हिन्दी साहित्य

भक्तिकालीन साहित्यिक परिस्थितियाँ एंव हिन्दी साहित्य में भक्ति का उदय और विकास

भक्तिकालीन साहित्यिक परिस्थितियाँ एंव हिन्दी साहित्य में भक्ति का उदय और विकास
भक्तिकालीन साहित्यिक परिस्थितियाँ एंव हिन्दी साहित्य में भक्ति का उदय और विकास

भक्तिकालीन साहित्यिक परिस्थितियाँ एंव हिन्दी साहित्य में भक्ति का उदय और विकास

साहित्यिक परिस्थितियाँ

भक्तिकालीन धार्मिक संघर्ष के युग में समस्त विचारकों ने गद्य में अपने विचार प्रकट न करके उन्हें छन्दोबद्ध रूप दिया। संस्कृत में इस सम्बन्ध में टीकाओं, व्याख्याओं की सृष्टि होती रही। किसी नवीन मौलिक उद्भावना से काम नहीं लिया गया। सिद्धांत-प्रतिपादन तथा भक्ति प्रचार की भावना उस समय के समस्त साहित्य में काम कर रही है। कबीर जायसी, सूर, तुलसी जैसे भावुक कवि भी इस मनोवृत्ति से अछूते नहीं रहे।

उन दिनों हिन्दुओं का उच्च वर्ग संस्कृत में अपने उद्गारों की अभिव्यक्ति करता रहा। इधर मुगलों द्वारा फारसी को राजकाज के लिए स्वीकार किया जा चुका था। अतः फारसी में अनेक इतिहास ग्रंथों की रचना हुई तथा प्रचुर मात्रा में कविता लिखी गई। फारसी में संस्कृत के अनेक धार्मिक तथा ऐतिहासिक ग्रंथों का अनुवाद हुआ। शेरशाह सूरी मुगल बादशाह और शहजादे तथा अनेक प्रादेशिक मुस्लिम शासकों के अतिरिक्त हिन्दू राजाओं तथा संपन्न लोगों ने हिन्दी को भी प्रोत्साहन दिया, परन्तु संस्कृत और फारसी के समान हिन्दी को आदर नहीं मिल सका। राजस्थानी की कुछ वचनिकाओं में तथा बृजभाषा की वार्ताओं और टीकाओं में गद्य का भी प्रयोग हुआ किन्तु पद्य का अपेक्षाकृत अधिक प्रयोग हुआ और उसमें भक्ति साहित्य का अधिक निर्माण हुआ। बादशाहों तथा राजाओं के आश्रित कवियों ने प्रशस्ति, श्रृंगार, रीति, नीति आदि से संबंधित मुक्तक और प्रबंध दोनों प्रकार की रचनायें कीं। इस काल में वीर रस प्रधान काव्य की रचना नहीं हुई, उसका प्रासंगिक रूप से अन्य रसों के साथ ही वर्णन हुआ है।

भक्ति साहित्य में भारतीय संस्कृति और आचार-विचार की पूर्णतः रक्षा हुई है। भक्ति काव्य जहां उच्चतम धर्म की व्याख्या करता है वहां उसमें उच्च कोटि के काव्य के दर्शन होते हैं। इसकी आत्मा भक्ति है, इसका जीवन-स्रोत रस है, इसका शरीर मानवीय है। रस की दृष्टि से भी यह साहित्य श्रेष्ठ है। यह साहित्य एक साथ हृदय, मन और आत्मा की भूख को तृप्त करता है। यह साहित्य लोक तथा परलोक को एकसाथ स्पर्श करता है। अतः इसे पराजित मनोवृत्ति का परिणाम कहना नितांत भूल होगी।

हिन्दी साहित्य में भक्ति का उदय और विकास

हिन्दी साहित्य में भक्ति युग का आविर्भाव राजनीतिक पराजय का परिणाम है ऐसा हिन्दी के कई विद्वानों का मत है। जबकि दूसरे कुछ विद्वान इसे एक अविछिन्न सांस्कृतिक, धार्मिक एवं सामाजिक भावना का परिणाम मानते हैं। इनके लिए यह एक आन्दोलन है जो कि भारतीय साधना के इतिहास में अप्रतिम है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तथा बाबू गुलाबराय ने भक्ति आन्दोलन को पराजित मनोवृत्ति का परिणाम तथा मुस्लिम राज्य की प्रतिष्ठा की प्रतिक्रिया माना है। आचार्य शुक्ल जी लिखते हैं-“अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था।” बाबू गुलाबराय का मत है कि “मनोवैज्ञानिक तथ्य के अनुसार हार की मनोवृत्ति में दो बातें सम्भव हैं या तो अपनी आध्यात्मिक श्रेष्ठता दिखाना या भोग-विलास में पड़कर हार को भूल जाना। भक्तिकाल में लोगों में प्रथम प्रकार की प्रवृत्ति पाई गई।”

