भारत में स्त्री आन्दोलनों की उत्पत्ति की प्रारम्भिक दशाओं की चर्चा कीजिए । (Discuss the early phases of the emergence of women’s movements in India.)
भारत में ब्रिटिश काल से पूर्व भारतीय की स्थिति बहुत ही दयनीय एवं निम्न स्तर की होने के कारण भारत के पुरुष प्रधान समाज महिलाओं की स्थिति में कोई विचार भी नहीं किया जाता था, क्योंकि इस समय, सती-प्रथा, पर्दा प्रथा, तथा बाल विवाह जैसी अनेक बुराइयाँ भारतीय समाज में प्रचलित थीं। प्रायः सभी वर्गों की महिलाएँ घर की सीमाओं में ही रहती थीं और उनका मुख्य कार्य बच्चों की देखभाल करना तथा पति की सेवा करना ही शेष रह गया था। यहाँ तक कि पारिवारिक समस्याओं में नारियों की सलाह भी नहीं ली जाती थी, किन्तु शीघ्र ही ब्रिटिश काल में इस प्रकार से परेशान महिलाओं के उद्धार का मार्ग 19वीं शताब्दी के सामाजिक धार्मिक सुधार आन्दोलनों ने प्रशस्त करना आरम्भ कर दिया और ब्रह्म समाज, आर्य समाज, थियोसोफिकल सोसायटी, रामकृष्ण मिशन, आदि विभिन्न सामाजिक संस्थाओं ने तथा राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, एनी बेसेंट, श्रीरानाडे आदि प्रभावशाली प्रश्वर नेताओं के विशेष प्रयत्नों से नारी के सामाजिक स्तर में व्यापक परिवर्तन आने लगा। ब्रिटिश सरकार की शैक्षिक नीति तथा नारी सुधार के प्रति सहानुभूति ने तत्कालीन नारियों को घर से निकालकर आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया। सौभाग्य से, उसी समय महत्मा गाँधी द्वारा राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने के लिए भारतीय नारियों का आह्वान किया गया । परिणामस्वरूप भारतीय नारियाँ तुरन्त गाँधीजी के नेतृत्व में भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में कूद गईं। उन्होंने अपने कार्यों से विभिन्न राष्ट्रीय आन्दोलनों में बढ़-चढ़कर भाग लिया, जिसका विवरण इस प्रकार है—
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गाँधीजी के असहयोग आन्दोलन में नारी की सहभागिता (Participation of Women in Non-Co-operation Movement of Gandhiji)
भारत में ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियों के विरोध में सन् 1920 से सन् 1922 तक गाँधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन का संचालन किया गया, तब प्रथम बार महिलाओं द्वारा भारी संख्या में इस आन्दोलन में भाग लिया गया। इस आन्दोलन में नारियों की भूमिका का विवरण इस प्रकार है—
(1) खादी का प्रचार एवं प्रसार करना — गाँधीजी के असहयोग आन्दोलन के अन्तर्गत महिलाओं ने खादी का प्रचार एवं प्रसार खुलकर किया। इसके लिए, उन्होंने खादी एवं चरखा गली-गली में जाकर बेचा और खादी को लोकप्रिय बनाने के लिए उन्होंने जुलूसों का संचालन तथा विदेशी कपड़ों की होली जलाई। इसके साथ-साथ शराब की लाइसेंस की सरकारी दुकानों की नीलामी को रोकने के लिए उन्होंने शराब की दुकानों पर भी धरना दिया ।
