हिन्दी साहित्य

हिंदी निबंध का विकास स्वरूप और स्थिति

हिन्दी निबन्ध : विकास स्वरूप और स्थिति
हिन्दी निबन्ध : विकास स्वरूप और स्थिति

हिंदी निबंध का विकास स्वरूप और स्थिति

सामान्य विवेचन- हिन्दी निबन्ध आधुनिक युग की देन है। आधुनिक युग में ही निबन्धों का विकास हुआ है और धीरे-धीरे अब निबन्ध पर्याप्त विकसित हो गया है। आज अनेक उच्च कोटि के और शीर्षस्थ निबन्धकार साहित्य जगत् में अपना प्रभुत्व जमाएँ हुये हैं। ऐसी स्थिति में यह देखना अनिवार्य हो जाता है कि हिन्दी निबन्ध के विकास की रूपरेखा किस प्रकार की है ? और निबन्ध किस रूप में सामने आए और आज उनका क्या रूप हो गया है ? उपन्यास और कहानी के समान निबन्ध की रचना हिन्दी में अंग्रेजी के प्रभाव के अन्तर्गत हुई है। आधुनिक समय में निबन्ध से जिस प्रकार की रचना का बोध होता है। उस तरह की रचना का हिन्दी या संस्कृत में आधुनिक युग से पहले बोध नहीं होता था। निबन्ध व्यक्ति की महत्ता को स्वीकार करने वाले समाज की अनुपम रचना है। यह गद्य की आधुनिक विद्या है। यूरोप के फ्रांसीसी लेखक मोटेन निबन्ध के जन्मदाता माने जाते हैं। अंग्रेजी भाषा में वेकन को पहला निबन्ध लेखक माना गया है। हिन्दी में गद्य साहित्य का विकास 19वीं शताब्दी में ही होने लगा था। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जब भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा हिन्दी गद्य का स्वरूप निश्चित हो गया तभी निबन्धों का समुचित और क्रमिक विकास सम्भव हो सका। हिन्दी के निबन्ध साहित्य को हम चार भागों में बाँट सकते हैं- भारतेन्दु युग, द्विवेदी युग, शुक्ल युग और शुक्लोत्तर युग ।

भारतेन्दु युग- गद्य की अन्य विधाओं के समान निबन्ध का आरम्भ 19वीं शताब्दी के अन्त में भारतेन्दु हरिचन्द्र और उनके साथियों द्वारा हुआ भारतेन्दु ने कुछ व्यंग्याततक निबन्ध लिखे हैं, किन्तु उनके निबन्ध अधिकतर वर्णनात्मक हैं। वर्णनात्मक निबन्धों में यात्रावृत्त अधिक हैं। भारतेन्दु युग के सर्वश्रेष्ठ निबन्धकार हैं- बालकृष्ण भट्ट और प्रताप नारायण मित्र इन दोनों निबन्धकारों की तुलना प्रायः अंग्रेजी भाषा के निबन्धकार ‘एडीसन’ और ‘स्टील’ से की गयी है। निबन्ध की साहित्यिक विशेषताएँ-स्वच्छन्द, निबन्ध चिन्तन, आत्मीयता शैली, आडम्बरहीनता, निजी व्यक्तित्व की गहरी छाप आदि इन दोनों लेखकों में भरपूर मात्रा में है। मुहावरों और लोकोक्तियों का इन लेखकों ने जमकर प्रयोग किया है। गोस्वामी के निबन्ध मुख्यतः व्यांग्यात्मक हैं। उन्होंने धार्मिक, सामाजिक कुरीतियों का विरोध व्यंग्य के माध्यम से किया है। बालमुकुन्द्र गुप्त भी व्यांग्यात्मक निबन्ध के लेखक है। ‘शिवशम्भू के चिट्ठे’ नामक उनकी निबन्धमाला उन दिनों खूब लोकप्रिय हुई थी। बद्रीनारायण प्रेमधन ने अलंकृत शैली का प्रयोग किया है।

