जनसंचार के शब्देतर या भाषिकेतर घटकों को उदाहरण सहित समझाइये ।
जनसंचार के शब्देतर या भाषिकेतर घटक भी भाषिक घटकों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं, हालांकि इनके द्वारा सिर्फ प्रत्यक्ष स्थिति में ही संचार सम्भव है। जब रेडियो का आविश्कार हुआ तो वहाँ भाषिकेतर माध्यमों का प्रयोग नहीं हो सकता था। हालाँकि रेडियो नाटक आदि के प्रयोग हुए और खूब सफल हुए और वहाँ ध्वनि प्रयोग द्वारा शब्दों के बीच के ‘स्पेस’ को भरने का प्रयास किया गया किन्तु जैसे ही दूरदर्शन का प्रवेश हुआ, उसके पास दृश्य-श्रव्य सभी संसाधन मौजूद होने के कारण वह इतनी द्रुतगति से लोकप्रिय हुआ कि संचार के अन्य सभी संसाधनों से कहीं आगे बढ़ गया। दूरदर्शन द्वारा भाषिक और भाषिकेतर दोनों ही घटकों का यथाशक्य प्रयोग किया जाता है।
एक उदाहरण ध्यान में आता है- कृष्ण के मथुरा चले जाने पर गोपियाँ और सारे ही गोकुलवासी उनके बिना व्याकुल थे, व्यथित थे; ऐसे में उद्धव कृष्ण का संदेश लेकर गोकुल आए। उन्होंने गोपियों को कृष्ण का संदेश बताने के बाद उनसे उनका हाल पूछा। गोपियाँ भाव विह्वल होने के कारण अपनी सब बातें शब्दों से बताने में असमर्थ हो गई तब उन्होंने-‘नेकु’ कहि बैननि, अनेकु कहि नैननि सों; रही सही सोउ कह दीन्हि हिचकीनि सों’ -यानी थोड़ी बात तो शब्दों से कही, अनेक नेत्रों से कह दीं और बाकी सब बातें हिचकियों से कह दीं।
संचार के शब्देतर घटक निम्नलिखित हैं-
1. दृष्टि – ये आँखें हमारे इतिहास की वाणी और हमारी कला का सच्चा सपना ” हैं। ये आँखें हमारा अपना नूर और पवित्रता है। ये आँखें ही अमर सपनों की हकीकत और / हकीकत का अमर सपना / इनको देख पाना ही अपने आप को देख पाना / समझ / जाना है।
आँखें शब्देतर संचार का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। यदि वक्ता अपना वक्तव्य देते समय अपनी आँखें अपने पैरों की ओर रखते हैं, तो उनके वक्तव्य का प्रभाव अधिक नहीं
पड़ता। दृष्टि द्वारा ही यह पता चलता है कि श्रोता वक्ता की बात सुन-समझ रहा है अथवा नहीं। आँखों से संचार और आँखों से ही फीडबैक शब्दों से भी ज्यादा प्रभाव छोड़ता है।
हम अक्सर अपने अध्यापक द्वारा यह निर्दिष्ट किये जाते हैं कि ‘मेरी आँखों में देखो’। हम वक्ता की अपेक्षा अगर कहीं और देख रहे होते हैं तो वक्ता के लिए यह बहुत असुविधाजनक होता है। आँखों को हृदय की वाणी भी कहा जाता है। कोलीन मैकन्ना का कहना है- To communicate more confidence and polish, keep your head up and vary the direction of your gaze. Eye contect emphasizes a point and establishes trust.
2. शारीरिक भंगिमा- एक अध्यापक यदि कक्षा में सावधान की मुद्रा में खड़े होकर व्याख्यान दे, या हाथ-पैर इधर-उधर घुमाते हुए, अपने हाथों से अजीब सी मुद्राएँ बनाते हुए व्याख्यान दे तो उसकी बात का बहुत ज्यादा प्रभाव विद्यार्थियों पर नहीं पड़ता। शारीरिक भंगिमा आपके संदेश को प्रभविष्णु बनाती है। शारीरिक भंगिमा से ही यह पता चलता है कि आप अपने श्रोताओं के विषय में क्या सोच रहे हैं, एक अच्छे वक्ता को बिना तनाव के, सावधानी से अपने प्रस्तुतीकरण के प्रति जागरूक होकर संदेश भेजने चाहिए। | क्या आपने यह ध्यान दिया है कि यदि वक्ता बोलते समय अपने शरीर को दूसरी ओर घुमाकर बात करते हैं, श्रोता उनकी ओर ध्यान नहीं देते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि An ereset posture lends additional assertiveness to your message.
