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बालिका विद्यालयीकरण की समस्याओं एवं समाधान पर प्रकाश डालें।
बालिका विद्यालयीकरण की समस्याएँ एवं समाधान – बालिका विद्यालयीकरण की समस्याएँ घर तथा बाहर दोनों ही स्थलों पर व्याप्त है। घर में माता-पिता बालिकाओं को जब विद्यालय भेजते हैं तो बालिकाओं की शिक्षा हेतु उन्हें हतोत्साहित किया जाता है, ताने तथा रिवाजों का हवाला दिया जाता है, बालिका शिक्षा को समाज के लिए खतरा बताया जाता है, बालिकाओं के अस्तित्व और पहचान पर प्रश्न-चिह्न खड़े किये जाते हैं तथा सामाजिक असुरक्षा का वातावरण सृजित किया जाता 1 बालिका विद्यालयीकरण में घर के सदस्यों विशेषतः माता-पिता और अभिभावक के दृष्टिकोण का प्रभाव सकारात्मक तथा नकारात्मक रूप से पड़ता है। अभिभावक यदि बन्द तथा रूढ़िवादी सामाजिक विचारधारा से ओत-प्रोत हैं तो बालिकाओं की शिक्षा ऐसे घर-परिवार में दुष्कर हो जाती है। बालिकाओं की पहचान पर प्रश्न चिह्न उठाने वाली बालिका विद्यालयीकरण की समस्याएँ निम्न प्रकार हैं-
1. लिंगीय असमानता— भारत में लड़की तथा लड़के के लिए दृष्टिकोण में भिन्नता है जिसके कारण लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की शिक्षा की आवश्यकता महसूस नहीं की जाती है। लड़कियों को घर की चारदीवारी के भीतर की ही शोभा माना जाता है और लड़कों को आजादी दी जाती है जिससे बालिका विद्यालयीकरण अवरोधित होता है। लिंगीय असमानता के कारण बालिकाओं को शिक्षा के समान अवसर नहीं मिल पाते हैं। लिंगीय भेद-भाव के कारण बालक और बालिकाओं के मध्य ‘शिक्षा की खाई’ को निम्न तालिका के द्वारा देखा जा सकता है—
लिंगानुसार भारत में साक्षरता (1981-2001)
लिंग | वर्ष 1981 | वर्ष (1991) | वर्ष (2001) |
पुरुष स्त्री कुल अन्तर (पुरुष और स्त्री) |
56.37 29.75 43.56 26.62 |
64.13 39.39 52.20 24.84 |
75.85 54.16 65.38 21.69 |
उपर्युक्त तालिका द्वारा स्पष्ट है कि हम सभ्य तथा सुशिक्षित तो होते जा रहे हैं, परन्तु बालक तथा बालिकाओं की शिक्षा में अन्तर को कम नहीं किया जा रहा है। यह लिंगीय असमानता के परिणामस्वरूप ही है।
समाधान- लिंगीय असमानता में कमी लाने तथा बालिका विद्यालयीकरण को प्रोत्साहित करने हेतु सुझाव निम्न प्रकार हैं-
(i) घर और बाहर बेटियों को भी सम्मान तथा अवसर प्रदान करना ।
(ii) बालिकाओं को बालकों से हीन न समझना ।
(iii) प्रौढ़ शिक्षा के द्वारा प्रौढ़ों को इस विषय में जागरूक करके ।
2. रूढ़िवादी विचार – भारत में अशिक्षा के कारण समाज अभी भी रूढ़िवादी विचारधारा से ओत-प्रोत है, जैसे लड़की पराया धन है, लड़की मुखाग्नि तथा वंश चलाने का कार्य नहीं कर सकती, लड़की को शिक्षित करने से वंश की इज्जत पर खतरा उत्पन्न हो जायेगा तथा कुछ लोगों का तो यहाँ तक मानना है कि बालिकाएँ यदि शिक्षित होंगी तो वे पत्नी-धर्म का पालन और परिवार को ठीक से नहीं चला सकतीं और दैवीय कोप के कारण वे विधवा भी हो जाती हैं। ऐसे रूढ़िवादी विचार जहाँ बालिकाओं के लिए हों वहाँ बालिका विद्यालयीकरण के क्षेत्र में आने वाली समस्याओं का आकलन सहज ही लगाया जा सकता है ।
समाधान— इस समस्या का समाधान निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत वर्णित है—
