सतत् व व्यापक मूल्यांकन (CCE) की संकल्पना को विकसित कीजिये।
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सतत् व व्यापक मूल्यांकन (CCE) की संकल्पना :
मुख्य रूप से सतत् व व्यापक को अधिकृत रूप में 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में स्थान दिया गया, पर इसकी चर्चा प्रत्यक्ष रूप में शिक्षा क्षेत्र में सबसे प्रथम 1956 (22 से 29 फरवरी) परीक्षा सुधार सम्बन्धी भोपाल में आयोजित गोष्ठी में ” आन्तरिक मूल्यांकन” के नाम से हुई थी।
इस संकल्पना के अन्तर्गत बाह्य परीक्षा का महत्व कम किया गया और आन्तरिक मूल्यांकन के लिए विद्यालयी मूल्यांकन को महत्वपूर्ण माना गया। बाह्य परीक्षा द्वारा विद्यार्थियों को केवल शैक्षिक संप्राप्ति की परीक्षा ली जाती है जबकि आन्तरिक मूल्यांकन के द्वारा शैक्षिक व सहशैक्षिक दोनों प्रकार की संप्राप्ति का मूल्यांकन किया जाता है।
इस प्रकार सतत् व व्यापक मूल्यांकन की संकल्पना के बीज विद्यालयी मूल्यांकन संकल्पना में ही निहित है जिसके अन्तर्गत यह संभव है कि अध्यापक विभिन्न प्रकार की मूल्यांकन विधियों व विधाओं का उपयोग करते हुए विद्यार्थी की शैक्षिक व सहशैक्षिक संप्राप्ति का मूल्यांकन सतत् व व्यापक रूप में कर सकता है।
सतत् और व्यापक मूल्यांकन (सी.सी.ई) का आशय विद्यार्थियों के विद्यालय आधारित मूल्यांकन की उस प्रणाली के बारे में है, जिसमें विद्यार्थियों के विकास के सभी पहलुओं की ओर ध्यान दिया जाता है।
यह निर्धारण की विकासात्मक प्रक्रिया है, जो दोहरे उद्देश्यों पर बल देती है। ये लक्ष्य हैं, व्यापक आधार वाली शिक्षा-प्राप्ति का मूल्यांकन और निर्धारण और दूसरी ओर आचरणात्मक परिणामों का मूल्यांकन और निर्धारण ।
इस योजना में, ‘सतत्’ शब्द का उद्देश्य इस बात पर बल देना है कि बच्चों की ‘संवृद्धि और विकास’ के अभिज्ञात पहलुओं का मूल्यांकन एक घटना होने की बजाय एक सतत् प्रक्रिया है, जो अध्यापन-शिक्षा-प्राप्ति की संपूर्ण प्रक्रिया के अंदर निर्मित है और शैक्षिक सत्र की समूची अवधि में फैली होती है। इसका अर्थ है निर्धारण की नियमितता, यूनिट परीक्षण की आवृत्ति, शिक्षा-प्राप्ति की कमियों का निदान, सुधारात्मक उपायों का उपयोग, पुनः परीक्षण और अध्यापकों और छात्रों के स्व-मूल्यांकन के लिए उन्हें घटनाओं के प्रमाण को फीडबैक।
दूसरे शब्द ‘व्यापक’ का अर्थ है कि यह योजना विद्यार्थियों की संवृद्धि और विकास के शैक्षिक और सह-शैक्षिक दोनों क्षेत्रों को समाहित करने का प्रयास करती है। चूंकि योग्यताएं, अभिवृत्तियां और अभिरुचियां अपने आपको लिखित शब्दों से भिन्न अन्य रूपों में प्रकट करती है, इसलिए इस शब्द में विभिन्न प्रकार के साधनों और तकनीकों (परीक्षण और गैर-परीक्षण दोनों) के उपयोग और शिक्षा प्राप्ति के क्षेत्रों में शिक्षार्थियों को आंकने के लक्ष्यों का उल्लेख किया गया है, जैसे: ज्ञान, समझना / बोध, अनुप्रयोग, विश्लेषण, मूल्यांकन एवं सृजन इस प्रकार, यह योजना एक पाठ्यचर्या सम्बन्धी पहल है, जिसमें परीक्षण के स्थान पर संपूर्णवादी शिक्षा प्राप्ति पर जोर दिए जाने का प्रयास किया गया है।
इसका लक्ष्य अच्छे स्वास्थ्य, उपयुक्त कौशलों और वांछनीय गुणवत्ता वाले और इसके अलावा शैक्षिक उत्कृष्टता वाले अच्छे नागरिकों का निर्माण करना है। आशा की जाती है कि यह विद्यार्थियों को जीवन की चुनौतियों का सामना विश्वास और सफलतापूर्वक करने के लिए सुसज्जित करेगी।
जैसे : ज्ञान, अनुप्रयोग, मूल्यांकन, समझना / बोध विश्लेषण, सृजन