इधर कतिपय पाश्चात्य विद्वानों ने भी भारतीय धर्म साधना में भक्ति का उदय कब हुआ और क्यों हुआ, इस विषय पर अपने विचार अभिव्यक्त किए हैं। पाश्चात्य विद्वान वेबर, कीथ, ग्रियर्सन तथा विलसन आदि ने भक्ति को ईसाई धर्म की देन बताया है। वेबर महोदय ने महाभारत में वर्णित ‘श्वेत द्वीप’ का अर्थ गौरांग जातियों का निवास स्थान (यूरोप) करते हुए तथा जयन्तियाँ मनाने की प्रथा का सम्बन्ध ईसाइयत से स्थापित करते हुए भारतीय भक्ति भावना को ईसाई धर्म के प्रभाव से विकसित सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। आचार्य ग्रियर्सन का कहना है कि ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी में कुछ ईसाई चेन्नई (मद्रास) आकर बस गये थे जिनके प्रभाव से भक्ति का विकास हुआ। प्रो. विलसन ने भक्ति को अर्वाचीन युग की वस्तु सिद्ध करते हुए कहा कि विभिन्न आचार्यों ने अपनी प्रतिष्ठा के लिए इसका प्रचार किया। एक अन्य पाश्चात्य विद्वान ने कृष्ण को क्राइस्ट का रूपान्तर कहकर अपनी कल्पना-शक्ति का परिचय दिया है। कहने वालों ने तो (डॉ० ताराचन्द, हुमायूँ, कबीर तथा डॉ० आबिद हुसेन) यहां तक भी सहास कर दिया कि समूचे का समूचा भारतीय भक्ति आन्दोलन मुस्लिम संस्कृति के संपर्क की देन है और शंकराचार्य, निम्बार्क, रामानुज, रामानन्द, वल्लभाचार्य, आलवार सन्त तथा वीरशैव और लिंगायत आदि शैव संप्रदायों की दार्शनिक मान्यताओं पर मुस्लिम प्रभाव है। इन उपर्युक्त लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों के विचारों को देखकर ऐसा लगता है, जैसे कि भारत की पुष्कल दार्शनिक विचारधारा का मूल आधार इस्लाम ही हो और मुस्लिम सम्पर्क से पूर्व जैसे कि भारत देश का निजी कोई दर्शन ही नहीं था। अस्तु, इस विषय में हमें दृढ़ता से स्मरण रखना होगा कि शंकर के अद्वैतवाद और मुसलमानों के एकेश्वरवाद में बृहद् अन्तर है तथा अन्य धर्माचार्यों की दार्शनिक सरणि भी मुस्लिम संपर्क की प्रतिक्रिया से जन्य नहीं है। ऐसी धाराओं का प्रचार कदाचित हिन्दू-मुस्लिम एकता तथा राष्ट्रीयता के प्रचार के उद्देश्य से किया गया लगता है। इस प्रकार के अतिरंजक कथन नितांत भ्रामक और अविश्वसनीय हैं। हमारा ऐसे विद्वानों से विनम्र निवेदन है कि सत्य के अपलाप को कीमत पर तथाकथित राष्ट्रीय एकता का प्रचार वांछनीय नहीं है।

