इतिहास लेखन में रांके के योगदान को रेखांकित कीजिए।
अथवा
इतिहास के रांकेवादी दृष्टिकोण के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं की व्याख्या कीजिए।
ओपोल्ड फॉन रांके (1795-1886) उन्नीसवीं शताब्दी के जर्मन इतिहासकार थे। उन्हें बतौर अनुभवात्मक इतिहास लेखन का जनक माना जाता हैं, उन्होंने ही इतिहास लेखन की सर्वथा नयी परम्परा शुरू की जो आज भी इतिहास लेखन का एक प्रमुख तरीका हैं, यह सही हैं कि रांके से पहले एडवर्ड गिवन (1737-1794) ने 1776 और 1788 के बीच प्रकाशित अपनी शानदार पुस्तक “डिक्लाइन एण्ड फॉल ऑफ दि रोमन एम्पॉयर” के जरिए आधुनिक इतिहास के क्षेत्र में अपनी विद्वता को स्थापित किया था। उन्होंने अपनी पुस्तक को उपलब्ध स्त्रोतों और अभिलेखों पर आधारित किया तो भी वाल्तेयर ह्यूयम आदि जैसे अन्य लोगों के साथ जिन्होंने 18वीं शताब्दी में ऐतिहासिक अंशों को लिखा उनकी पुस्तक में अनेक मामलों में गंभीर खामियाँ थी। ये कमियाँ आमतौर पर 18वीं शताब्दी के यूरोप में इतिहास विषयक अनुसंधारन की प्रकृति के कारण थी। उन समस्याओं को निम्न रूप से चिन्हित किया जा सकता हैं।
(i) पहली बात तो यह थी कि इन इतिहासकारों के अंदर मानवीय और सामाजिक व्यवहार के सार्वभौम सिद्धान्तो को स्थापित करने की चिंता थी, इसके अलावा वे परिवर्तन के स्वरूपों और समाज तथा राजनीति में विकास का विश्लेषण नहीं कर सके।
(ii) गिबन को छोड़कर 18वीं शताब्दी के अधिकांश इतिहासकार अनुभवात्मक विवरण देने के प्रति गंभीर नहीं थे। इतिहास के क्षेत्र में काम करने वाले अनेक लोगो के अंदर अपने स्त्रोतो के संबंध में आलोचनात्मक प्रवृति का अभाव था। उनमें से अधिकांश ने अपने स्त्रोतो पर पूरा-पूरा भरोसा किया और उसकी सटीकता तथा सत्यता को यूं ही मान लिया।
प्राथमिक स्त्रोतो और दस्तावेजो की अनुपलब्धता भी एक समस्या थी। अधिकांश अभिलेखागार विद्वानों के लिए खुले नहीं थे, इसके अलावा अधिकांश शासक अपने यहाँ सेंसरशिप का पालन करते थे और ऐसी पुस्तकों तथा ब्यौरो के प्रकाशन की इजाजत नहीं देते थे जिनके दृष्टिकोण से वे राजी न हो।
(iii) इस समय कैथोलिक चर्च भी बहुत शक्तिशाली था और चर्च की आलोचना करने वाली पुस्तकों के प्रकाशन को रोकने के लिए अपनी खुद की सेंसरशिप लगाने में समर्थ था।
(iv) एक और समस्या विश्वविद्यालय स्तर पर इतिहास के विधिवत न पढ़ाए जाने से सम्बन्धित थी इसकी वजह से इतिहासकार किसी टीम की तरह काम न कर प्रायः व्यक्तिगत तौर पर काम करते थे। नतीजन परस्पर जाँच पड़ताल करने और आलोचनाओं की जानकारी का अभाव था।
