-दोष

डाल्टन पद्धति का क्या तात्पर्य है ? डाल्टन-पद्धति का उद्देश्य,  कार्य प्रणाली एंव गुण-दोष
डाल्टन पद्धति का क्या तात्पर्य है ? डाल्टन-पद्धति का उद्देश्य, कार्य प्रणाली एंव गुण-दोष

डाल्टन पद्धति का क्या तात्पर्य है ? डाल्टन पद्धति का सविस्तार वर्णन कीजिए।

डाल्टन पद्धति का तात्पर्य उस शिक्षण पद्धति से है, जिसका आविष्कार अमेरिका निवासी कुमारी हेलन पार्कहर ने सन् 1913 ई० में किया था। ध्यान योग्य बात यह है कि कुमारी हेलन पार्कहरट ने विभिन्न आयु एवं स्तर वाले तीस बालकों को पढ़ाने का कार्य आरम्भ किया था। वे सभी बालकों को सामूहिक रूप से सफलतापूर्वक न पढ़ा सकीं। अतः उन्होंने कुछ बालकों को कार्य के निर्दिष्ट पाठ स्वतन्त्रतापूर्वक करने के लिए दे दिए तथा शेष बालकों को प्रत्यक्ष रूप से पढ़ाती रहीं। इस अनुभव से वे इस निष्कर्ष पर आई कि शिक्षण की अपेक्षा बालक शिक्षक के पथ-प्रदर्शन में रहते हुए निर्दिष्ट पाठों को स्वतन्त्रतापूर्वक पूरा करते हुए कहीं अधिक अच्छा सीखते हैं। दूसरे शब्दों में कक्षा-शिक्षण की अपेक्षा व्यक्तिगत शिक्षण कहीं अधिक उत्तम तथा श्रेष्ठतर है। वस्तुस्थिति यह है कि कुमारी हेलन पार्कहस्ट, डॉ० मैरिया मॉण्टेसरी के सम्पर्क में कुछ समय तक रह चुकी थीं। उस सम्पर्क के फलस्वरूप उनके मन में यह बात घर कर चुकी थी कि व्यक्तिगत विभिन्नता के आधार पर दी जाने वाली शिक्षा अधिक उपयोगी होती है। अतः उन्होंने मॉण्टेसरी-पद्धति की मूल बातों को दृष्टि में रखते हुए अपनी नई शिक्षण पद्धति तैयार की। कुमारी पार्कहस्ट ने अपनी शिक्षण पद्धति के साथ अपना नाम न जोड़कर मेसेच्यूसेट्स राज्य के डाल्टन नगर का नाम जोड़ दिया जहाँ के एक हाईस्कूल में इस पद्धति को सर्वप्रथम सन् 1920 ई० में कार्यान्वित किया गया। उसी समय से कुमारी पार्कहस्ट की शिक्षण पद्धति डाल्टन-पद्धति के नाम से प्रसिद्ध है। इस पद्धति में कक्षा के तीव्र एवं मन्द बुद्धि वाले सभी बालकों को अलग-अलग कार्य दे दिया जाता है, जिसे वे अपनी-अपनी रुचियों के अनुसार प्रयोगशाला में स्वतन्त्रतापूर्वक पूरा करते रहते हैं। इससे सभी बालक स्वशिक्षा एवं अपने-अपने निजी अनुभवों द्वारा स्कूल के सामाजिक वातावरण में रहते हुए अपने-अपने व्यक्तित्व का उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से स्वाभाविक विकास करते रहते हैं। कुमारी हेलन पार्कहस्ट अपनी शिक्षण पद्धति के सम्बन्ध में स्वयं लिखती हैं—”डाल्टन-पद्धति एक यान्त्रिक व्यवस्था है, जिसमें वैयक्तिक कार्य के सिद्धान्त को कार्य में लाया जाता है। यह स्कूलों का सरल तथा आर्थिक पुनर्संगठन है, जहाँ शिक्षक और बालकों को अधिक उपयोगी रूप से कार्य करने का अवसर प्राप्त होता है।”

