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प्रत्ययों का वर्गीकरण विभिन्न आधारों में कीजिये।
प्रत्ययों के प्रकार – प्रत्ययों का वर्गीकरण कई आधारों पर किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में दो आधार प्रमुख है-
- मिश्रण के आधार पर।
- गुण-धर्म के आधार पर।
1. मिश्रण के आधार पर
मिश्रण के आधार पर डी सेको ने प्रत्ययों को तीन वर्गों में वर्गीकृत किया है-
(1) संयुक्त प्रत्यय :- संयुक्त प्रत्यय वे होते हैं जिन में कई लक्षणों के उचित मूल्य संयुक्त रूप से विद्यमान होते हैं। अधिकांश प्रत्यय ऐसे ही होते हैं। उदाहरण के लिए ‘कुत्ता’ प्रत्यय में रंग, आकार, आकृति, बनावट तथा व्यवहार लक्षण पाये जाते हैं। इन लक्षणों के मूल्य विभिन्न कुत्तों में भिन्न हो सकते हैं, फिर भी हम कुत्ते को अन्य पशुओं से लक्षणों के आधार पर भिन्न कर सकते हैं। संयुक्त प्रत्यय याद करने में सरल होते हैं क्योंकि इनमें मिश्रित होने का गुण होता है। दूसरे शब्दों में लक्षण एवं मूल्य दोनों का मिश्रण इनमें होता है।
(2) असम्बद्ध प्रत्यय :- असमम्बद्ध प्रत्यय वे प्रत्यय होते हैं जिनमें एक लक्षण का मूल्य दूसरे लक्षण के मूल्य और दोनों के मूल्य विद्यमान होते हैं। ऐसे प्रत्यय में लक्षण और मूल्य एक दूसरे के लिए स्थानापन्न किये जाते हैं; जैसे दो आकृतियाँ, दो गोले इस तरह का प्रत्यय है। इसमें आकार व संरचना दो लक्षण हैं। दो का लक्षण तो समान है, पर आकार बदल सकता है। यह गोला हो सकती है या कोई अन्य आकृति।
(3) संबंधित प्रत्यय :- संबंधित प्रत्यय वह है जिसके लक्षणों में उल्लेखनीय संबंध पाया जाता है। दूरी तथा दिशा इसी तरह के प्रत्यय हैं। दूरी दो बिन्दुओं के मध्य संबंध को प्रकट करती है। यह दो बिन्दुओं की पृथकता को बताती है। दिशा (Direction) भी दो बिन्दुओं के मध्य संबंध को बताती है। यह एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु की और गति को प्रकट करती है। समय, कई, कुछ, औसत, देशान्तर, मात्रा एवं वजन ऐसे ही प्रत्यय हैं। दूरी और दिशा के प्रत्ययों में समय व स्थान (Space) सामान्य लक्षण हैं, पर एकसे दो लक्षणों के मध्य संबंध ही इन्हें पृथक करता है।
ब्रूनर ने सम्बन्धात्मक प्रत्ययों में दिशा, दूरी, जैसे प्रत्ययों को शामिल किया है।
इसमें इसी प्रकार कारोल ने कम, अधिक, बहुत, वजन, औसत, जैसे अनेक प्रत्ययों को इस वर्ग में रखा है। शिक्षण की दृष्टि से इस वर्ग के प्रत्ययों को पढ़ाना तथा समझाना अपेक्षाकृत सबसे कठिन होता है। इनकी शिक्षा प्रदान करने के लिए शिक्षक को विविध उपायों को काम में लेना चाहिए।
2. गुण-धर्म के आधार पर
अपनी प्रकृति तथा गुण-धर्म के आधार पर प्रत्ययों को नीचे लिखे सात वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-