अस्तु, हमारे भारतीय विद्वानों- श्री बालगंगाधर तिलक, श्रीकृष्ण स्वामी आयंगर और डॉ० एच० राय चौधरी ने पाश्चात्य विद्वानों के उक्त मतों का युक्तियुक्त खण्डन करते हुए भक्ति का मूलोद्गम प्राचीन भारतीय स्त्रोतों से सिद्ध किया है। उपर्युक्त भ्रामक मान्यताओं को देखते हुए हमें ऐसा लगता है कि इन सबके मूल में किसी भी भारतीय वस्तु को महत्वहीन सिद्ध करने की दुरभिसंधि है और कुछ भी नहीं है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी हिन्दी साहित्य में भक्ति के उदय की कहानी को न तो पराजित मनोवृत्ति का परिणाम मानते। हैं और न ही इसे मुस्लिम राज्य की प्रतिष्ठा की प्रतिक्रिया। उनका कहना है- “यह बात अत्यंत उपहासास्पद है कि जब मुसलमान लोग उत्तर भारत के मन्दिर तोड़ रहे थे तो उसी समय अपेक्षाकृत निरापद दक्षिण में भक्त लोगों ने भगवान की शरणागति की प्रार्थना की। मुसलमानों के अत्याचार से यदि भक्ति की भावधारा को उमड़ना था तो पहले उसे सिन्ध में और फिर उसे उत्तर भारत में प्रकट होना चाहिए था, पर हुई दक्षिण में।” और फिर ऐसी भी बात नहीं है कि सभी मुसलमान शासक अन्यायी और अत्याचारी थे। उनमें बहुत से परम सहिष्णु और उदार भी थे। उनके द्वारा संस्कृति, साहित्य और कला को पर्याप्त प्रोत्साहन मिला। यदि मुसलमान शासकों के बलात् इस्लाम प्रचार की प्रतिक्रिया के रूप में भारत में भक्ति का उदय हुआ तो उसी समय एशिया और यूरोप के अन्य देशों में भी समान पद्धति से इस्लाम का प्रचार किया गया, तब वहां भी भक्ति का उदय होना चाहिए था, पर हुआ नहीं। यह भी बात नहीं है कि उस समय भारत के लिए मुसलमानों का संपर्क नया था। भारत पहले से ही कन्धार (सीस्तान) के मुसलमानों के चिर-संपर्क में था। राजपूत नरेश अंतिम दम तक स्वाधीनता के लिए प्राण-पण से जूझते रहे और उनमें से अनेक स्वतंत्र भी रहे। वहां किसी प्रकार की निराशा नहीं थी, तब वहां निराशा और वेदनाजन्य भक्ति कैसे प्रवाहित हो उठी ? हिन्दू सदा आशावादी रहा। उसका सुखान्त साहित्य उसके आनन्दवादी दृष्टिकोण का सूचक है। हिन्दू जाति अपनी जीवन शक्ति के लिए विशेष प्रसिद्ध है। उसमें विषम से विषम परिस्थितियों में भी जीवित रहने की शक्ति रही है। शंकर, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, विष्णु स्वामी, निम्बार्क, रामानन्द, चैतन्य और वल्लभाचार्य प्रायः ये सभी आचार्य मुस्लिम युग की उपज हैं, पर वे सदा देश की राजनीतिक परिस्थितियों से निर्लिप्त रहे हैं। कबीर, नानक, सूर, तुलसी, नन्ददास तथा जायसी आदि की भी यही दशा है। इनका साहित्य उल्लासमय प्राणों के स्फूर्तिमय स्पन्दन से संवलित है, इसमें निराशा की छाया तक नहीं। यदि राजनीतिक पराजय ही भक्ति के उदय का ऐकान्तिक कारण होता तो जायसी, कुतुबन, मंझन, उसमान आदि सूफी कवि एवं कबीर नहीं होते- इन भक्तिकालीन मुसलमानों द्वारा भक्ति-पद्धति को अपनाने के लिए। अतः यह तर्क उपस्थित नहीं किया जा सकता ।

हमें यह भी भूलना नहीं होगा कि भक्ति एक परमोच्य साधन का फल है जिसके लिए परम शान्त वातावरण अनिवार्य हैं। इसके लिए संघर्षमय वातावरण अपेक्षित नहीं है और न ही यह हारी मनोवृत्ति की उपज है। यदि ऐसा होता तो अंग्रेजी शासन की स्थापना के समय भी इसे प्रस्फुटित हो जाना चाहिए था ।

