शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में सम्प्रेषण प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
सम्प्रेषण प्रक्रिया सम्प्रेषण प्रक्रिया के विभिन्न चरण इस प्रकार हैं-
1. सूचना स्त्रोत – सम्प्रेषण प्रक्रिया का प्रारम्भ समाचार भेजने वाला व्यक्ति करता है। यही वह व्यक्ति है जो अपना समाचार/बात सम्प्रेषित करना चाहता है तथा सन्देश भेजने की पहल करता है। उदाहरणार्थ संगठन का प्रबन्धक अपने उप-प्रबन्धक को कोई निर्देश देना चाहता है, तब प्रबन्ध सूचना स्रोत होगा।
2. माध्यम सूचना भेजने का माध्यम वह रास्ता या तरीका है जिसके द्वारा – लिपिबद्ध सूचना प्राप्तकर्त्ता तक भेजी जाती है। भेजने वाले के पास सूचना भेजने के अनेक माध्यम हो सकते हैं जिनमें से उपयुक्त माध्यम का चयन सूचना भेजने वाले को स्वयं करना होता है। सन्देश को लिखकर दिया जा सकता है, पढ़कर सुनाया जा सकता है, प्रतीकों से समझाया जा सकता है, शारीरिक भाव से दर्शाया जा सकता है तथा मौखिक या लिखित रूप में प्रदर्शित किया जा सकता है। तार, टेलीफोन, मोबाईल, इंटरनेट, टी.वी. या अन्य किसी भी माध्यम से भी संदेश प्राप्तकर्त्ता तक भिजवाया जा सकता है। समय और धन की सीमा भी सन्देश भिजवाने से जुड़ी होती है।
3. लिपिबद्धता – लिपिबद्धता का उद्देश्य भेजने वाले की सूचना को शब्दों अथवा संकेतों अथवा अन्य किसी रूप में परिवर्तित करना है ताकि इस सूचना को यथा-विधि भेजने वाले जिस भाव से सूचना भेजना चाहता है वह लिपि उस भावना को व्यक्त कर रही हो। सूचना की प्रकृति का भी लिपिबद्धता की विधि पर बहुत प्रभाव पड़ता है।
4. अनुवादन – सन्देश ऐसी भाषा या प्रतीकों में हो सकता है जिसे समझने के लिये प्राप्तकर्ता की भाषा या प्रतीक में बदलना होगा। यह बदलाव या परिवर्तन ही अनुवादन कहा जाता है। अनुवादन के दो चरण होते हैं-प्रथम चरण में सन्देश की प्राप्ति होती है। तथा दूसरे चरण में इसे प्राप्तकर्ता की लिपि या संकेतों में परिवर्तित किया जाता है। सही अनुवादन सन्देश भेजने वाले की भावना को यथारूप प्राप्तकर्ता को अवगत कराना है। सन्देश भेजने वाले की भावना में थोड़ा सा परिवर्तन भी सन्देश की सार्थकता को समाप्त. कर सकता है। अतः अनुवादन की सफलता ही प्राप्तकर्त्ता को सही सन्देश से अवगत कराती है। इसमें सन्देश भेजने वाले की भाषा व प्रतीक भी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
5. प्राप्तकर्ता- यह व्यक्ति सन्देश को प्राप्त करता है अथवा ग्रहण करता परन्तु संदेश का तब तक कोई अर्थ नहीं है जब तक कि सन्देश को समझ न लिया जाये। इसीलिये सन्देश की भौतिक प्राप्ति ही पर्याप्त नहीं है, जब तक कि प्राप्तकर्ता सन्देश को समझ न ले। सन्देश को समझ लेने के उपरान्त ही सन्देश भेजने का उद्देश्य पूरा होता है।
6. प्रतिक्रिया – सम्प्रेषण प्रक्रिया तभी पूर्ण होती है जब सन्देश पर प्राप्तकर्ता ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर दी हो। सन्देश मौखिक हो, लिखित अथवा प्रतीकों या अन्य किसी रूप में हो, सम्प्रेषण तभी कहलाता है जब प्राप्तकर्ता की प्रतिक्रिया आ जाती है।