इस प्रकार, यह योजना एक पाठ्यचर्या सम्बन्धी पहल है, जिसमें परीक्षण के स्थान पर संपूर्णवादी शिक्षा प्राप्ति पर जोर दिए जाने का प्रयास किया गया है। इसका लक्ष्य अच्छे स्वास्थ्य, उपयुक्त कौशलों और वांछनीय गुणवत्ता वाले और इसके अलावा शैक्षिक उत्कृष्टता वाले अच्छे नागरिकों का निर्माण करना करने के लिए सुसज्जित करेगी।
सतत् और व्यापक मूल्यांकन करने के लिए, शैक्षिक और सह-शैक्षिक दोनों पहलुओं को समुचित मान्यता दी जानी जरूरी है। ऐसे संपूर्णवादी मूल्यांकन के लिए प्रत्येक विद्यार्थी का एक चालू, बदलता हुआ और व्यापक विवरण रखना जरूरी है, जो ईमानदार, उत्साहजनक और विवेकपूर्ण हो। हालांकि अध्यापक प्रतिदिन उपचारात्मक कार्यनीतियों पर विचार करते हैं, उनकी योजना बनाते हैं और उन्हें कार्यान्वित करते हैं, लेकिन यह भी जरूरी है कि बच्चे ने किसी अवधि में जो कुछ सीखा है, उसे बनाए रखने और उसे व्यक्त करने की उसकी योग्यता का निर्धारण आवधिक रूप से किया जाएं ये निर्धारण कई रूप ले सकते हैं, लेकिन यह सब यथासंभव हद तक व्यापक और विवेकपूर्ण होने चाहिए। बच्चों में न केवल ज्ञान प्राप्त करने और उसे याद रखने, बल्कि उनके ललित कौशलों को भी बढ़ावा देने के लिए सामान्य रूप से साप्ताहिक, मासिक अथवा तिमाही समीक्षाओं की (शिक्षा-प्राप्ति के क्षेत्रों के आधार पर) सिफारिश की जाती है, जो खुले रूप से एक शिक्षार्थी की तुलना किसी अन्य शिक्षार्थी से नहीं की जाती और जो सकारात्मक और रचनात्मक अनुभव होती है।
अध्यापक शिक्षा प्राप्ति की प्रक्रिया में सुधार करने के लिए निर्धारण रचनात्मक और सारांशत्मक होना चाहिए।
(A) रचनात्मक मूल्यांकन
रचनात्मक साधारणतया एक ऐसा साधन है, जिसका उपयोग अध्यापक द्वारा विद्यार्थी की प्रगति को एक ऐसे वातावरण में मॉनीटर करने के लिए किया जाता है, जो घबराहट पैदा करने वाला न हो और प्रोत्साहन देने वाला हो। इसमें विद्यार्थी को नियमित फीडबैक मुहैया करना और उसे अपने कार्य-निष्पादन पर विचार करने, सलाह प्राप्त करने और उसमें सुधार करने का अवसर प्रदान करना शामिल है। इसमें विद्यार्थियों को स्व-मूल्यांकन करने अथवा अपने समकक्षों का मूल्यांकन करने की कसौटियां तय करने के एक आवश्यक भाग के रूप में शामिल किया जाता है। यदि इसे प्रभावकारी रूप से उपयोग में लाया जाएं, तो यह बच्चे के आत्म-सम्मान को बढ़ाते हुए और अध्यापक के कार्य-भार को घटाकर, विद्यार्थी के कार्य-निष्पादन में जबरदस्त सुधार कर सकता है।
इसके अन्तर्गत बच्चों के शैक्षिक और सह-शैक्षिक पक्षों की प्रगति का नियमित आंकलन किया जाता है। इसमें प्राय: कागज-कलम की आवश्यकता नहीं होती है वरन् यह शिक्षक एवं बच्चों के मध्य चलने वाली निरंतर अन्तर्क्रिया, अवलोकन और रोज की गतिविधियों में बच्चों की सक्रियता, सहभागिता, रुचि, उत्साह, निरंतरता, आपसी सहयोग, बातचीत, समयबद्धता आदि पर आधारित होता है।
(1) शैक्षणिक रचनात्मक मूल्यांकन – छात्र के संज्ञात्मक पक्ष का मूल्यांकन करता है। इसमें विद्यार्थी के ज्ञान, जानकारी, अनुप्रयोग, मूल्यांकन और विषयों में सृजन से संबंधित व्यवहार, प्राप्त किये गये ज्ञान का अपरिचित परिस्थिति में उपयोग करने की योग्यता को जाँचा जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य बच्चों के अधिगम स्तर को उन्नत करने के लिये उनकी अधिगम विषयक कमजोरियों का तत्काल चिन्हांकन, निदान एवं उपचार करना होता है। इस मूल्यांकन में – मौखिक, वार्तालाप निपठन, नियमित कक्षा कार्य, प्रश्नोत्तरी, समूह चर्चा, समूह कार्य, परियोजना, मॉडल निर्माण, अनुसंधान कार्य, प्रयोग, प्रस्तुतिकरण इत्यादि विभिन्न प्रकार की आंकलन प्रयुक्त होती है।