बाबू गुलाबराय का भक्ति युग को हारी मनोवृत्ति का परिणाम तथा मुस्लिम राज्य की प्रतिक्रिया कहना नितांत असमीचीन है। भक्ति काव्य में भारतीय संस्कृति और आचार-विचार की पूर्णतः रक्षा हुई है। भक्ति काव्य जहाँ उच्चतम धर्म की व्याख्या करता है, वहाँ उसमें उच्च कोटि के काव्य के भी दर्शन होते हैं। उसकी आत्मा भक्ति है, उसका जीवन-स्रोत रस है, उसका शरीर मानवीय है। रस की दृष्टि से भी यह काव्य श्रेष्ठ है। यह साहित्य एकसाथ हृदय, मन और आत्मा की भूख को तृप्त करता है। यह काव्य लोक तथा परलोक को एकसाथ स्पर्श करता है। यह साहित्य शक्ति का साहित्य है, इसमें आडम्बर-विहीन एवं शुचितापूर्ण सरल जीवन की झांकी है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी बाबू गुलाबराय के मत का खंडन करते हुए लिखते हैं- “कुछ विद्वानों ने इस भक्ति आंदोलन को हार हुई हिन्दू जाति की असहाय चित्त की प्रतिक्रिया के रूप में बताया है। यह बात ठीक नहीं है, प्रतिक्रिया तो जातिगत कठोरता और धर्मगत संकीर्णता के रूप में प्रकट हुई थी। उस जातिगत कठोरता का एक परिणाम यह हुआ कि इस काल में हिन्दुओं में वैरागी साधुओं की विशाल वाहिनी खड़ी हो गई क्योंकि जाति के कठोर शिकंजे से निकल भागने का एकमात्र उपाय साधु हो जाना ही रह गया था। भक्ति मतवाद ने इस अवस्था को संभाला और हिन्दुओं में नवीन और उदार आशावादी दृष्टि प्रतिष्ठित की।” वस्तुतः भक्तिकाल का साहित्य प्राचीन दर्शन-प्रवाह की एक अविच्छिन्न धारा है। जातिगत कठोरता और धार्मिक संकीर्णता की प्रतिक्रिया कुछ अंशों में इस भक्ति आंदोलन में अवश्य हुई। जब हिन्दू धर्म मुस्लिम् जाति के संपर्क में आया तो उसमें पतितपावनी पाचन शक्ति का ह्रास हो चुका था, जबकि नवागत धर्म जाति-पांति के बंधनों से दूर था। हिन्दू धर्म इस दिशा में अधिकाधिक संकीर्ण तथा कठोर होता गया। इस प्रकार एक तो बौद्ध सिद्धों एवं नाथ योगियों के संपर्क में आये। बहुत से हिन्दू पहले ही जातिच्युत हो चुके थे, दूसरे इस्लाम के संपर्क में आने पर कुछ और हिन्दू जाति-पांति के कठोर नियमों के कारण चाहर आए। आचार्य द्विवेदी इस शोचनीय दशा का वर्णन इन शब्दों में करते हैं-“इस कसाब का परिणाम यह हुआ कि किनारे पर पड़ी हुई बहुत सारी जातियां छट गई और बहुत दिनों तक न ही हिन्दू रहीं न ही मुसलमान हो सकीं। बहुत सी पाशुपत मत को मानने वाली और संन्यास से गृहस्थ बनी जातियां धीरे-धीरे मुसलमान होने लगीं। इस प्रकार की जुलाहा जाति नाथ मत को मानने वाली थी, जो निरन्तर उपेक्षित रहने के कारण क्रमशः मुसलमान होती गई। इस जाति में मध्यकाल में स्वाधीनचेता सन्त कबीर उत्पन्न हुए।”