भारतेन्दु युग हिन्दी निबन्ध का स्वर्ण युग है। यह एक आश्चर्यप्रद तथ्य है कि निबन्ध के विकास का पहला दौर हो उसका स्वर्ण युग है। और हिन्दी में निबन्ध अपने प्रारम्भिक उत्कर्ष को पुनः प्राप्त नहीं कर सका। भारतेन्दु युगीन निबन्ध साहित्य मुख्यतः मासिक पत्रिकाओं द्वारा प्रकाशित हुआ था । प्रत्येक लेखक का अपना पत्र था जिसमें वह प्रतिमास लिखता था। इन पत्रों में बालकृष्ण भट्ट का पत्र “हिन्दी प्रदीप’ सबसे लम्बे समय तक प्रकाशित हुआ था। इस माध्यम के कारण लेखक और पाठक के निकट का सम्बन्ध सहजता से स्थापित हो सकता था और निबन्ध की सबसे बड़ी सफलता यही है। भारतेन्दु के इन साथी लेखकों का जीवन से निकट परिचय था और जीवन के विधि स्वरूपों को उन्होंने सरस और सरल शैली में आत्मीयतापूर्ण वर्णन किया था। इस युग के निबन्धों में विषय विविधता खुब है, जहाँ धार्मिक पाखण्डों पर व्यंग्य है, वहाँ यात्रा, मेलों, उत्सवों के सरल वर्णन भी हैं, इस युग के लेखक मौजी और फक्कड़ स्वभाव के थे, किन्तु सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना में भी वे पीछे नहीं थे। इन लेखकों की सभी निजी विशेषताएँ उनके निबन्ध साहित्य में भी प्रतिभासित हैं।

प्रमुख विशेषताएँ- इस युग के निबन्धों की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

1. इस काल के निबन्धों में व्याख्या सौन्दर्य नहीं मिलता है तथा वाक्य विन्यास में भी व्याकरण की अशुद्धियाँ पाई जाती हैं। वास्तव में ये निबन्ध निबन्ध न होकर लेख मात्र हैं।

2. डॉ० सत्येन्द्र ने इस काल के निबन्ध साहित्य को पत्रकला से सम्बधित माना है। उनके अनुसार ये सभी निबन्ध साधारण कोटि के हैं और किसी सामयिक समस्या पर टिप्पणियाँ प्रस्तुत करते हुए लगते हैं।

3. अनेक सामान्य विषयों पर निबन्ध लिखे गये हैं जैसे भौंह, आँख, कान, नाक, बात, आप और वृद्ध आदि।

4. इस काल के निबन्धों की सामाजिक जीवन सम्बन्धी, देश की परम्परा सम्बन्धी तथा पर्व और त्योहारों से सम्बन्धित निबन्ध लिखे गये हैं। ये निबन्ध ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित नहीं हुए हैं केवल पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। इस काल के निबन्धों में समाज सुधार और देश भक्ति का पुट है तथा हास्य विनोट की झलक भी देखने को मिलती है। वस्तुतः निबन्ध के वास्तविक विकास को प्रस्तुत करने में इस युग का योगदान कम नहीं है।

द्विवेदीयगीन निबन्ध साहित्य – बीसवीं शताब्दी के प्रथम बीस-पच्चीस वर्ष श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर द्विवेदी युग कहलाता है। इस युग में निबन्ध रचना जारी रही किन्तु पिछले युग की तुलना में कम। इस युग में गोविन्द नारायण मित्र ने अलंकृत शैली का अतिवादी रूप प्रस्तुत किया। यह शैली नितानत बनावटी और पूर्ण चमत्कारी थी। उनकी शैली का किसी ने अनुकरण नहीं किया। सरदार पूर्णसिंह ने कुल तीन-चार निबन्ध लिखे किन्तु पर्याप्त प्रसिद्धि प्राप्त की। उन्नत सबसे प्रसिद्ध निबन्ध ‘मजदूर और प्रेम’ है पूर्णसिंह के निबन्ध भावात्मक निबन्धों के सुन्दर उदाहरण है। माधव प्रसाद मिश्र ने भी अच्छे भावात्मक निबन्ध लिखे हैं द्विवेदी जी ने कुछ व्यंग्यात्मक और भावात्मक निबन्ध लिखे हैं किन्तु मुख्यतः उनके निबन्ध विवरणात्मक हैं जिनका उद्देश्य सूचना प्रदान है। श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने भी कुछ व्यंग्यात्मक निबन्ध लिखे थे। पद्यसिंह शर्मा के निबन्धों में व्यंग्यात्मकता भी है और वैयक्तिकता की छाप भी है।