डाल्टन-पद्धति का उद्देश्य

बीसवीं शताब्दी में रूसो, पेस्टोलॉजी, हरबार्ट एवं फ्रोबेल तथा डॉ० मैरिया मॉण्टेसरी आदि अनेक शिक्षाशास्त्रियों ने प्रचलित शिक्षक-प्रधान शिक्षा का विरोध करते हुए बाल केन्द्रित शिक्षा पर बल दिया। फिर भी कक्षा में तीव्र बुद्धि वाले बालकों को तीव्र गति से एवं मन्द बुद्धि वाले बालकों को मन्द गति से स्वतन्त्रतापूर्वक शिक्षा प्राप्त करने के अवसर नहीं मिलते थे। दूसरे शब्दों में, सभी बालकों को एक ही प्रकार की शिक्षा दी जाती थी। कुमारी हेलन पार्कहस्ट ने अपनी शिक्षण पद्धति में जहाँ एक ओर बालक को मुख्य स्थान दिया, वहीं दूसरी ओर उसके व्यक्तित्व को स्वतन्त्र वातावरण में उसकी ही गति के अनुसार विकसित करने पर बल दिया। कहने का अभिप्राय यह है कि कुमारी पार्कहस्ट ने कक्षा शिक्षण की अपेक्षा व्यक्तिगत शिक्षण के महत्व को स्वीकार करके कक्षा में ऐसी परिस्थितियों के निर्माण करने पर बल दिया जिसमें प्रत्येक बालक व्यक्तिगत रूप से अपनी-अपनी गति के साथ विकसित हो सके। इस प्रकार डाल्टन-पद्धति का उद्देश्य बालकों को वैयक्तिक रूप से शिक्षा देना है। कुमारी पार्कहस्ट के अनुसार- “डाल्टन योजना का उद्देश्य साधारण कक्षाओं के स्थान पर बालक तथा बालिकाओं को पूर्णतया भिन्न परिस्थितियों में रखकर नए  “का हस्तक्षेप नहीं करतीं। प्रत्येक बालक अपनी-अपनी निजी आवश्यकता के अनुसार समय का विभाजन करता है। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक बालक की अपनी-अपनी निजी समय-सारिणी होती है, जिससे कभी भी आवश्यकतानुसार कम या अधिक कार्य किया जा सकता है।

2. सहयोग का सिद्धान्त – यद्यपि डाल्टन-पद्धति में प्रत्येक बालक अपना-अपना कार्य अपनी-अपनी रुचियों तथा आवश्यकताओं के अनुसार करता है, फिर भी इसके अन्तर्गत सामूहिक रूप से कार्य करने की नीति का खण्डन नहीं किया जाता। प्रायः सभी बालकों को अपनी-अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिए सहायता की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे समय में यदि किसी कारण से शिक्षक उनकी व्यक्तिगत सहायता न कर सके तो वे अपने साथियों से सम्मति ले सकते हैं।

3. व्यक्तिगत कार्य का सिद्धान्त- कक्षा के सभी बालक शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से भिन्न होते हैं। डाल्टन-पद्धति व्यक्तिगत विभिन्नता के सिद्धान्त का समर्थन करती हुई प्रत्येक बालक को अपनी-अपनी रुचियों, प्रवृत्तियों, क्षमताओं तथा योग्यताओं तथा आवश्यकताओं के अनुसार कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करती है। इस पद्धति में प्रत्येक बालक अपनी-अपनी गति के साथ कार्य करता है। अतः जिस विषय में जो बालक कमजोर हो, वह उस विषय में बिना किसी संकोच तथा बन्धन के अधिक समय लगा सकता है।

4. स्व-प्रयास का सिद्धान्त डाल्टन पद्धति में प्रत्येक बालक स्व-प्रयास द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है। दूसरे शब्दों में, इस पद्धति के अन्तर्गत बालक को अपनी समस्या का ज्ञान होता है, जिसे वह स्वयं ही सुलझाता है। शिक्षक उसके किसी कार्य में किसी प्रकार का कोई हस्तक्षेप नहीं करता। शिक्षक का कार्य तो बालकों को आवश्यकता पड़ने पर केवल पथ-प्रदर्शन करना है।

