पाठ्यक्रम क्या है ? इतिहास के पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए।
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पाठ्यक्रम का अर्थ (Meaning of Curriculum)
पाठ्यक्रम का अंग्रेजी पर्याय ‘Curriculum’ है, जिसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द currere से हुई है, जिसका अर्थ होता है “दौड़ का मैदान।” कनिंघम महोदय ने पाठ्यक्रम को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “पाठ्यक्रम शिक्षक के हाथ में एक साधन है जिससे वह अपने विद्यार्थी को आदर्श के अनुसार अपने विद्यालय में चित्रित करता है।”
इतिहास के पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त (Principles of the Construction of Curriculum of History)
इतिहास एक ऐसा विषय है जिसके पाठ्यक्रम का निर्माण करना अत्यन्त कठिन कार्य होता है। इतिहास के अध्ययन के द्वारा हमारा प्रतिदिन का जीवन विद्यालय अध्ययन के अन्तर्गत लाया जाता है। यह एक ऐसा विषय है जिसके द्वारा बालक का प्रत्यक्ष रूप समाजीकरण करने का प्रयास किया जाता है। इतिहास बालक को वास्तविक जीवन का विभिन्न परिस्थितियों में स्वयं अपने अनुभवों को निर्मित करने के हेतु तत्पर करता है। वह बालक के सामाजिक जीवन एवं वातावरण की स्वच्छता के लिए प्रयास करता है, और इस कारण इतिहास के पाठ्यक्रम का निर्धारण करना अत्यन्त कठिन कार्य है। इतिहास के पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय निम्नलिखित सिद्धान्त को ध्यान में रखना चाहिए-
(1) प्रेरणा का सिद्धान्त (Principle of Motivation)- इतिहास का पाठ्यक्रम प्रेरणादायक होना चाहिए। यदि इतिहास का पाठ्यक्रम छात्रों को सीखने के लिए प्रेरित नहीं करता तो वह पाठ्यक्रम बेकार ही सिद्ध होता है और इसके अध्ययन से छात्र अपने वांछित उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर पाता। पाठ्यक्रम उस समय तक प्रेरणा नहीं प्रदान कर सकता जब तक वह छात्रों की योग्यता, रुचि और क्षमता के अनुसार न हो। वही पाठ्यक्रम छात्रों को प्रेरणा प्रदान करता है जो उनकी योग्यता, रुचि और क्षमता के अनुसार बनाया जाता है। इसके साथ ही पाठ्यक्रम मनोविज्ञान पर आधारित भी होना चाहिए। यदि पाठ्यक्रम ऐसा नहीं है तो छात्र उसमें कोई रुचि नहीं लेते और तब प्रेरणा का प्रश्न ही नहीं उठता। मनोविज्ञान पर आधारित पाठ्यक्रम छात्र को क्रिया द्वारा शिक्षण प्राप्त करने के हेतु प्रेरित करता है अन्यथा छात्र कक्षा में केवल एक श्रोता मात्र रह जाता है। इससे कार्य से उनका जी ऊब जाता है और छात्र एवं विद्यालय के मध्य एक गहरी दरार पड़ जाती है जो कभी भी पूर्ण नहीं हो पाती। अतएव यह आवश्यक है कि इतिहास का पाठ्यक्रम मनोविज्ञान पर आधारित हो। वही पाठ्यक्रम छात्रों को प्रेरणा प्रदान कर सकता है जो उनकी योग्यता, क्षमता और रुचि के अनुसार हो तथा उसमें मनोविज्ञान के सिद्धान्तों का पूरी तरह से ध्यान रखा गया हो।
(2) व्यापकता का सिद्धान्त (Principle of Broadness) – इतिहास का पाठ्यक्रम अत्यन्त व्यापक होना चाहिए। इसमें सभी बातों का समावेश किया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम पुस्तकों, कक्षा एवं पुस्तकालयों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। केवल कक्षा शिक्षण तक जो पाठ्यक्रम सीमित रहता है उससे बालकों को विषय की पूर्ण जानकारी नहीं हो पाती। पाठ्यक्रम में इतिहास का ज्ञान सम्पूर्ण शैक्षणिक वातावरण में अर्जित कराने की योग्यता होनी चाहिए।
इतिहास का पाठ्यक्रम इस प्रकार का नहीं होना चाहिए कि किसी धर्म या किसी मत पर उससे आँच आवे। उसे छात्रों को योग्य नागरिक बनाने वाला होना चाहिए। पाठ्यक्रम में उन सभी विषयों का समावेश किया जाना चाहिए जो छात्रों को योग्य नागरिक बनाने में सहायक सिद्ध होते हैं। इतिहास के पाठ्यक्रम में नागरिकों के कर्त्तव्यों, राज्य के प्रति उनका उत्तरदायित्व और देश-प्रेम एवं विश्व-बन्धुत्व की भावना उत्पन्न करने वाले सभी विषय रखे जाने चाहिए, तभी इतिहास के पाठ्यक्रम से छात्रों को वास्तविक लाभ प्राप्त हो सकेगा।
