भक्तिकालीन साहित्य की उपलब्धियाँ
भक्तिकालीन साहित्य, गुणवत्ता और परिमाण दोनों दृष्टियों से अतीव महनीय बन पड़ा है। समस्त भारतीय वाङ्मय में यह एक अपनी कोटि का ही साहित्य है। इसकी आत्मा भक्ति है। इसका जीवन-स्रोत रस है और इस रस का लक्ष्य सर्वोच्च मानवतावाद की प्रतिष्ठा है। इसमें हृदय, मन व आत्मा को तृप्त करने की अपार शक्ति है। तत्कालीन जनजीवन के समस्त विषाद, नैराश्य तथा कुंठाओं का विगलन इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है। सदियों पूर्व इस साहित्य में चर्चित समन्वयवादिता, भावनात्मक एकता व सांस्कृतिक अभिन्नता अभिनन्दनीय तथा अनुकरणीय है। भक्ति काव्य का साहित्य निश्चय ही अनुपम व विलक्षण है। यह साहित्य अपने पूर्ववर्ती तथा परवर्ती कालों के साहित्य से निश्चित रूप से उत्तम है। अतएव विद्वानों ने इसे हिन्दी के स्वर्णयुग की संज्ञा से अभिहित किया है। आदिकाल तथा रीतिकाल के साहित्य इसकी समकक्षता में नहीं ठहर सकते, हाँ आधुनिक काल का साहित्य विषय व्यापकता एवं विधाओं की विविधता की दृष्टि से कुछ अंशों में भक्तिकाल के साहित्य से आगे निकल जाता है। किन्तु अनुभूतियों की गहनता और उसके निश्छल प्रकाशन तथा भावप्रवणता की दृष्टि से भक्तिकाल का साहित्य उससे कहीं अधिक प्रशस्य है। भक्तिकाल का साहित्य काव्यात्मक आदर्श, विषयवस्तु के उत्कर्ष, काव्य सौष्ठव रूप व शिल्प विधान के प्रकर्ष, भारतीय सभ्यता और संस्कृति के स्पष्ट प्रतिफलन तथा श्रेय व प्रेयसब दृष्टियों से सर्वोत्तम बन पड़ा है। निर्गुण धारा के सन्त व प्रेमाख्यानक काव्यों तथा सगुण धारा के राम और कृष्ण भक्ति के काव्यों ने इस काल के साहित्य को भारती के भाल का गौरव बना दिया है।
निर्गुण सन्त काव्य- निर्गुण भक्ति धारा के कवियों में कबीर आदि का प्रमुख स्थान है। दार्शनिक दृष्टि से इन सन्त कवियों ने एकेश्वरवाद की स्थापना द्वारा निराकार की भक्ति का संदेश दिया। इनके एकेश्वरवाद पर कोई विदेशी प्रभाव नहीं है। बल्कि वह भारतीय अद्वैत दर्शन का जनभाष्य है। सन्त काव्य ने अनेक संप्रदायों-सिद्धों, नाथों, सूफियों तथा अद्वैतवादी वैष्णवों के प्रभावों को आत्मसात कर निराकार की भक्ति का एक समन्वित रूप प्रस्तुत किया है। सन्त कवियों का उद्देश्य किसी धर्म व साधना की शास्त्रीय व्याख्या करना नहीं था बल्कि उसके मर्म को जनभाषा के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाना था। निर्गुण में विश्वास बहुदेववाद तथा अवतारवाद का विरोध आत्मा की ब्रह्म के साथ एकात्मकता, माया का विरोध तथा बाह्य आडम्बरों का बहिष्कार आदि इनकी दार्शनिक मान्यतायें हैं।