19वीं शताब्दी की शुरूआत होते-होते ऊपर बतायी गयी समस्याओं में से अनेक पर काबू पाना संभव हो सका। ऐसा फ्रांसीसी क्रान्ति की वजह से आए अनेक राजनीतिक सुधारों के कारण हुआ। इस महान् क्रान्ति ने मानव स्वभाव और मानव समाज के बारे में अनेक विचारों और अवधारणाओं में परिवर्तन ला दिया। अब लोगों में परिवर्तन और विकास को सामाजिक तथा व्यक्तिगत व्यवहार के सन्दर्भ में देखना शुरू कर दिया था। स्त्रोतो और अभिलेखों पर भरोसा करने से पूर्व अब बहुत सावधानीपूर्वक तथा आलोचनात्मक ढंग से मूल्यांकन किया जाने लगा। इस नयी आलोचनात्मक पद्धति और स्त्रोत आधारित ऐतिहासिक अनुसंधान के क्षेत्र में डेनमार्क के विद्वान बार्तोल्ड जॉर्ज नीवर (1776-1831) को आमतौर पर प्रणेता माना जाता हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक “हिस्ट्री ऑफ रोम” लिखने के लिए विभिन्न स्त्रोतो से जो अध्ययन किया उसमें भाषायी अध्ययनों और पाठ के विश्लेषण की उन्नत पद्धति का इस्तेमाल किया। उनकी यह पुस्तक 1811-12 में प्रकाशित हुई थी। 1806 से नीवर ने प्रशा में काम किया था और हाल ही में स्थापित बर्लिन विश्वविद्यालय में उनकी नियुक्ति हुई थी। रोमन इतिहास पर दिए गए अपने भाषणों में उन्होंने स्त्रोतो की आलोचनात्मक छानबीन की खासतौर से शास्त्रीय लेखक लीवी के कार्यों की। इसके लिए उन्होंने सर्वाधिक उन्नत फिलोजीवल पद्धति का इस्तेमाल किया और लीवी की पुस्तक की अनेक कमजोरियो को उद्घाटित किया। नीवर ने सोचा कि इस तरह की पद्धति से समकालीन स्त्रोतो में पूर्वाग्रह प्रकट होगा और इससे इतिहासकारो को सही तस्वीर प्रस्तुत करने में मदद मिलेगी। उनका विश्वास था कि कलम उठाते समय हमें इस योग्य होना चाहिए कि हम ईश्वर के समक्ष जा कर कह सके कि मैंने जानबूझकर अथवा ईमानदारी से छानबीन किए बिना ऐसा कुछ नहीं लिखा हैं जो सच न हो। यद्यपि इतिहास लेखन की पद्धति विकसित करने में नीवर एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व थे लेकिन आधुनिक इतिहास लेखन की शुरूआत के लिए वास्तविक श्रेय रानके/ रांके को दिया जाना चाहिए। 1824 में उनकी पहली पुस्तक “दि हिस्ट्री ऑफ द लातिन एण्ड ट्यूटोनिक नेन्शस” प्रकाशित हुई। इस पुस्तक की भूमिका में अपने उद्देश्य से सम्बन्धित बयान में उन्होंने जो लिखा वह अनुभवात्मक इतिहास लेखन के औचित्य को साबित करने वाली बात हो गयी।
इतिहास लेखन के प्रति रांके के दृष्टिकोण को सारांश रूप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता हैं-
(i) रांके का मानना था कि अतीत को उसकी खुद की शर्तों पर समझा जाना चाहिए न कि वर्तमान की शर्तो पर। बीते युग के लोगों की प्रवृत्तियों और व्यवहार को उस काल विशेष के अध्ययन के जरिए समझने की जरूरत हैं और इसे कभी भी इतिहासकार के अपने युग के मानको की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए। रांके की राय में इतिहासकारो को अतीत का अध्ययन करते समय वर्तमान केन्द्रित सरोकारो से बचना चाहिए और यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि जिस काल का वह अध्ययन कर रहा हैं, उस काल के लोगों के लिए कौन से मुद्दे महत्वपूर्ण थे। रांके और अनुभववादी इतिहास अवधारणा की यह शुरूआत थी। इसका तात्पर्य यह था कि अतीत की अपनी प्रकृति हैं जो वर्तमान से भिन्न हैं। इतिहास का यह दायित्व हैं कि वह काल विशेष की आत्मा को उद्घाटित करे।