(1) आकार एवं रूप सम्बन्धी प्रत्यय- बालक किसी वस्तु के आकार तथा रूप के प्रत्यय का शीघ्र ही विकास कर लेते हैं। वे अपने जीवन के प्रारम्भ से ही विभिन्न आकार तथा स्वरूप की छोटी-बड़ी वस्तुए परिवार में देखते हैं इससे वे छोटे तथा बड़े आकार की वस्तुओं में अन्तर करने लगते हैं। वे रूप के प्रत्यय का भी विकास घर की वस्तुओं को देखकर करने लगते हैं। वह शीघ्र ही चम्मच तथा चमचा में अन्तर करने लग जाता है। इसी प्रकार वह छोटी गिलसिया तथा गिलास में अन्तर आकार के आधार पर कर लेता है। धीरे-धीरे वह ज्यों-ज्यों बड़ा होता जाता है वह आकार तथा रूप के आधार परिवार के सदस्यों में भी अन्तर करने लगता है। बालक जब पाँच या छः वर्ष की आयु प्राप्त कर लेता है तो वह त्रिभुज, गोलाकार तथा चौकोर वस्तुओं तथा आकृतियों के सम्बन्ध में प्रत्यय विकसित कर लेता है। बालक जब 5-6 वर्ष का हो जाये तो शिक्षक को चाहिए कि वह बालक के सम्मुख विभिन्न आकार तथा रूप की ज्यामितीय आकृतियाँ प्रस्तुत करे जिससे उसके प्रत्ययों में और स्पष्टता आये।
(2) संख्या सम्बन्धी प्रत्यय – संख्या सम्बन्धी प्रत्यय भी एक ऐसा प्रत्यय है जिसे बालक अपनी शैशवावस्था में ही सीखना प्रारम्भ कर वह अपने परिवार में ही एक, दो, तीन आदि वस्तुओं की गणना करना देखता है तो वह भी एक, दो तीन वस्तुओं की | गणना क्रमशः सीख जाता है। बालक में आयु-वृद्धि के साथ ही साथ अर्थ ग्रहण तथा उसके मन की क्षमता बढ़ती जाती है तो उसके साथ ही साथ वह संख्या सम्बन्धी प्रत्ययों का विकास करने लगता है। बालक जब 12 माह (1 वर्ष) की आयु तक वह 4-5 तक की संख्या में वस्तुओं को गिनने लगता है। दो वर्ष की आयु प्राप्त होते ही वह एक तथा दो, पहली तथा दूसरी चीज में अन्तर करने लगता । चार वर्ष की आयु प्राप्त करते करते वह तीन-तीन के समूह में वस्तुएँ गिनने लगता है। इसी प्रकार 5 वर्ष की आयु प्राप्त करते-करते वह 18 तथा 16 वर्ष की आयु प्राप्त करने तक वह 1000 (एक हजार) तक की संख्याओं के सम्बन्ध में प्रत्यय विकसित कर लेता है। यहाँ उल्लेखनीय है कि प्रत्यय विकास में बालक की प्रकृति-प्रदत्त मानसिक क्षमताओं का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।
(3) रंग सम्बन्धी प्रत्यय- स्वभाव से ही बच्चे रंग-विशेषतौर से चटकीले पसन्द करते हैं। प्रारम्भिक अवस्था में वे रंग जानते हैं उनका प्रकार नहीं जानतें है किन्तु आयु वृद्धि के साथ वे लाल, नीली, पीली, हरी वस्तुओं में रंग के आधार पर अन्तर करने लगते हैं। स्वभाव से बालक चटक तथा गहरे रंग पसन्द करते हैं। उन्हें पीले, सफेद, मटमैले, भूरे, हल्के बैंगनी रंगों की अपेक्षा लाल, नीले तथा हरे रंग अधिक आकर्षित करते हैं अतः उनमें लाल, नीला तथा हरे रंग के हल्के, मध्यम तथा गहरेपन की भी पहचान करने लगते हैं। 5-6 वर्ष की आयु तक बच्चों में रंग के सम्बन्ध में पसन्द भी विकसित हो जाती है। अध्यापक को चाहिये कि वह रंगों के सम्बन्ध में प्रत्यय विकसित करने के लिए बालकों को विविध रंगों से रंगी वस्तुयें प्रदर्शित करें। इस सम्बन्ध में मान्तेसरी विधि उत्तम मानी जाती है।