डाल्टन-पद्धति की कार्य प्रणाली

डाल्टन पद्धति की कार्य प्रणाली निम्नलिखित है-

डाल्टन पद्धति में स्कूल प्रातःकाल 9 बजे से सायंकाल 4 बजे तक लगता है। प्रातःकाल स्कूल में शिक्षक तथा बालकों का एक सम्मेलन होता है। इस सम्मेलन में शिक्षक बालकों को तीस से पचास मिनट तक उनके कार्य के सम्बन्ध में आवश्यक निर्देशन देता है। उसके बाद सभी बालक प्रयोगशाला में जाकर अपनी-अपनी रुचि, योग्यता तथा गति के अनुसार अपना अपना कार्य स्वतन्त्रतापूर्वक करना आरम्भ कर देते हैं। वे एक प्रयोगशाला से दूसरी प्रयोगशाला में इच्छा अनुसार जा सकते हैं तथा जितनी देर जिस किसी विषय के सम्बन्ध में कार्य करना चाहें, कर सकते हैं। बीच में कुछ देर का अवकाश होता है। उसके बाद बालक फिर अपना-अपना कार्य करना आरम्भ कर देते हैं। सायंकाल सभी बालक व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रूप से वाद-विवाद या विचार-विमर्श में भाग लेते हैं। इस प्रकार डाल्टन पद्धति के अन्तर्गत स्कूल प्रभात की बेला से सन्ध्या समय तक चलता ही रहता है। इस पद्धति की कार्य प्रणाली में निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया जाता है-

1. पाठ का ठेका- डाल्टन पद्धति में शिक्षक प्रत्येक विषय के कार्य को वर्ष के 12 महीनों के हिसाब से 12 भागों में बाँट देता है। प्रत्येक विषय का प्रत्येक भाग ठेका कहलाता है। सभी बालक किसी महीने के कार्य या ठेके को स्वीकार करने से पूर्व यह प्रतिज्ञा करते हैं कि वे उस कार्य को निश्चित समय के अन्दर समाप्त कर देंगे, तथा करते भी हैं।

2. निर्दिष्ट पाठ- महीने के कार्य को ठेके के रूप में निश्चित करके उसे साप्ताहिक कार्य के रूप में चार भागों में विभाजित कर दिया जाता है। इसी साप्ताहिक कार्य को निर्दिष्ट पाठ की संज्ञा दी जाती है। संक्षेप में, एक महीने के चार निर्दिष्ट पाठ होते हैं।

3. इकाई- हम ऊपर बता चुके हैं कि डाल्टन-पद्धति के अन्तर्गत प्रत्येक ठेके में चार निर्दिष्ट पाठ होते हैं। इन निर्दिष्ट पार्टी को सुविधा के लिए अलग-अलग पाँच भागों में विभाजित कर दिया जाता है। इन भागों को इकाई कहते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि एक महीने के कार्य अथवा ठेके में चार निर्दिष्ट पाठ अथवा बीस इकाइयाँ होती हैं। स्मरण रहे कि डाल्टन-पद्धति में एक इकाई का एक दिन का कार्य होता है, किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक बालक कार्य की उस इकाई को एक ही दिन में पूरा कर ले। हो सकता है कि कोई मन्द-बुद्धि वाला बालक मन्द गति से कार्य करने के कारण उसे दो दिन में पूरा करे और एक प्रखर बुद्धि वाला बालक तीव्र गति से कार्य करने के कारण पूरे महीने के ठेके को केवल 15 दिन में ही पूरा कर ले। ध्यान देने की बात है कि डाल्टन-पद्धति की यह विशेषता है कि जो तीव्र बुद्धि वाले बालक अपने ठेके को समय से पहले पूरा कर लेते हैं, उन्हें अगले महीने का ठेका दे दिया जाता है। शेष बालकों से ठेके को समय के अन्दर पूरा कराने का प्रयास कराया जाता है।

4. प्रयोगशालायें- डाल्टन-पद्धति में कक्षाओं की जगह हिन्दी, इतिहास एवं गणित आदि विषयों की अलग-अलग प्रयोगशालायें होती हैं। इन प्रयोगशालाओं में प्रत्येक बालक अपने-अपने ठेके को पूरा करने के लिए अपने-अपने स्थान पर अपनी-अपनी गति के साथ स्वतन्त्रतापूर्वक जितनी देर चाहे कार्य करता है।

