इतिहास शिक्षण की योजना विधि/प्रोजेक्ट विधि (Project Method) की विवेचना कीजिए।
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प्रोजेक्ट विधि (Project Method)
यह विधि शिक्षा दर्शन की एक प्रमुख विचारधारा प्रयोजनवाद (Pragmatism) पर आधारित है। इस विधि के जन्मदाता W. H. Kilpatrick हैं। यह विधि इस सिद्धान्त पर आधारित है कि छात्र सम्बन्ध, सहयोग एवं क्रिया द्वारा सीखते हैं। इस विधि में तथ्यों का संकलन एक केन्द्रीय लक्ष्य को दृष्टिगत रखते हुए किया जाता है। किलपैट्रिक महोदय के अनुसार, “A project is a whole hearted purposeful activity proceeding in a social environment.” “योजना वह सहृदय सोद्देश्य कार्य विधि है जो पूर्णतः मन लगाकर लगन के साथ सामाजिक वातावरण में पूर्ण की जाती है।” Stevenson ने भी इसे इसी रूप में लिया है उनके अनुसार, “A project is a problematic act carried of completion in its natural setting” एक समस्यामूलक कार्य है जो स्वाभाविक परिस्थितियों के अन्तर्गत पूर्णता को प्राप्त करता है।
इस प्रकार योजना एक ऐसा इच्छानुसार कार्य है जिसमें रचनात्मक विचार अथवा प्रयास होकर साकार परिणाम निकल सकते हैं। यह एक प्रकार की जीवन अनुभूति है जो छात्रों की किसी प्रबल इच्छा से उत्पन्न होती है। Learning by living ही योजना विधि का सार है।
योजना विधि का मनोवैज्ञानिक आधार
यह विधि अधिगम के निम्न सिद्धान्तों पर आधारित है-
(1) तत्परता का नियम (Law of Readiness) — छात्रों को सीखने के लिए रुचि उत्पन्न करके, उद्देश्यपूर्ण वातावरण बनाकर और सजीव परिस्थितियों के माध्यम है। तत्पर किया जाता है।
(2) अभ्यास का नियम (Law of Exercise) — छात्र अभ्यास के माध्यम से सीखते हैं। स्वक्रिया इस विधि का आधार है।
(3) प्रभाव का नियम (Law of Effect) — अधिगम का स्थायीकरण असफलता या सफलता पर निर्भर करता है। इस विधि में छात्र स्वयं अपनी सफलता का मूल्यांकन करता है। इस कारण ज्ञान मस्तिष्क में अधिक स्थायी हो जाता है।
योजना विधि के आधारभूत सिद्धान्त
(1) वास्तविकता का सिद्धान्त (Principle of Reality) — इस विधि में जो कार्य छात्र करते हैं वह वास्तविक होते हैं एवं स्वाभाविक रूप से वह वास्तविक परिस्थितियों में किया जाता है जिससे उसके जीवन और उसके कार्यों के मध्य परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करना सम्भव होता है।
(2) अनुभव का सिद्धान्त (Principle of Experience) — छात्र अनुभवों का अर्जन कार्य करके करते हैं। इसमें उन्हें एक-दूसरे के साथ सहयोग भी करना होता है। इससे सामाजिकता की भावना का विकास होता है और उनके चरित्र का विकास प्रजातान्त्रिक व्यक्ति के रूप में होता है।
(3) स्वतन्त्रता का सिद्धान्त (Principle of Freedom) — इस विधि में छात्रों की क्रियाओं के चुनने की स्वतन्त्रता दी जाती है। इस कारण वे रुचि एवं उत्साहपूर्वक कार्य करते हैं।
(4) सानुबन्धता का सिद्धान्त (Principle of Correlation) — इस विधि में क्योंकि कार्य सम्पादन किसी एक विषय में निहित ज्ञान पर निर्भर नहीं करता है इस कारण विभिन्न विषयों में सहायता लेना अनिवार्य हो जाता है। ज्ञान का एक पूर्ण स्वरूप छात्र अर्जित करते हैं।
(5) क्रियाशीलता का सिद्धान्त (Principle of Activity) — योजना विधि में सिद्धान्त की अपेक्षा व्यवहार पर अधिक बल दिया जाता है, इस कारण छात्र सदैव मानसिक एवं शारीरिक रूप से क्रियाशील रहते हैं।
(6) सोद्देश्य का सिद्धान्त (Principle of Purpose) — इस विधि में क्योंकि छात्रों सम्मुख अपनी क्रियाओं को दिशा देने के लिए स्पष्ट लक्ष्य होते हैं इस कारण वह दिशा के भ्रमित नहीं होते हैं एवं उनकी शक्ति का इधर-उधर अपव्यय नहीं होता है।
