अधिगम कठिनाइयों का निदान और भूगोल में उनके उपचारात्मक शिक्षण की व्यवस्था किस प्रकार करेंगें।
अंग्रेजी के शब्द Teaching को हिन्दी में शिक्षण कहते हैं। शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया हैं। अत: देश की सामाजिक व्यवस्था, दर्शन, शासन व्यवस्था आदि सभी तत्व शिक्षण को प्रभावित करते हैं। सामाजिक व्यवस्था के अनुसार एक तन्त्र में शिक्षण ऐसी प्रक्रिया है जिसमें परिपक्व और कम परिपक्व के मध्य सम्बन्ध कम परिपक्व की शिक्षा के लिए स्थापित होता हैं। इसमें शिक्षक तानाशाह के रूप में होता है। इसको शिक्षक केन्द्रित शिक्षा भी कहते हैं।
लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में प्रचलित शिक्षा प्रणाली में शिक्षक और छात्र दोनों ही क्रियाशील रहते हैं। और उनके मध्य अन्तःक्रिया चलती रहती है। शिक्षण परस्पर प्रभावित करने वाली क्रिया हैं। जिसमें शिक्षक छात्रों के व्यवहार सम्बन्धी क्षमताओं को परिवर्तित करने का प्रयास करता हैं शिक्षण के माध्यम से शिक्षक और छात्र के मध्य स्थापित सम्बन्ध छात्र केन्द्रित होता हैं।
तीसरा रूप हस्तक्षेप रहित शासन व्यवस्था का है जिसमें शिक्षक एक मित्र के रूप में कार्य करता है। इसमें छात्र क्रियाओं में शिक्षक का कोई हस्तक्षेप नहीं होता है वरन् वह उनकी सृजनात्मक क्षमताओं के विकास पर ध्यान देता हैं। इस प्रकार के शिक्षण में छात्र अधिक क्रियाशील रहते हैं।
Contents
शिक्षण की परिभाषाएँ ( Definitions of Teaching)
शिक्षण के अर्थ को समझने के लिए यहाँ कुछ विद्वानों द्वारा शिक्षण की दी गई परिभाषाओं पर विचार करना उपयुक्त होगा-
- गेज- “शिक्षण एक प्रकार का अन्तः पारस्परिक सम्बन्ध हैं, जिसका उद्देश्य दूसरे व्यक्ति के व्यवहारों में वांछित परिवर्तन लाना हैं।”
- क्लार्क- “शिक्षण ऐसी प्रक्रिया है जिसके प्रारूप और संचालन का उद्देश्य छात्रों के व्यवहारों में वांछित परिवर्तन लाना हैं।”
- जेम्स. एम. थाइन – “समस्त शिक्षण सीखने में वृद्धि करना है।”
- स्मिथ – “शिक्षण उद्देश्य निर्देशित क्रिया है।”
- रॉयन्स – “शिक्षण का सम्बन्ध उन क्रियाओं से है जो दूसरे के अधिगम को निर्देशित करती है।”
- मॉरीसन – “शिक्षण अधिक परिपक्व और कम परिपक्व व्यक्तियों के मध्य निकट सम्बन्ध है जिसकी रूपरेखा कम परिवक्व की शिक्षा को आगे बढ़ाने के लिए तैयार की जाती हैं।”
उपरोक्त परिभाषाओं के विवेचन से शिक्षण का जो रूप उभर कर आता है वह है कि शिक्षण के दो प्रमुख अंग शिक्षक और छात्र होते हैं। इसमें शिक्षण अधिगम की क्रिया को प्रभावशाली बनाता हैं। यह एक पूर्ण नियोजित क्रिया है जिसकी योजना शिक्षक बनाकर कक्षा में प्रवेश करता है। शिक्षण में शिक्षक अधिगम के लिए छात्रों का मार्गदर्शन और निर्देशन दोनों करता हैं। शिक्षण ऐसी क्रिया है जिसके द्वारा छात्रों को ऐसा ज्ञान दिया जाता है जो उनके भावी जीवन में आने वाली समस्याओं के समाधान में उनकी सहायता कर सकें।
शिक्षण के प्रकार (Types of Teaching )
