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कक्षा-कक्ष शिक्षण के सन्दर्भ में ‘सम्प्रेषण’ की व्याख्या कीजिये। इसकी प्रभावशीलता को प्रभावित करने वाले कारक

कक्षा-कक्ष शिक्षण के सन्दर्भ में 'सम्प्रेषण' की व्याख्या कीजिये। इसकी प्रभावशीलता को प्रभावित करने वाले कारक
कक्षा-कक्ष शिक्षण के सन्दर्भ में ‘सम्प्रेषण’ की व्याख्या कीजिये। इसकी प्रभावशीलता को प्रभावित करने वाले कारक

कक्षा-कक्ष शिक्षण के सन्दर्भ में ‘सम्प्रेषण’ की व्याख्या कीजिये। इसकी प्रभावशीलता को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन कीजिये। आप सम्प्रेषण को अधिगम के लिये अधिक उपयोगी कैसे बनायेंगे?

शाब्दिक रूप से देखें तो सम्प्रेषण दो शब्दों के मेल से बना है- सम + प्रेषण अर्थात् जो समान रूप से प्रेक्षित किया गया है। अंग्रेजी भाषा में सम्प्रेषण के लिये ‘कम्यूनीकेशन’ शब्द का प्रयोग होता है। अंग्रेजी भाषा के ‘कम्यूनीकेशन’ शब्द की व्युत्पत्ति लेटिन भाषा के ‘कम्यूनिस’ शब्द से मानी जाती है। लेटिन भाषा में ‘कम्यूनिस’ से तात्पर्य सामान्य बनाने से लिया जाता है अर्थात् जिस बात या तथ्य को मैं जानता हूँ कोई अन्य नहीं जानता तो उस बात या तथ्यों का दूसरों को सम्प्रेषित कर उसे सामान्य बना देता हूँ। सम्प्रेषण के द्वारा तथ्यों को निजी या गुप्त न रखकर सामान्य बनाया जाता है। संकीर्ण अर्थ में सम्प्रेषण दो या अधिक व्यक्तियों के मध्य विचारों, सन्देशों तथा सूचनाओं का आदान-प्रदान करना है। यह सम्प्रेषण का बड़ा ही संकीर्ण अर्थ है। इस विचार से सम्प्रेषण सूचनाओं तथा विचारों का दो या अधिक व्यक्तियों के मध्य आदान प्रदान है चाहे वे सूचनाओं का अर्थ समझें या न समझें, उनसे उनका विश्वास प्रभावित हो या न हो। इसलिये आज कोई भी सम्प्रेषण के इस संकीर्ण अर्थ को स्वीकार नहीं करता है।

कक्षा-कक्ष शिक्षण में सम्प्रेषण हेतु हमें ध्यान रखना चाहिये कि जब तक बालक का प्रतीकात्मक विकास नहीं हो जाता तब तक बालक का भाषागत विकास पूर्ण नहीं हो पाता। सिम्बोलिक विकास होने से पूर्व तक बालक न तो अपने विचारों को दक्षता के साथ व्यक्त कर पाता है तथा न वह दूसरे के विचारों को पूर्ण सार्थकता के साथ ग्रहण ही कर पाता है। बालक के सिम्बोलिक विकास के बाद कक्षा-शिक्षण में भाषा का प्रयोग मौखिक तथा लिखित, कुशलतापूर्वक किया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि सिम्बोलिक विकास के बाद बालक तथा शिक्षक कक्षा में सम्प्रेषण हेतु भाषा का सफलतापूर्वक प्रयोग करते हैं। इस प्रकार के कक्षा-कक्ष सम्प्रेषण में शिक्षक की अहम् भूमिका रहती है। वह कक्षा में 55% से 80% तक कक्षा-कक्ष क्रियाओं में संलग्न रहता है।