(i) बालिकाओं की शिक्षा के प्रसार हेतु विशेष सुविधाएँ तथा जागरूकता कार्यक्रम चलाये जाने चाहिए ।
(ii) बालिका शिक्षा को व्यक्तिगत उत्तरदायित्व से लेकर सामूहिक जवाबदेही तक बनाना चाहिए।
(iii) शिक्षित बालिकाओं की उपलब्धियों और कार्यों से लोगों को अवगत कराना चाहिए।
(iv) सामाजिक जागरूकता लाना ।
3. अशिक्षा — भारतीय समाज में अभी भी अशिक्षा व्याप्त है। तमाम प्रयासों के पश्चात् भी जनसामान्य की शिक्षा अवरोधित हो रही है, जिस कारण बालिका विद्यालयीकरण अवरोधित हो रहा है । उन्नीसवीं तथा बीसवीं सदी में लिंगानुपात तथा स्त्री और पुरुष साक्षरता प्रतिशत निम्न प्रकार है—
जनगणना वर्ष | लिंगानुपात | साक्षरता प्रतिशत |
पुरुष | स्त्री | ||
1901 1911 1921 1931 1941 1951 1961 1971 1981 1991 2001 2011 |
972 964 855 950 945 946 941 930 935 927 933 940 |
9.83 10.56 12.21 15.59 24.90 24.09 34.4 39.5 46.7 64.8 75 82.1 |
0.69 1.05 – 2.93 6.0 8.86 15.35 21.97 23.76 39.39 53.67 65.5 |
पुरुष साक्षरता के अनुपात में स्त्री साक्षरता की स्थिति अभी भी शोचनीय है, जिस कारण स्त्रियों की शिक्षा का समुचित प्रबन्धन नहीं किया जाता है।
समाधान- अशिक्षा बालिका विद्यालयीकरण की प्रमुख समस्या है। इसके समाधान हेतु सुझाव निम्न प्रकार हैं— (i) शिक्षा का प्रचार-प्रसार। (ii) प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था (iii) स्त्री-पुरुष साक्षरता के मध्य जो खाई है, उसे किसी भी प्रकार कम करने का प्रयास करना ।
4. सामाजिक परिवेश- सामाजिक परिवेश का प्रभाव बालिकाओं के विद्यालयीकरण पर अत्यधिक पड़ता है। भारतीय सामाजिक परिवेश बन्द तथा रूढ़िवादी है, जिसके कारण बालिकाओं को बालकों की अपेक्षा हीन समझा जाता है और बाल-विवाह, पर्दा प्रथा, दहेज-प्रथा इत्यादि सामाजिक कुरीतियों के कारण बालिकाओं की शिक्षा और भी अवरुद्ध होती है। अभी भी हमारे समाज में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम बनने के बाद भी विधवाओं के पुनर्विवाह को अच्छा नहीं माना जाता है और इनको शिक्षा प्राप्त करने से वंचित कर दिया जाता है।
समाधान – सामाजिक परिवेश को बालिकाओं के विद्यालयीकरण हेतु अनुकूल बनाने हेतु सुझाव निम्न प्रकार हैं-
(i) सामाजिक कुरीतियों की समाप्ति ।
(ii) कानूनी प्रावधानों का सख्ती से पालन।
(iii) गतिशील समाज की स्थापना की जानी चाहिए।
(iv) प्रगतिशील समाजों में स्त्रियों की दशा का अनुकरण करना चाहिए ।
5. आर्थिक समस्या- बालिका विद्यालयीकरण का एक कारण आर्थिक समस्या है, जिससे बालिकाओं को बालकों के समान शिक्षा के अवसर नहीं मिल पाते हैं, अतः इनकी शिक्षा अवरोधित हो जाती है। आर्थिक समस्या के कारण माता-पिता भले ही प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क हो, परन्तु चार पैसे कमाने और दो समय के भोजन का प्रबन्ध करने के लिए बालिकाओं को काम पर लगा देते हैं या माता-पिता रोजगार के अवसरों को तलाशते हैं और बेटियाँ छोटे भाई-बहनों की देख-रेख का कार्य करती हैं।
समाधान- इस अवरोधन के समाधान निम्न प्रकार हैं-
(i) बालिकाओं की शिक्षा को भी बालकों की शिक्षा के समान महत्त्व देना ।
(ii) शिक्षा के द्वारा स्वर्णिम भविष्य को साकार होने की कल्पना ।
(iii) शिक्षा द्वारा दक्षता तथा जीविकोपार्जन की योग्यता विकसित करके ।
