अधिगम पर विभिन्न प्रेरकों का प्रभाव समझाइये।
अधिगम पर विभिन्न प्रेरकों का प्रभाव
अधिगम को प्रभावित करने वाले प्रमुख प्रेरक निम्नलिखित हैं-
1. उद्देश्य या सीखने की इच्छा- उद्देश्य अथवा सीखने की इच्छा अधिगम के प्रेषक हैं। यदि बालक में सीखने की इच्छा विकसित कर दी जाएं या बालक मुख्य किसी क्रिया को सीखने का संकल्प कर ले तो सीखना सुगम हो जाता है। बिना उद्देश्य या अनिच्छा होने पर बालक सीखने में संतोष जनक प्रगति नहीं करेगा। उदाहरण के लिये सेनकोर्ज ने बताया कि एक प्रार्थना को 25 वर्ष में लगभग 5000 बार बोलने पर भी वह उस प्रार्थना को याद नहीं कर सका। इसी प्रकार बालक एक शब्द को सैकड़ों बार पढ़ने पर भी उसकी शुद्ध वर्तनी नहीं बता सकता है। इस प्रेरक द्वारा सीखने में सहायता इसलिये मिलती है क्योंकि इच्छा या उद्देश्य बालक की अभिवृत्ति आवश्यकताओं और रुचियों को विकसित करते हैं, जो फिर उसका ध्यान केन्द्रित करने को आदत का निर्माण करते हैं। यदि बालक उस क्रिया में कुछ उपयोगिता देखने में सफल हो जाता है। तो उसकी उस कार्य करने की इच्छा और प्रबल हो जाती है।
2. प्रगति और परिणामों का ज्ञान- प्रभावशाली सीखने में प्रगति का ज्ञान एक प्रमुख प्रेरक के रूप में योगदान देता है। यदि किसी बालक को यह बता दिया जाये कि उसने किसी विषय को सीखने अथवा किसी कार्य को करने की दक्षता में कितनी प्रगति की है तो उसको और अधिक काम करने की उत्तेजना मिलती है। प्रगति और परिणामों के ज्ञान का बालक के ऊपर क्या प्रभाव पड़ता है, इस बात को जानने के लिये अनेक प्रयोग हुए हैं। ब्रीन ने छटी कक्षा के बालकों पर वाचन के क्षेत्र में प्रयोग किया। उसने बालकों के सामने वापचन में प्रगति दिलाने वाला चार्ट रखा और 28 दिन तक तेज गति से साथ वाचन के लिये कहा। इससे बिना बोध को खोए वाचन की गति में 200 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई। अनेक प्रयोगों से यह ज्ञात हुआ कि अनेक अन्य प्रेरक के रूप में वृद्धि नहीं करते हैं। उस अवस्था में प्रगति या परिणामों का ज्ञान प्रतिभाशील प्रेरक के रूप में कार्य करता है। प्रगति के ज्ञान के समय यदि त्रुटियों में सुधार पर भी ध्यान दिया जाये तो सीखने में तोव्र गति होती है। प्रगति का ज्ञान करने की अनेक विधियाँ विकसित की गयी हैं। यदि बालक स्वयं ही अपने परिणामों की जांच करता है। क्या प्रगति का निश्चय करता है तो इसका उसके सीखने पर और अधिक प्रभाव पड़ता है।
3. प्रशंसा- प्रशंसा सीखने में उत्तेजक के रूप में कार्य करती है। यदि बालक की सीखने के कार्य में हुई प्रशंसा उसके माता-पिता, अध्यापक या साथियों के द्वारा की जाती है तो इसका बालक के ऊपर प्रभावशाली प्रभाव पड़ता है। प्रयोगों द्वारा देखा गया है कि उपेक्षित वर्ग के छात्रों की अपेक्षा प्रशंसित वर्ग के छात्रों ने अधिगम में अधिक प्रगति की। लिंग के आधार पर प्रशंसा के प्रभाव में भिन्नता मिलती है। लड़कों की अपेक्षा लड़कियों पर प्रशंसा का प्रभाव अधिक पड़ता है। अध्यापक प्रशंसा की अभिव्यक्ति शब्दों के अथवा संकेतों के रूप में कर सकता है। संकेतों के रूप में अध्यापक सिर हिलाकर, मुस्कराकर, पीठ थपथपाकर प्रशंसा का प्रदर्शन कर सकता है