कक्षा-कक्ष में पढ़ाते समय अध्यापक को यह बात कदापि नहीं भूलनी चाहिये कि मूर्तावस्था तक बालक की शब्दों तथा भाषा को समझने की योग्यता तथा क्षमता बड़ों की तुलना में न केवल कम अपितु आत्म-केन्द्रित भी होती है। वह प्रतीकात्मक में आकर में ही भाषा को सम्प्रेषण के माध्यम के रूप में प्रयोग कर पाता है। शिक्षक को इसी अवस्था में बालक के साथ सामान्य भाषा में सम्प्रेषण करना चाहिये। विभिन्न विद्वानों ने कई शिक्षण-प्रतिमान दिये हैं। इन प्रतिमानों में आसुवेल का प्रगत संगठनकर्ता प्रतिमान एक प्रमुख प्रतिमान है। जब बालक का प्रतीकात्मक विकास हो जाये तब शिक्षक आसुवेल के प्रतिमान का प्रयोग करते हुये शिक्षण कार्य कर सकता है क्योंकि आसुवेल का प्रतिमान अर्थपूर्ण शाब्दिक विषय-वस्तु को सीखने तथा धारण करने पर बल देता है। छात्र का भाषागत विकास होने पर वह अधिगम तत्वों तथा भाषा तत्वों को समन्वित तथा परस्पर सम्बन्धित करने की योग्यता का विकास कर लेता है फलतः आसुवेल के अनुसार भी इसी अवस्था में भाषा को शिक्षण के समय सम्प्रेषण का माध्यम बनाना चाहिये।

जब बालक का बौद्धिक विकास प्रतीकावस्था में आ जाता है तब शिक्षक को भाषा के माध्यम से सम्प्रेषण कर शिक्षण कार्य करना चाहिये। किन्तु शिक्षक को ध्यान में रखना चाहिये कि शिक्षण केवल मात्र सम्प्रेषण नहीं है। शिक्षण सम्प्रेषण से कहीं व्यापक तथा श्रेष्ठ है। सम्प्रेषण से शिक्षक छात्रों को कक्षा-कक्ष में कुछ सूचनायें तथा तथ्यों का ज्ञान कराता है, किन्तु यह ज्ञान ही तो अधिगम नहीं हैं। सम्प्रेषण के द्वारा शिक्षक जो भी ज्ञान सूचनायें तथा तथ्य छात्रों को देता है, छात्र उसे आत्मसात कर लें, उसके आशय तथा अर्थ को समझ लें, प्राप्त ज्ञान को स्वतन्त्र रूप से नवीन परिस्थितियों में प्रयुक्त कर सकें, उसे अपने जीवन का एक अंग बना सकें तभी सही अर्थों में शिक्षक सार्थक होता है।

अत: कक्षा-कक्ष में सम्प्रेषण एवं शिक्षण करते समय शिक्षक को यह ध्यान रखना चाहिये कि वह सम्प्रेषण द्वारा छात्रों के व्यवहारों में आवश्यक परिमार्जन करे।

सफल तथा उद्देश्यपरक शिक्षण के लिये यह भी आवश्यक है कि अध्यापक शिक्षण के साथ-साथ छात्रों की शंकाओं का समाधान भी करता चले। यह तभी सम्भव है कि छात्रों को कक्षा-कक्ष में इतनी स्वतन्त्रता दी जाये कि वे बेझिझक तथा निस्संकोच अपनी बात कह सकें, साथ ही वे अध्यापक की बात भी ध्यानपूर्वक अध्यापक कक्षा-कक्ष में सम्प्रेषण करते समय छात्रों के अनुभवों में यथासम्भव वृद्धि करने का प्रयास करे। यह भी सत्य है कि सम्प्रेषण के लिये भाषा का अधिक से अधिक प्रयोग किया जाता है, किन्तु भाषा को प्रभावी बनाने के उपाय अध्यापक को अनवरत करते रहना चाहिये।

कक्षा-कक्ष में सम्प्रेषण केवल मात्र भाषा के द्वारा ही हो सकता है, यह गलत है। शिक्षक कक्षा में सम्प्रेषण के लिये भाषा के अतिरिक्त अन्य श्रव्य तथा दृश्य एवं श्रव्य दृश्य साधनों का सफलतापूर्वक प्रयोग कर सकता है। आज के अध्यापक के पास परम्परागत शिक्षण-सामग्री से लेकर अति आधुनिक वैज्ञानिक तथा उच्चस्तरीय शिक्षण सामग्री उपलब्ध है। आज वह कक्षा-कक्ष सम्प्रेषण के लिये लेखनपट्ट से लेकर इन्टरनेट तक का उपयोग कर सकता है। यह भाषागत सम्प्रेषण के पूरक के रूप में भी इन साधनों का प्रयोग कर सकता है। सम्प्रेषण के समय शिक्षक प्रयास करे कि छात्र एक से अधिक ज्ञानेन्द्रियों का समन्वित प्रयोग करें। किसी ज्ञान को प्राप्त करने में जितनी अधिक ज्ञानेन्द्रियाँ समन्वित रूप से संलग्न होंगी, शिक्षण उतना ही प्रभावी व सफल होगा। अतः शिक्षक को भाषा के साथ-साथ आवश्यक शिक्षण सामग्री का भी प्रयोग करना चाहिये।

