इतिहास के वस्तुपरकता के सिद्धान्त को समझाइये। यह वस्तुपरकता इतिहास विषय में क्यों संभव नहीं हैं?
वस्तुनिष्ठा (पक्षपात रहित इतिहास) एक आधुनिक विद्या हैं जिसमें कोई वैज्ञानिक समुचित विधि तथा नियमों के आधार पर प्रयोगशाला में सिद्ध निष्कर्ष को प्रस्तुत करता हैं जो सार्वभौम व सार्वकालीन होते हैं परन्तु इतिहास मानवीय उपलब्धियों का विवरण हैं इसलिए ऐतिहासिक निष्कर्ष वस्तुनिष्ठ नहीं बन सके क्योंकि इतिहासकार जब अतीत का चित्रण करने लगता हैं तो उस पर दृष्टिकोण, अवधारणा, संस्कृति, ईर्ष्या, द्वेष, भ्रम इत्यादि के आन्तरिक एवं ब्राह्म प्रभाव पड़ते हैं। साथ ही वह धर्म जाति समाज और वातावरण से भी प्रभावित होता हैं उसी कारण वह सार्वभौम निष्कर्ष देने में असमर्थ रहता है। क्रोचे युग के प्रति संवेदनशील होने पर बल देते हैं। प्रो. गार्डिनर सामाजिक आवश्यकता के अनुरूप लिखने पर बल देते हैं। प्रो. गूच के अनुसार इतिहासकार के व्यक्तित्व को और रांके इतिहास लेखन को अंतश्चेतना का स्वरूप मानते हैं।
इस प्रकार इतिहास दर्शन में वस्तुपरकता का सिद्धान्त का समावेश भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण में होने के कारण असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य हैं क्योंकि ऐतिहासिक तथ्यों का स्वरूप विकृत हो जाता हैं। इसीलिए सहानुभूति धर्म जाति, सामाजिक मूल्य, द्वेष आदि कारको के कारण इतिहास में वस्तुपरकता का सिद्धान्त एक दोष हैं। मुद्रा शास्त्र, अर्थशास्त्र और पुरातत्व आदि में वस्तुनिष्ठा हो सकती हैं।
बटरफील्ड का कथन हैं कि सामान्य इतिहास वस्तुनिष्ठ होता हैं परन्तु शोध इतिहास में इसका अभाव होता हैं। प्रो. वाल्श के अनुसार इतिहास में वस्तुनिष्ठा का समावेश उस समय अत्यधिक सरल हो जायेगा जब विभिन्न सिद्धान्तों, अवधारणाओं तथा दृष्टिकोणों को सार्वभौम मान्यता प्रदान की जायेगी।
प्रो. वाल्श ओमन निर्देशित करते हैं कि इतिहास में तथ्यों को प्रधानता देते हुए उसके वस्तुपरक स्वरूप को सुरक्षित रखना चाहिए क्योंकि वर्तमान समाज इतिहासकारों से वस्तुनिष्ठ रचना की अपेक्षा करती हैं। ऐतिहासिक वस्तुपरकता, इतिहासकार के मानसिक चिन्तन पर निर्भर करता हैं परन्तु इस चिन्तन में व्यक्तिगत अभिरूचि और मनमानी नहीं होनी चाहिए। इतिहासकार मनोनुकूल तथ्यों का चयन कर व्यक्तिगत एवं सामाजिक रूचि के अनुसार उसकी व्याख्या करता हैं। बटरफील्ड के शब्दों में वस्तुपरखता इतिहास की वाणी हैं, इतिकासकार को लेखन में निष्पक्षता के लिए अतीत के रहस्यों में न उलझकर उपलब्ध स्त्रोतो के आधार पर ही इतिहास लेखन चाहिए। साम्यवाद, पूंजीवाद, प्रजातन्त्रवाद, राष्ट्रवाद साम्राज्यवाद तथा मार्क्सवाद आदि के इतिहास लेखन में परस्पर मतभेद होने के कारण वस्तुपरखता यर्थाथ रूप में प्रस्तुत नहीं हो सकी अतः वस्तुपरकता के लिए निष्पक्षता एवं मतैक्य आवश्यक हैं। वास्तव में वस्तुनिष्ठता निष्पक्ष और निर्वेव्यक्तिक होती हैं तथा यह व्यक्तिगत विचारधारा से प्रभावित नहीं होती। यद्यपि ऐतिहासिक वस्तु निष्पक्षता वैज्ञानिक वस्तुनिष्ठता के समान नहीं हो सकती तथापि इसे वैज्ञानिक वस्तुनिष्ठता के अनुरूप होना चाहिए। इतिहास लेखन सिद्धान्त में दृष्टिकोण को अधिक महत्व दिया गया हैं।
इतिहास में पूर्ण वस्तुपरकता नहीं हैं क्योंकि-
(i) इतिहास लेखन गणित एवं भौतिक के आंकड़ों पर आधारित नहीं हैं।
(ii) इतिहास का समय इतिहास के व्यक्तित्व पर निर्भर हैं।
(iii) इतिहास में मतैक्य नहीं हैं अतः ऐतिहासिक विवरण सर्वमान्य नहीं हो सकते जबकि वस्तुपरकतायें में सदैव एकरूपता बनी रहती हैं।
(iv) ऐतिहासिक विवरण ऐतिहासिक तत्व या पात्रों या उसकी भिन्नता से प्रभावित होते हैं।
(v) ऐतिहासिक निष्कर्ष स्वतः नहीं निकलता हैं।