(iv) रोजगार गारण्टी योजनाओं बालिका शिक्षा योजनाओं से लाभ प्राप्त करना ।
(v) बालिका विद्यालयीकरण के लिए अभिभावकों को प्रेरित करना ।
6. दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली- शिक्षा प्रणाली में अनेक दोष शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर विद्यमान हैं, जिनके विषय में समय-समय पर गठित आयोगों ने दृष्टि केन्द्रित की है। हमारी शिक्षा प्रणाली में व्याप्त दोष अग्र प्रकार हैं-
दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली
- दोषपूर्ण पाठ्यक्रम
- अपूर्ण शिक्षण उद्देश्य
- दोषपूर्ण शिक्षण विधियाँ
- असमान विद्यालयी वितरण
- लैंगिक भेद-भाव
- भौतिक तथा मानवीय संसाधनों का अभाव
हमारी शिक्षा व्यवस्था वास्तविक जीवनोपयोगी तथा व्यावहारिक न होकर नितान्त सैद्धान्तिक है । विद्यालयों का ग्रामीण तथा शहरी आधार पर वितरण असमान है। विद्यालय भवनों, पुस्तकालयों और सुशिक्षित शिक्षकों का पूर्णतया अभाव है, जिससे शिक्षा प्राप्त बालिका उस शिक्षा से अपने जीवन में किसी भी प्रकार का लाभ अर्जित नहीं कर पाती है। अतः बालिका विद्यालयीकरण के प्रति रुचि का हास होता है। बालिकाओं के नामांकन दर को निम्न तालिका द्वारा शिक्षा के विभिन्न स्तरों के सन्दर्भ में देखा जा सकता है-
बालिका नामांकन दर
वर्ष | प्राथमिक | उच्च प्राथमिक | उत्क्रमित |
1950-51 1960-61 1970-71 1980-81 1990-91 1991-92 1992-93 1993-94 1994-95 1995-96 1996-97 1997-98 1998-99 1999-2000 2000-01 2001-02 2002-03 2003-04 2004-05 |
24.8 41.4 60.5 64.1 85.5 86.9 73.5 73.1 78.2 79.4 80.1 82.2 84.1 85.2 85.9 86.9 93.1 96.1 104.7 |
4.6
11.3 20.8 28.6 47.0 49.6 48.9 45.4 50.0 49.8 49.2 49.7 49.5 49.7 49.9 52.1 56.1 57.6 65.1 |
17.7
30.9 44.4 52.1 70.8 73.5 65.7 63.7 68.8 69.4 69.4 70.7 71.5 72.0 72.4 73.6 79.3 81.4 89.9 |
Source : M.H.R.B.
समाधान- दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली के कारण अभिभावकों और बालिकाओं की शिक्षा में जो अवरोधन उत्पन्न होता है, उसे दूर करने हेतु कुछ समाधान निम्नवत् हैं-
(i) शिक्षा को व्यवसायोन्मुखी बनाना ।
(ii) प्राथमिक स्तर पर बुनियादी शिल्प को केन्द्र में रखकर शिक्षा प्रदान करना ।
(iii) शिक्षा के उद्देश्यों में व्यापकता लाकर।
(iv) गतिशील तथा क्रिया-प्रधान शिक्षण-विधियों द्वारा ।
(v) शिक्षा को व्यावहारिक तथा जीवनोपयोगी बनाकर ।
7. महिला विद्यालय तथा महिला अध्यापिकाओं का अभाव- भारत में अभी भी सह-शिक्षा अर्थात् बालक-बालिकाओं के साथ-साथ पढ़ने को अनुपयुक्त समझा जाता है । ऐसी परिस्थितियों में बालिकाओं हेतु पृथक् विद्यालयों और पढ़ाने हेतु महिला अध्यापिकाओं की माँग बढ़ है। प्राथमिक स्तर तक किसी प्रकार बालिकाओं को सह-शिक्षा के अन्तर्गत प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के लिए अभिभावक भेजते हैं, परन्तु आगे के स्तरों, जैसे—माध्यमिक तथा उच्चस्तरीय शिक्षा के लिए सह-शिक्षण संस्थानों में भेजने की प्रवृत्ति काफी कम है। इसके पीछे अभिभावकों की धारणा है यौन सम्बन्ध, आकर्षण एवं प्रेम का जन्म, छींटाकशी तथा अमर्यादित आचरण आदि । अभिभावक ऐसे विद्यालयों में अपनी बच्चियों को भेजना अधिक सुरक्षित समझते हैं, जहाँ पर महिला अध्यापिकाएँ हों, परन्तु इस दिशा में काफी प्रयास के बाद भी महिला शिक्षिकाओं और पृथक् बालिका विद्यालयों की कमी बालिकाओं के विद्यालयीकरण को अवरोधित करती है।