(4) दिशा व दूरी का प्रत्यय – दिशा तथा दूरी से सम्बन्धित प्रत्यय का विकास बालकों में अपेक्षाकृत थोड़ी देर से होता है। बालक को प्रारम्भिक अवस्था में दिशा तथा दूरी का बोध करने में कठिनाई होती है क्योंकि दिशा तथा दूरी दोनों ही अमूर्त प्रत्यय है। मूर्त प्रत्ययों को बालक शीघ्र ही समझने लगता है किन्तु प्रत्यय जितने अधिक अमूर्त, सूक्ष्म तथा भाव-प्रधान होंगे बालक के लिए उन्हें समझना उतना ही कठिन होता है। प्रारम्भिक अवस्था में बालक कम दूरी (पास-पास आदि) के प्रत्यय को ग्रहण करता है क्योंकि वह अभी पास-पास या आस-पास की वस्तुओं में ही सम्बन्ध स्थापित कर पाता है। पाँच छः वर्ष की आयु प्राप्त होने पर बालक दिशा तथा दूरी से सम्बन्धित प्रत्यय का अच्छी तरह विकास कर लेता है। वह विभिन्न दिशाओं को जानने लगता है तथा दो वस्तुओं तथा स्थानों के मध्य की दूरी का तुलनात्मक अनुमान लगाने की क्षमता का विकास कर लेता है। दिशा तथा दूरी से सम्बन्धित प्रत्यय के विकास के लिए बालक को भूगोल, ज्यामिति तथा कला की शिक्षा देनी चाहिये ।
(5) भार सम्बन्धी प्रत्यय – हल्का या भारी क्या होता है, कोई वस्तु दूसरी वस्तु की अपेक्षा कितनी भारी है तथा क्यो भारी है, यह बात भी बालकों की समझ में थोड़ी देर से आती है। प्रारम्भिक अवस्था में बालक वस्तु के भार का सम्बन्ध आकार से जोड़ता है। बालक के अनुसार कोई वस्तु आकार में जितनी बड़ी होगी, वजन में वह उतनी ही भारी होगी। इसी कारण वह हवा भरी फुटबाल को पत्थर के टुकड़े से अधिक भारी समझता है। किन्तु विभिन्न वस्तुओं के साथ खेलने तथा उन्हें इधर से उधर लाने ले जाने में उसे उनके भारीपन या हल्केपन का आभास हो जाता है। इससे ही वह यह बोध कर पाता है कि हल्का क्या है तथा भारी क्या है। इसी अवस्था से वह वजन या भार सम्बन्धी प्रत्यय का विकास करने लगता है। अब वह आकार तथा भार में सम्बन्ध स्थापित करने के साथ-साथ उन तत्वों को भी समझने की सामान्य जानकारी करने लगता है जो आकार छोटा होने पर भी भार को बढ़ाती है। अब वह भार के सन्दर्भ में लोहे की वस्तु व लकड़ी की वस्तु में करने लगा । वह उन पदार्थों की जानकारी करने लगा है। जिनसे बनी वस्तुयें भारी तथा हल्की होती है। आठ-नौ वर्ष की उम्र तक आते-आते उसे भार सम्बन्धी अच्छी जानकारी हो जाती है। मानना यह है कि यदि बौद्धिक विकास सामान्य है तो बालक बारह वर्ष की आयु प्राप्त करने पर भार सम्बन्धी प्रत्यय के विकास को पूरा कर लेता है।
(6) समय सम्बन्धी प्रत्यय – आयु वृद्धि के साथ ही साथ बालक कालान्तर में समय से सम्बन्धित प्रत्यय का विकास कर लेता है। प्रारम्भ में वह एक बजे, तीन बजे, जल्दी, देर से, आदि का तात्पर्य नहीं समझ पाता है। किन्तु वह सुबह शाम, दिन तथा रात के प्रत्यय को जल्दी ग्रहण कर लेता है। शाम को खेलकर जल्दी लौटना’ समुचित समय पर करने लगता है। हेरीसन के अनुसार 4 वर्ष की आयु होने पर बालक सप्ताह का तात्पर्य समझने लगता है। वह यह समझने लगता है कि कल रविवार है स्कूल नहीं जाना है, प्रातः 7 बजे स्कूल जाना है, दोपहर दो बजे आना है। बालक जब 7-8 वर्ष का हो जाता है तो वह घड़ी देखकर समय बताने लगता है। घड़ी से समय देखने में प्रारम्भ में उसे कुछ कठिनाई होती है किन्तु 8-9 वर्ष की आयु तक वह घण्टे तथा मिनट के अनुसार बताने लगता है। इस अवस्था तक आते-आते वह भविष्य एवं भूतकाल का प्रत्यय भी विकसित कर लेता है। यदि बालक की कुशाग्र बुद्धि है तो समय के प्रत्यय विकास पर थोड़ा धनात्मक प्रभाव पड़ेगा।