सामाजिक दृष्टि- इस दृष्टि से सन्त कवियों ने सामाजिक कुरीतियों, अन्धविश्वासों, मिथ्या आडंबर व पाखंडों का जितना डटकर विरोध किया उतना पूर्ववर्ती तथा परवर्ती कालों में शायद ही कोई दूसरा समाजसुधारक कर सका हो। सन्त कवियों का एक बहुत बड़ा भाग निम्नवर्ग से सम्बद्ध था किन्तु आचरण की शुचिता तथा सत्यनिष्ठा के कारण इनका प्रभाव समाज के उच्च व निम्न दोनों वर्गों पर समान रूप से पड़ा। जाति-पाँति का प्रबल विरोध, अर्थशून्य परम्पराओं, रूढ़ियों और आडंबरों का खंडन, मानवमात्र को समानता व एकता आदि इनकी सामाजिक मान्यतायें थीं । सुन्त साधना वैयक्तिक और आध्यात्मिक होते हुए भी समष्टिपरक है। इन्होंने निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों पक्षों पर समान बल दिया है। इन्होंने धार्मिक मतभेदों तथा बाह्य आडंबरों-तीर्थ स्थान, वेदपाठ, छुआछूत, रोजा, नमाज, मन्दिर, मस्जिद, हिन्दू, मुसलमान ब्रह्मण-शूद्र, शिया और सुन्नी आदि का डंके की चोट पर तर्क संगत विरोध कर एक प्रकार से वैचारिक क्रांति का सूत्रपात किया। यह बड़ा अजब है कि जिन सन्तों ने संकीर्ण संप्रदायवाद का घोर विरोध किया, परवर्ती काल में उन्हीं के नामों से विविध मत व पंथ खड़े कर दिये गये। पतितपावनी सन्त मन्दाकिनी स्वयं शैवाल से ग्रस्त हो गई। अस्तु “साई के सब जीव है” का उद्घोष करने वाली मानवतावादी सन्तवाणी को धर्मनिरपेक्ष सत्योन्मुख वाणी कहा जा सकता है।
काव्यमयता की दृष्टि से सन्त काव्य का अपना अलग महत्व है। अतः सन्त साहित्य को असाहित्यित्यिक कहना ठीक नहीं है। सन्त काव्य के प्रणेता सन्त पहले हैं कवि बाद में कविता करना उनका उद्देश्य नहीं था और न उन्होंने कविता करने की कहीं प्रतिज्ञा की थी। उन्होंने कवि कर्म का कहीं विधिवत् अध्ययन भी नहीं किया परन्तु उनकी काव्य गगरी में जीवन के अनुभूत सत्यों का जो अमित रस एकत्रित हुआ है वह काव्यात्मक दृष्टि से नितान्त सराहनीय है। अधिकाधिक लोकप्रियता उनकी निरलंकृत सहज वाणी की काव्यमयता का उज्जवल प्रमाण है। सन्त काव्य में वाटिका का श्रमसाध्य कृत्रिम सौन्दर्य नहीं उसमें वनराजि की प्रकृतश्री है।
सन्त काव्य में जीवन के सत्यों की अभिव्यक्ति विश्व मानवतावाद के धरातल पर हुई है। वह अभिव्यक्ति निर्भीक, स्पष्ट, अलंकार विहीन और सीधीसादी भाषा में है। उसमें स्वाधीन चिन्तन पग-पग पर प्रतिफलित हुआ है। अतः सन्त साहित्य साधना, लोक पक्ष तथा काव्य वैभव सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है।
प्रेमाख्यानक काव्य- भक्ति साहित्य में सन्त काव्यधारा के साथ-साथ प्रेमाख्यानक काव्यों की धारा प्रवाहित हुई। इस काव्यधारा को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है। एक वर्ग ऐसा था जिसने लौकिक प्रेम कहानियों के माध्यम से आध्यात्मिक प्रेम की अभिव्यंजना की। दूसरे वर्ग ने केवल लोक प्रेम कहानियों को निबद्ध किया। उनमें किसी प्रकार की कोई प्रतीकात्मकता नहीं है। इन दोनों वर्गों के लेखक क्रमशः सूफी तथा असूफी कवियों की कोटियों में आते हैं। सूफी कवियों को जो प्रतिष्ठा मिली वह असूफियों को नहीं। इसके अतिरिक्त दक्षिणी भारत में दक्खिनी हिन्दी में सूफी तथा असूफी दोनों प्रकार के काव्यों का प्रणयन हुआ है।