समाधान — इस समस्या का समाधान निम्नांकित बिन्दुओं पर ध्यान देकर किया जा सकता है—
(i) पिछड़े क्षेत्रों में पृथक् विद्यालयों की स्थापना की जाये ।
(ii) शिक्षकों की नियुक्ति तथा पद ग्रहण कराते समय स्त्रियों को समान वितरण का पालन करते हुए अध्यापिकाविहीन विद्यालयों में भेजना चाहिए ।
(iii) सह-शिक्षण संस्थानों में पठन-पाठन के वातावरण और उच्छृंखलता पर लगाम कसकर ।
(iv) सह-शिक्षा के प्रति जागरूकता लाकर ।
8. आवागमन के साधनों का अभाव – विद्यालय से बालिकाओं के घर आने के मध्य उन्हें असुरक्षा, भय और कई प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ता है, जिस कारण से बालिका शिक्षा हो जाती है। आवागमन के साधनों पर समय और धन का व्यय भी इसमें बाधक है।
समाधान- समाधान निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत दृष्टव्य है-
(i) निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा के अन्तर्गत आवागमन के साधनों की उपलब्धता की जानी चाहिए।
(ii) सुरक्षित वातावरण का निर्माण किया जाना चाहिए ।
(iii) शिक्षा भविष्य के लिए सबसे बड़ा और सुरक्षित निवेश है, अतः कठिनाईयों को दरकिनार कर इसकी ओर अग्रसर करने हेतु प्रेरणा प्रदान करना ।
9. छात्रावास की कमी – दूर दराज तथा ग्रामीण क्षेत्रों में विद्यालय के नहीं होने के कारण अभिभावक अपनी बालिकाओं को छात्रावास भेजना चाहते हैं, अतः छात्रावास की कमी होने के कारण बालिका विद्यालयीकरण अवरोधित होता है ।
समाधान- छात्रावास की कमी बालिकाओं के विद्यालयीकरण का अवरोधित न कर सके, इस हेतु सुझाव निम्नवत् हैं-
(i) बालिका छात्रावास हेतु विशेष बजट का आबंटन ।
(ii) दूर-दराज के क्षेत्रों की बालिकाओं हेतु छात्रावासों में पहले स्थान आबंटित किया जाना चाहिए।
(iii) गैर-सरकारी सहायता प्राप्त कर छात्रावासों की स्थापना की जानी चाहिए।
10. पुरुष-प्रधान समाज— भारतीय समाज पितृ सत्तात्मक और पुरुष-प्रधान समाज है, जिसके कारण बालिकाओं की इच्छाओं को दमित किया जाता रहा है। बालिका शिक्षा के प्रसार में पुरुष-प्रधान समाज मुख्य अवरोधक है, इस कारण से स्वयं स्त्रियों की मानसिकता संकीर्ण हो गयी है, उन्हें अपनी योग्यता और क्षमता का अनुमान नहीं हैं और वे पुरुष के बताये गये मार्ग पर चलना ही श्रेयस्कर समझती हैं। पुरुषों के इशारे पर चलने वाली स्त्री को ही समाज श्रेष्ठ तथा पवित्र समझता है और वर्षों से इस सुख और मानसिकता में जीता पुरुष भी आसानी से इसे अपने हाथों से छिनता नहीं देख सकता और स्त्रियों की शिक्षा का यह समाज विरोध करता तथा अधिकांश स्त्रियाँ भी शिक्षा की आवश्यकता नहीं समझती हैं। पुरुष-प्रधान समाज में आर्थिक अधिकार पुरुषों के हाथ में ही होते हैं और बालिका विद्यालयीकरण पर वे व्यय करने से कतराते हैं।
समाधान— पुरुष-प्रधान समाज हमारी विकृत मानसिकता का परिणाम है। इसके लिए यदि पुरुष दोषी है तो स्त्री भी उतनी ही दोषी है। इस दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने के लिए कुछ सुझाव दिये जा रहे हैं-
(i) शिक्षा के अधिकार का सख्ती से पालन ।