(2) द्वारा प्रथम महिला संगठन का गठन — राष्ट्रीय आन्दोलनों में भाग लेने के क्रम में, अनेक भारतीय महिलाओं ने सर्वप्रथम सन् 1921 ई. में, कांग्रेस के सम्मेलन में भाग लिया। इस सम्मेलन में महिलाओं की संख्या 141 थी, जिसमें 127 स्वैच्छिक कार्यकर्ता तथा 14 महिलाएँ विभिन्न समितियों से सम्बन्धित थीं। इसके बाद, उन्होंने मुम्बई में एक सभा का गठन किया, जिसको ‘राष्ट्रीय स्त्री सभा’ कहा गया। इस सभा का प्रमुख उद्देश्य स्वराज्य तथा महिलाओं का उत्थान करना था। भारतीय राजनीति में यह नारियों का प्रथम महिला संगठन था, जिसका संचालन बिना पुरुषों के सहयोग से ही किया गया था ।
इस सभा को ‘राष्ट्रीय एक्टीविज्म’ के पालन में पूरी तरह लगा दिया गया था, जिसको पूर्ण रूप से सफलता मिली।
इस सभा की प्रमुख सदस्यायें पूरी तरह खादी का प्रचार कर रही थीं। इस क्षेत्र में उन्होंने अपने उद्देश्यों की पूर्ति शांति पूर्ण ढंग से की थी। ‘स्वराज्य’ प्राप्ति हेतु उन्होंने घर पर ही सूत कातना प्रारम्भ कर दिया, लेकिन अन्य दूसरे उद्देश्यों की पूर्ति उन्होंने अपनी राजनीतिक गतिविधि यात्रा का विरोध द्वारा किया। उन्होंने खादी की बिक्री के लिए शहरों में विभिन्न प्रकार की प्रदर्शनी तथा केन्द्र खोले तथा साथ ही साथ घर-घर जाकर भी खादी को बेचा और खादी को घर-घर तक पहुँचाया। इस सभा ने निम्नलिखित प्रमुख कार्य किए थे-
(i) हरिजनों की शिक्षा व्यवस्था- हरिजनोंद्धार से सम्बन्धित गाँधीजी के विचारों से प्रेरित होकर इस सभा की महिला सदस्याओं द्वारा हरिजनों के लिए शिक्षा का प्रबन्ध किया गया, जिसके लिए उन्होंने मुम्बई में जी-वार्ड ने विभिन्न स्तर पर कक्षाएँ चलाईं। भारत में इस प्रकार की कक्षाएँ भारतीय महिलाओं द्वारा सन् 1921 ई. से 1930 तक संचालित की गईं जो इसकी प्रमुख उपलब्धि थी ।
(ii) आर्थिक सहायता करना- जब गाँधीजी द्वारा आन्दोलन हेतु पैसे की व्यवस्था के लिए ‘तिलक कोष’ की स्थापना की गयी तो इस सभा की सदस्याओं द्वारा 4,519 रु. जमा कराए लेकिन गाँधीजी ने इस सभा के कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने हेतु उक्त धनराशि वापस लौटा दी। इस पैसे से एक खादी भण्डार स्थापित किया गया, जिसमें लड़कियों द्वारा वस्त्रों पर कढ़ाई की जाती थी इसके साथ-साथ प्रदर्शनियाँ तथा विद्यालयों की भी स्थापना कर दी गयी ।
(iii) राष्ट्रीय संस्था के रूप में सभा के कार्य- भारतीय राजनीति में, राष्ट्रीय आन्दोलनों के रूप में महिलाओं की भूमिका पर विशेष रूप से चर्चा सन् 1910 के अन्त में तथा 1920 के दशक में प्रारम्भ हुई। इन महिलाओं द्वारा अपनी सभा का प्रयोग स्त्री-पुरुष की समानता तथा महिला अधिकारों के लिए किया। इस सभा की प्रमुख महिला ‘एक्टीविस्ट’ ने सन् 1921-22 ई. में घोषणा की थी कि “स्वराज्य का अर्थ अपना राज’ तथा ‘स्वाधीनता का अर्थ – “शक्ति एवं ताकत अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए।” इस सम्बन्ध में एक अन्य ‘महिला एक्टीविस्ट’ ने कहा था कि “स्वाधीनता दी नहीं जा सकती, अपितु उसे जबरदस्ती लेना पड़ता है। इसे हित चिन्तक पुरुषों की स्वेच्छा पर छोड़ा नहीं जा सकता, यदि छोड़ा गया तो अधीनता ही हाथ लगेगी।”