शिक्षण को विद्वानों ने अनेक आधारों पर वर्गीकृत किया हैं। इन आधारों में प्रमुख उद्देश्य, स्तर, शासन प्रणाली, स्वरूप, शैक्षिक क्रिया, शैक्षिक व्यवस्था आदि हैं।
1. शिक्षण के स्तरों के आधार पर शिक्षण तीन प्रकार का होता हैं-
(अ) स्मृति स्तर (ब) बोध स्तर (ब) चिन्तन स्तर
2. उद्देश्यों के आधार पर शिक्षण के प्रकार निम्नलिखित हैं-
(अ) ज्ञानात्मक शिक्षण (ब) बोध स्तर (स) चिन्तन स्तर
3. शैक्षिक व्यवस्था के आधार पर शिक्षण को निम्न तीन प्रकारों में बाँटा जाता हैं-
(अ) औपचारिक (ब) अनौपचारिक (स) निःचारिक
4. शासन प्रणाली के आधार पर शिक्षण निम्न प्रकार का होता हैं-
(अ) एकतंत्रीय (ब) लोकतंत्रीय (स) हस्तक्षेप रहित
5. शिक्षण के स्वरूप के आधार पर शिक्षण निम्न प्रकार के होते हैं-
(अ) वर्णनात्मक शिक्षण (ब) निदानात्मक शिक्षण (स) उपचारात्मक शिक्षण
अधिगम कठिनाईयों का निदान :
शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक स्वतंत्र चर के रूप में कार्य करता हैं। इसी कारण अधिगम- अनुभव प्रदान करने के लिए वह कक्षा में विभिन्न कार्य करता है। शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक का महत्वपूर्ण स्थान है। उसको व्याख्याकार, मार्गदर्शक, नियोजक आदि अनेक रूपों में कार्य करना पड़ता है। उसकी कक्षा में अनेक छात्र होते हैं जो शारीरिक गुणों में भिन्नता के साथ मानसिक विभिन्नताओं से युक्त होते हैं। प्रतिभाशील छात्रों की सीखने की गति तीव्र होती है लेकिन कुछ छात्र मानसिक पिछड़ेपन के कारण तीव्र गति से अधिगम नहीं कर पाते हैं। परिणाम यह होता है कि ऐसे छात्र कालान्तर में समस्यात्मक हो जाते है। इसीलिए सभी छात्रों को एक साथ चलने के लिए आवश्यक है। कि शिक्षक को एक चिकित्सक या मनोचिकित्सक की भूमिका में भी निपुण होना चाहिये। शिक्षण के समय जो शिक्षक यह ध्यान देता है कि कौनसा छात्र क्या कठिनाई अनुभव कर रहा हैं, उसे ही निदानात्मक शिक्षण कहते हैं। छात्र की प्रगति सन्तोषजनक न होने के कारणों का निदान करना शिक्षक का कार्य नहीं है अपितु उत्तरदायित्व भी हैं। निदानात्मक कार्य में शिक्षक अधिक क्रियाशील रहता हैं। उसको पाठ्यपुस्तक और छात्र दोनों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता पड़ती हैं। नवीन पाठ्यवस्तु अथवा अनुभवों का कक्षा में शिक्षण करने से पूर्व आवश्यक है कि शिक्षक छात्रों के पूर्व ज्ञान का निदान करें। यदि शिक्षक को आधारशिला की मजबूती का ज्ञान नहीं है तो वह ज्ञानरूपी भवन का विशाल रूप शिक्षण द्वारा कैसे तैयार कर सकता हैं? शिक्षक को निदान करना चाहिये कि छात्रों के ज्ञान का स्तर कैसा है? और उसको इस आधार पर क्या ज्ञान दिया जा सकता हैं? पूर्व ज्ञान ज्ञात करने के लिए शिक्षक निदानात्मक परीक्षा या साक्षात्कार तकनीक का प्रयोग कर सकता हैं।
निदानात्मक शिक्षण के अन्तर्गत शिक्षक निम्न कार्य करता है –