(ii) रांके एक अनुभववादी थे जिनका मानना था कि केवल ऐन्द्रिक अनुभवों के जरिए ही ज्ञान की प्राप्ति होती हैं। अतीत का ज्ञान उन स्त्रोतो के जरिए हासिल किया जा सकता हैं जो उस काल विशेष के लोगों के अनुभवों की वस्तुगत तौर पर मूर्तिमान करते हो। इस प्रकार इतिहासकार की स्त्रोतो में उपलब्ध सामग्री पर ही निर्भर रहना चाहिए। इतिहासकार को अपनी कल्पनाशीलता अथवा अंत प्रज्ञा का सहारा नहीं लेना चाहिए। अतीत के बारे में अंगर कोई वक्तव्य किया जा रहा हैं तो उसका सन्दर्भ उन स्त्रोतो में मिलना चाहिए।
(iii) रांके स्त्रोतो के प्रति भी आलोचनात्मक रूख रखते थे और उन स्त्रोतो पर आँख मूँद कर भरोसा नहीं करते थे। वह जानते थे कि सभी स्त्रोतो का समान महत्व नहीं हैं इसीलिए उन्होंने स्त्रोतो एवं श्रेणीबद्धता को बात की। उन्होंने वरीयताक्रम में उन स्त्रोतो को रखा जो किसी घटना विशेष के समय मौजूद रहे हो। इन्हे प्राथमिक स्त्रोत कहा जाता हैं, इनमें भी उस घटना विशेष के भागीदारों अथवा उसके प्रत्यक्ष प्रेक्षको द्वारा प्रस्तुत अभिलेखो को उसी काल के अन्य स्त्रोतों के मुकाबले वरीयता दी जानी चाहिए। इसके बाद कुछ ऐसे स्त्रोत हैं जो बाद में लोगों द्वारा प्रस्तुत किए गए। इन्हें अनुपूरक स्त्रोत कहा जाता हैं और घटना के अध्ययन के समय प्राथमिक स्त्रोतों के मुकाबले इन्हे कम महत्व दिया जाना चाहिए। इस प्रकार सभी स्त्रोतो का ठीक तिथि निर्धारण इतिहास लेखन का मुख्य सरोकार हो गया।
(iv) रकेि ने सन्दर्भों को महत्व देने पर बल दिया। इस तरह से सभी वक्तव्यों और उक्तियों को प्रस्तुत करते समय उन स्त्रोतो का पूर्ण विवरण दिया जाना चाहिए जहाँ से उन्हें लिया गया हैं। यहाँ उन्होंने उस तकनीक को और परिस्कृित तथा व्याख्यापित किया जिसका पालन उनसे पहले गिब्बन तथा अन्य इतिहासकारों ने किया था। यह तरीका महत्वपूर्ण था क्योंकि इतिहासकारो द्वारा प्रस्तुत प्रमाणों की दोहरी जाँच का अवसर मिल जाता था। इससे इतिहासकारो द्वारा प्रस्तुत दृष्टिकोणों और व्याख्याओं में संशोधन और सुधार करने का अवसर प्राप्त हो जाता था।
(v) रॉके ने तथ्यों और व्याख्याओ में भेद किया। उन्होंने उन तथ्यों के महत्व पर जोर दिया जो स्त्रोतो में आधारित प्रमाणो से पुष्ट होते थे। इतिहासकार का काम पहले तथ्यों को प्रस्तुत करना और फिर उनकी व्याख्या करना है, इस प्रकार रांके की राय में इतिहासकार को ऐसे स्त्रोतो की तलाश नहीं करनी चाहिए जो उसकी परिकल्पना की पुष्टि करे बल्कि उसे स्त्रोतो में उपलब्ध तथ्यों के आधार पर अपनी परिकल्पना का निर्माण करना चाहिए।
