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भारतीय समाज एवं संस्कृति की विशेषताएँ क्या हैं? स्पष्ट करें।
अथवा
भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
संस्कृति से क्या अभिप्राय हैं, भारतीय संस्कृति के लक्षणों की विवेचना कीजिए।
संस्कृति से अभिप्राय
भारतीय संस्कृति धर्म प्रधान एवं आध्यात्मिक होने के कारण दार्शनिक आवरण से अधिक आवृत हो गई हैं, इसीलिए भारतीय संस्कृति से तात्पर्य सत्यं शिवं सुन्दरम् के लिए मस्तिष्क और हृदय में आकर्षण उत्पन्न करना तथा अभिव्यंजना द्वारा उसकी प्रंशसा करने के लिया जाता है अतः यदि हम संस्कृति को जीवन के महत्वपूर्ण एवं सार्थक रूपों की आत्म चेतना करे तो अनुचित नहीं होगा। संक्षेप में संस्कृति की परिभाषा निम्न प्रकार से हैं-
(i) डा. रामधारी सिंह दिनकर के अनुसार “संस्कृति वह चीज मानी जाती हैं। जो सारे जीवन में व्याप्त हुए हैं तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का साथ हैं।”
(ii) डा. देवराज के अनुसार:- संस्कृति उस बोध या चेतना को कहते हैं जिसका सार्वभौम उपभोग या स्वीकार हो सकता हैं और जिसका विषय वस्तु सत्ता के वे पहलु हैं जो निर्वैयक्तिक रूप में अर्थमान हैं।
(iii) शिवदत्त ज्ञानी के अनुसार:- किसी समाज, जाति अथवा राष्ट्र के समस्त व्यक्तियों के उदात्त संस्कारों के पुंज का नाम समाज, जाति और राष्ट्र की संस्कृति हैं। किसी भी राष्ट्र के शारीरिक, मानसिक व आत्मिक शक्तियों का विकास संस्कृति का मुख्य उद्देश्य हैं।
(iv) मैथ्यू आर्नल्ड के अनुसार “किसी समाज व राष्ट्र की श्रेष्ठतम उपलब्धियाँ ही संस्कृति हैं।
(v) टी. एच. ग्रीन के अनुसार “संस्कृति. ज्ञान, व्यवहार, विश्वास की उन आदर्श पद्धतियों को तथा ज्ञान व व्यवहार से उत्पन्न साधनों की व्यवस्था को जो कि समय के साथ परिवर्तित होती हैं। वे पद्धतियाँ सामाजिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दी जाती हैं।
(vi) टायलर के अनुसार “संस्कृति वह जटिल पूर्णता हैं जिसमें ज्ञान, विश्वास, कलाएँ, नैतिक आचरण, कानून प्रथा तथा कोई भी अन्य क्षमताएं व आदतें आती हैं जिन्हे मनुष्य समाज का एक सदस्य होने के नाते अर्जित करता हैं।
भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषताएँ / लक्षण
भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषताओं का वर्णन इस रूप में किया जा सकता हैं।
(I) प्राचीनता:- भारतीय संस्कृति का इतिहास अति प्राचीन हैं और उसी प्राचीनता के आधार पर ही इस देश की सामाजिक संस्थाएं भी काफी पुरानी हैं। इसमें से कुछ संस्थाओं का विकास तो हजारों वर्ष पूर्व ही हो गया था, यही कारण हैं कि जब विश्व के अन्य देशों में बर्बरता का अन्धकार छाया हुआ था, उस समय यहाँ विभिन्न समस्याएं अपने विकास के उच्च स्तर पर थी।
(ii) स्थायित्व:- भारतीय संस्कृति में भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का समन्वय होने पर भी स्थायित्व का गुण विद्यमान हैं। यह विशेषता प्राचीनता के समान ही लगातार चलती हैं। भारत में अनेक विधर्मो, विदेशी शासकों का प्रभुत्व हजारों वर्षों तक बना रहा और इन लोगों ने कितने ही प्रकार से भारतीय संस्थाओं पर आक्रमण किये और उन्हें मिटाने के लिए किसी भी प्रयत्न को करने से न छोड़ा मगर इन समस्त आघातों प्रतिघातों के पश्चात् भी भारतीय संस्कृति एवं संस्थाएं आज भी अपनी अमर आधारशिला पर स्थित हैं।