वैशिष्ट्य निरूपण – द्विवेदी युग के निबन्धों में सामान्य रूप से जिन्दादिली का स्थान गम्भीरता ने ले लिया है। भारतेन्दु-युग के निबन्ध का विषय ‘जीवन’ है, इस युग के निबन्ध का विषय ‘ज्ञान’ है। भारतेन्दु युग के निबन्ध ‘वार्तालाप’ हैं। इस युग के निबन्धों का विषय स्पष्ट और स्वरूप विवेचनात्मक है। भारतेन्दु युग के निबन्ध चिन्तन के स्थान पर युग के निबन्धकारों में चिन्तन क्रम और विचार संयम के दर्शन होते हैं।

रामचन्द्र शुक्ल एवं अन्य लेखक- द्विवेदी युग के बाद के निबन्धकारों में सबसे महत्वपूर्ण श्री शुक्ल हैं। शुक्ल जी के निबन्धों की संख्या अधिक नहीं है। इनके आलोचनात्मक निबन्धों में विचार की गम्भीरता काफी है, निबन्ध की आत्मीयता या स्वच्छन्दता के दर्शन कहीं-कहीं ही होते हैं। मनोविज्ञान सम्बन्धी उनके निबन्ध अधिक सरल और उत्तम हैं। इन रचनाओ में विचार के साथ-साथ व्यंग्य के छोटे भी है और प्रकृति भाव प्रधान चित्रण भी हैं। शुक्ल जी भारतीय प्रकृति के प्रेमी थे और उन्होंने स्थान-स्थान पर प्रकृति का वर्णन मुग्ध होकर किया है। स्थान-स्थान पर व्यंग्य के साथ विनोद भी उसे प्रकृति का वर्णन मुग्ध होकर किया है। स्थान-स्थान पर व्यंग्य के साथ विनोद भी उनके निबन्धों में दिखलाई देता है। हिन्दी के दूसरे प्रसिद्ध आलोचक गुलाबराय ने गम्भीर आलोचनात्मक लेखों के साथ- हास्य-व्यंग्य प्रधान निवन्ध भी लिखे हैं। डॉ० रघुवीररसिक सिंह ने ऐतिहासिक स्थलों को आधार बना कर सुन्दर भावात्मक निबन्धों की रचना की है।

शुक्ल जी के बाद दूसरे महत्वपूर्ण निबन्धकार हैं श्री गुलाबराय उन्होंने द्विवेदी युग में ही निबन्ध रचना आरम्भ कर दी थी किन्तु उनकी महत्वपूर्ण रचना शुक्ल के युग में सामने आयी। ‘मेरी असफलताएँ’ संकलन में उनमें निजी जीवन से सम्बन्धित निबन्ध संकलित हैं। इन निबन्धों में हास्य, व्यंग्य और शब्द-क्रीड़ा की प्रधानता है। बिहार के लेखक ‘शिवपूजन सहाय’ भी अपने समय के अच्छे लेखक थे। सामान्य विषयों पर उन्होंने रोचक निबन्ध रचना की थी। उनकी शैली के दो रूप मिलते हैं- दोर्घ समासान्त पदावली वाली शैली और साधारण व्यावहारिक रूप वाली शैली।