रकि ने जो लिखा वह बहुत ज्यादा हैं, उन्होंने अनेक खण्डों में अनेक पुस्तके लिखी जिनमें से सर्वाधिक चर्चित पुस्तके थी। (i) दि ऑटोमान एण्ड द स्पेनिश एम्पायर्स इन दि सिक्सटिंथ एण्ड सेवेंटिथ संचुरीज, दि पोप्स ऑफ रोम, देयर चर्च एण्ड स्टेट इन दि सिक्सटिंथ एण्ड सेवेटिंथ संचुरी ओर हिस्ट्री ऑफ रिफोर्मेशन इन जर्मनी। अपनी पुस्तको के जरिये रांके ने भावी इतिहासकारों के लिए मिसाल प्रस्तुत करने की कोशिश की।
रॉके और उनके अनुयायियों ने न केवल पेशेवर इतिहास के लिए पद्धति की स्थापना की बल्कि इसको समर्थन देने वाली संस्थाओं के विकास में भी मदद पहुँचायी। रकि ने 1833 में बर्लिन विश्वविद्यालय में ग्रेजुएट सेमिनार्स की शुरूआत की जहाँ युवा शोधार्थियों को व्यवस्थित ढंग से प्रशिक्षित किया जाता था। इसने 1840 के दशक में जर्मनी में विद्वानों के एक समूह को तैयार किया जो बहुत निष्ठावान थे और पेशेवर इतिहास के लिखने में व्यस्थ थे। इससे पहले भी 1823 में प्रशा की सरकार ने भान्यूमेंटा जर्मेनिया हिस्टोरिका का प्रकाशन शुरू किया था। जिसने इतिहासकारों के लिए जर्मनी के मध्यकालीन इतिहास से संबंधित महत्वपूर्ण स्त्रोतो को प्रकाशित करने का प्रयास किया था। अब तक इसके 360 से भी ज्यादा खण्ड निकल चुके थे।
रांके ने एक ऐसे सख्त विज्ञान के रूप में इतिहास की कल्पना की थी जिसे आधिभौतिक अटकलो और मूल्य निणयों से मुक्त होना चाहिए। उन्होंने आगे इस बात पर जोर दिया कि इतिहासकारो को अपने स्त्रोतो को भाषाशास्त्रीय आलोचना की कसौटी पर तौलना चाहिए ताकि सच्चाई को ज्ञात किया जा सके कोंत के प्रत्यक्षवाद के विरूद रांके ने घटनाओं की सार्वभौमिकता पर नहीं बल्कि उनकी विचित्रता पर जोर दिया। उनके लिए ठीक-ठीक ब्यौरों को देखना महत्वपूर्ण था न कि सामान्य नियमों पर ध्यान देना 1848 आते-आते सभी जर्मनभाषी विश्वविद्यालयो ने इतिहास लेखन के लिए रांके की पद्धति को अपना लिया और 1870 के बाद यूरोप के अधिकांश देशो अमेरिका और जापान में ऐतिहासिक अध्ययनों के लिए रांके के मॉडल को स्वीकार किया गया।
वैज्ञानिक इतिहास को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न भाषाओं में पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन होने लगा। इस प्रकार 1859 में हिस्टोरिसके जेत्सफिफ्त नामक पत्रिका का जर्मन भाषा में प्रकाशन शुरू हुआ। इसने एक नयी प्रवृत्ति को जन्म दिया। इसके बाद इसी धारा की अनेक पत्रिकाएँ निकली मसलन 1876 में फ्रेंच भाषा में रेबू हिस्टोरिका, 1884 में इतालवी में रिविस्ता स्तोरिका इताज्ञियाना, 1886 में अंग्रेजी में हिस्टोरिकल रिव्यू और 1895 में अमेरिका हिस्टोरिकल रिव्यू आदि पत्रिकाओं का प्रकाशन आरम्भ हुआ था।
रांके आधुनिक इतिहास लेखन का अग्रगामी माना जाता है उसने सर्वप्रथम अतीत को अतीत की अवधारणाओं के अनुरूप समझने का प्रयास किया था जिसमें वो सफल भी रहा था।
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