वस्तुत: प्रतिक्रिया सन्देश की वापसी है अर्थात् प्राप्तकर्ता ने सन्देश को समझकर क्या अनुभव किया है? उसकी वापसी ही प्रतिक्रिया के रूप में भेजने वाले को मिलती है। यह प्रतिक्रिया प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष, लिखित, मौखिक या भावना प्रदर्शन के रूप में हो सकती है। संगठनात्मक सम्प्रेषण में प्रतिक्रिया जितनी शीघ्र व प्रबलता से मिलेगी सम्प्रेषण उतना ही प्रभावी माना जाता है। उदाहरणार्थ यदि प्रबन्धक ने अपने अधीनस्थों को कोई निर्देश दिया है तो जब तक इस निर्देश के अनुपालन की सूचना प्रबन्धक को नहीं मिल जाती तब तक निर्देशन की प्रक्रिया पूरी नहीं मानी जाती है।
सम्प्रेषण की बाधायें-
सम्प्रेषण प्रक्रिया अत्यन्त जटिल मानी जाती है। यह केवल एक मानवीय प्रक्रिया ही नहीं है जिसमें सूचना देने वाले व प्राप्त करने वाले ही सम्मिलित हैं वरन् सम्प्रेषण की प्रभावशीलता अन्य तत्वों पर भी निर्भर करती है जिनमें भाषाविक अन्तर, प्रतीक अन्तर, शोर, माध्यम की भिन्नता आदि को सम्मिलित किया जाता है। सम्प्रेषण में भौतिक, मानवीय व अर्थगत बाधायें उत्पन्न होती हैं जो सन्देश की भावना को भेजने वाले से प्राप्त करने वाले तक पूर्णतया परिवर्तित कर देती है जिससे सम्प्रेषण का उद्देश्य ही विफल हो जाता है। अतः सम्प्रेषण में होने वाली बाधाओं को समझना आवश्यक हो जाता है। प्रबन्ध विशेषज्ञ लियोन मैगीन्सन, थियो हेमन व मैकफारलैन्ड आदि ने सम्प्रेषण की निम्न बाधाओं का वर्णन किया है-
1. संरचनात्मक बाधायें- एक संगठन की सरंचना उसके सदस्य के मध्य सम्प्रेषण में अनेक बाधायें खड़ी कर सकती है। संरचनात्मक बाधायें निम्न प्रकार की हो सकती हैं-
(i) कर्मचारी की स्थिति – अर्थात् पद भिन्नता भी कर्मचारियों में अहम् छोटे बड़े की भावना योग्य व अयोग्य का अहसास उत्पन्न कर देती है, जिससे सम्प्रेषण के निर्बाध प्रवाह में बाधा उत्पन्न हो जाती है।
(ii) विशिष्टीकरण – कर्मचारियों के अधिकार, कर्त्तव्यों व दायित्वों में भिन्नता उत्पन्न कर देता है। कार्य भाषा, तकनीकी शब्दावली, संचार व्यवस्था, सन्दर्भ स्थिति आदि की पृथकता सम्प्रेषण में बाधा उत्पन्न करते हैं।
(iii) व्यक्तिगत स्वार्थ – व्यक्तिगत स्वार्थ भी सन्देश के मार्ग में बाधा उत्पन्न करता है। यदि कोई व्यक्ति सन्देश भेजने वाले से ईर्ष्या रखता है तब उसमें कुछ चुभती हुई भाषा जोड़ देता है और यदि स्वार्थवश वह पदोन्नति का आकांक्षीं है तब त्रुटियों को छिपा सकता है। दोनों ही स्थितियों में सन्देश की मूल भावना विकृत हो जाती है।
(iv) छलनियों की संख्या- छलनियों की संख्या अधिक होने पर भी सन्देश छनते-छनते विकृत हो जाते है। अर्थात् संगठन में जितने अधिक प्रबन्ध स्तर होंगे, उतना ही सन्देश जास्तविक प्राप्तकर्ता तक पहुँचते-पहुँचते भिन्न रूप ले लेता है। चाहे सम्प्रेषण ऊपर से नीचे की ओर या नीचे से ऊपर की ओर हो, प्रत्येक स्तर पर प्रत्येक अनुवादक मूल सन्देश में कुछ जोड़ या घटा देता है जिससे सही व्यक्ति तक पहुँचते-पहुँचते सन्देश अपना कार्य अर्थ खो देता है।