आचार्य द्विवेदी भक्ति आन्दोलन पर ईसाई प्रभाव की चर्चा करते हुए लिखते हैं-“इस प्रकार के अवतारवाद का जो रूप है, इस पर महायान संप्रदाय का विशेष प्रभाव है। यह बात नहीं कि प्राचीन हिन्दू चिन्तन के साथ उसका सम्बन्ध एकदम है ही नहीं, पर सूरदास, तुलसीदास आदि भक्तों में उसका जो स्वरूप पाया जाता है, वह प्राचीन चिन्तनों से कुछ ऐसी भिन्न जाति का है कि एक जमाने में प्रियर्सन, केनेडी आदि पाश्चात्य विचार-दर्शन की श्रेष्ठता प्रतिपादित करने वाले पंडितों ने उसमें ईसाईपन का आभास पाया था। उनकी समझ में नहीं आ सका कि ईसाई धर्म के सिवाय इस प्रकार के भाव और कहीं मिल सकते हैं। लेकिन आज की शोध की दुनिया बदल गयी है। ईसाई धर्म में जो भक्तिवाद है वही महायानियों की देन सिद्ध होने को चला है। क्योंकि ऐसे बौद्धों का अस्तित्व एशिया की पश्चिमी सीमा में सिद्ध हो चुका है और कुछ पंडित तो इस प्रकार के प्रमाण पाने का दावा करने लगे हैं कि स्वयं ईसा मसीह भारत के उत्तरी प्रदेशों में आए थे और बौद्ध धर्म में दीक्षित भी हुए थे” (हिन्दी साहित्य की भूमिका)। डॉ० रामरतन भटनागर ने मध्य युग के भक्ति आंदोलन को पौराणिक धर्म का पुनरुत्थान माना है। वे लिखते हैं- “मध्य युग के भक्ति आंदोलन को हम पौराणिक धर्म के पुनरुत्थान का आन्दोलन भी कह सकते हैं। वस्तुतः गुप्तों के युग में विष्णु और लक्ष्मी को लेकर जिन धार्मिक भावनाओं का विकास हुआ था वे ही इस युग में राधा-कृष्ण और सीता-राम के माध्यम से विकसित हुई।” कुछ विद्वानों ने भक्ति और अवतारवाद के बीज वैदिक साहित्य में खोज निकाले हैं। “वैदिक स्तुतियों में दूसरा वैष्णव तत्व श्रद्धा का है। वहां श्रद्धा व यज्ञ को एक माना गया है। श्रद्धा, विश्वास, दीनताः कृतज्ञता. आराध्य यश-वर्णन, अवलम्ब की खोज में भक्ति के तत्व वैदिक मन्त्रों में सुरक्षित हैं।” डॉ० भण्डारकर ने अवतारवाद की भावना को वैदिक साहित्य में स्वीकार किया है। वे लिखते हैं- “If these Vedic gods are none, one God may become several This led to the conception of incarnation.”