(7) आत्म-प्रत्यय – बालक के व्यक्तित्व निर्माण के लिए आत्म प्रत्यय अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। प्रारम्भिक अवस्था में बालक अपने विषय में अधिक कुछ नहीं जानता है। वह यह भी नहीं जानता है कि यह शरीर मेरा है। उसे ‘आत्म’ या ‘स्व’ के सम्बन्ध में कोई जानकारी या समझ नहीं होती है। किन्तु जब वह 5-6 माह की आयु प्राप्त कर लेता है तो यह बोध उसे हो जाता है कि यह मेरा शरीर है, यह मेरी माँ है, यह मेरा बिस्तर है, यह मेरी दूध की बोतल है। एक दो माह बाद अर्थात् 7-8 माह की उम्र से वह अपने घर वालों तथा बाहर वालों में भेद करने लगता है। अब बाहर वालों की उपस्थिति में शरमाने लगता है। करीब 18 माह की आयु से वह वस्तुओं पर अपना अधिकार जमाना सीख लेता है। सामाजिक विकास के अभाव में वह इस अवस्था में आकर अपनी माँ की गोद में दूसरे बच्चे को नहीं बैठने देता, दूसरों के खिलौनों पर अपना अधिकार जमाता है। यह मेरी मम्मी है, यह मेरे पापा है, यह मेरी कुर्सी है, कमीज है, चारपाई है, आदि बोलने लगता । 4-4½ वर्ष की आयु में आकर वह आत्म प्रदर्शन की भावना विकसित कर लेता है। वह अपनी वस्तुओं का प्रदर्शन दूसरों के समक्ष करने लगता है। उसने कौनसी कविता याद कर ली है, उसे वह दूसरों को सुनाकर यह प्रदर्शन करता है। अपनी नई कमीज, जूते, खिलौने आदि का प्रदर्शन कर आत्म-प्रदर्शन की भावना का बोध कराता है। बाल्यावस्था में उसमें लिंग-भेद की भावना विकसित होती है तो वह समलिंगीय समूह बनाकर रहने लगता है। यहीं से उसमें यौन-चेतना का विकास होता है। 10-12 वर्ष की उम्र में वह अपने शरीर को सुन्दर व अच्छा दिखाने के लिए शृंगार का सहारा लेना प्रारम्भ कर देता है। वह इस अवस्था में आकर अपने यौनांगों के प्रति सजग हो जाता है तथा उन्हें लेकर उनमें पर्याप्त उत्सुकता भी दिखाई देने लगती है।
किशोरावस्था तक आते-आते वह आत्म-पहचान की भावना विकसित करने लगता है। वह चाहता है कि समाज उसके अस्तित्व तथा उसकी उपस्थिति को पहचाने। इसके लिए वह नाना प्रकार के उपाय करता है। पहले तो वह धनात्मक तथा रचनात्मक उपाय अपनाता है यदि समाज इन कार्यों में उसकी पहचान नहीं करता तो वह अवांछित तथा समाज विरोधी कार्य करके समाज में अपनी पहचान बनाने का प्रयास करता है।
किशोरावस्था में वह आत्म-सम्मान की भावना का विकास कर लेता है। वह अपने लिए एक विशिष्ट जीवन-शैली भी विकसित कर लेता है। वह सभी तत्वों को अपनी जीवन-शैली के सन्दर्भ में देखता है। वह अपने आत्म-सम्मान को ठेस लगाने वाली बातों को बर्दाश्त नहीं कर पाता है। इस अवस्था में आकर वह अपनी एक पहचान बनाने का प्रयास करता है। अब वह अपने भावी-जीवन, जीविकोपार्जन, जीवन-साथी, आदि के विषय में चिन्तन करने लगता है।
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