2. भाषाविक बाधायें- सन्देश देने वाला अपनी भाषा में सन्देश देता है तथा सन्देश प्राप्त करने वाला उसे अपनी भाषा में प्राप्त करना चाहता है, परन्तु भाषा की भिन्नता सन्देश को समझने में बाधा उत्पन्न करती है। ये बाधायें निम्न प्रकृति की हो सकती हैं- (i) भाषा की भिन्नता, (iii) अनुवादक की योग्यता, (iii) वैधानिक व तकनीकी शब्दावली की भिन्नता, (iv) शब्दों का ज्ञान, (v) प्रतीकों की समझ, (vi) द्विअर्थी वाक्यों का प्रयोग आदि।
3. माध्यम सम्बन्धी बाधायें – प्रायः सम्प्रेषण किसी न किसी माध्यम के द्वारा किया जाता है। यदि सन्देश भेजने का माध्यम ही त्रुटिपूर्ण है तब सन्देश का पहुँचना कठिन हो जाता है। माध्यम सम्बन्धी बाधायें निम्न प्रकार की हो सकती हैं-
- भेजने वाले या प्राप्त करने वाले का माध्यम के संचालन का पूर्ण ज्ञान न हो,
- माध्यम में तकनीकी दोष हों,
- गलत माध्यम का चयन किया गया हो तथा
- माध्यम उपलब्ध न हो।
4. मानवीय बाधायें – व्यक्ति-व्यक्ति में सोच-समझ, रहन-सहन खान-पान, रीति रिवाज, बोल-चाल आदि की भिन्नता पायी जाती है। मनुष्यों में उपरोक्त भिन्नता सम्प्रेषण में बाधायें उत्पन्न करती हैं। ये बाधायें निम्न प्रकृति की हो सकती हैं
- व्यक्ति की सोच-समझ व योग्यता,
- व्यक्ति की भाषा, रहन-सहन व परम्परायें,
- व्यक्ति का स्वभाव, स्तर व विचार,
- व्यक्ति का लिंग, आयु व अनुभव तथा
5. प्रबन्धकीय बाधायें- संगठन में प्रबन्ध की स्थिति, स्तर, शैली, कौशल, आदि की भिन्नता भी सम्प्रेषण के मार्ग में बाधायें उत्पन्न करते हैं। प्रबन्धकीय बाधायें निम्न प्रकार की होती हैं-
- प्रबन्ध, की शैली की निरंकुशवादिता, जनतान्त्रिकवादिता, समतावादिता आदि सन्देशवाहक प्रणाली को प्रभावित करती हैं,
- एकमार्गी, द्विमार्गी या बहुमार्गी सम्प्रेषण व्यवस्था एक दूसरे का विरोध कर सकती है,
- प्रबन्ध की नेतृत्व क्षमता व निर्देशन योग्यता भी सम्प्रेषण के मार्ग में रुकावट बन सकती है,
6. भौगोलिक बाधायें – सन्देश भेजने वाले व प्राप्तकर्ता के मध्य भौगोलिक दूरी भी सम्प्रेषण में बाधा पहुँचाती है। भौगोलिक दूरियाँ, देशों व प्रदेशों में पारस्परिक सम्बन्ध तथा सम्प्रेषण की लागत भी बाधा का कार्य करते हैं।
7. वातावरण सम्बन्धी बाधायें – वातावरण में शोर का स्तर भी सम्प्रेषण में बाधा उत्पन्न करता है। मौखिक, श्रव्य-दृश्य, टेलिफोन, मोबाईल आदि माध्यमों से भेजा गया सन्देश वातावरण सम्बन्धी बाधाओं से प्रभावित होता है। कहने वाला तो अपनी बात कह देता है, अब सुनने वाले ने उसे कितना सुना है तथा कितना समझा है, यह शोर व अन्य वातावरण की स्थितियों पर निर्भर करता है।
8. परिवर्तन अवरोध सम्बन्धी बाधायें – परिवर्तन को स्वीकारने या विरोध करने की मानसिकता भी सम्बोधन में बाधा उत्पन्न करती है। ऐसे व्यक्ति जो अपने वर्तमान वातावरण या परिस्थिति में परिवर्तन नहीं चाहते, वे ऐसी किसी भी सूचना या सन्देश रोक देते हैं जो उनके वातावरण या परिस्थिति में परिवर्तन ला रहा हो। जहाँ सन्देश इस प्रकार का है कि वह वातावरण में बदलाव लाना चाहता है वहाँ परिवर्तन को स्वीकार न करने वाले व्यक्ति यथास्थिति पसन्द करते हैं।
9. अत्यधिक भार की बाधायें – प्रायः उच्च प्रबन्ध पर कभी-कभी सूचनाओं के निष्पादन का अत्यधिक भार आ जाता है। प्रबन्ध उस अत्यधिक भार की स्थिति में अग्र प्रतिक्रियायें करता है जो सम्प्रेषण में बाधा उत्पन्न करती हैं-
