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पारिश्रमिक भुगतान की पद्धतियाँ | Methods of Wages Payment in Hindi

पारिश्रमिक भुगतान की पद्धतियाँ | Methods of Wages Payment in Hindi
पारिश्रमिक भुगतान की पद्धतियाँ | Methods of Wages Payment in Hindi
पारिश्रमिक भुगतान की विभिन्न पद्धतियाँ कौन सी हैं? पारिश्रमिक भुगतान की समय दर पद्धति का वर्णन कीजिए। इसके गुण व दोष तथा उपयोगिता बताइये।

पारिश्रमिक भुगतान की पद्धतियाँ (Methods of Wages Payment)- मजदूरों के पारिश्रमिक भुगतान करने की मुख्य पद्धतियाँ निम्नलिखित तीन हैं-

  1. समय दर पद्धति (Time Rate System),
  2. कार्य दर पद्धति (Piece Rate System),
  3. प्रेरणात्मक पद्धतियाँ (Incentive Methods)।

समय दर पद्धति (Time Rate System)– इस पद्धति के अन्तर्गत श्रमिकों को समय के अनुसार मजदूरी का भुगतान किया जाता है। इसके अन्तर्गत यह नहीं देखा जाता है कि इस अवधि में श्रमिक ने क्या और कितना कार्य किया है। इस पद्धति के अनुसार श्रमिकों को प्रति घण्टा, प्रति दिन प्रति सप्ताह अथवा प्रति माह की दर से मजदूरी दी जाती है। यह एक अति प्राचीन पद्धति है और आज भी अधिकांश जगहों में प्रचलित है। इस पद्धति के कुछ विशेष लाभ हैं जो इस प्रकार हैं-

लाभ (Advantages)

इस पद्धति के निम्नलिखित लाभ हैं-

(1) सरलता (Simplicity) — यह एक अत्यन्त ही सरल पद्धति है। श्रमिक तथा नियोक्ता सरलता से ही मजदूरी की गणना कर लेते हैं।

(2) अच्छी किस्म की वस्तुओं का उत्पादन (Quality Product) – चूँकि इस पद्धति के अन्तर्गत श्रमिकों को काम समाप्त करने की हड़बड़ी नहीं रहती है जिससे उच्च किस्म की वस्तु का उत्पादन होता है।

(3) निश्चित पारिश्रमिक का आश्वासन (Assurance of Certain Remuneration) – इस पद्धति के अन्तर्गत श्रमिक इस बात से आश्वस्त रहता है कि एक निश्चित अवधि के बाद उसे एक निश्चित रकम मजदूरी के रूप में मिल जायेगी, भले ही काम कितना भी हुआ हो।

( 4 ) सामग्री एवं यन्त्रों का सदुपयोग (Proper Utilization of Materials and Machines ) – चूँकि इस प्रणाली के अन्तर्गत श्रमिक सावधानी से काम करता है जिससे सामग्री एवं यन्त्रों का सही प्रयोग हो पाता है।

(5) प्रशासनिक व्ययों में कमी (Decrease in Administrative Expenses ) – इस प्रणाली के अन्तर्गत सेवायोजकों द्वारा श्रमिकों के कार्य एवं पारिश्रमिक आदि के लेखों में अधिक व्यय करने की आवश्यकता नहीं पड़ती, अतः प्रशासनिक व्यय बहुत कम आते हैं।

( 6 ) श्रमिकों में एकता (Unity among the Workers) – चूंकि इस पद्धति के अन्तर्गत सभी श्रमिकों को समान दर से मजदूरी दी जाती है जिससे उनके बीच एकता पायी जाती है।

(7) स्वास्थ्य (Health) – इस प्रणाली के अन्तर्गत श्रमिकों को अत्यधिक परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है, फलतः उनका स्वास्थ्य अच्छा रहता है।

(8) मधुर सम्बन्ध (Harmonious Relationship) — मजदूरी भुगतान की यह पद्धति लगभग सभी मजदूरों को पसन्द आती है जिससे नियोक्ता एवं कर्मचारियों के बीच मधुर सम्बन्ध बना रहता है।

दोष (Disadvantages)

इस पद्धति के निम्नलिखित दोष हैं-

( 1 ) समय का दुरुपयोग (Misuse of Time)— चूँकि इस प्रणाली के अन्तर्गत मजदूरी का भुगतान कार्यानुसार नहीं होकर समयानुसार होता है जिससे श्रमिकों द्वारा समय का दुरुपयोग किया जाता है। उनके मन में यह भय नहीं रहता कि यदि वे कम काम करेंगे तो उन्हें कम मजदूरी दी जायेगी।

( 2 ) प्रेरणा का अभाव (Lack of Incentive) – इस पद्धति के अन्तर्गत कुशल तथा अकुशल श्रमिकों को समान दर से मजदूरी दी जाती है जिससे कुशल श्रमिकों को अधिक कार्य करने की प्रेरणा नहीं मिलती है।

( 3 ) निरीक्षण व्यय में वृद्धि (Increase in Inspection Cost) — चूँकि श्रमिकों में समय काटने की प्रवृत्ति पनपने लगती है, फलतः उन पर अधिक निगरानी रखने की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए अनेक निरीक्षकों की बहाली करनी पड़ती है, अतः उत्पादन लागत भी बढ़ जाती है।

( 4 ) कुशल श्रमिकों की अवहेलना (Avoidance of Skill Workers) – इस प्रणाली के अन्तर्गत एक कुशल श्रमिक को भी उतना ही पारिश्रमिक दिया जाता है जितना कि एक अकुशल श्रमिक को इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि इस पद्धति के अन्तर्गत कुशल श्रमिकों के साथ अन्याय किया जाता है अर्थात् कुशलता की अवहेलना की जाती है।

( 5 ) कार्यहीन समय का भुगतान (Payment of Idle Time)– इस पद्धति के अन्तर्गत यदि श्रमिक कारखाने जाता है और वह काम करे अथवा नहीं, उसे मजदूरी दी जाती है। इस प्रणाली का यह एक बड़ा दोष है।

( 6 ) उत्पादन से सम्बन्धित नहीं होना (Not based on Production ) – मजदूरी भुगतान की यह पद्धति उत्पादन पर आधारित नहीं होती है जिससे प्रति इकाई लागत में वृद्धि होती है। श्रमिक के मन में यह बात हमेशा बनी रहती है कि वह काम करे अथवा नहीं, उसे मजदूरी मिलेगी ही। इससे श्रमिकों को कार्यक्षमता भी घटने लगती है।

प्रयोग के क्षेत्र (Areas of Application of this Method)
  1. जिन संस्थाओं में श्रमिकों के कार्य पर नियन्त्रण की व्यवस्था होती है।
  2. जब वस्तुओं की मात्रा की अपेक्षा गुण का अधिक महत्व होता है।
  3. जहाँ उत्पादन कार्य विभिन्न उपक्रियाओं में सम्पन्न होता है।
  4. जहाँ कार्य का माप सम्भव न हो ।
  5. जहाँ विशेष ज्ञान वाले कर्मचारियों की आवश्यकता होती है, जैसे—चित्रकारी, कलाकारों, चिकित्सा आदि।

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Anjali Yadav

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