(ii) स्त्रियों को उनकी संकीर्ण मानसिकता से निकालकर उनमें निहित शक्तियों से परिचित कराना ।
(iii) स्त्रियों को आर्थिक अधिकार प्रदान करके ।
(iv) लिंग के आधार पर नहीं, कुशलता और शिक्षा आधारित व्यवस्था बनाना ।
(v) संवैधानिक प्रावधानों का क्रियान्वयन करके जिसमें समानता और स्वतन्त्रता आदि वर्णित हैं।
11. शिक्षा का रोजगारपरक न होना— बालिका शिक्षा अभी भी रोजगारपरक नहीं है जिससे बालिकाओं की रुचियों, आवश्यकताओं और सामाजिक दायित्वों की कुशलता हेतु प्रशिक्षित किया जा सके। रोजगारविहीन शिक्षा से बालिकाओं की स्थिति शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् भी परिवार और समाज में जस की तस ही रह जाती है। अतः इस प्रकार की शिक्षा ग्रहण कराना आर्थिक अपव्यय और समय का दुरुपयोग करना माना जाता है। रोजगारपरक शिक्षा न होने से बालिकाओं की आर्थिक निर्भरता पुरुषों पर ही बनी रह जाती है और यह क्रम चलता ही रहता है।
समाधान- रोजगारपरक शिक्षा की व्यवस्था कर बालिका विद्यालयीकरण में वृद्धि करने हेतु सुझाव इस प्रकार हैं-
(i) बालिकाओं की रुचि, आवश्यकतानुरूप पाठ्यक्रम में विषयों का समावेश
(ii) आवश्यकतानुसार पृथक तथा सह-शिक्षण व्यावसायिक शिक्षण संस्थानों की स्थापना ।
(iii) प्राथमिक स्तर से ही कौशल विकास पर बल ।
(iv) स्थानीय आवश्यकता तथा माँग को दृष्टिगत रखते हुए रोजगारपरक शिक्षा और प्रशिक्षण
(v) स्थानीय औद्योगिक इकाइयों में ले जाकर रोजगार की शिक्षा प्रदान कराना ।
(vi) स्त्रियों के आर्थिक स्वावलम्बन तथा राष्ट्रीय उन्नति में भागीदारी के लिए रोजगारोन्मुख शिक्षा हेतु गम्भीरता से चिन्तन एवं क्रियान्वयन ।
12. अपव्यय तथा अवरोधन- अपव्यय तथा अवरोधन बालिका शिक्षा का प्रमुख अवरोध है जिस कारण आज भी बालिकाएँ बालकों के अनुपात में शिक्षा से वंचित हैं और विद्यालयी शिक्षा का चक्र पूर्ण किये बिना ही विद्यालय छोड़ दे रही हैं। अपव्यय तथा अवरोधन को हार्टोग समिति ( 1829) में परिभाषित किया गया तथा इस पर चिन्ता व्यक्त की गयी थी । अपव्यय (Wastage) से तात्पर्य है शिक्षा का चक्र पूर्ण किये बिना ही विद्यालय से निकल जाना । इस प्रकार इसमें अपव्यय होता है—
(i) समय का,
(ii) संसाधनों का,
(iii) पारिवारिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय आकांक्षाओं का,
(iv) सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा के संकल्प का,
(v) संविधान प्रदत्त समानता और स्वतन्त्रता का,
(vi) व्यक्तिगत शक्तियों का ।
इस प्रकार अपव्यय का दुष्प्रभाव विद्यालय छोड़ने वाले पर ही नहीं, सम्पूर्ण राष्ट्र पर पड़ता है । अवरोधन से तात्पर्य है किसी बालक को एक कक्षा में एक से अधिक वर्ष हेतु रोक लिया जाना । अवरोधन का शाब्दिक तात्पर्य है रुकावट यह रुकावट बीमारी, आर्थिक समस्या आदि कारणें से हो सकती है। आँकड़ों के अनुसार 67.73 प्रतिशत बालिकाएँ तथा 58.61 प्रतिशत बालक मिडिल स्तर तक नहीं पहुँच पाते अपव्यय तथा अवरोधन के कारण 61.71 प्रतिशत बालिकाएँ तथा 51.01 प्रतिशत बालक माध्यमिक स्तर तक अपव्यय तथा अवरोधन के शिकार हो जाते हैं। आन्ध्र प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल में बालिकाओं में अपव्यय तथा अवरोधन की समस्या सर्वाधिक है ।
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