4. भर्त्सना- कुछ प्रयोगों ने सिद्ध किया है कि अधिगम में भर्त्सना भी उत्तेजक के रूप में कार्य करती है, किन्तु भर्त्सना की उत्तेजना का प्रभाव व्यक्तिगत शिक्षण के अनुसार प्रथम-पृथक होता है। भर्त्सना का उपयोग अध्यापक को यदा कदा आवश्यकतानुसार ही करना चाहिये। बहिर्मुखी व्यक्तित्व वाले बालकों पर भर्त्सना का अधिक प्रभाव पड़ता है।
5. प्रतिद्वन्दिता और सहयोग- प्रतिद्वन्दिता व्यक्ति में मूल आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करती है। जन्म से लेकर आजीवन व्यक्ति को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रतिद्वन्दिता का सामना करना पड़ता है। उसको अपनी सामाजिक स्थिति के लिये तथा अपने साथियों के साथ प्रतियोगिता करनी पड़ती है। विद्यालय में अधिगम के क्षेत्र में भी बालक को अपने साथियों के साथ प्रतियोगिता करनी पड़ती है। प्रतिद्वन्दिता अधिगम को प्रभावशाली बनाने का एक महत्वपूर्ण प्रेरक है। जे.पी. मैलर ने अनेक अध्ययनों से सिद्ध किया है कि यदि एक समूह के बालकों में मित्रता पूर्ण प्रतियोगिता हो तो प्रतिस्पर्धा अधिगम में उत्तम प्रेरणा के रूप में कार्य करेगी। मैलर ने यह भी निष्कर्ष निकाला कि सामूहिक प्रतियोगिता की अपेक्षा व्यक्तिगत प्रतियोगिता में बालक अधिक परिश्रम करता है किन्तु तात्कालिक अध्ययनों के निष्कर्ष मैलर के विरोधी हैं। इसके अनुसार यदि समूहों में प्रतिद्वन्दिता है तो सामूहिक रूप में समूह के सभी सदस्य अधिक परिश्रम करेंगे। किन्तु यह ध्यान रखना चाहिये कि प्रतिद्वन्दिता का प्रेरक के रूप में प्रभाव कुछ कारकों, जैसे- कार्य का स्वरूप, समूह की रचना, पूर्व अनुभव आदि पर निर्भर करता है। प्रतियोगिता को प्रेरक के रूप में प्रयोग में लाते समय अध्यापक को निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिये। (1) प्रत्येक बालक को प्रतियोगिता करने का प्रशिक्षण प्राप्त हो, (2) प्रतियोगिता की विविध क्रियाएँ हो ताकि सभी को किसी न किसी क्षेत्र में सफलता का अनुभव प्राप्त हो सकें, तथा (3) प्रतियोगिता में हार को असफलता न माना जाये।
प्रतिद्वन्दिता का प्रयोग करते समय अध्यापक को सतर्क रहना चाहिये कि प्रतियोगिता अधिक तीव्र न हो। व्यक्ति पराजय, अवमानना या हताश होने का शिकार न हो जाये। प्रतियोगिता में यदि विजय पर ही अधिक ध्यान दिया गया तो प्रतियोगिता अन्य उद्देश्यों, जैसे सामूहिक या अधिगम की उपयोगिता की अवहेलना करने लगेंगे। इसके परिणामस्वरूप बालकों में सामाजिक व्यवस्थापन की समस्या भी उत्पन्न होने का भय रहता है।
सहयोग एक अधिगम प्रतिक्रिया है जो कि स्वीकारोक्ति, सम्बद्धता और सुरक्षा की आवश्यकता के लिये प्रतिद्वन्दिता के समान ही महत्वपूर्ण प्रेरक होता है। सहयोग और प्रतिद्वन्दिता में से किसका चयन प्रेरक के रूप में किया जाएं, यह एक विवाद का विषय है। अध्यापक को परिस्थिति के अनुसार दोनों का प्रयोग करना चाहिये।
6. पुरस्कार तथा दण्ड- पुरस्कार व दण्ड प्रेरणा के महत्वपूर्ण साधन हैं। पुरस्कार और दण्ड उसी वर्ग में आते हैं जिसमें प्रशंसा और भर्त्सना को सम्मिलित किया जाता है। पुरस्कार और दण्ड, दोनों की विधियाँ पृथक-पृथक हैं। पुरस्कार का उपयोग करने पर बालक को आनन्द की अनुभूति होती है। जबकि अवांछित कार्य को रोकने के लिये दंड का उपयोग होता है। इससे बालक को पीड़ा की अनुभूति होती है। पुरस्कार का प्रेरक के रूप में प्रयोग करने में लाभ व हानियाँ दोनों विद्यमान रहती हैं जो इस प्रकार हैं-
पुरस्कार के लाभ: अधिगम के प्रेरक के रूप में पुरस्कार के लाभ इस प्रकार हैं-