(1) छात्रों की व्यक्तिगत विभिन्नता की जानकारी- शिक्षण में व्यक्तिगत विभिन्नताओं का बड़ा महत्व हैं। सफल शिक्षण वहीं है जो छात्र की व्यक्तिगत शैक्षिक आवश्यकताओं तथा योग्यताओं के अनुरूप हो। व्यक्तिगत शिक्षण के लिए भी इसका ज्ञान होना आवश्यक हैं। छात्रों की निष्पति कम होने का कारण व्यक्तिगत विभिन्नता के ज्ञान से होता है।
(2) पाठ्यवस्तु का विश्लेषण करना – निदानात्मक शिक्षण का एक कार्य पाठ्यवस्तु का विश्लेषण करना है। उसको यह निश्चित करना आवश्यक है कि पाठ्यवस्तु के किन बिन्दुओं को कक्षा में छात्रों को सिखाना चाहिये और कौन-सी पाठन सामग्री कक्षा-स्तर के अनुकूल नहीं हैं।
( 3 ) छात्रों के पूर्व ज्ञान का निर्धारण – छात्रों के पूर्व ज्ञान का निर्धारण पाठ्यवस्तु के विश्लेषण से पूर्व करना चाहिये। शिक्षक छात्रों से शैक्षिक वार्ता, साक्षात्कार तथा नैदानिक परीक्षाओं के प्रयोग द्वारा पता लगा सकता है कि छात्रों को क्या-क्या आता है? और कितना आता हैं?
(4) कार्य विश्लेषण करना- पूर्व ज्ञान तथा पाठ्यवस्तु के विश्लेषण के बाद शिक्षक को शिक्षण सम्बन्धी कार्य का विश्लेषण करना चाहिये। इसके लिए उसे शिक्षण विधि तथा सहायक सामग्री के उपयोग के बारे में चिन्तन करना चाहिये। शिक्षक द्वारा क्रिया और छात्रों द्वारा क्रियाओं को पहले ही निर्धारित कर लेना चाहिये। कक्षा में जाने से पूर्व शिक्षक को पाठ के उद्देश्यों का निर्धारण छात्रों के पूर्व ज्ञान एवं पूर्व व्यवहार, अनुभव, आयु, स्तर, मानसिक योग्यता के आधार पर करना चाहिये।
निदानात्मक शिक्षण के अन्य पहलू
निदानात्मक शिक्षण के अतिरिक्त कक्षा में छात्र अधिगम ठीक प्रकार से नहीं कर पा रहा है, उसके कारणों पर भी ध्यान देना चाहिये। निदानात्मक शिक्षण का मुख्य उद्देश्य यही है कि अधिगम ठीक तथा स्वाभाविक रूप में न कर पाने के कारणों का निदान करना। इसके निम्नलिखित कारण हो सकते हैं-
1. श्रवण दोष – ऊँचा सुनने वाले छात्र शिक्षण में रुचि नहीं लेते हैं। ऐसे छात्रों को कक्षा में सबसे आगे बिठाना चाहिये।
2. नेत्र ज्योति कम होना – कमजोर नेत्र ज्योति वाले छात्र यदि पीछे बैठें हों तो श्यामपट्ट कार्य को न देख पाने के कारण सिर में दर्द अनुभव करते हैं। ऐसे छात्रों का निदान करके नेत्रों की जाँच करवाने का परामर्श देना चाहिये।
3. भावात्मक रूप से उद्वेलित – भावात्मक रूप से उद्वेलित छात्र क्रोध, व्याकुलता या बचैनी के कारण ध्यान केन्द्रित करने में असमर्थ रहते हैं। इस प्रकार के व्यवहार के अनेक कारण जैसे टूटे परिवार, सौतेली माँ, इकलौती संतान, कठोर अनुशासन हो सकते हैं। इनका निदान करना आवश्यक हैं।
4. उच्चारण सम्बन्धी दोष- अशुद्ध उच्चारण करने वाले छात्रों से बार-बार उच्चारण का अभ्यास करवाकर शुद्ध उच्चारण की आदत पैदा करनी चाहिये ।
5. वाचन में त्रुटि – इसका निदान कर बार-बार वाचन का अभ्यास करवाना चाहिये।
उपचारात्मक शिक्षण (Remedial Teaching)