शुक्ल जी के बाद के निबन्धकारों में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। निबन्ध की सजीवता, रोचकता और आत्मीयता को उन्होंने पूरी तरह से प्रहण किया। ‘अशोक के फूल’ उनके निबन्धों का पहला संग्रह है। इसके बाद ‘कल्पलता’, ‘कुटुज’ आदि उनके निबन्ध संग्रह प्रकाशित हुए हैं। द्विवेदी जी भारतीय साहित्य और संस्कृति के पण्डित हैं, किन्तु उनका पाण्डिय निबन्धों में अत्यन्त सहज रूप में प्रकट हुआ है। उन्होंने आधुनिक समास्याओं को सांस्कृतिक परम्परा के प्रकाश में जाँचा है। उनकी भाषा में तत्सम शब्द हैं किन्तु उनमें सहज प्रचलित शब्दों की प्रधानता है। डॉ० रघुवीर हिन्दी के भावात्मक निबन्ध के लिये प्रसिद्ध हैं। उन्होंने मुगलकालीन ऐतिहासिक अवशेषों पर बहुत सुन्दर भावात्मक निबन्ध लिखे हैं। सियाराम शरण गुप्त कवि के रूप में तो प्रसिद्ध हैं ही, ‘झूठ सच’ में उनके कुछ अच्छे निबन्ध भी संकलित हैं। राहुल सांकृत्यायन अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान थे। ‘तुम्हारी कसम’ और ‘दिमागी गुलामी’ में संकलित उनके निबन्धों में ओजपूर्ण शैली में रूढ़ि तथा अन्धविश्वासों का खण्डन है। जैनेन्द्र कुमार ने अपनी प्रसिद्ध वक्र शैली में कुछ चिन्तन प्रधान निबन्ध लिखे हैं ।

स्वातन्त्र्योत्तर निबन्ध साहित्य- स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी निबन्ध साहित्य की पहली पीढ़ी ही के लेखक हैं- देवेन्द्र सत्यार्थी, विद्यानिवास मिश्र, प्रभाकर माचवे, रामवृक्ष बेनपुरी आदि। देवेन्द्र सत्यार्थी का अपना विषय है लोक-साहित्य उन्होंने भारत के अधिकांश प्रान्तों की यात्रा करके लोक साहित्य का संकलन किया और उन्हें आधार बनाकर निबन्धों की रचना की है। उनके निबन्धों के संकलन हैं-‘धरती गाती है’, ‘बेला फूले आधी रात’, ‘बाजत आवे ढोल’ आदि। विद्या निवास मिश्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी की परम्परा के लेखक हैं। द्विवेदी जी ने यहाँ सांस्कृतिक परम्परा को अपनी आधारभूमि बनाया है वहीं विद्यानिवास मिश्र ने लोक-जीवन को । उनकी भाषा शैली में लोक मानस और सम्बिन्धित जीवन की मिठास मिलती है। प्रभाकर माचवे निबन्धों का संग्रह ‘खरगोश के सींग’ है। उन्होंने सामान्य विषयों पर चमत्कारिक बकवास के रूप में निबन्ध लिखे हैं। रामवृक्ष बेनीपुरी भावात्मक निबन्ध लेखक हैं। उन्होंने प्रकृति सौन्दर्य तथा अन्य विषयों पर प्रवाहपूर्ण शैली में निबन्ध रचना की है। रामधारी सिंह दिनकर ने भी ओजपूर्ण तथा प्रवाहपूर्ण शैली में रचना की है।

स्वतन्त्र्योत्तर हिन्दी निबन्ध साहित्य की दूसरी पीढ़ी के प्रमुख हैं- हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रविन्दनाथ त्यागी, कुबेरनाथ राय, शिवप्रसाद सिंह आदि परसाई, जोशी और त्यागी व्यंग्य लेखक हैं। जिनमें परसाई सबसे ज्यादा प्रसिद्ध हैं। परसाई ने सामाजिक, राजनैतिक विषयों पर निबन्ध रचना की है, वह बहुत लोकप्रिय है। उसमें ‘सदाचार का ताबीज’ ‘सुनो भाई साधो’ और अन्त में ‘निठल्ले की डायरी’ आदि अनेक निबन्ध संकलन प्रकाशित हुए हैं। शरद जोशी और रवीन्द्रनाथ त्यागी भी व्यंग्य लेखक हैं। कुबेरनाथ राय ने हजारीप्रसाद द्विवेदी की परम्परा बढ़ायी है। शिवप्रसाद सिंह के निबन्धों में विचार को गम्भीरता अधिक हैं।

