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पारिस्थितिक तंत्र तथा विकास | सतत् विकास या जीवन धारण करने योग्य विकास की अवधारणा | सतत् विकास में भूगोल और शिक्षा का योगदान

पारिस्थितिक तंत्र तथा विकास | सतत् विकास या जीवन धारण करने योग्य विकास की अवधारणा | सतत् विकास में भूगोल और शिक्षा का योगदान
पारिस्थितिक तंत्र तथा विकास | सतत् विकास या जीवन धारण करने योग्य विकास की अवधारणा | सतत् विकास में भूगोल और शिक्षा का योगदान

सतत् विकास की अवधारणा को स्पष्ट कीजिये। सतत् विकास में भूगोल किस प्रकार सहायक हो सकता है? 

विकास करना मानव की प्रकृति है। इसी विकास की ओर अग्रसर होते हुए मानव आज सभ्यता और संस्कृति के उच्च शिखर पर पहुँच सका हैं। विकास की इस दौड़ में मानव ने पर्यावरण का इतना दोहन किया है कि उसके दुष्परिणाम उसके लिए जीवन संकट पैदा कर रहे हैं। पर्यावरण की समस्याएँ भौतिक एवं जैविक प्रक्रियाओं के मध्य अन्तर्सम्बन्ध में असन्तुलन से पैदा होती हैं। विकास का इतिहास साक्षी है कि इस लम्बी अवधि में पर्यावरण और मानव के संबंधों में खटास पैदा हो गई हैं। मानव की आदिम अवस्था में पर्यावरण के साथ उसके संबंध सन्तुलित थे। उस समय जनसंख्या भी कम थी तथा आवश्यकताएँ बहुत ही सीमित थी। वह भोजन की आपूर्ति आखेट और वन उपजों के संग्रह से कर लेता था। घास-फूस से अपना आश्रय बना लेता था। अपनी दैनिक जीवन में आवश्यक वस्तुओं से अधिक का दोहन प्रकृति से नहीं करते थे। परिणामस्वरूप मानव क्रियाओं का प्रकृति पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा।

कृषि कार्य ने विकास के द्वितीय चरण को गति प्रदान की। जनसंख्या वृद्धि के साथ खाद्यान्न की माँग में वृद्धि हुई जिसने मानव को कृषि क्षेत्र में विस्तार के लिए बाध्य किया। नवीन क्षेत्रों में अतिक्रमण से परिस्थितिक तंत्र का विनाश प्रारम्भ हुआ। ग्रामीण क्षेत्रों में जीविकोपार्जन के अवसरों में कमी के कारण ग्रामीण जनसंख्या का नगरों की ओर पलायन प्रारम्भ हुआ। नगरीय जीवन में उनकी रुचियों में परिवर्तन से आवश्यकताओं में वृद्धि होना स्वाभाविक था। परिणाम संसाधनों के उपयोग में वृद्धि के रूप में दृष्टिगत होने लगा। अब धीरे-धीरे वन व घास के मैदान नष्ट होने लगे और पर्यावरण का ह्रास होने लगा।

विकास का तीसरा चरण औद्योगिक क्रान्ति के बाद प्रारम्भ हुआ। जनसंख्या की इतनी वृद्धि हुई कि उसकी मांग की पूर्ति हस्त शिल्प द्वारा सम्भव नहीं थी। साथ ही लोगों में भौतिक सुविधाएँ उपलब्ध करने तथा सौन्दर्यता के दृष्टिकोण में परिवर्तन ने मशीनों को जन्म दिया। मशीनों के आविष्कार ने औद्योगिक क्रान्ति को जन्म दिया।

परिणामस्वरूप जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण बढ़ने लगा और वनों के विनाश के कारण वन्य जीवों की प्रजातियाँ विलुप्त होने लगी। संसाधनों का बड़े स्तर पर दोहन होने लगा। यह ऐसा युग है जिसमें उत्पादन और उपयोग दोनों को बढ़ाने पर देशों का ध्यान केन्द्रित हैं।

विकास की वर्तमान गति में धनी और निर्धन राष्ट्रों में बड़ा अन्तर पैदा कर दिया है। धनवान देश गरीब देशों के संसाधनों का शोषण करके वहां की भावी पीढ़ी को सदैव गरीबी में जीने को बाध्य कर रहे हैं। इससे संसाधनों में निरन्तर कमी हो रही है तथा प्रकृति और मानव के संबंध कटु हो गये हैं जिनका दुष्परिणाम भावी पीढ़ी को भुगतना होगा।