(iii) सहिष्णुता:- भारतीय संस्कृति की विशेषताओं में से यह भी एक विशेषता हैं कि यह दूसरों के प्रति सहिष्णु हैं। सबके प्रति सहिष्णुता बरतना इन संस्थाओं की एक उल्लेखनीय विशेषता हैं। भारत ने सभी को आश्रय ही प्रदान किया हैं फिर भी स्वयं की विशिष्टता को भी बनाये रखा हैं।
(iv) अनुकूलनशीलता:- भारतीय संस्कृति एवं जीवन की भिन्न-भिन्न संस्थाएँ इस बात का प्रतीक हैं कि ये सभी परिवर्तनशीलता युग के साथ कदम मिलाकर चलने की शक्तियाँ उनमें विद्यमान हैं। भारतीय संस्थाएँ अपने को इन परिवर्तित परिस्थितियों के अनुकूल बनाकर तथा सामाजिक शक्तियों के विभिन्न प्रभावों को स्वीकार करके चिर नूतन ओर चिर सक्रिय बना रही हैं। उदाहरणार्थ जाति व्यवस्था, सम्मिलित कुटुम्ब प्रणाली, दहेज व्यवस्था जैसी प्रणालियाँ पुराने जमाने में थी और आज भी भिन्न-भिन्न तरह के विरोधाभासों के होने के पश्चात् भी विद्यमान हैं।
(v) समन्वयताः- भारतीय संस्कृति की विशेषताओं में से यह भी एक विशेषता हैं कि इसमें समन्वय शक्ति विद्यमान हैं तभी तो एक स्थान पर डा. डाडवेल ने लिखा है। “भारतीय सभ्यता में समुद्र के समान सोचने की शक्ति हैं, वास्तव में इन देश की संस्कृति की यह एक महान् शक्ति हैं। इस देश पर ग्रीक, हूण, शक, अफगान एवं भिन्न-भिन्न विदेशी व आक्रमणकारियों के आक्रमण हुए मगर फिर भी इस देश की संस्कृति को समाप्त नहीं कर सके। सब में अपने को और अपने में सबको देखने की प्रवृति तथा समन्वय की शक्ति में ही इसे जिन्दा रखने में योगदान दिया हैं।
डा. सुरेश मित्तल ने भी लिखा हैं कि “समन्वय का अर्थ हैं ऊपर से भिन्न दिखायी देने वाली विविध वस्तुओं का एकाकार। यह एकाकार असत्य वस्तुओं के मिश्रण से नितान्त भिन्न होता हैं। इसी समन्वय के सिद्धान्त के आधार पर भारतीय समाज विद्यायकों ने धर्म, काम और मोक्ष की धारणा को विकसित किया हैं दूसरे शब्दों में भौतिकता एवं आध्यात्मिकता का समन्वय अपूर्व ढंग से हुआ हैं जैसे आखिर परमात्मा ही सत्य हैं किन्तु जगत् में निस्सार नहीं।
(vi) धर्म प्रधानता:- भारतीय संस्कृति एवं भारतीय संस्थाओं की यह विशेषता रही हैं कि वे सदैव धर्म प्रधान रही हैं। सभी लोगो की जिन्दगी पर, आदर्शों एवं मूल्यों पर धर्म के आदर्शों के प्रभाव अधिकाधिक मात्रा में देखने को मिलते हैं, तभी तो डा. अग्रवाल के अनुसार ” धर्म और जीवन का मेल हिन्दू संस्कृति के आग्रह का विषय हैं, कर्म पर पूरी तरह से जोर दिया गया हैं किन्तु बिना कर्म के धर्म भी अपूर्ण ही माना जाता हैं।
(vii) साम्य और स्वतन्त्रता: कुछ विद्वानों का कथन हैं कि भारतीय सामाजिक संस्थाओं के निर्देश एकपक्षीय है, विशेषकर स्त्रियों पर अनेक निर्योग्यताओं को लादकर उनके समस्त विकास को रोक दिया गया हैं मगर वास्तव में भारतीय संस्कृति में स्वतन्त्रता का व्यापक अर्थ लिया गया हैं। डा. राधा कमल मुखर्जी के अनुसार “भारतीयों की मूलभूत धारणा यह हैं कि सहचरित्र व्यक्तियों के बिना समाज अच्छा नहीं हो सकता। उत्कृष्ट समाज रचना के लिए अच्छे-अच्छे राज्य निगम बनाने या व्यक्ति से अधिकारों की व्यवस्था करने की अपेक्षा उदात्त भावनाओं, स्वाभाविक स्नेह सूत्रो और नीति का प्रसार अधिक आवश्यक हैं। हार्दिक एवं निश्चल प्रेमभाव अकृत्रिम निस्वार्थ, सहकारिता और आन्तरिक दृढ़ता भारत में सामाजिक रचना की आधार शिला हैं।