उपचारात्मक शिक्षण शिक्षा के क्षेत्र में कोई नवीन शब्द नहीं है क्योंकि प्राचीनकाल से ही अनुभवी शिक्षक छात्रों की सीखने संबंधी कमियों अथवा त्रुटियों के ज्ञात होने पर उनको दूर करने का प्रयास करते रहे हैं। जैसे उपचार शब्द चिकित्सा शास्त्र में प्रयोग होता है जहाँ चिकित्सक रोग का निदान करके उपचार द्वारा रोगों से व्यक्ति को मुक्त कर उसको उत्तम स्वस्थ जीवन व्यतीत करने में सहायता प्रदान करते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में उपचार शब्द चिकित्सा क्षेत्र से लिया गया है जहाँ शिक्षक छात्रों के अधिगम सम्बन्धी दोषों को दूर कर उनके कक्षा में पिछड़ेपन को दूर करने का प्रयास करता है। ब्लेयर और सिम्पसन के अनुसार “संक्षेप में उपचारात्मक शिक्षण वास्तव में उत्तम शिक्षण है जो छात्र को उसकी यथार्थ स्थिति का ज्ञान कराता है और सुप्रेरित क्रियाओं द्वारा बालक को उसके कमजोर क्षेत्रों में अधिक दक्षता प्राप्त करने की दिशा में अभिप्रेरित करता है।” ब्लेयर ने स्पष्ट किया है कि छात्रों को जिन विषय-वस्तु या प्रकरण को कक्षा में समझने में कठिनाई रही है उसको पुनः ऐसे छात्रों को समझाना ही उपचारात्मक शिक्षा का रूप है। एक अन्य लेखक मोकम व सिम्पसन ने उपचारात्मक शिक्षण के बारे में लिखा है “उपचारात्मक शिक्षण उस विधि या प्रक्रिया को ढूँढने का प्रयास करता है जो छात्र को अपने कौशल तथा विचार सम्बन्धी त्रुटियों को सही करने में सहायता करता है।”
उपचारात्मक शिक्षण के उद्देश्य
उपचारात्मक शिक्षण के दो प्रमुख उद्देश्य होने चाहिए-
- सामाजिक शिक्षण की क्रियाओं के सम्बन्ध में की जाने वाली त्रुटिपूर्ण क्रियाओं को समाप्त करना ।
- सामाजिक शिक्षण के सम्बन्ध में उचित तथा सही क्रियाओं का विकास करना।
मन्द बुद्धि एवं पिछड़े बालकों के लिए उपचारात्मक शिक्षण
समस्यात्मक छात्रों (मन्द बुद्धि एवं पिछड़े बालकों) के लिए शिक्षा देते समय अधोलिखित उपाय (उपचारात्मक शिक्षण) करने चाहिए –
- सामाजिक शिक्षण में तार्किक क्रम को बनाए रखना।
- दृश्य-श्रव्य उपकरण पर्याप्त होना चाहिए।
- प्रश्न व्यावहारिक समस्यात्मक मूलक होने चाहिए।
- कमजोर व पिछड़े बालकों की संख्या कक्षा में 20 से अधिक न हो।
- मन्द बुद्धि वाले बालकों से मौखिक सामाजिक शिक्षण का अभ्यास कराया जाना चाहिए तथा लिखित जाँच करके उसके सुधार हेतु आवश्यक व पर्याप्त सुझाव दिये जाये।
- इनके शिक्षण में ‘सरल से कठिन’, ‘ज्ञात से अज्ञात’ तथा ‘मूर्त से अमूर्त’ की ओर चलने पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
- मन्द बुद्धि बालक सुनना अधिक पसन्द करते हैं, बोलना कम, क्योंकि उनमें आत्मविश्वास बहुत कम होता है। ऐसे बालकों से बार-बार प्रश्न करना चाहिए। गलत उत्तर प्राप्त होने पर भी उनमें आत्मविश्वास जगाना चाहिए। छात्रों से श्यामपट्ट पर कार्य करवाया जाये।
- भूगोल शिक्षण विषय सम्बन्धी नियमों को खेलों द्वारा, अन्य मनोरंजक कार्यों द्वारा समझाया जाये, जिससे बालक विषय के प्रति अरूचि न रखे।
- बालक जब विषय के ज्ञान से पिछड़ जाए तो बड़ी उम्र होने पर भी छोटी कक्षा में पढ़ाए जाने वाले पाठ्य वस्तु से ही आरम्भ करना चाहिए। उन्हें अतिरिक्त कार्य देना चाहिए। शिक्षक का बालक के प्रति आत्मीय व्यवहार प्रेमपूर्वक व निडर हो।