- पुरस्कार आनन्द प्रदान करते हैं अतएव ये कार्य को बार-बार करने के लिये बालक को प्रोत्साहित करते हैं,
- पुरस्कार बालकों में कार्य के प्रति रुचि पैदा करते हैं तथा,
- इनसे बालक में उच्च मनोबल पैदा होता है।
पुरस्कार से हानियाँ:- अधिगम के प्रेरक के रूप में पुरस्कार से होने वाली हानियाँ इस प्रकार हैं-
- पुरस्कार बालक में क्रिया को सीखने की रुचि पैदा करने के स्थान पर केवल पुरस्कार प्राप्त करने के लिये प्रोत्साहित करते हैं।
- बाह्य रूप होने के कारण पुरस्कार बालक को अधिगम के लिये आंतरिक प्रेरणा देने में असमर्थ रहते हैं।
- अनेक बार वस्तु रूप में पुरस्कार बालकों में गलता अभिवृत्ति का विकास कर देते हैं।
- पुरस्कार प्राप्ति के लालच में बालक झूठा प्रदर्शन प्रारम्भ कर देते हैं। उनमें धोखा देने की प्रवृत्ति विकसित हो जाती है।
- पुरस्कार केवल कुछ ही बालकों को प्राप्त होते हैं। ऐसी स्थिति में अनेक बालक यह सोचकर कि हमको तो यह पुरस्कार प्राप्त नहीं होगा, निरूत्साहित हो जाते हैं।
आजकल मनोवैज्ञानिक दण्ड को प्रेरक के रूप में उपयोग में लाने को अच्छा नहीं में मानते हैं, शारीरिक दण्ड का तो बहुत ही विरोध किया जाता है। जब यह कहावत मनोवैज्ञानिक क्रम से उचित नहीं मानी जाती है कि “spare the rod and spoil the child” वैसे दण्ड के प्रेरक के रूप में ये लाभ हैं-
- दण्ड व्यक्ति को अवांछित कार्य करने से रोकता है,
- अनुशासन स्थापित करने में दण्ड का महत्वपूर्ण योगदान रहता ।
- दण्ड उस समय अधिक उपयोगी होते हैं जब वे अवांछनीय कार्य को रोकने के लिये प्रयुक्त होते हैं या पुरस्कार के साथ प्रयोग किये जाते हैं या बालक को यह विश्वास हो कि दंड उसको नहीं बल्कि उसके अवांछनीय कार्य को मिल रहा है।
दंड के लाभ के साथ-साथ कुछ हानियाँ भी हैं जो ये हैं-
- दंड के द्वारा बालक में भय पैदा हो जाता है।
- यदि बालक दंड ग्रहण करने के लिये तैयार हो जाता है तो ऐसी दशा में दण्ड प्रभावहीन हो जाता है।
- दण्ड के परिणाम अस्थायी होते हैं।
- दण्ड के कारण बालकों में अध्यापक के प्रति दुर्भावना पैदा होने की संभावना रहती है।
- दण्ड से बालक में अप्रिय और असुखद अनुभूति पैदा होती है।
7. आकांक्षा का स्तर- आकांक्षा का स्तर भी प्रेरक के रूप में सीखने की प्रक्रिया को गतिशील बनाता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कुछ लक्ष्य निर्धारित करके उन तक पहुँचने का प्रयास करता है। इसके लिये व्यक्ति कठोर परिश्रम प्रारम्भ कर देता है। किन्तु जीवन लक्ष्य एक होने पर भी आकांक्षा का स्तर भिन्न-भिन्न होता है। उदाहरण के लिये दो बालकों का लक्ष्य अध्यापन व्यवस्था में प्रवेश करना है। इनमें से एक बालक की आकांक्षा किसी विश्वविद्यालय में अध्यापक का पद लेना है जबकि दूसरा किसी माध्यमिक विद्यालय में ही अध्यापक बनना पसन्द करता है। इस प्रकार दोनों के जीवन लक्ष्य एक होने पर भी उनकी आकांक्षा के स्तर में अन्तर है। इस भिन्नता के कारण दोनों के परिश्रम करने के ढंग में भिन्नता होना स्वाभाविक है। आकांक्षा के स्तर को व्यक्तिगत एवं वातावरण तत्व मिलकर प्रभावित करते हैं। यदि व्यक्ति को पूर्व निर्धारित आकांक्षा के स्तर तक पहुँचने में सफलता मिलती है तो उसकी आकांक्षा का स्तर और भी ऊंचा उठेगा, किन्तु असफलता के कारण आकांक्षा का स्तर भी निम्न हो जाता है।