(viii) आध्यात्मवादः – भारतीय संस्कृति की महानतम् विशेषताओं में से यह भी एक विशेषता हैं कि यहाँ पर ईश्वर संबंधी पवित्र विचारधाराओं को जीवन के मौलिकता के सिद्धान्तो की तुलना में अत्यधिक महत्व प्रदान किया गया हैं। ईश्वरोपासना ही जिन्दगी का महानतम् लक्ष्य माना गया हैं यही कारण है कि कोई भी हिन्दू चाहे कितना ही भौतिकवादी क्यों न बन जाये लेकिन आत्मबोध तो इन्ही संस्कारों को करने पर ही प्राप्त करना होता हैं। अपनी साधारण आत्मा से ऊपर भी सर्वोपरि ईश्वर की आत्मा को ही मानता हैं इस तरह की विशेषता से ही लोगों में सहिष्णुता की भावनाओं को उत्पन्न करने में पर्याप्त सिद्ध हुई हैं।
(ix) पुरूषार्थ:- हिन्दू संस्कृति के अनुसार पुरुषार्थ धर्म अर्थ, काम एवं मोक्ष के सिद्धान्तों को जीवन का आधार स्तम्भ माना गया हैं जिनकी पूर्ति हेतु मनुष्य सुबह से लेकर शाम तक कार्य करता हैं। धर्म और अर्थ के सिद्धान्तों को साथ-साथ निभाना ही जीवन का औचित्य माना गया हैं, ऐसा होने पर ही समाज की व्यवस्था सुचारू ढंग से चल पाती हैं। धन को जिन्दगी का लक्ष्य न मानते हुए साधन मात्र माना गया हैं तथा धर्म को ही लक्ष्य माना गया हैं। धार्मिक कर्त्तव्यों को पूरा करने हेतु ही आर्थिक क्रियाओं को करना आवश्यक माना गया हैं। काम का अभिप्राय यौन सम्बन्धों की पूर्ति तो हैं ही, लेकिन जीवन की आनन्द प्राप्ति भी हैं, इन्हीं क्रियाओं से प्राणी अपने ऊपर चढ़े हुए ऋणों से मुक्त हो पाता हैं। तीनों तरह के पुरुषार्थो की उपलब्धियाँ मिलने पर ही मोक्ष की प्राप्ति सम्भव हो पाती हैं तभी व्यक्ति अपनी साधारण आत्मा को कर्म की आत्मा में सम्मिलित कर पाता हैं। इस तरह के महत्वपूर्ण सिद्धान्तों ने न केवल हिन्दू समाज की व्यवस्था को सुचारू ढंग से चलाने में ही योगदान प्रदान किये वल्कि इसके साथ-साथ व्यक्ति को अनुशासनपूर्ण बनाने में सद्गुणों को विकसित करने में उसे उन्नतिशील बनाने में भी योगदान प्रदान किये हैं।
संस्कार:- संस्कार का मतलब शुद्धिकरण की प्रक्रिया से होता हैं। हिन्दू समाज की व्यवस्था को ढंग से चलाने हेतु संस्कारों को सदैव महत्व दिया गया हैं। वैसे तो संस्कार संख्या में 14 हैं लेकिन उनमें भी शारीरिक, मानसिक एवं नैतिक संस्कार मुख्य माने गये हैं। इसकी शिक्षा व्यक्ति को जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त तक तो मिलती रहती हैं जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में कर्त्तव्य बोध होता हैं।
वर्ण व्यवस्थाः- भारतीय समाज एवं संस्कृति की विशेषताओं में से यह भी एक महानतम विशेषता हैं। ऋग्वेद में कई स्थानों पर इस बात का उल्लेख किया गया हैं कि इस समय समाज का पूर्ण कार्य व्यवस्थित ढंग से चलता था। समाज में प्रत्येक व्यक्ति का स्थान तथा उससे सम्बन्धित कार्य उसकी प्रवृत्तियों अर्थात् गुणों पर आधारित था। वर्णाश्रम व्यवस्था सामाजिक संगठन के हिन्दू सिद्धान्त की आधारशिला के रूप में कार्य करती रही हैं। इससे व्यक्ति और समाज दोनों को समान रूप से महत्व मिलते रहे। वे इस तथ्य से पूर्णतया परिचित थे कि समाज का विकास व्यक्ति के लिए आवश्यक हैं। और इसकी समुचित सुविधाओं के न होने पर समाज में स्थापित्व के गुण को उत्पन्न ही नहीं किया