(3) जीवन से सम्बन्धित होने का सिद्धान्त (Principle of Linking With Life ) – इतिहास का पाठ्यक्रम पूर्ण रूप से जीवन से सम्बन्धित होना चाहिए। छात्र उसी विषय में अधिक रुचि लेते हैं जो जीवन से सम्बन्धित कर दिया जाता है। इस कारण नागरिकशास्त्र के पाठ्यक्रम को जीवन से सम्बन्धित अवश्य होना चाहिए।
(4) उपयोगिता का सिद्धान्त (Principle of Utility)- ऐसा ज्ञान जो हमारे जीवन के लिए उपयोगी नहीं होता है वह बेकार हो जाता है। अतएव इतिहास का पाठ्यक्रम इस प्रकार का होना चाहिए कि वह जीवन में उपयोगी सिद्ध हो। छात्रों को ऐसा ज्ञान प्राप्त होना चाहिए जिसे व्यावहारिक जीवन में लाभकारी रूप में प्रयोग में लाया जा सके। पाठ्यक्रम उपयोगी होगा, छात्रों को उसमें स्वाभाविक रूप से रुचि उत्पन्न हो जाएगी तभी जो वे पाठ्यक्रम को आसानी से आत्मसात् कर सकेंगे।
(5) क्रिया का सिद्धान्त (Principle of Activity)- इतिहास के पाठ्यक्रम में क्रिया के सिद्धान्त को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। बालक जो कार्य करके सीखते है उससे उन्हें वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति होती है। अतएव पाठ्यक्रय ऐसा होना चाहिए कि बालक स्वयं कार्य करके ज्ञान की प्राप्ति करें। यदि पाठ्यक्रम बालकों को सक्रिय बनाने में सक्षम नहीं होता तो विद्यार्थियों की उसमें अभिरुचि नहीं रह जाती और इस स्थिति में इतिहास का शिक्षण अत्यन्त कठिन हो जाता है। यही कारण है कि शिक्षाशास्त्रियों का कहना है कि पाठ्यक्रम में (Four ‘H’) ‘चार एच’ को अवश्य स्थान मिलना चाहिए ‘चार एच’ उनका तात्पर्य है- Hand (हाथ), Heart (हृदय), Head (मस्तिष्क) एवं Health (स्वास्थ्य ) इन चारों की शिक्षा बालकों को अवश्य दी जानी चाहिए क्योंकि बालक प्रकृति के अनुसार क्रियाशील होता है और उसे क्रियाशील बनाये रखना भी चाहिए।
(6) लोकतांत्रिक सम्बन्धों का सिद्धान्त (Principle of democratic concept)- पाठ्यक्रम लोकतंत्र के सिद्धान्तों पर आधारित भी होना चाहिए क्योंकि आधुनिक युग लोकतंत्र का युग है। लोकतंत्र की सफलता देश के नागरिकों पर ही निर्भर करती है। आज का छात्र कल का नागरिक होगा और इस कारण पाठ्यक्रम इस प्रकार होना चाहिए कि छात्र अच्छे नागरिक बन सकें। लोकतन्त्र में सहयोग, सहानुभूति, सहिष्णुता, ईमानदारी, समानता आदि बातें यदि दिखलाई पड़ती हैं तो कोई राष्ट्र तेजी से उन्नति करता है अतएव पाठ्यक्रम में इन भावनाओं को उत्पन्न करने की क्षमता होनी चाहिए।
(7) संरक्षणता एवं हस्तान्तरण का सिद्धान्त (Principle of preservation and transmission)- प्रत्येक समाज की अपनी अलग संस्कृति होती है। उसकी अपनी परम्पराएँ, अपनी रीति-रिवाज और अपनी मान्यताएँ होती हैं, इतिहास का पाठ्यक्रम इस प्रकार का होना चाहिए कि वह परम्पराओं, रीति-रिवाजों को बनाये रखने में सहायक सिद्ध हो और इस प्रकार सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखने वाला हो। पाठ्यक्रम इस प्रकार का होना चाहिए कि वह प्रचलित मान्यताओं को आगे आने वाली पीढ़ी को बताने वाला हो जिससे कि हमारी संस्कृति की रक्षा हो सके।
(8) समन्वय का सिद्धान्त (Principle of co-relation)- अपने जीवन में हम जिस प्रकार का ज्ञान प्राप्त करते हैं वह किसी-न-किसी प्रकार एक-दूसरे से सम्बन्धित होता है। यह सब शारीरिक और मानसिक रचनाओं के फलस्वरूप होता है। पाठ्यक्रम इस प्रकार का बनाया जाना चाहिए कि वह विभिन्न ज्ञानों में सम्बन्ध स्थापित करने में सहायक सिद्ध हो। इससे ज्ञान सरल, सुगम और स्पष्ट हो जाएगा। इतिहास के पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि ज्ञान की अन्य शाखाओं से समन्वय स्थापित किया जा सके।
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