(3) राष्ट्रवादी पुरुषों द्वारा आलोचना- राष्ट्रीय आन्दोलन में बढ़ती महिलाओं की सहभागिता की सबसे अधिक आलोचना राष्ट्रवादी पुरुषों ने कहा कि ” अधिकार बिना लड़े प्राप्त नहीं होते हैं। ऐसे पुरुष जो अधिकारों को धीरे-धीरे प्राप्त करने की सलाह देते हैं, को नरम दलीय काँग्रेसियों की याद दिलाई गयी, जो उन आन्दोलन की आलोचनाओं का मुख्य आधार बनी थी।”
(4) महिला के सम्बन्ध में प्रचलित विचारधाराएँ— भारतीय समाज में महिला अधिकारों के सम्बन्ध में दो विचारधाराएँ प्रमुख रूप से प्रचलित थीं, जिनके सम्बन्ध में निम्न तर्क प्रस्तुत किए गए-
(i) औरतों को अधिकार इसलिए मिलना चाहिए, क्योंकि उसकी भूमिका माँ की भी होती है।
(ii) यद्यपि नारी पुरुषों में जैविक असमानता होती है फिर भी उसकी इच्छाएँ एवं क्षमताओं के अनुरूप उसको अधिकार मिलने ही चाहिए।
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि नारी और पुरुष में जो अन्तर है, वह केवल प्राकृतिक ही है । उसको गुणात्मक स्वरूप का मुख्य अन्तर नहीं माना जा सकता। इसलिए, नारियों को पुरुषों के समान अधिकार मिलना ही चाहिए।
गाँधीजी के सविनय अवज्ञा आन्दोलन में नारियों का योगदान (Role of Women in Civil Disobedience Movement)
ब्रिटिश सरकार द्वारा पारित नमक कानून के विरोध में, गाँधीजी द्वारा 1930 ई. में एक नया आन्दोलन चलाया, जिसको ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ का नाम दिया गया। इस आन्दोलन से महिलाओं की भागेदारी का नवीन चरण प्रारम्भ हुआ । इस आन्दोलन में भी महिलाओं द्वारा 1930 ई. में अहमदाबाद से डांडी तक की यात्रा का आयोजन किया गया। यद्यपि महिलाएँ इस यात्रा में भाग लेना चाहती थीं, लेकिन गाँधीजी ने विनम्रता पूर्वक मना कर दिया। इसके बावजूद जिस-जिस स्थान पर गाँधीजी की यात्रा का पड़ाव होता वहाँ इस यात्रा का महिलाओं ने भारी स्वागत किया। गाँधीजी के इस आन्दोलन द्वारा अन्य आन्दोलनों में महिलाओं की भूमिका का विवरण इस प्रकार है-
(1) महिलाओं के लिए सम्मेलन आयोजित करना- असहयोग आन्दोलन में, महिलाओं की भागीदारी से उत्साहित होकर गाँधीजी द्वारा डांडी में एक महिला सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें उन्होंने उनके लिए विभिन्न कार्यक्रम निश्चित किए । इस सम्मेलन में महिलाओं द्वारा भारी संख्या में भाग लिया गया ।
(2) नमक सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लेना- गाँधीजी द्वारा अपने आन्दोलन में महिलाओं को पूर्ण रूप से शामिल किया गया। इसी क्रम में भारत के अन्य प्रदेशों के स्थानीय नेताओं द्वारा महिलाओं को विभिन्न आन्दोलनों में भाग लेने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की गयी । इस आन्दोलन में, महिलाओं द्वारा नमक बनाकर बेचा गया। इस राष्ट्रीय आन्दोलन में समाज के प्रत्येक वर्ग की महिलाओं ने भाग लिया। इस आन्दोलन की प्रमुख महिला नेताओं में एनी बेसेंट, सरोजनी नायडू, कमला देवी चट्टोपाध्याय आदि प्रमुख थीं ।