5. सम्मेलन- डाल्टन पद्धति में बालक स्वप्रयास द्वारा अपना-अपना कार्य ही नहीं करते, अपितु वे विभिन्न विषयों की प्रयोगशालाओं में तीसरे दिन एकत्रित होकर विषय विशेषज्ञों की देख-रेख में अपनी-अपनी कठिनाइयों के सम्बन्ध में चाद-विवाद या विचार-विमर्श भी करते हैं। इससे बालकों का सामाजिक विकास भी होता है। बालकों के इस प्रकार से एकत्रित होने को डाल्टन पद्धति में सम्मेलन की संज्ञा दी जाती है। इन सम्मेलनों में बालकों की सामूहिक कठिनाइयों को दूर करने के लिए शिक्षक आवश्यक पथ-प्रदर्शन भी कर सकता है।

6. प्रगति लेखा- प्रत्येक बालक की विभिन्न विषयों में प्रगति का पता लगाकर उनको आवश्यक सूचना देने के लिए प्रगति सूचक रेखाचित्र तैयार किए जाते हैं। ये रेखाचित्र तीन प्रकार के होते हैं—(1) पाठ के ठेके के रेखाचित्र, (2) निर्दिष्ट पाठ के रेखाचित्र तथा (3) इकाई रेखाचित्र। पाठ के ठेके के रेखाचित्रों में प्रत्येक बालक की, प्रत्येक विषय की, प्रत्येक महीने की प्रगति अंकित की जाती है। निर्दिष्ट पाठ के रेखाचित्रों में विभिन्न विषयों की एक सप्ताह में होने वाली प्रगति का विवरण दिया जाता है। ऐसे ही इकाई रेखाचित्रों में प्रत्येक बालक की प्रत्येक दिन की प्रगति अंकित की जाती है। इस प्रकार प्रगति सूचक रेखाचित्रों द्वारा प्रत्येक बालक की प्रगति का पता सहज ही में लग जाता है।

डाल्टन-पद्धति के गुण

डाल्टन-पद्धति के गुण निम्नलिखित हैं-

1. बालकों के लिए आवश्यक प्रेरणा निश्चित- डाल्टन पद्धति एक सोद्देश्य पद्धति है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक बालक के सामने कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है। उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए बालक आवश्यक रूप से प्रेरित हो जाते हैं। इससे वे उस समय तक लगनपूर्वक कार्य करते रहते हैं, जब तक उद्देश्य प्राप्त नहीं हो जाता।

2. बालक की अनुपस्थिति का उसके कार्य पर बुरा प्रभाव नहीं – कक्षा शिक्षण पद्धति में बालकों की अनुपस्थिति का उनकी शिक्षा पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसका एकमात्र कारण यह है कि कक्षा-शिक्षण पद्धति में पाठ दोहराया नहीं जाता। अतः इस विधि में बालकों की कक्षा से अनुपस्थिति का उनकी शिक्षा पर बुरा प्रभाव पड़ता है। यह बात डाल्टन-पद्धति में नहीं है। इस विधि में यदि कोई बालक किसी कारण से कुछ दिन कक्षा में न आ पाए तो वह अनुपस्थिति रहने पर भी अपने कार्य को वहीं से करना आरम्भ कर देता है, जहाँ से वह छोड़ कर गया था। इससे उसकी अनुपस्थिति का उसकी प्रगति पर किसी प्रकार का बुरा प्रभाव नहीं पड़ता।

3. व्यक्तिगत निर्देशन पर बल- परम्परागत शिक्षण विधियों का प्रमुख उद्देश्य यह है कि उनका अनुसरण करते समय शिक्षक को प्रखर तथा मन्द-बुद्धि वाले बालकों की उपेक्षा करके सामान्य बुद्धि वाले बालकों के साथ चलना पड़ता है। इससे व्यक्तिगत विभिन्नता के सिद्धान्त की अवहेलना होती है। डाल्टन-पद्धति में मॉण्टेसरी-पद्धति की भाँति सभी बालकों को अपनी-अपनी रुचियों, क्षमताओं एवं योग्यताओं के अनुसार अपनी-अपनी गति से कार्य करने के अवसर मिलते हैं, जिसके परिणामस्वरूप वे प्रखर बुद्धि वाले बालकों के साथ तीव्र गति से तथा मन्द बुद्धि वाले बालकों के साथ मन्द गति से चलने की असुविधा से मुक्त हो जाते हैं। संक्षेप में, जिस प्रकार मॉण्टेसरी-पद्धति 3 से 7 वर्ष तक के शिशुओं के लिए गुणकारी है, ठीक उसी प्रकार डाल्टन-पद्धति भी 8 से 12 वर्ष तक के बालकों को वैयक्तिक रूप से शिक्षित करने के लिए अत्यन्त उपयोगी है।