पारिस्थितिक तंत्र तथा विकास

पारिस्थितिक तंत्र और विकास में गहरा संबंध है। विकास आर्थिक तंत्र का दूसरा नाम है। आर्थिक तंत्र विकास के लिए पारिस्थितिक तंत्र पर निर्भर रहता हैं। क्योंकि कच्चे माल और शक्ति के संसाधनों की आपूर्ति पारिस्थितिक तंत्र से होती हैं। निर्माण की प्रक्रिया में होने वाले अपशिष्टों में से कुछ का पारिस्थितिक तंत्र द्वारा शोधन होता है और शेष बचे अपशिष्ट प्रदूषण पैदा कर पारिस्थितिक तंत्र को हानि पहुँचाते हैं। वर्तमान विकास के जो आयाम पर्यावरण को प्रदूषित करके पारिस्थितिक असन्तुलन पैदा कर रहे हैं, वे निम्नलिखित हैं-

(i) औद्योगीकरण, (ii) परिवहन विकास, (iii) तकनीकी विकास, (iv) कीटनाशकों तथा रासायनिक उर्वरकों का उपयोग, (v) ऊर्जा के स्रोत जैसे कोयला, प्राकृतिक गैस तथा खनिज तेल का प्रयोग, (vi) शहरीकरण में वृद्धि आदि। विकास के इन स्वरूपों के अतिरिक्त मानव विकास के लिए जो भी प्रयत्न कर रहा है ये सभी प्रयत्न अन्ततोगत्वा पर्यावरण पर दुष्प्रभाव डाल रहे हैं। वर्तमान विकास से पर्यावरण इतना प्रदूषित हो गया है कि स्वयं मानव का जीवन संकटग्रस्त हो गया है। अतः अब मानव के लिए यह निश्चित करना आवश्यक हो गया है कि विकास का स्वरूप कैसा हो ?

सतत् विकास या जीवन धारण करने योग्य विकास की अवधारणा (Concept of Sustainable Development)

पर्यावरण और विकास परस्पर घनिष्ट रूप में संबंधित हैं। विकास की अग्रसर होने की गति पर्यावरण पर निर्भर हैं। विकास के लिए आवश्यक सामग्री का दोहन मानव पर्यावरण के तत्वों से करता हैं। पर्यावरण के तत्वों में धनों का प्रमुख स्थान हैं। यदि संसाधनों का विकास के लिए इसी गति से दोहन होता रहा तो एक दिन संसाधन विलुप्त हो जाऐंगे और पर्यावरण मानव के लिए घातक हो जाएगा। अब मानव में संज्ञान पैदा हुआ हैं और वह विकास तथा पर्यावरण के मध्य सन्तुलन बनाये रखने के लिए चिन्तन करने लगा हैं। सतत् विकास एक प्रकार से वर्तमान प्रौद्योगिकी और समाज की आवश्यकताओं पर लगाई गई सीमाओं की अवधारणा हैं। वर्ष 1987 में पर्यावरण और विकास के लिए गठित बुण्ट लैण्ड आयोग ने अपनी रिपोर्ट ‘Our Common Future’ में सर्वप्रथम सतत् विकास शब्द का प्रयोग किया। ब्रुण्ट लैण्ड ने अपने प्रतिवेदन में लिखा कि “सतत् विकास ऐसा विकास है जो भावी पीढ़ी की अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने की योग्यता पर कोई समझौता किए बिना वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।” (Sustainable development is the development that meets the needs of the present without compromising on the ability of future generations to meet their own needs.)

एस.पी. सिंह के अनुसार “पारिस्थितिकीय सतत् विकास का उद्देश्य मानव जीवन की उत्तमता को बिना पर्यावरण को हानिकारक बनाये रखना हैं।” (The aim of ecologically sustainable development is to maximise human well being or quality of life without jeopardizing the life support system”)

विश्व पर्यावरण और विकास आयोग के अनुसार “यह परिवर्तन की ऐसी प्रक्रिया है जिसमें संसाधनों का दोहन, निवेश की दिशा, प्रौद्योगिकी के नवीनीकरण और संस्थागत परिवर्तन की दिशा आदि के मध्य तालमेल हो और तात्कालिक और भावी क्षमताओं में वृद्धि हो जो मानव की आवश्यकताओं और अपेक्षाओं की पूर्ति कर सकें।”

उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि सतत् विकास ऐसी प्रक्रिया है जिससे मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहे और पृथ्वी का पोषणीय स्तर सन्तुलित अवस्था में बना रहे। सतत् विकास के समर्थक समाज का दृष्टिकोण निम्न बिन्दुओं से स्पष्ट हैं-

  1. पृथ्वी पर स्थित संसाधनों का मितव्ययपूर्ण तथा विवेकयुक्त उपयोग हो,
  2. नवीकरणीय संसाधनों को पुनश्चक्रण द्वारा पुन: उपयोग किया जाये।
  3. जीवन को अत्यधिक भौतिकवादी बनाने पर नियंत्रण,
  4. प्रकृति के साथ मित्रवत् व्यवहार
  5. व्यक्तिगत रूप में पर्यावरण ह्रास की समस्याओं के समाधान में रुचि लेना।