उपर्युक्त विवेचन में केवल प्रमुख लेखकों का विवरण ही उपस्थित किया गया है। हिन्दी में प्रायः आलोचना और निबन्ध में कम भेद किया जाता है और सभी आलोचकों को निबन्ध लेखक भी माना जाता है। यह सम्भव है कि प्रसिद्ध आलोचकों ने कभी-कभी कुछ निबन्ध भी लिखे हों, किन्तु उससे वे निबन्ध लेखक नहीं बन जाते हैं। नन्द दुलारे बाजपेयी, डा० नगेन्द्र, श्याम सुन्दर दास आदि ऐसे ही आलोचक हैं, निबन्धकार नहीं हिन्दी में आलोचना की तुलना में निबन्ध का विकास कम हुआ है। निबन्ध की मुख्य विशेषता विष की आत्मपरकता और शैली की आत्मीयता है। इस तरह की निबन्ध रचना हिन्दी में अधिक है। आधुनिक हिन्दी साहित्य के 100 वर्षों में इस दृष्टि से 15-20 निबन्धकारों के नाम ही उल्लेखनीय हैं।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी भारतीय संस्कृति और इतिहास के पुजारी हैं। यह बात उनके निबन्ध साहित्य में भी देखी जा सकती है। ‘अशोक के फूल’ ‘कल्पलता’ ‘विचार और वितर्क’ जैसी निबन्ध संग्रहों में द्विवेदी जी के सांस्कृतिक दृष्टिकोण को देखा जा सकता है। द्विवेदी जी के निबन्धों की भाषा में सर्वत्र उसका व्यक्तित्व झाँकता दिखाई देता है। यदि एक और उनकी भाषा में संस्कृति वैभव है तो दूसरी और जनसाधारणोपयोगी और सुबोधता विद्यमान है। वस्तुतः द्विवेदी जी के सभी निबन्ध उनका रचनात्मक प्रतिभा गम्भीर अध्ययन और प्रगाढ़ पाण्डिय के सूचक हैं।

जैनेन्द्र कुमार के निबन्ध अधिकतर दार्शनिक विषयों पर हैं। डॉ० नगेन्द्र ने मुख्य रूप से साहित्यक विषयों पर लेखनी उठायी है। उनके ‘निबन्ध विचार और विवेचना’, विचार और विश्लेषण’ ‘विचार और अनुभूति’ आदि निबन्ध संग्रहों से प्रकाशित हुए हैं। डॉ० नगेन्द्र के निबन्धों के विषय में डॉ० गणपति चन्द्र गुप्त का मत है-“आपके निबन्धों में आचार्य शुक्ल की सी मौलिकता है, डॉ० हजारी प्रसाद की सी रोचकता एवं गुलाबराय की सी स्पष्टता एवं सरलता होती है। उन्होंने एक और पाश्चात्य काव्यशास्त्र का गम्भीर अनुशीलन किया है तो दूसरी ओर वे प्राचीन भारतीय आयाचों की काव्यशास्त्रीय परम्परा से परिचित हैं। अतः उनके दृष्टिकोण में एक अपूर्ण सामंजस्य एवं सन्तुलन मिलता है।” आचार्य शुक्ल एवं हजारी प्रसाद जी की निबन्ध लेखन परम्परा को आगे बढ़ाने का श्रेय डॉ० नगेन्द्र को ही है। महादेवी वर्मा के निबन्ध संस्मरण प्रधान हैं। उनके निबन्धों की प्रमुख विशेषता यह है कि उससे एक ओर तो कहानी जैसा स्वाद मिलता है जबकि दूसरी ओर काव्यात्मकता का पुट मिलता है। डॉ० रामविलास शर्मा, शिवदानसिंह चौहान और अमृतराय आदि निबन्धों पर प्रगतिवादी विचारधारा की स्पष्ट छाप दिखाई देती है। साहित्यिक निबन्ध लेखकों में आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी का प्रमुख स्थान रहा है। नलिन विलोचन शर्मा, धर्मवीर भारती और प्रभाकर माचवे आदि के निबन्ध अनेक उच्च कोटि की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। इनके निबन्धों में गम्भीरता विद्यमान हैं।