4. शिक्षकों तथा बालकों में परस्पर सम्वन्ध अधिक उत्तम- डाल्टन पद्धति में शिक्षक पथ-प्रदर्शक तथा मित्र के रूप में कार्य करता है। अतः इस पद्धति में बालक परम्परागत पद्धतियों की भाँति शिक्षक से भयभीत नहीं रहते वरन् अपनी-अपनी समस्या को सुलझाने के लिए उससे आवश्यक सहायता लेते रहते हैं। इससे शिक्षकों तथा बालकों में परस्पर सम्बन्ध अधिक उत्तम बने रहते हैं।

5. प्रोगामिता, साधनपूर्णता, आत्मविश्वास तथा आत्म-निर्भरता का विकास- डाल्टन-पद्धति में बालकों को पकापकाया ज्ञान नहीं मिलता, अपितु उन्हें अपने-अपने निर्दिष्ट पाठ को स्वयं ही पूरा करना पड़ता है। इसके लिए उन्हें आवश्यक पाठ्य पुस्तकों तथा संदर्भ पुस्तकों का अध्ययन करते हुए अन्य महत्वपूर्ण स्रोतों की सहायता भी लेनी पड़ती है। ऐसी स्वशिक्षा एवं आत्मप्रयासों के फलस्वरूप बालकों में अध्ययन करने की वांछनीय आदत विकसित होती है, उनका श्रम के प्रति आदरपूर्ण दृष्टिकोण विकसित होता है तथा उनमें प्रोगामिता, साधनपूर्णता, आत्म-विश्वास तथा आत्म-निर्भरता आदि अनेक गुण सहज ही में विकसित हो जाते हैं।

6. अनुशासन की कोई समस्या नहीं – डाल्टन पद्धति में सभी बालक समय-सारिणी के कठोरपन, घण्टों के बार-बार बजने तथा हर प्रकार के बाह्य दबाव से मुक्त रहकर अपने-अपने कार्य को स्वतन्त्र वातावरण में रहते हुए उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से करते हैं। सभी शिक्षक बालकों का विश्वास करते हैं तथा आशा करते हैं कि वे अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अपने ठेके को समय के अन्दर समाप्त करेंगे। विश्वास की यह भावना अनुशासन के स्थापित करने में आश्चर्यजनक सहायता करती है। इस प्रकार डाल्टन-पद्धति में अनुशासन की कोई समस्या नहीं आती।

7. गृह-कार्य की समस्या का सरल समाधान – डाल्टन पद्धति में गृह कार्य की समस्या अपने ही आप सुलझ जाती है। चूंकि प्रयोगशालाओं में प्रत्येक बालक को हर प्रकार की सुविधा मिलती है, इसलिए अपने कार्य को घर पर पूरा करने की अपेक्षा वे कुछ समय के लिए प्रयोगशाला में ही रुक जाते हैं। इस प्रकार डाल्टन-पद्धति में गृह कार्य की समस्या का समाधान भी सरलतापूर्वक हो जाता है।

8. उत्तरदायित्व की भावना का विकास- डाल्टन-पद्धति में सभी बालक पाठ का ठेका लेने से पूर्व यह प्रतिज्ञा करते। हैं कि वे अपने-अपने कार्य को निश्चित समय के अन्दर समाप्त कर देंगे। अतः इस पद्धति में बालक सक्रिय रहते हुए बड़ी लगन के साथ कार्य करते हैं। इससे उनमें उत्तरदायित्व की भावना विकसित हो जाती है।