8. उपलब्धि का अभिप्रेरक- उपलब्धि अभिप्रेरक का मेककिलीलैण्ड तथा विन्टरबोटम आदि विद्वानों ने अध्ययन किया है। यदि बालक से उच्च उपलब्धि की आशा की जाये तो बालक को अधिक परिश्रम करने की प्रेरणा मिलती है। विन्टरबोटम ने अपने एक अध्ययन में पाया कि उन माताओं के बालकों ने सीखने में अधिक प्रगति की है जो अपने बालकों को सदैव उच्च उपलब्धि की आशा कराती थीं। बालक अपने माता-पिता की उनके प्रति आशाओं से प्रेरित होकर यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। कि वे उनकी आकांक्षाओं के अनुकूल उपलब्धि प्राप्त करने के योग्य हैं।
9. सफलता- सफलता भी बालक को अधिगम के लिये प्रेरित करती है। सफलता स्वयं एक प्रकार का पुरस्कार है। सफलता सीखने वाले के मनोबल को ऊँचा उठाती है। सफलता सीखने वाले का लक्ष्य भी बन जाता है, जिसको प्राप्त करने के लिये बालक बार-बार अभ्यास करता है। सफलता के साथ ही असफलता भी जुड़ी हुई है। असफलता बालक को अधिगम में सफल होने के लिये प्रेरणा प्रदान करती है। यदि बालक को बार-बार असफलता का सामना करना पड़ता है तो यह बालक को निरूत्साहित करती है। इस सम्बन्ध में बर्नाड का कथन है कि “विद्यालय में क्रियाओं की इतनी विविधता होनी चाहिये कि प्रत्येक बालक को अपनी योग्यतानुसार सफल होने का अवसर प्राप्त हो सकें। वैसे बालकों को असफलता या सफलता को स्वाभाविक रूप से स्वीकार करने का प्रशिक्षण देना चाहिये।
10. आत्म प्रेरणा – अनेक बार बालक अपनी शक्तियों तथा क्षमताओं का ज्ञान होने से उन कार्यों को भी नहीं कर पाता है जिनको करने की उसमें क्षमता होती है। ऐसी अवस्था में बालक निराश हो जाता है। यदि बालक को उसकी शक्तियों का ज्ञान करवा दिया जाये तो वह स्वतः ही सीखने के लिये प्रेरित होने लगता है। आत्म प्रेरणा का अन्य सभी प्रेरकों से अधिक महत्वपूर्ण स्थान है।
11. ध्यान, रुचि और उत्साह पैदा करना- कक्षा में बालक का ध्यान सीखने की क्रिया में केन्द्रित करना प्रेरणा का महत्वपूर्ण साधन है। ध्यान को केन्द्रित करने में रुचि और उत्साह का अधिक योगदान रहता है। अध्यापक को सदैव बालकों में आन्तरिक रुचि विकसित करने पर ध्यान देना चाहिये।
12. समूह का प्रभाव- कभी–कभी समूह का प्रभाव बालक के सीखने पर अधिक पड़ता है। पृथक् रूप से सीखने की अपेक्षा समूह में सीखना अधिक अच्छा होता है। समूह में कार्य करते समय बालक अपने साथियों में अपनी प्रतिष्ठा को ऊँचा उठाने के लिये अधिक प्रयत्नशील रहता है। इस प्रकार समूह बालक के लिये प्रेरणा का स्रोत बन जाता है। लोकतंत्रीय रहन-सहन की शिक्षा के लिये समूह सबसे उत्तम साधन माना जाता है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि शिक्षा में प्रेरणा के बिना नवीन ज्ञान सिखाना या क्रिया को प्रभावशाली ढंग से पूरा करवाना संभव नहीं है। अतएव अध्यापकों को प्रेरणा की प्रक्रिया तथा प्रेरणा के साधनों का ज्ञान होना शिक्षण को प्रभावशाली बनाने की दृष्टि से अति आवश्यक है। प्रेरणा सीखने का ऐसा शक्तिशाली साधन है जिसके प्रयोग से अध्यापक बालकों के व्यवहार में वांछित परिवर्तन पैदा करके उनके समायोजन में सहायता कर सकता है। अध्यापक को प्रेरकों के उपयोग में सतर्कता बरतनी चाहिये, उसे बाह्य साधनों के स्थान पर आन्तरिक प्रेरकों का अधिक उपयोग करना चाहिये।
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