डॉ० सत्येन्द्र भक्ति का उद्भव द्राविड़ों से मानते हैं, दक्षिण के वैष्णव भक्तों से नहीं। वे लिखते हैं- ” भक्ति द्राविड़ी उपजी लाये रामानन्द ।” इस उक्ति के अनुसार भक्ति का आविर्भाव द्राविड़ों में हुआ। उक्ति-कर्ता सम्भवतः नहीं जानता था कि वह इन शब्दों पर कितने गहरे सत्य को प्रकट कर रहा है। उसका द्राविड़ से अभिप्राय संभवतः दक्षिण देश से ही था, किन्तु जैसा संकेत किया जा चुका है, नई प्रागैतिहासिक खोजों में यह सिद्ध-सा होता है कि भक्ति का मूल द्राविड़ों में है और दक्षिण के द्राविड़ों में ही नहीं, उनके महान् पूर्वज मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के द्राविड़ों में भी। अभी संसार को जितने भी प्रमाण प्राप्त हैं, उनसे यह सिद्ध होता है कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के द्राविड़ अथवा व्रात्य एकेश्वरवादी थे। उनके ईश्वर का नाम शिव था। आर्यों ने भक्ति का भाव दक्षिण से प्राप्त किया था।” अस्तु । भारतीय धर्म-साधना के क्षेत्र में भक्ति की परम्परा सुदीर्घ काल से चली आ रही है। भक्ति का प्रतिपादन महाभारत और गीता में स्पष्ट रूप से हुआ है। महाभारत के शांति पर्व में तथा भीष्म-पर्व में नारायणोपाख्यान का वर्णन है। वस्तुतः पौराणिक धर्म पूर्ववर्ती भागवत धर्म का ही एक ऐसा नव परिवर्धित रूप था, जिसमें एक ओर भक्ति भावना को प्रमुख स्थान दिया गया और दूसरी ओर उनमें ऐसे तत्वों का समावेश हुआ जिससे वह जैन और बौद्ध धर्म की प्रतिस्पर्धा में टिक सके। नारद भक्तिसूत्र में भक्ति के स्वरूप का सांगोपांग विवेचन किया गया है। शांडिल्य – भक्ति सूत्र रचना काल की दृष्टि से इससे भी पूर्व ठहरता है, पर उसमें विवेचन सम्बन्धी स्पष्टता नहीं। जहाँ भक्ति के सैद्धांतिक स्वरूप का विकास सूत्र-ग्रंथों में हुआ वहां उसके व्यावहारिक रूप के विकास का प्रयत्न पुराण साहित्य के द्वारा संपन्न हुआ। यह सारा कार्य गुप्त सम्राटों के शासन काल में हुआ। भागवतपुराण की रचना दक्षिण भारत में हुई या नहीं, इस विवाद में न पड़ते हुए यह तो स्वीकार करना ही पड़ता है कि 8वीं- 9वीं शताब्दी तक दक्षिण भारत में पौराणिक धर्म का प्रचार हो चुका था। भले ही कुमारिल औरा शंकर के अकाट्य तर्कों ने सगुण स्वरूप भक्ति के विकास में कुछ व्यवधान खड़ा किया हो। किन्तु दक्षिण भारत के वैष्णवों ने भक्ति के संरक्षण का पूरा-पूरा प्रयत्न किया। दक्षिण भारत में आलवार भक्त हुए जिन्होंने शंकर के अद्वैतवाद की कोई परवाह न करते हुए भक्ति की धारा को प्रवाहमान रखा। आचार्य द्विवेदी ने भक्ति आंदोलन का श्रेय दक्षिण के इन आलवार भक्तों को दिया है। इनकी संख्या बारह मानी जाती है, जिनमें बहुत सारे ऐतिहासिक व्यक्ति सिद्ध हो चुके हैं। इन भक्तों में आन्दाल नाम की एक भक्तिन हो चुकी थी, जो मीरा के समान कृष्ण को अपना पति मानती थी और वह कृष्ण के भीतर विलीन हो गई थी। इन भक्तों का समय ईसा की प्रथम शताब्दी बल्कि इससे कुछ पूर्व से लेकर 8वीं-नवीं शताब्दी तक आंका गया है। इन भक्तों में भक्ति का व्यावहारिक पक्ष है। अनुमान है कि भक्ति का सिद्धांत-पक्ष बहुत पहले से चला आ रहा होगा। 10वीं-11 वीं शताब्दी में आचार्य नाथमुनि हुए, जिन्होंने वैष्णवों का संगठन, आलवारों के भक्तिपूर्ण गौतों का संग्रह, मन्दिरों में कीर्तन एवं वैष्णव सिद्धांतों की दार्शनिक व्याख्या आदि महत्वपूर्ण कार्य किये जिनसे भक्ति परम्परा को एक नया बल मिला। इनके उत्तराधिकारियों में रामानुजाचार्य हुए, इन्होंने विशिष्टाद्वैतवाद की स्थापना की। उन्होंने भगवान विष्णु की उपासना पर बल देते हुए दास्य भाव की भक्ति का प्रचार किया। इसी परम्परा में रामानन्द हुए, जिन्होंने राम को अवतार मानकर उत्तरी भारत में राम-भक्ति का प्रवर्तन किया। आगे चलकर इसी भक्ति शाखा में कृष्ण-भक्ति की-सी रसिकता का समावेश हुआ और राम रसिक संप्रदाय चल निकला।

दूसरी ओर अद्वैतवाद के प्रवर्तक मध्वाचार्य, द्वैताद्वैतवाद के संस्थापक निम्बार्काचार्य और शुद्धाद्वैतवाद के प्रतिष्ठापक वल्लभाचार्य हुए। मध्वाचार्य ने शंकर के मायावाद का खण्डन करके विष्णु की भक्ति का प्रचार किया। निम्बार्क ने लक्ष्मी और विष्णु के स्थान पर राधा और कृष्ण की भक्ति का प्रचार किया। वल्लभाचार्य ने बालकृष्ण की उपासना पर बल दिया और पुष्टि-मार्ग का प्रवर्तन किया। चैतन्य महाप्रभु चैतन्य संप्रदाय के स्वामी हरिदास सखी संप्रदाय के और हितहरिवंश राधावल्लभ संप्रदाय के द्वारा कृष्ण भक्ति में माधुर्य-भाव का प्रचार किया। सूर इसी परम्परा के एक समुज्ज्वल रत्न हैं, जिन्होंने अपने हृदय की समस्त सात्विकता कृष्ण के गुणगान में उंडेल दी। आगे चलकर राधा और कृष्ण का घोर शृंगारी रूप में चित्रण हुआ।