जा सकेगा। वर्ण व्यवस्था के अनुसार समाज को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्रो में विभाजित किया गया था। परिणामस्वरूप सभी लोग वर्ण के नियमानुसार ही कार्यों को करने लगे, समाज की व्यवस्थाएँ सुचारू ढंग से चलती रही। फिर भी इस जमाने में जाति व्यवस्था की भांति वर्ण व्यवस्था कठोर न होकर लचीली मात्र थी। व्यक्ति में अच्छे एवं श्रेष्ठतम गुण एवं कार्य प्रणालियाँ होने पर भी निम्न जाति का होने पर भी उच्चतम प्रस्थिति प्राप्त करने का अवसर प्राप्त कर लिया करता था अतः इस व्यवस्था का हिन्दू समाज में अत्यधिक महत्व रहा हैं।
आश्रम व्यवस्थाः आश्रम व्यवस्था भी हिन्दू सामाजिक संगठन का एक मूल आधार रही हैं। वह भी एक प्रेरणा स्पद प्रक्रिया रही हैं तभी तो डा. पी. एन प्रभु ने अपनी पुस्तक Hindu social organisation में एक स्थान पर उल्लेख किया कि “हिन्दूओं के द्वारा सोची तथा नियोजित की गयी आश्रम व्यवस्था विश्व के सामाजिक विचारों के सम्पूर्ण इतिहास में एक अपूर्व देन हैं। हकीकत में जीवन व्यवस्था का इतना सुन्दर ढ़ंग अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। मानव के सम्पूर्ण जीवन तथा उससे सम्बन्धित कार्यों को आश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत ले लिया गया हैं।
एक हिन्दू को ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम एवं सन्यांसाश्रम व्यवस्था को स्वीकारना पड़ता था जो व्यक्ति की 100 वर्ष तक की जिन्दगी के लिए पर्याप्त सिद्ध होते थे। ब्रह्मचर्य आश्रम व्यवस्था में व्यक्ति विद्यार्थी के रूप में जीवन व्यतीत किया करता था। विद्यार्थी अपने गुरू के पास ही रह करके ज्ञान की भिन्न-भिन्न शाखाओं को गहनतम अध्ययन का विषय बनाता था। यह प्रणाली 25 वर्ष तक रहती थी। 25 से 50 तक की अवस्था में गृहस्थाश्रम को स्वीकारना उचित माना जाता था। इसमें व्यक्ति को वैवाहिक एवं परिवार से सम्बन्धित कर्त्तव्यों का निर्वाह करने के लक्ष्य को मानना होता था। इस स्तर पर एक व्यक्ति के हवन करने, दान करने तथा अध्ययन करने की आशा की जाती थी। यहाँ वह धर्म, अर्थ एवं काम की पूर्ति करता था। 50 से 75 वर्ष की आयु में व्यक्ति को वानप्रस्थ आश्रम को स्वीकारना होता था। इसमें व्यक्ति को घर का त्याग कर जंगल में तपस्यामय जीवन व्यतीत करने के लिए कहा जाता था ताकि सांसारिक अभिलाषाओं से मुक्ति की प्राप्ति हो सके। इस स्तर में व्यक्ति की ईश्वर की प्राप्ति हेतु अधिकाधिक मात्रा में तपस्या करना आवश्यक माना गया था। 75 से 100 वर्ष तक की आयु में व्यक्ति को सांसारिक सम्बन्धों का त्याग देना होता था तथा उसे मोक्ष प्राप्ति हेतु प्रयास करने पड़ने थे। इस आश्रम व्यवस्था को सन्यास आश्रम के नाम से सम्बोधित करते हैं। इस तरह की व्यवस्था ने सदैव मानवीय गुणों के विकास में योगदान दिये हैं। भिन्न-भिन्न आश्रम व्यवस्थाओं से व्यक्ति में स्वाभाविक रूप से प्रेम, त्याग, निष्ठा, सरलता, कर्त्तव्य परायणता, बन्धुत्व तथा आध्यात्मिकता के गुण उत्पन्न हुए बिना नहीं रहते थे इस व्यवस्था से समष्टिवादी दृष्टिकोणों का भी विकास सम्भव हो सका। इस प्रकार इस व्यवस्था ने व्यक्ति और समाज की पारस्परिक निर्भरता पर जोर दिया जो कि संसार को चलाने हेतु आवश्यक हैं।
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