- कम महत्व की सूचनाओं को टाल देना,
- अनुमान के आधार पर उत्तर देना,
- सूचना प्राप्त करने वाले व्यक्तियों को अधिक प्रतीक्षा कराना,
(iv) उत्तर देने में विलम्ब करना तथा
सम्प्रेषण की बाधाओं को दूर करने के उपाय – संगठन में व्यक्तियों के प्रभावी प्रबन्ध के लिये प्रभावी सम्प्रेषण व्यवस्था का होना अनिवार्य है। प्रबन्ध अपने लक्ष्यों को तभी प्राप्त कर सकता है जबकि सम्प्रेषण की कुशल व सुदृढ़ व्यवस्था विद्यमान हो। सम्प्रेषण व्यवस्था को अधिक कुशल व प्रभावी बनाने हेतु सम्प्रेषण में आने वाली बाधाओं को निम्न प्रकार दूर किया जा सकता है-
1. प्रत्यक्ष सम्प्रेषण – यदि सन्देश प्रत्यक्ष रूप से प्राप्तकर्ता को दिया जाये तब वह सर्वाधिक प्रभावशाली होता है। भेजने वाला व प्राप्तकर्ता एक-दूसरे के हाव-भाव देखकर भी सन्देश के महत्व को परख लेते हैं।
2. उपयुक्त प्रबन्ध – यदि संगठन में प्रबन्ध व्यवस्था प्रभावी है, तब सम्प्रेषण कुशलता से हो जाता है। ढीली प्रबन्ध व्यवस्था में सम्प्रेषण भी ढीला-ढाला ही रहता है। तथा उसकी प्रभावहीनता कम हो जाती है।
3. समयानुकूलता – सम्प्रेषण समयानुकूल होना चाहिये। गलत समय पर गलत सन्देश विपरीत प्रभाव डालता है।
4. शोर को टालना – सन्देश भेजने वाले या मौखिक सन्देश देने वाले को यह प्रयास करना चाहिये कि सन्देश के समय न्यूनतम शोर हो। अधिक शोर की स्थिति में सन्देश को ठीक से कहना या सुनना कठिन हो जाता है।
5. ठीक से सुनना – यदि सन्देश मौखिक रूप से दिया जाता है अथवा टेलीफोन या मोबाईल पर बात की जाती है जब श्रोता को सन्देश ठीक से सुनना चाहिये। सन्देश सुनते समय अन्य कार्यों में व्यस्त रहने पर सन्देश निष्प्रभावी हो जाता है।
6. जन प्रवाद का ध्यान – प्राय: सन्देश के साथ सुनी-सुनाई सूचनाओं, पारस्परिक चर्चाओं, तोड़े-मोड़े, गये तथ्यों, चटपटी खबरों, उलझी हुई गुत्थियों आदि का प्रयोग भी होता है। सन्देश को कहने वाले तथा सुनने वाले के सन्देश के अर्थ में समानता होनी चाहिये।
7. अनुगमन – सन्देश भेजने वाले को सन्देश के सही तरीके से पहुँचने तथा सही अर्थ में लेने की पुष्टि कर लेनी चाहिये। यदि सन्देश का समुचित अनुगमन कर लिया जाये तब सन्देश की प्रभावशीलता बढ़ जाती है।
8. व्यवस्थित सम्प्रेषण – सम्प्रेषण व्यवस्था उचित रूप से नियोजित होनी चाहिये। सूचना प्रवाह का नियमन किया जाना चाहिये। ऐसी स्थिति नहीं आनी चाहिये कि किसी व्यक्ति विशेष पर सम्प्रेषण का अत्यधिक भार हो। अत्यधिक भार की स्थिति में अनेक सम्प्रेषण अधूरे व निष्प्रभावी रह जाते हैं।
9. सार्थक सन्देश – सन्देश सार्थक होना चाहिये तभी वह प्रभावशील हो पाता है। निरर्थक सन्देश जन प्रवाद के रूप में लिया जाता है।
10. समुचित माध्यम- सन्देश की प्रकृति व तीव्रता के अनुरूप ही सम्प्रेषण के माध्यम का चयन होना चाहिये। श्रेष्ठ यह है कि सन्देश के प्राप्तकर्ता को भी माध्यम की भली प्रकार जानकारी हो ।
11. सरल भाषा – सन्देश हेतु भाषा ऐसी होनी चाहिये जो प्राप्तकर्ता के बौद्धिक स्तर के अनुरूप हो। वह सन्देश को भली प्रकार समझ सके। प्रायः तकनीकी व क्लिष्ट भाषा के प्रयोग से बचा जाना चाहिये ।
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