9. वैयक्तिक तथा सामूहिक शिक्षण में सामंजस्य- डाल्टन पद्धति में प्रत्येक बालक अपने-अपने ठेके को प्रयोगशाला में स्व-शिक्षा तथा निजी प्रयासों द्वारा पूरा करता है। साथ ही वह अपनी कठिनाइयों को सुलझाने के लिए अपने साथियों की सहायता भी लेता है। अन्त में, जब ठेका पूरा हो जाता है तो उसका मूल्यांकन भी सामूहिक रूप से किया जाता है। इससे इस पद्धति में बालकों का व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों प्रकार का विकास होते हुए वैयक्तिक तथा सामूहिक दोनों प्रकार के शिक्षण में सामंजस्य स्थापित हो जाता है।

10. परीक्षा की समस्या नहीं – सभी जानते हैं कि परीक्षा की समस्या एक जटिल समस्या है। डाल्टन-पद्धति में परीक्षा की कोई समस्या ही नहीं है। इस पद्धति में प्रत्येक बालक अपने वर्ष भर के ठेके को परीक्षा के लिए अपितु अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार पूरा करता है। प्रत्येक बालक के रेखाचित्रों से उसकी प्रगति का बोध हो जाता है। इससे शिक्षक बालकों की परीक्षा लेने, अंक चढ़ाने एवं परीक्षाफल तैयार करने की मुसीबतों से बच जाता है। जब बालक को रेखाचित्र से यह पता चल जाता है कि उसने वर्ष भर का ठेका पूरा कर लिया तो उसे अगली कक्षा में चढ़ा दिया जाता है। इस प्रकार डाल्टन पद्धति में परीक्षा रूपी जटिल समस्या अपने ही आप सुलझ जाती है।

डाल्टन-पद्धति के दोष

डाल्टन-पद्धति के दोष निम्नलिखित हैं-

1. सामान्य तथा कमजोर बालकों के लिए हानिकारक – डाल्टन पद्धति चतुर बालकों के लिए तो लाभप्रद परन्तु सामान्य तथा कमजोर बालकों के लिए हानिकारक है। इसका कारण यह है कि चतुर बालक अपना ठेका पूरा करने के लिए प्रायः शिक्षक का अधिक समय ले लेते हैं। इससे सामान्य एवं कमजोर बालक शिक्षक के पथ-प्रदर्शन से वंचित रह जाते है। ऐसी स्थिति में वे जब अपने कार्य को पूरा नहीं कर पाते तो वे चतुर बालकों की अभ्यास-पुस्तिका से नकल 433. अपने कार्य को पूरा करने का प्रयास करते हैं। इससे उनका मानसिक तथा चारित्रिक विकास कुण्ठित हो जाता है। अतः है डाल्टन पद्धति सामान्य तथा कमजोर बालकों के लिए उचित नहीं है।

2. वैयक्तिक प्रवृत्ति का विकास- डाल्टन-पद्धति वैयक्तिक शिक्षण पर बल देती है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक बालक को अपना-अपना साल भर का ठेका स्वशिक्षा एवं स्वप्रयास द्वारा पूरा करना पड़ता है। ध्यान देने की बात है कि यद्यपि इस पद्धति में सभी बालक एक-दूसरे की सहायता भी ले सकते हैं, परन्तु चूँकि प्रत्येक बालक को पहले अपना कार्य समाप्त करने की चिन्ता लगी रहती है, इसलिए वे स्वार्थी बन जाते हैं। संक्षेप में मॉण्टेसरी-पद्धति की तरह डाल्टन-पद्धति भी बालकों के अन्दर सामूहिक भावना की अपेक्षा वैयक्तिक प्रवृत्ति विकसित करती है।

3. विशेषीकरण पर बल- डाल्टनपद्धति विशेषीकरण पर बल देती है। छोटी आयु के बालकों को विशेषीकरण के लिए बाध्य करना उचित नहीं है। इसका कारण यह है कि विशेषीकरण से उनके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास न होकर केवल एकांगी विकास ही रह जाता है।

4. पूर्णतया बौद्धिक- डाल्टन पद्धति क्रिया द्वारा सीखने के सिद्धान्त पर अवश्य बल देती है, किन्तु इसके द्वारा बालकों की केवल बौद्धिक क्रियाओं को ही प्रोत्साहित किया जाता है, सहगामी क्रियाओं को नहीं। इससे बालकों का बौद्धिक विकास तो किसी सीमा तक अवश्य हो जाता है, परन्तु वे सामाजिक दृष्टि से अविकसित ही रह जाते हैं।