(3) किसान महिलाओं की भूमिका- काँग्रेसी नेताओं द्वारा अपनी गतिविधियों का केन्द्र बिन्दु ग्रामीण किसान महिलाओं को ही बनाया गया। इन किसान महिलाओं का नेतृत्व श्रीमती कमला देवी चट्टोपाध्याय द्वारा किया गया था। गाँधीजी ने अपने भाषणों में, महिलाओं का कार्य-क्षेत्र शहर के स्थान पर गाँव को बनाया गया, साथ ही मध्यम वर्गीय लोगों से भारतीय जीवन अपनाने पर भी विशेष रूप से बल दिया गया। महिलाओं द्वारा ग्रामों में व्याप्त सामाजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया गया।
(4) कर एवं राजस्व का विरोध- ब्रिटिश शासन की कर एवं राजस्व नीति का विरोध इस आन्दोलन के प्रमुख बिन्दु बने जिसके अनुसार घरों के सामान, उपकरण तथा कई बार जमीन तक सरकार द्वारा अधिग्रहण कर ली जाती थी, जिसकी बाद में नीलामी कर दी जाती थी। महिलाओं द्वारा इस नीलामी का भारी विरोध किया गया। इसके साथ ही यह भी नियम था कि “जो व्यक्ति माल खरीद लेते थे, उनको सारा सामान पूर्व मालिक को लौटाना आवश्यक था।” सामान को प्राप्त करने के उद्देश्य से ही महिलाएँ खरीददार के घर पर धरना देती थीं। इसके लिए कभी-कभी महिलाओं को अत्याचार भी सहन करना पड़ता था ।
(5) महिलाओं द्वारा अत्याचार सहन करना- सन् 1920 में काँग्रेसी नेताओं को यह विश्वास था कि पुलिस महिलाओं पर किसी प्रकार का कोई अत्याचार नहीं करेगी। लेकिन सन् 1930 ई. में, कांग्रेसियों का यह विश्वास पूर्ण रूप से समाप्त हो गया था, क्योंकि पुलिस महिलाओं के जुलूस पर भी लाठी चार्ज करती थी तथा उन्हें बेरहमी से मारती थी, जिससे महिलाओं सहित जनता में आक्रोश उत्पन्न हो गया और आन्दोलन को अपनी चरम सीमा पर पहुँचने में पूर्ण सफलता मिली।
(6) पुलिस की बर्बरता की निन्दा – पुलिस द्वारा महिलाओं पर किए गए अत्याचारों की सर्वत्र निन्दा की गयी। अंग्रेजी नीतियों के विरुद्ध, प्रेस तथा सुधारवादी एवं राष्ट्रवादी पत्रिकाओं में विशेष रूप से समाचार प्रकाशित किए गए। महिलाओं पर अत्याचारों की निन्दा काँग्रेस की बुलेटिन में भी की जाती थी।
(7) महिलाओं द्वारा गिरफ्तारी देना- पुलिस द्वारा किए गए अत्याचारों पर अखिल भारतीय महिला काँग्रेस ने भी एक विशेष रिपोर्ट लाहौर सत्र में प्रस्तुत की और सन् 1930- 33 के बीच महिलाओं ने उत्साह के साथ गिरफ्तारी दी। अकेले मुम्बई में लगभग 400 महिलाओं की गिरफ्तारी भी दी गयी थी ।
महिलाओं द्वारा राष्ट्रीय आन्दोलनों में भागीदारी के महत्व को प्रस्तुत करते हुए श्रीमती ऐनी बेसेंट ने महिलाओं को ‘त्यागमयी नारी’ बताया। श्रीमती नायडू ने महिलाओं को “त्यागमयी भारतीय माँ’ तथा कजिन्स ने महिलाओं को ‘महान भारतीय नस्ल’ तथा ‘शक्तिशाली मुस्लिम रेस’ कहा। उक्त के अलावा महिलाओं को श्रीमती कमला देवी चट्टोपाध्याय द्वारा ‘आत्म त्यागी खेतिहर महिलाएँ’ भी कहा गया था ।
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