- मानसिक शक्ति के द्वारा काम हाथ से ज्यादा करना चाहिए। शुद्ध लेखन करवाना चाहिए।
- पिछड़े बालकों की कमजोरियों को व्यक्तिगत रूप से दूर करना चाहिए।
- बालकों की रूचि के अनुसार शिक्षा दी जानी चाहिए। विभिन्न शिक्षण सूत्रों एवं शिक्षण सिद्धान्तों द्वारा पाठ को रोचक बनाना चाहिए।
- पिछड़े बालकों को विभिन्न प्रत्ययों, सम्बन्धों तथा मूलभूत प्रक्रियाओं का अधिक अभ्यास कराया जाए तथा चार्ट, मॉडल व क्रियात्मक कार्यों के माध्यम से समझाया जाए।
- प्रतिभावान बालक के द्वारा इन बालकों को पढ़वाना।
- गृहकार्य को ध्यानपूर्वक चैक करना, सही लेखन के लिए विश्लेषण करना।
- निदानात्मक परख पत्र द्वारा प्राप्त छात्रों का विश्लेषण करना।
- कमजोर छात्र को कक्षा में आगे बैठने के लिए प्रेरित करना।
उपचारात्मक शिक्षण की उपयोगिता
उपचारात्मक शिक्षण छात्र हित की दृष्टि से निम्नांकित रूप से उपयोगी तथा महत्वप्रद है-
- शैक्षणिक निदान से बालकों के सीखने सम्बन्धी कठिनाइयों का पता लग जाता है, जिससे सुधार की प्रेरणा प्राप्त होती है।
- पिछड़े बालकों की हीन भावना दूर होती है। वे कुसंगति से बचे रहते हैं तथा छात्रों को अच्छी संगत से आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है।
- छात्र की शारीरिक, भावात्मक एवं संवेगात्मक भावना बढ़ती है तथा उसके व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास होता है।
- छात्र अपनी शक्ति तथा योग्यतानुसार शैक्षणिक प्रगति करता चलता है।
- उपचारात्मक शिक्षण के द्वारा छात्र की व्यक्तिगत कठिनाई दूर होती है। अन्य छात्र प्रभावी शिक्षण कर पाने में सफल रहते हैं।
- छात्रों में एक नया आत्मविश्वास जाग्रत होता है, उनकी विषय के प्रति रूचि बढ़ जाती है।
- उपचारात्मक शिक्षण के द्वारा छात्रों को परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने से उत्पन्न निराशा की भावना से बचाया जा सकता है।
- उपचारात्मक शिक्षण से बालक के सर्वांगीण विकास में सहायता मिलती हैं।
IMPORTANT LINK
- आदर्श इतिहास शिक्षक के गुण एंव समाज में भूमिका
- विभिन्न स्तरों पर इतिहास शिक्षण के उद्देश्य प्राथमिक, माध्यमिक तथा उच्चतर माध्यमिक स्तर
- इतिहास शिक्षण के उद्देश्य | माध्यमिक स्तर पर इतिहास शिक्षण के उद्देश्य | इतिहास शिक्षण के व्यवहारात्मक लाभ
- इतिहास शिक्षण में सहसम्बन्ध का क्या अर्थ है ? आप इतिहास शिक्षण का सह-सम्बन्ध अन्य विषयों से किस प्रकार स्थापित करेंगे ?
- इतिहास क्या है ? इतिहास की प्रकृति एवं क्षेत्र
- राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान के विषय में आप क्या जानते हैं ?
- शिक्षा के वैकल्पिक प्रयोग के सन्दर्भ में एस० एन० डी० टी० की भूमिका
- राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (एन.सी.एफ.-2005) [National Curriculum Framework (NCF-2005) ]
Disclaimer