कबीर आदि सन्त हिन्दू मुस्लिम जनता में धार्मिक एकता और उसके समन्वय के लिए प्रयत्न कर चुके थे। किन्तु प्रेममार्गी सूफी कवियों ने दोनों जातियों के सांस्कृतिक समन्वय का स्तुत्य प्रयास किया और इस कार्य में उन्हें सन्तों की अपेक्षा कहीं अधिक सफलता मिली है। सन्तों के प्रेम में वैयक्तिकता है जबकि सूफियों के महीत प्रेम के परिवेश में वैयक्तिकता के साथ समष्टिगतता भी है। उन्होंने हिन्दू घरानों में बहुप्रचलित प्रेम कहानियों के माध्यम से हिन्दू-मुस्लिम जनता के हृदयों के अजनबीपन को दूर किया। प्रतीकात्मकता इनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता है। इनकी प्रेम कहानियों के नायक-नायिका आत्मा और परमात्मा के प्रतीक हैं। सूफियों के प्रेमाख्यानों में हिन्दू-मुस्लिम जनता की भावनात्मक एकता का यह प्रयत्न हिन्दी भक्ति साहित्य की एक विशिष्ट उपलब्धि है।
कुछ विद्वानों ने सूफियों के प्रेमकाव्यों का उद्देश्य प्रच्छन्न रूप से धर्म का प्रचार करना बताया है किन्तु वास्तविकता इससे भिन्न है। ये रचनायें स्वान्तः सुखाय लिखी गई। इनका उद्देश्य मनोरंजन के साथ कवि सुलभ यश की प्राप्ति है। मुसलमान होने के नाते सूफी कवियों ने संस्करणवश प्रसंगानुकूल इस्लाम धर्म की चर्चा अवश्य की है। जैनों के प्रेम काव्यों में भी ऐसा ही हुआ है किन्तु किसी साम्प्रदायिक आग्रह के कारण ऐसा नहीं किया गया है। यदि इन रचनाओं का उद्देश्य धर्म प्रचार होता तो वे इतनी लोकप्रिय और चिरंजीवी न बन सकतीं। सूफी काव्य सामाजिक, सांस्कृतिक तथा साहित्यतिक स्तरों पर बहुत मूल्यवान बन पड़ा है। भाव और भाषा के आधार पर यह काव्य सर्वसंवेद्य और सर्वसुलभ बन पड़ा है।
सगुण राम भक्ति काव्य- राम भक्ति काव्य का दृष्टिकोण अत्यंत व्यापक है। इसमें समन्वय की एक विराट भावना लक्षित होती है। इसमें सगुण निर्गुण, ज्ञान, भक्ति, शिव और राम आदि देवों में एकरूपता दिखाई गई है। राम काव्य ने मनुष्य मात्र की रूप, गुण, शील, शक्ति और सौन्दर्य के प्रति सहज लालसा की पूर्ति राम के आदर्शरूप को प्रस्तुत करके की है।
हिन्दी का राम भक्ति काव्य तुलसी में समाहित है। तुलसी ने अपने रामचरित मानस के द्वारा मध्ययुगीन हिन्दू जनता के मानस में व्याप्त निराशा, अवसाद, कुंठा व दीनता को दूर कर उसमें नवजीवन का संचार किया। राम के आदर्श परिवार के चित्रण से तुलसी ने वैयकतिक, पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन के क्षेत्रों में जिस मर्यादावाद की प्रतिष्ठा की वह नितान्त स्पृहणीय है। साधना के क्षेत्र में उनका समन्वयात्मक प्रयोग स्तुत्य है। तुलसी के काव्य में लोक संग्रह, सहज कवित्व और निश्छल भक्ति की त्रिवेणी है। काव्य के क्षेत्र में भी तुलसी का सर्वातिशयी रूप दर्शनीय है। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती युग और अपने युग में हिन्दी काव्य क्षेत्र में प्रचलित काव्य विधाओं और शैलियों-महाकाव्य, मुक्तक पद शैली, दोहा शैली, कवित्त व सवैया शैली आदि का सफल प्रयोग कर अपनी सार ग्राहिणी प्रतिभा व मेधा का सराहनीय परिचय दिया है। वस्तुतः तुलसी ने काव्य क्षेत्र में नवीन कीर्तिमान तथा प्रतिमानों की स्थापना की। यही कारण है कि इनका रामचरितमानस हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ काव्य है तथा वे हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं।
