स्रोत विधि क्या है ? इसके गुण दोष लिखिए।
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स्रोत विधि (Source Method)
इतिहास शिक्षण की आधुनिक तकनीक में निरीक्षण, भ्रमण एवं क्रिया द्वारा सीखने पर विशेष बल दिया जाता है, परन्तु प्रत्येक परिस्थिति में यह सम्भव नहीं है। ज्ञानार्जन क्रिया में प्रत्यक्ष अनुभव का विशेष महत्त्व है। हम किसी वस्तु को अपनी आँखों से देखकर या करके जितना ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, उतना ज्ञान उस वस्तु या कार्य के विषय में पढ़कर शायद ही प्राप्त कर सकते हैं। किसी कारखाने, बाँध, नदी आदि के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए उसके विषय में सुनने तथा पढ़ने की अपेक्षा उन्हें देखने से अधिक ज्ञान प्राप्त हो सकता है। प्रत्यक्ष अनुभवों द्वारा वर्तमान को स्पष्ट किया जाता है। वे अनुभव अतीत को स्पष्ट करने में सहायता प्रदान नहीं कर पाते, क्योंकि अतीत की वस्तुएँ इस समय मौजूद नहीं है। उदाहरण के लिए यदि हम चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल के विषय में भारत की समृद्धि के विषय में जानना चाहते हैं, तो हमें अप्रत्यक्ष ज्ञान का सहारा लेना पड़ेगा, क्योंकि हमने चन्द्रगुप्त मौर्य को नहीं देखा है। इस अप्रत्यक्ष ज्ञान को विभिन्न माध्यमों से प्रत्यक्ष बनाया जा सकता है। इन युक्तियों में स्रोत का महत्त्वपूर्ण स्थान है। स्तम्भों, शिलालेखों, मूर्तियों, खण्डहरों आदि के माध्यम से उसके व्यक्तित्व को मूर्तरूप प्रदान किया जा सकता है। अतः हम कह सकते हैं कि स्रोतों के माध्यम से अतीत को मूर्त रूप प्रदान किया जा सकता है।
स्रोत विधि की परिभाषाएँ (Definitions of Source Method)
भाटिया एवं भाटिया के अनुसार- “स्रोत विधि स्रोत कहलाने वाली सामग्री जिसमें लिखित रिकॉर्ड, पुराने कंकाल, दैनन्दिनी, चार्टस एवं पत्र, समकालीन अभिलेख, प्राचीन शिलालेख, सिक्के, प्रतिमाएँ, बर्तनों के अवशेष, यन्त्र, कपड़े, शस्त्र एवं कवच, सड़कें एवं पुल, मकबरे, इमारतें आदि सम्मिलित हैं, इनकी सहायता से यह भौगोलिक तथ्यों की श्रेष्ठ संरचना के निर्माण में उच्च कक्षाओं के छात्रों की सहायता करती है।”
स्रोत विधि के गुण
(1) वैज्ञानिक विचारधारा की उत्पत्ति- छात्रों में प्रमाण आधारित तथ्यों को ग्रहण करने की आदत का विकास होता है जिससे वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित होने के साथ ही उन्हें उच्च अध्ययन एवं अनुसन्धान हेतु प्रेरणा मिलती है।
(2) मानसिक विकास- छात्रों में सूझबूझ से कार्य करने के कारण उनकी सृजनात्मक क्षमताओं का विकास होता है तथा तर्क, निर्णय, निरीक्षण आदि मानसिक क्रियाओं का बलन होता है।
(3) ज्ञान विश्वसनीयता का विकास- इस विधि में छात्र घटित घटनाओं की सत्यता के सम्बन्ध में स्रोतों के आधार पर दृढ़ विश्वसनीय ज्ञान प्राप्त करते हैं, जो बौद्धिक स्तर में चिरस्थायी होता है।
(4) विषय-वस्तु की सम्पूर्णता का ज्ञान विभिन्न शिक्षण पद्धतियों एवं स्रोतों का उपयोग होने से इस विधि से विषय-वस्तु की पूर्णता का ज्ञान हो जाता है।
(5) प्रकरण की स्पष्टता- इस विधि में छात्र विषय-वस्तु को रटता नहीं है अपितु तथ्यों एवं घटनाओं का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करता है, और स्रोतों के प्रत्यक्षीकरण से विषय-वस्तु को समझने का प्रयास करता है।
(6) विषयवस्तु की रोचकता- इस विधि की क्रियाएँ अत्यन्त रोचक हो जाती हैं। जब छात्र किसी संग्रहालय को देखता है और वास्तविक वस्तुओं एवं उपकरणों को अपने हाथ से छूकर देखता है जिससे उसमें विषय के प्रति उसकी रोचकता बढ़ती है।
(7) अतीत का अध्ययन सम्भव- स्रोतों के आधार पर ज्ञान प्राप्त करने से छात्रों को अतीत का ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है। स्रोतों के माध्यम से अतीत को मूर्त रूप प्रदान किया जा सकता है।
(8) अभिप्रेरणा का साधन- छात्र अभिप्रेरणा का एक सशक्त साधन है, क्योंकि मौलिक स्रोत अधिगम के लिए पर्यावरण मिलता है, जिससे छात्रों में अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन लाया जा सकता है सीखने के लिए अभिप्रेरित किया जा सकता है।
स्रोत विधि के दोष
- इस विधि से शिक्षण करने में समय अधिक व्यय होता है, क्योंकि यह अधिक विस्तृत है और समय तालिका में समय कम मिलता है और छात्र व्यर्थ के वाद-विवाद में समय अधिक नष्ट करते हैं।
- यह विधि निम्न स्तर के छात्रों के लिये उपयोगी नहीं है, क्योंकि इस स्तर पर स्रोतों को समझने के लिये छात्रों का पर्याप्त मानसिक विकास नहीं हो पाता है।
- इस विधि का प्रयोग सामाजिक विज्ञान के सीमित पाठों तक ही सम्भव है।
- स्रोत के प्रदर्शन के समय अनुशासन की समस्या होती है।
- इस विधि की सफलता शिक्षकों पर निर्भर है, क्योंकि किसी भी विधि की सफलता में वे ही जीवन का संचार करते हैं।
- इस विधि की सफलता स्रोतों की विश्वसनीयता पर निर्भर करती है।
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