(7) उपयोगिता का सिद्धान्त (Principle of Utility) — वही कार्य छात्र अधिक रुचि से करते हैं जिसकी तत्कालिक अथवा भावी जीवन में उपयोगिता उन्हें स्पष्ट हो । योजना विधि का यह एक प्रमुख सिद्धान्त है।
योजना विधि की कार्य प्रणाली
योजना विधि को सुचारू रूप से चलाने हेतु उसे निम्न पदों में विभाजित किया जाता है-
(1) परिस्थिति प्रदान करना (Provision of a Situation) – छात्रों की आयु, इच्छाओं एवं योग्यताओं को दृष्टिगत रखते हुए शिक्षक को चाहिए कि वह ऐसी स्थिति छात्रों के सम्मुख उत्पन्न कर दे जिसमें छात्रों को रुचि हो जाये और उसमें निहित समस्या की ओर उनका ध्यान केन्द्रित हो जाये।
(2) योजना के उद्देश्य एवं चयन (Selection and Objectives of Project) – योजना का उपयुक्त चयन सफलता की एक आवश्यकता है। अध्यापक को अप्रत्यक्ष रूप से छात्रों को उपयुक्त योजना के चयन हेतु मार्गदर्शन करना चाहिए, योजना छात्रों की आवश्यकता के अनुरूप होनी चाहिए, तभी अधिक उपयोगी हो सकती है। तत्पश्चात् उससे सम्बन्धित उद्देश्य छात्रों के सम्मुख स्पष्ट कर देने चाहिए जिससे वह अपनी शक्तियों का वांछित रूप से मार्गान्तिकरण कर सके।
(3) कार्यक्रम बनाना (Planning) – योजना की सफलता एवं असफलता इस पद पर निर्भर करती है। अध्यापक को वाद-विवाद के माध्यम से योजना के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित कार्यक्रम सुचारू रूप से बना लेना चाहिए। उसी के अनुसार दायित्वों का विभाजन करना चाहिए।
(4) क्रियान्वयन (Execution ) – प्रत्येक छात्र की योग्यता, प्रऔति, रुचि एवं क्षमता के अनुरूप उसे दायित्व दिया जाना चाहिए। प्रत्येक छात्र को कुछ न कुछ कार्य अवश्य दिया जाना चाहिए जिससे वह योजना की पूर्णता में स्वयं को भागीदार समझ सके। अध्यापक को अप्रत्यक्ष रूप से योजना के प्रत्येक प्रश्न पर ध्यान देना चाहिए और आवश्यकता पड़ने पर मार्गदर्शन करना चाहिए।
(5) मूल्यांकन (Evaluation) — योजना की समाप्ति पर अध्यापक एवं छात्रों द्वारा सारे कार्य का मूल्यांकन किया जाता है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है। यदि योजना में कोई त्रुटि रह गई हो तो उसे खोजने का प्रयास किया जाना चाहिए। छात्रों को स्वयं अपने कार्यों की आलोचना करनी चाहिए तथा अपनी उपलब्धियों एवं असफलताओं का मूल्यांकन करना चाहिए।
(6) कार्य लेख (Recording) – प्रत्येक छात्र को अपनी क्रियाओं का विवरण रखना होता है। जो दायित्व उसे सौंपा गया है उससे सम्बन्धित सब लेखा-जोखा उसे रखना होता है। अध्यापक उसका निरीक्षण करता है और यह जानने का प्रयास करता है कि छात्र अपने उत्तरदायित्व को कितना निभा रहे हैं। सम्पूर्ण योजना का एक पूर्ण विवरण भी रखा जाता है।
गुण (Merits )
(1) मनोवैज्ञानिक विधि (Psychological Method) — यह विधि सुदृढ़ मनोवैज्ञानिक आधारों पर आधारित है। अधिगम सिद्धान्तों एवं व्यक्तिगत भिन्नता एवं छात्र की योग्यता, रुचि, प्रऔति आदि का इसमें समुचित ध्यान रखा जाता है।
(2) अधिगम का स्थायीकरण (Permanency of Learning) — क्योंकि छात्र पाठ्यवस्तु को स्वाभाविक परिस्थितियों में सीखते हैं इस कारण इस विधि द्वारा अर्जित ज्ञान अधिक स्थायी होता है।
(3) मानसिक विकास के लिए उपयुक्त (Suitable for Mental Development) – क्योंकि छात्र समस्या समाधान हेतु स्वयं ही चिन्तन करते हैं और विभिन्न पक्षों के मध्य कार्य कारण सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास करते हैं, फलस्वरूप उनके मानसिक रूप से विकसित होने की सम्भावना बढ़ती है।
(4) आत्म विकास (Self Development) — छात्र इस विधि में स्वयं मूल्यांकन करते हैं। साथ ही उन्हें आत्म विश्वास, आत्म निर्भरता एवं आत्म प्रकाशन का अच्छा अवसर मिलता है।
(5) सामाजिकता की भावना (Social feeling) — छात्रों में परस्पर सहयोग और स्वस्थ स्पर्धा के आधार पर कार्य करने की आदत बनती है।
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