यद्यपि तुलसी के समय से कुछ पूर्व और उनके समय में भी रामभक्ति साहित्य में मधुर रस का प्रवेश हो चुका था किन्तु वह तुलसी के काल तक तुलसी के प्रबल मर्यादावादकत्व और अपनी सहज प्रकृतिगत गोपनीयता के कारण उभर न सका । तुलसी के बाद राम भक्ति क्षेत्र में राम भक्ति के अनेक रसिक संप्रदायों जानकी संप्रदाय, रहस्य संप्रदाय, जानकीवल्लभ संप्रदाय आदि की स्थापना हुई जिन्हें सामूहिक रूप से रसिक संप्रदाय कहा जाता है। इनमें राम के रसिक विलासी रूप की कल्पना कर ली गई और रामाश्रित अनेक काम-केलियों की उन्मुक्त विकृति होने लगी।
सगुण कृष्ण भक्ति काव्य- कृष्ण भक्ति काव्य ब्रज रस काव्य है। इसमें निवृत्ति और प्रवृत्ति मार्गों का कलात्मक समन्वयात्मक निदर्शन है। भारतीय धर्म संस्कृति साधना व कलायें कृष्ण के विलक्षण व्यक्तित्व से जिस रूप में प्रभावित हुई हैं उतनी वे किसी अन्य चरित से नहीं कृष्ण भक्ति काव्य का केन्द्र बिन्दु प्रेम है। इस प्रेम में कर्मकांड का विधिनिषेध नितान्त उपेक्षणीय व अतिक्रमणीय है कृष्ण के प्रति किया गया प्रेम रति है जो भक्तों के स्वभाव भेद पर निर्भर करता है कृष्ण भक्ति में दैन्य या दारिद्रय के लिए कोई विशेष स्थान नहीं है। इस काव्य में कृष्ण प्रेम वात्सल्य सख्य तथा माधुर्य रसों का रूप ग्रहण कर लेता है। इस काव्य में प्रेम का चरम उत्कर्ष प्रेमा या मधुरा भक्ति में देखने को मिलता है।
कृष्ण भक्ति काव्य में साहित्यिक, साम्प्रदायिक, धार्मिक, कलात्मक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टियों से अष्टछाप का महत्वपूर्ण स्थान है। अष्टछाप के कवियों सूरदास, नन्ददास तथा परमानन्द दास आदि ने अपनी अद्भुत प्रतिभा से अप्रतिम काव्य की सृष्टि की। इन कवियों ने मनुष्य की सवात्मिका वृत्ति के परिष्करण के लिए जो भाव संपदा अपने काव्य में जुटाई है वह अतीव सुन्दर व समृद्ध है। आचार्य शुक्ल ने सूर को सिद्धावस्था का कवि कह उसे तुलसी की तुलना में कम महत्व दिया। इसी प्रकार दूसरे आलोचकों ने अष्टछापी हिन्दी कवियों पर साम्प्रदायिकता का आरोप लगाया है। इस सम्बन्ध में यह याद रखना होगा कि तन्मयता और तल्लीनता कवित्व की सद्भावना से ऊँची वस्तु है। कविता का यह गुण सूरदास आदि कवियों में अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया है। निःसंदेह कृष्ण भक्ति काव्य अमणी काव्य है। फिर भी इसमें सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक दशायें यत्किचित् रूप में चित्रित हैं। कृष्ण भक्ति काव्य की एक बड़ी देन है कि उसने साम्प्रदायिक स्तर पर कृष्ण भक्ति का विविध रूपों में पल्लवन किया है। कृष्ण भक्ति के अनेक संप्रदायों के शताधिक कवियों ने राधा-कृष्ण की लीलाओं से सम्बन्धित जो अतुल भाव राशि दी है, साहित्य तो उससे मालामाल हुआ ही, साधक वर्ग को भी उससे अपरिमित सन्तोष मिला।