सतत् विकास में भूगोल और शिक्षा का योगदान

शिक्षा ही एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा समाज ‘भावी सदस्यों को प्राकृतिक पर्यावरण के महत्व के बारे में समझाया जा सकता हैं। पर्यावरण प्रदूषण के मानव पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के बारे में उनमें चेतना का विकास किया जा सकता हैं। इसके लिए सभी पाठ्य विषयों की विषयवस्तु में एक अध्याय पर्यावरण और सतत् विकास से संबंधित होना चाहिये तथा प्रत्येक विषय के अध्यापक को शिक्षण के समय पर्यावरण और सतत् विकास की ओर छात्रों का ध्यान आकर्षित करना चाहिये। दोनों भूगोल व शिक्षा निम्न प्रकार इस उद्देश्य की पूर्ति कर सकते हैं-

1. जनसंख्या वृद्धि :- भूगोल विषय में छात्रों को जनसंख्या वृद्धि, वितरण आदि का अध्ययन करवाया जाता हैं। सतत् विकास में सबसे बड़ी बाधा जनसंख्या वृद्धि हैं। जनसंख्या वृद्धि के कारण आवश्यकताओं में वृद्धि होने से संसाधनों का दोहन अधिक हुआ है तथा अपशिष्ट पदार्थों में भी वृद्धि हुई है। सतत् विकास के लिए आवश्यक है कि छात्रों को भविष्य में जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण करने की चेतना पैदा की जाए।

2. संसाधनों का ज्ञान- प्राकृतिक वातावरण के तत्व ही संसाधन हैं। भूगोल शिक्षक को संसाधनों के वितरण, उनकी मात्रा, गुण आदि का ज्ञान करवाना चाहिये। छात्रों को सिखाया जाए कि कुछ संसाधन उपयोग के बाद समाप्त हो जाते हैं तथा कुछ को बार बार उपयोग में लाया जा सकता है। संसाधनों के मितव्ययता तथा विवेकपूर्ण उपयोग का ज्ञान छात्रों को करवाना आवश्यक हैं।

3. प्रौद्योगिकी में परिवर्तन – छात्रों को प्रौद्योगिकी में परिवर्तन लाने का पाठ सिखाया जाएँ। प्रौद्योगिकी सरल हो तथा जिसमें कम ऊर्जा की खपत होती हो। प्रौद्योगिकी स्थानीय पर्यावरण और समाज के अनुकूल होनी चाहिये।

4. संसाधन संरक्षण – शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को संसाधन संरक्षण के प्रति जागरुक करना भी है। राष्ट्र का श्रेष्ठ नागरिक वह है जो देश के संसाधनों को नष्ट होने से बचाये। उदाहरण के लिए नदियों का जल संसाधन है हमारा कर्तव्य है कि उसके जल को प्रदूषित न होने दें। इसी प्रकार देश में वनों को नष्ट होने से बचाना आवश्यक हैं।

5. शहरीकरण की प्रवृत्ति पर नियंत्रण – शहरीकरण से पैदा होने वाली समस्याओं का ज्ञान छात्रों को करवाया जाए। शहरीकरण के कारण आज दिल्ली के नगरवासियों ने यमुना नदी के जल को विषैला बना दिया है। इसी प्रकार गंगा नदी के किनारे स्थित नगर नदी को प्रदूषित कर रहे हैं।

6. कृषि कार्य का ज्ञान – भूगोल में आर्थिक क्रिया के रूप में कृषि का भी अध्ययन करवाया जाता है। शिक्षक को चाहिये कि वह रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग के दुष्परिणामों की जानकारी छात्रों को दें तथा कीटनाशकों के उपयोग से सावधान रहने की चेतावनी दें।

7. पर्यावरण सम्बन्धित कानून – देश में पर्यावरण की रक्षा के लिए बने कानूनों का ज्ञान विद्यालय में छात्रों को करवाया जाए।

8. उद्योगों और वाहनों से होने वाले प्रदूषण की जानकारी छात्रों को देना आवश्यक है। इनसे जल एवं वायु प्रदूषण में वृद्धि होती है।

9. चिपको आंदोलन का महत्व बताना आवश्यक है। ऐसे आन्दोलनों द्वारा ही वनों की रक्षा की जा सकती है। विद्यालय में वन महोत्सव का आयोजन करके बच्चों को वृक्षारोपण के लिए प्रोत्साहित किया जाए।

10. जीवों की विलुप्त हो रही प्रजातियों का ज्ञान करवाकर उनके संरक्षण के लिए छात्रों को प्रोत्साहित किया जाए। उदाहरण के लिए राजस्थान के पश्चिमी जिलों में पाये जाने वाले गौंडवाना पक्षी की प्रजाति विलुप्त होने के कगार तक पहुँच गई है।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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