3. दूरी – वक्ता और श्रोताओं के बीच का फासला संचार में प्रभाव डालता है। श्रोताओं से दूरी संदेश ठीक से नहीं प्रेषित कर सकती है और बहुत अधिक नजदीकी भी ठीक से अभिव्यक्त कर पाने में समर्थ नहीं होती। कभी-कभी कोई वक्ता माइक पकड़ कर अपना चेहरा उसके बिल्कुल नजदीक रखकर बोलता है, तो हम कहते हैं कि आवाज साफ नहीं आ रही है। माइक थोड़ा दूर रखा जाना चाहिए।
4. मुखाकृति- किसी को मुस्कुराते हुए चेहरे से या हँसते हुए क्रोध प्रकट करने को स्थिति में सम्प्रेषण सार्थक नहीं होता है। संस्कृत में कहा गया है- यत्र आकृतिः तत्र गुणाः वसन्ति। हमारे आकार, हमारी मुखमुद्रा से हमारे गुणों का परिचय हो जाता है। प्रभावशाली संचार के लिए हमारी मुखाकृति का भावानुकूल होना जरूरी है।
5. संकेत और भंगिमा- हमारी भंगिमा हमारी मुखाकृति की तरह प्रभावशाली होनी चाहिए। हमारी भंगिमा से हमारे हृदयस्थ भावों का पता चल जाता है। बिहारी के एक दोहे से हम यह बात अच्छी तरह कह सकते हैं- (बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय) सौंह करे भाँहनि हँसे देन कहे नटि जाय॥- कृष्ण से बात करने के लालच में राधा ने कृष्ण की बाँसुरी छिपा दी। कृष्ण ने जब पूछा कि बाँसुरी कहाँ है, तो राधा ने कसम खाई कि बाँसुरी उसके पास नहीं है। लेकिन भौंहों के क्षरा यह भी जता दिया कि बाँसुरी उसी के पास है। कृष्ण को यकीन हो गया कि बाँसुरी राधा के ही पास है ओर उन्होंने सधा से बाँसुरी देने के लिए कहा तो राधा फिर से मुकर गई। यहाँ शब्दों की अपेक्षा भंगिमा का प्रभाव सम्प्रेषण के लिए अधिक कारगर है।
6. वाचिक स्वर- हमारी आवाज, हमारा स्वर हमारे व्यवहार के विषय में सब कुछ बता देता है। वक्ता की टोन से श्रोता उसके अभिप्राय से अच्छी तरह से परिचित हो जाता है। उदाहरणतः यदि किसी को कहा जाय कि आप बहुत अच्छे हैं तो स्वर की कोमलता यह स्पष्ट कर देगी कि वक्ता वास्तव में श्रोता को अच्छा कह रहा है। यदि इस तरह से कहा जाय- आऽऽप तोऽऽ बहुऽऽऽत अच्छे हैं- तो इसका अभिप्राय है कि यह बात व्यंग्य में कही गई है, यानी आप बिल्कुल अच्छे नहीं हैं। महत्व इस बात का नहीं है कि हमने क्या कहा, महत्व इस बात का है कि हमने कैसे कहा?
7. प्रवाह- सामान्यतः भाषा का प्रवाह अत्यावश्यक है। शब्दों, वाक्यों को तोड़ तोड़ कर बोलने से, या बहुत जल्दी जल्दी बोलने से सम्प्रेषण में बाधा होती है। हमारे वक्तृत्व का कोमल और स्पष्ट प्रवाह श्रोताओं के अन्तःकरण में प्रविष्ट हो जाता है। समय-पश्चिमी चिन्तक अरस्तु किसी भी नाटक की सफलता के लिए तीन गुणों की अनिवार्यता मानते हैं- समय, स्थान और कार्य की एकता। यदि कोई बात उचित समय में उचित स्थान पर कही जाय तो उसकी प्रभाव अक्षुण्ण होता है। अगर किसी समस्या के विषय में हम ठीक समय पर अभिव्यक्ति नहीं कर पाते हैं और बाद में सोचते हैं कि मुझे उस समय यह कहना था, तो हमारा सम्प्रेषण कमजोर है। समय का ध्यान रखने पर हमारा सम्प्रेषण प्रभावशाली हो जाता है।
8. पहनावा- जो वेश-भूषा देश, स्थान के अनुरूप नहीं होती, वह हमारे पूरे व्यक्तित्व को अप्रभावशाली बना देती है। हमारा पहनावा हमारे स्तर, हमारी सोच को अभिव्यक्त करता है। हम फिल्मों, नाटकों में देखते हैं कि प्रायः विदूषक विकृत वेशभूषा द्वारा हास्य की सृष्टि करते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संचार के ये शब्देतर घटक भाषा के साथ जुड़कर मानव संचार को प्रभावशाली बना देते हैं।
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