डॉ. देवराज के निबन्ध दृष्टि की सूक्ष्मता और विचारों की मौलिकता के लिए प्रसिद्ध हैं। इन निबन्धकारों के अतिरिक्त शान्तिप्रिय द्विवेदी, धीरेन्द्र वर्मा, डॉ० सत्येन्द्र, डॉ० सहल, अज्ञेय, डॉ० सरनामसिंह शर्मा, डॉ० चन्द्रबली पाण्डेय, प्रकाशचन्द्र गुप्त, राहुल सेठ गोविन्ददास, डॉ० राँगेय राघव और नामवरसिंह आदि के निबन्ध भी विशेष महत्व रखते हैं। इनमें अज्ञेय के निबन्ध साहित्यिक अधिक हैं तो उनमें गम्भीर चिन्तना का पुट भी पर्याप्त मात्रा में विद्यमान हैं। शान्तिप्रिय द्विवेदी की निबन्धात्मक रचनाएँ संचारिणी सामयिकी, युग और साहित्य, परिव्राजक की यात्रा और धरातल आदि हैं। डॉ. सत्येन्द्र और डॉ० सरनाम सिंह के निबन्ध समीक्षा प्रधान अधिक हैं। इन विद्वानों के निबन्धों में साहित्य की समस्याओं का विवेचन तो किया ही गया है। प्रमुख कवियों और लेखकों आदि के साहित्य का मूल्यांकन भी गम्भीर विवेचनात्मक शैली में किया गया है। इस प्रकार कह सकते हैं। कि हिन्दी निबन्ध साहित्य पर्याप्त पुष्ट और समृद्ध है।

हिन्दी में आज जो निबन्ध साहित्य लिखा जा रहा है, वह न केवल विषय की दृष्टि से विविधात्मक है, अपितु शैली और गम्भीर चिन्तना की दृष्टि से भी विशेष महत्व रखता है। वर्तमान युग के निबन्धों में एक ओर तो गुलाबराय की परम्परा मिलती है। दूसरी ओर रामचन्द्र शुक्ल की। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने जिस सांस्कृतिक परम्परा कथा सूत्रपात किया था उसका अच्छा निर्वाह विद्यानिवास मिश्र के निबन्धों में मिलता है। यद्यपि द्विवेदी जी के निबन्ध व्यंग्य और विनोद को साथ-साथ लेकर चले. है किन्तु फिर भी उनमें सांस्कृतिक दृष्टिकोण ही प्रमुख है। जहाँ तक शान्तिप्रिय द्विवेदी के निबन्धों का प्रश्न है उनके सम्बन्ध में डॉ. रामकुमार वर्मा की यह टिप्पणी विशेष महत्व रखती है- शान्तिप्रिय द्विवेदी जी ने अपने बन्धनों को पृष्ठभूमि न तो संस्कृति साहित्य से ली और न ही अंगेजी साहित्य से ली है। उन्होंने अपनी मननशीलता में ही अपने बौद्धिक स्तर में ही आलोचना के आदर्श स्थापित किए हैं। लेखक ने अपना हृदय पिघलाकर उन आदर्शों को प्राप्त किया है। डॉ० रामविलाश शर्मा के निबन्धों को नयी चेतना और नया रूप प्रदान किया है। उनकी वाणी विवेचना की अपेक्षा खोज को अधिक धारण किए हुए है। डॉ० शर्मा के निबन्ध ‘प्रगति और परम्परा’ ‘संस्कृति और साहित्य’ तथा ‘लोकजीवन और साहित्य’ जैसी कृतियों में संग्रहीत हैं। अज्ञेय ने अपने लेखन में चिन्तन, दर्शन को प्रमुख स्थान दिया है। उनके निबन्ध आकार में भले ही छोटे हों, किन्तु उनमें गम्भीरता बहुत अधिक है। उनके अधिकांश निबन्ध साहित्य से सम्बन्धित हैं। यद्यपि अपवाद स्वरूप उन्होंने कुछ ऐसे निबन्ध भी लिखे हैं जो प्राचीन रचनाकारों के मूल्यांकन से जुड़े हुए हैं। स्वर्गीय मोहन राकेश के सांस्कृतिक निबन्ध भी पुस्तककार रूप में प्रकाशित हो चुके हैं।

कुल मिलाकर यहीं कहा जा सकता है कि हिन्दी निबन्ध साहित्य आज पर्याप्त प्रगति कर चुका है और उसकी यह प्रगति निराशाजनक नहीं है। भविष्य से और अधिक अच्छे निबन्धों के सृजन की आशा लगाना व्यर्थ न होगा।

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Anjali Yadav

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