मुसलमानों में छुआछूत तथा ऊंच-नीच का भाव नहीं था। तत्कालीन बौद्ध-सिद्धों तथा नाथ योगियों के धर्म में भी इस प्रकार का कोई बंधन नहीं था। इन योगियों ने ईश्वर को घट के भीतर बताया, कर्मकांड को निःसार और वेदाध्ययन को ढकोसला बताया और यौगिक प्रक्रियाओं पर विशेष बल दिया। इन लोगों ने सन्त मार्ग के लिए बहुत कुछ भूमि तैयार कर दी थी। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध भक्त नामदेव ने हिन्दू-मुसलमानों के लिए सामान्य भक्ति मार्ग की स्थापना की। आगे चलकर कबीर, दादू, नानक आदि सन्तों ने भक्ति का ऐसा रूप विकसित किया, जिसमें ईश्वर की सगुण-निर्गुण-मिश्रित रूप की उपासना की गई। यद्यपि हमारे विद्वान उन्हें सैद्धान्तिक दृष्टि से निर्गुण एकेश्वरवादी या रहस्यवादी बताते हैं परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से इनकी उपासना में प्रायः वे सभी विशेषताएँ मिलती हैं, जो भक्ति की मूलाधार हैं, अतः हम इन सन्तों को भी भक्ति आंदोलन के उन्नायकों में स्थान देना उचित समझते हैं।

इस काल में कुछ सूफी मुसलमान हुए जिन्होंने हिन्दू घरों को प्रेम कहानियों के माध्यम से ईश्वर के प्रेम-स्वरूप का प्रचार किया। इस प्रकार इन लोगों ने हिन्दू-मुस्लिम हृदयों के अजनबीपन को मिटाया। सांस्कृतिक द्वन्द्व के उपरांत सांस्कृतिक समन्वय हुआ। दक्षिण भारत में तो भक्ति की यह अजस्र धारा प्रबल वेग से चल ही रही थी, किन्तु उत्तर भारत में भी पौराणिक धर्म का प्रचार पहले से ही था। गहड़वार राजाओं के समय उत्तर भारत प्रधान रूप से स्मार्त धर्मावलम्बी था। सगुण भक्ति के आवश्यक उपकरण वैयक्तिक सम्बन्ध का ईश्वर के प्रति होना तथा अवतारवाद पर विश्वास की भावनाएं इस प्रदेश की जनता में बद्धमूल थीं। अतः भक्ति का विरवा ऐसा नहीं है, जो कि विदेश से लाया गया हो अथवा विधर्मियों द्वारा इसका सिंचन और पल्लवन हुआ हो। न तो यह निराशा प्रवृत्तिजन्य है और न ही किसी प्रतिक्रिया का फल । वस्तुतः यह एक प्राचीन दर्शन-प्रवाह और प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा की एक अविच्छिन्न धारा है। इस धारा का प्रस्फुटन आकस्मिक नहीं हुआ, इसके लिए तो सुदीर्घ काल से सहस्रों मेघ खण्ड एकत्रित हो चुके थे। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी भक्ति साहित्य के सम्बन्ध में लिखते हैं- “समूचे भारतीय इतिहास में अपने ढंग का अकेला साहित्य है। इसी का नाम भक्ति साहित्य है। यह एक नई दुनिया है।” भक्ति युग का आंदोलन एक ऐसा आंदोलन है, जो इन सब आंदोलनों से कहीं अधिक व्यापक और विशाल है, जिन्हें भारतवर्ष ने कभी भी देखा है। यहां तक कि वह बौद्ध धर्म के आंदोलनों से भी अधिक व्यापक और विशाल है क्योंकि इसका प्रभाव आज भी वर्तमान है। यह साहित्य एक महती साधना और प्रेमोल्लास के देश का साहित्य है, जहां जीवन के सभी विषाद, नैराश्य और कुंठाएं जुड़ जाती हैं। भारतीय जनता भक्ति साहित्य के श्रवण- श्रावण से उस युग में भी आशान्वित होकर सान्त्वना प्राप्त करती रही है और भविष्य में भी यह साहित्य उसके जीवन का संबल बना रहेगा। डॉ० द्विवेदी के शब्दों में- “नया साहित्य (भक्ति साहित्य) मनुष्य जीवन के एक निश्चित लक्ष्य और आदर्श को लेकर चला। यह लक्ष्य है, भगवद्भक्ति, आदर्श है शुद्ध सात्विक जीवन और साधना है। भगवान के निर्मल चरित्र और सरस लीलाओं का गान । इस साहित्य को प्रेरणा देने वाला तत्व भक्ति है, इसलिए यह साहित्य अपने पूर्ववर्ती साहित्य से सब प्रकार से भिन्न है।”

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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