(2) सह-शैक्षणिक रचनात्मक मूल्यांकन- में बच्चों के व्यक्तिगत / सामाजिक गुणों, जीवन कौशलों अभिवृत्तियों, अभिरुचियों, मूल्यों, कार्यानुभव, प्रदर्शन कलाओं नृत्य गायन, चित्रकला आदि, सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में भागीदारी और शारीरिक शिक्षा-स्काउटिंग, खेलकूद एवं योग इत्यादि में वाँछनीय परिवर्तनों का वर्णन एवं मापन किया जाता है। इस मूल्यांकन में गुणों को चिन्हित करना, किसी कौशल विशेष अथवा – क्षेत्र में व्यवहार का उल्लेखीकरण, सतत् अवलोकन द्वारा व्यवहार के संबंध में साक्ष्यों का संकलन, संकलित साक्ष्यों का विश्लेषण एवं रिपोर्ट लिखने अथवा ग्रेड देने का कार्य किया जाता है।
(B) सारांशात्मक मूल्यांकन
इसके अन्तर्गत विशेष समयान्तराल पर बच्चों की शैक्षिक प्रगति का आकलन किया जाता है। यह अधिकांशतः कागज-कलम परीक्षा पर आधारित होता है। इसके अन्तर्गत शैक्षिक वर्ष को सूत्रों में विभाजित कर सत्रांत पर सत्र परीक्षाएं एवं शैक्षिक वर्ष के मध्य एवं अन्त पर अर्द्धवार्षिक व वार्षिक परीक्षायें आयोजित की जाती है।
वह निर्धारण, जो मुख्यतः सारांशात्मक प्रकृति का होगा, अपने आप में बच्चे की संवृद्धि और उसके विकास का कोई संगत एवं युक्तिसंगत पैमाना नहीं होगा। अधिक से अधिक यह एक समय-विशेष पर उपलब्धि के स्तर को प्रमाणित करता है। कागज पेंसिल परीक्षण बुनियादी रूप से निर्धारण अथवा मूल्यांकन का एक एक बार अपनाया जाने वाला तरीका है और किसी बच्चे के विकास के बारे में केवल सहारा लेना न केवल अनुचित है, बल्कि अवैज्ञानिक भी है। केवल शैक्षिक पहलुओं पर ध्यान देते हुए परीक्षा में प्राप्त अंक पर बहुत अधिक जोर देने से बच्चे यह मान लेते हैं कि निर्धारण अर्थात् मूल्यांकन शिक्षा-प्राप्ति से भिन्न है, जिसका परिणाम ‘सीखो और भूल जाओ’ लक्षण होता है। सारांशात्मक निर्धारण प्रणाली पर आवश्यकता से अधिक जोर देने से अस्वास्थ्य कर प्रतियोगिता को प्रोत्साहन मिलने के अलावा, शिक्षार्थियों पर बहुत अधिक दबाव पड़ता है और उनमें चिंता उत्पन्न होती है। इसी कारण सतत् और व्यापक विद्यालय-आधारित मूल्यांकन की संकल्पना का पादुर्भाव हुआ है
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 के अनुसार “शिक्षा में मूल्यांकन शब्द परीक्षा, तनाव और दुश्चिन्ता से जुड़ा है। पाठ्यचर्या की परिभाषा और नवीनीकरण के सभी प्रयास विफल हो जाते हैं, अगर वे स्कूली शिक्षा प्रणाली में जड़े जमायें मूल्यांकन और परीक्षातंत्र के अवरोध से नहीं जूझ सकते।”
पारंपरिक बाह्य परीक्षा की कमियां
1. यह विद्यालय – शिक्षा की अंतिम व्यवस्था में वर्ष के अंत में एक प्रयास परीक्षा होती है।
2. यह मुख्यतः विद्यार्थियों के ज्ञान के केवल शैक्षिक पहलुओं का मूल्यांकन करती है।
3. यह बच्चों की सभी योग्यताओं का मूल्यांकन नहीं करती। लिखित परीक्षा में प्राप्त किए गए अंकों के आधार पर विद्यार्थियों को उत्तीर्ण अथवा अनुत्तीर्ण घोषित कर दिया जाता है और उन्हें पूर्व निर्धारित डिविजनों में और आगे वर्गीकृत किया जाता है।
4. उत्तीर्ण और अनुर्तीण प्रणाली निराशा उत्पन्न करती है और अमानवीय है, क्योंकि अनुत्तीर्ण उम्मीदवार यह महसूस करने लगते हैं कि वे बिल्कुल निकम्मे हैं।
5. सह-शैक्षिक क्षेत्रों की लगभग पूरी तरह से उपेक्षा कर दी जाती है और शिक्षा तथा मूल्यांकन की इस समय प्रचलित स्कीम में उनका कोई स्थान नहीं होता।
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