5. लिखित कार्य पर अधिक बल – डाल्टन-पद्धति में मौखिक कार्य की अपेक्षा लिखित कार्य पर अधिक बल दिया जाता है। इससे बालकों को लिखने का अभ्यास तो अवश्य हो जाता है, किन्तु वे मौखिक कार्य करने में पीछे रह जाते हैं। इससे उनका समुचित विकास नहीं हो पाता।

6. पुराने शिक्षकों का विरोध- डाल्टन-पद्धति को पुराने शिक्षक नहीं चाहते। वे अपनी सत्ता को छोड़कर बालकों को स्वतन्त्र वातावरण में रखते हुए स्व-प्रयासों द्वारा स्व-शिक्षा का विरोध करते हैं। इससे डाल्टन-पद्धति के सफल होने की आशा नहीं है।

7. भवन तथा आवश्यक साज-सज्जा सम्बन्धी रुकावटें- डाल्टन-पद्धति की सफलता के लिए प्रयोगशालायें, उपयुक्त पाठ्य-पुस्तकें, संदर्भ पुस्तकें तथा नाना प्रकार के शिक्षण-यन्त्रों का होना परम आवश्यक है। उक्त सभी बातों के लिए धन की आवश्यकता है। अतः इस पद्धति का प्रयोग केवल समृद्धिशाली एवं धनवान देश ही कर सकते हैं। भारत जैसे निर्धन देश में बड़ी-बड़ी प्रयोगशालाओं तथा व्यय-साध्य साज-सज्जा का प्रबन्ध नहीं किया जा सकता। अतः हमारे यहाँ कक्षा विधि को छोड़कर डाल्टन-पद्धति का प्रयोग किया जाना सम्भव नहीं है।

8. व्यक्तिगत शिक्षा की समस्या का समाधान भी पूर्ण नहीं – डाल्टन-पद्धति में प्रत्येक बालक को व्यक्तिगत रूप से साल भर का ठेका अवश्य दिया जाता है, परन्तु सभी बालकों को एक ही प्रकार के निर्दिष्ट पाठ दिए जाने से वे उन्हें अपनी रुचियों का गला घोंट कर एक ही विधि से पूरा करते हैं। इस प्रकार डाल्टन-पद्धति व्यक्तिगत विभिन्नता के आधार पर शिक्षा देने का ढोल तो अवश्य पीटती है, परन्तु वास्तविकता यह है कि इसके द्वारा व्यक्तिगत शिक्षण की समस्या का समाधान पूर्णरूप से नहीं होता।

9. विभिन्न विषयों का समन्वय असम्भव-डाल्टन पद्धति द्वारा शारीरिक प्रशिक्षण, कविता एवं भाषा आदि विभिन्न विषयों को प्रयोगशाला में नहीं पढ़ाया जा सकता। उक्त विषयों की शिक्षा शिक्षक की प्रत्यक्ष सहायता द्वारा केवल सामूहिक रूप से ही हो सकती है। इसके अतिरिक्त डाल्टन-पद्धति में सभी बालक प्रत्येक विषय विशेषज्ञों की देख रेख में करते हैं। ये विषय-विशेषज्ञ अपने-अपने विषयों की अपेक्षा अन्य विषयों को कोई महत्व नहीं देते। इससे इस पद्धति में पाठ्यक्रम के विभिन्न विषयों का परस्पर समन्वय स्थापित करना असम्भव है।

10. डाल्टन-पद्धति के लिए प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव – डाल्टन पद्धति को सफल बनाने के लिए डाल्टन-पद्धति में प्रशिक्षण प्राप्त योग्य, कुशल एवं अनुभवी शिक्षकों की आवश्यकता है, जिससे वे सालभर के ठेके के अनुसार निर्दिष्ट पाठ तैयार करके बालकों का उचित पथ-प्रदर्शन द्वारा उन्हें पूरा कर सकें। साधारण स्तर तथा अनुभवहीन शिक्षक इस पद्धति का प्रयोग सफलतापूर्वक नहीं कर सकते। अतः डाल्टन-पद्धति का प्रयोग करने से पहले ऐसे शिक्षकों को प्रशिक्षित करना परम आवश्यक है जो इस पद्धति को सफल बना सके। यह कार्य असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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