सम्प्रेषण को प्रभावित करने वाले कारक

सम्प्रेषण को अनेक तत्व प्रभावित करते हैं। इन सभी तत्वों को मोटे रूप में हम नीचे लिखे चार वर्गों में विभक्त कर सकते हैं-

(अ) सम्प्रेषक से सम्बन्धित तत्व – कई तत्व या कारक सम्प्रेषक से सम्बन्धित होते हैं जो सम्प्रेषण को प्रभावित करते हैं। सामान्यतः ये तत्व निम्नांकित हो सकते हैं-

  1. सम्प्रेषक का भाषा-ज्ञान तथा भाषागत दक्षतायें।
  2. सम्प्रेषक का वातावरण तथा वातावरण में स्वयं की स्थिति का आंकलन ।
  3. सम्प्रेषक की मानसिक एवं शारीरिक स्थिति।
  4. सम्प्रेषक की आवश्यकता, उद्विग्नता आदि ।

(ब) सम्प्रेषी से सम्बन्धित तत्व-

  1. सम्प्रेषी की सम्प्रेषक से दूरी। दूरी जितनी कम होगी, सम्प्रेषण उतना ही अच्छा होगा।
  2. सम्प्रेषी का भाषा ज्ञान, श्रवण एवं दृश्य शक्ति।
  3. सम्प्रेषी की मानसिक, भावनात्मक तथा शारीरिक स्थिति।
  4. सम्प्रेषी को प्राप्त अभिप्रेरणा, उद्विग्नता, रुचि आवश्यकतायें।
  5. सम्प्रेषी का बौद्धिक तथा भाषागत विकास।
  6. आयु।
  7. श्रवण दक्षता
  8. आत्म-प्रत्यय तथा आत्म-सम्मान।

(स) माध्यम –

  1. माध्यम की किस्म
  2. माध्यम का स्तर तथा उपयुक्तता।
  3. माध्यमों का मिश्रण

(द) सूचना एवं संकेत

1. शाब्दिक –

  1. शब्दों की समुचितता एवं शुद्धता।
  2. स्पष्टता तथा सरलता।
  3. मौलिकता तथा कल्पना

2. अशाब्दिक-

  1. हावभाव, शरीर-भाषा, शरीर-गति।
  2. प्रोक्सीमिक्स (दूरी या निकटता रखना)।
  3. विषय-वस्तु भाषा
  4. उपयुक्तता, स्तर तथा प्रभाव तत्व

(य) वातावरणीय तत्व –

  1. शोर।
  2. खुलापन
  3. सम्प्रेषण के उद्देश्य
  4. सम्प्रेषक तथा सम्प्रेषी की सकारात्मकता।
  5. सम्प्रेषण वातावरण

अधिगम को उपयोगी बनाने के उपाय 

  1. छात्रों के बैठने की व्यवस्था समुचित हो।
  2. यह व्यवस्था की जाये कि प्रत्येक छात्र सुविधा से देख व सुन सकें।
  3. वातावरण को समुचित बनाया जाये।
  4. सरल, स्पष्ट तथा बोधगम्य भाषा का प्रयोग किया जाये।
  5. भाषा के साथ अन्य उपयोगी शिक्षण सामग्री भी पूरक के रूप में प्रयुक्त की जाये।
  6. सम्प्रेषण तथा शिक्षण की समुचित, विविध तथा नवाचारिक विधियाँ प्रयुक्त की जायें।
  7. प्रतिपुष्टि तथा पुनर्बलन का यथासम्भव प्रयोग किया जाये।
  8. छात्रों के अवधान तथा अभिप्रेरणा को बढ़ाया जाये।
  9. छात्रों के पूर्वज्ञान को आधार बनाकर शिक्षण तथा सम्प्रेषण किया जाये।
  10. आवश्यक स्थलों पर उदाहरण, व्याख्या जैसी प्रविधियों का प्रयोग किया जाये।
  11. छात्रों के सतत् मूल्यांकन की व्यवस्था हो ।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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