कृष्ण भक्ति काव्य मुख्यतः मुक्तक काव्य के रूप में लिखा गया। इस शाखा के कवियों ने कृष्ण के जीवन के मृदुल अंश को अपने काव्य का विषय बनाया, उसके लिए काव्य का मुक्तक रूप ही सर्वथा उपयुक्त था। अतः इसमें प्रबन्ध काव्य बहुत ही कम लिखे गये। इस काव्य में मख्य रूप से गीतिशैली का व्यवहार हुआ। उसमें गीति साहित्य के सभी तत्व उपलब्ध होते हैं। भावात्मक काव्य होने के कारण इसमें गीति पदों का प्रयोग हुआ है। उनमें नानाविध राग और रागनियों को संजो दिया गया है। कृष्ण भक्त कवियों द्वारा प्रयुक्त ब्रजभाषा से हिन्दी भाषा की मधुरता अर्धव्यंजकता कथा काव्योपयुक्त चित्रण शक्ति की अद्भुत वृद्धि हुई। उन्होंने भाव, भाषा, अलंकार, उक्तिवैचित्र्य, छंद योजना तथा संगीतात्मकता की अनूठी संपत्ति साहित्य को प्रदान की।
कृष्ण भक्ति काव्य में ब्रजभाषा गद्य का भी थोड़ा बहुत प्रयोग हुआ। इसके अतिरिक्त उक्त काव्य में रीतितत्व के निरूपण की परम्परा का प्रवर्तन हुआ जिसका आगे चलकर रीतिकाल में उल्लेखनीय उपबृंहण हुआ ।
कृष्ण भक्ति काव्य में संप्रदायेतर कवियों-मीरा, रहीम रसखान आदि ने अपने भावौदात्य तथा कला उत्कर्ष से उक्त साहित्य को अभिवांछित रूप में समृद्ध किया कृष्ण भक्ति काव्य में मधुर रस के संचार से उसके प्रेमात्मक चित्रणों में और अधिक अभिवृद्धि हुई। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि कृष्ण भक्ति साहित्य आनन्द और उल्लास का साहित्य है विशुद्ध कलात्मक दृष्टि से यह साहित्य एकदम अनुपम है।
भक्ति काव्य आत्मप्रेरणा का पुल है। निःसंदेह इसका सृजन स्वान्तः सुखाय हुआ किन्तु अन्ततः यह सर्वान्तः सुखाय सिद्ध हुआ। विषयवस्तु का औदात्य तथा कलागत लावण इसमें इतने घुलमिल गये हैं कि उन्हें पृथक् करना सहज व्यापार नहीं। इस काव्य के अनुभूति और अभिव्यक्ति पक्ष अतीव सन्तुलित, सशक्त तथा परस्पर पोषक हैं। कविता से तुलसी की शोभा नहीं बढ़ी बल्कि तुलसी के द्वारा कविता की महिमा संपन्न हुई। सूर के काव्य में भक्ति, गीति और कवित्व की त्रिवेणी है। कबीर, जायसी, मीरा, रसखान, हितहरिवंश, नन्ददास तथा नानक की कलाकृतियों पर हिन्दी जगत् विश्व साहित्य के सम्मुख गर्व कर सकता हैंद्य रूप-विधान तथा शिल्प-विधान की दृष्टि से भले ही आधुनिककाल का साहित्य इससे आगे निकल जाता है किन्तु अनुभूति गहनता की दृष्टि से भक्ति मानवता साहित्य अप्रतिम है। भक्ति काव्य, भावनात्मकता एवं सांस्कृतिक एकता का काव्य है। इसमें हृदय मन और आत्मा की भूख मिटाने की अपार शक्ति है। इसमें श्रेय और प्रेय का अद्भुत समन्वय हैं। भक्ति काव्य हिन्दी साहित्य का एक उज्जवल स्वर्ण युग है। औदात्य और माधुर्य तथा परिमाण और गुण सभी दृष्टियों से यह वैभव का युग है। उदात प्रतिभाओं का ऐसा समुज्जवल उदय तथा अमर विभूतियों का ऐसा समृद्ध उन्मेष हिन्दी के अन्य युगों में प्रायः अप्राप्य रहा। इस काल के प्रतिभाशाली कवियों ने काव्य जगत् में जो कीर्तिमान स्थापित किये वे हिन्दी साहित्य के पूर्ववर्ती और परवर्ती युगों में प्रायः दुर्लभ रहे।