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भूमिका निर्वहन कार्यनीति | Role-Playing Strategy in Hindi

भूमिका निर्वहन कार्यनीति | Role-Playing Strategy in Hindi
भूमिका निर्वहन कार्यनीति | Role-Playing Strategy in Hindi

इतिहास शिक्षण की भूमिका निर्वहन कार्यनीति का वर्णन कीजिए।

भूमिका निर्वहन कार्यनीति (Role-Playing Strategy)

यह पद्धति या कार्यनीति अभिनय पर आधारित शिक्षण है। इसका प्रयोग विशेष रूप से प्रशिक्षण संस्थाओं में किया जाता है। इसके माध्यम से सामाजिक कौशल का विकास किया जाता है। अब पाठ-प्रदर्शन (Lesson Demonstration) की अपेक्षा अनुकरणीय शिक्षण को अधि क महत्त्व दिया जाने लगा है क्योंकि यह पाठ प्रदर्शन की अपेक्षा अधिक प्रभावपूर्ण है।

स्वरूप- छात्राध्यापक को इसके अभ्यास में शिक्षक तथा छात्र दोनों की ही भूमिका का निर्वाह करना पड़ता है। छात्राध्यापक को एक छोटे प्रकरण को अपने साथियों को ही पढ़ाना पड़ता है। उसके अन्य साथी छात्रों की भूमिका का निर्वाह करते हैं। शिक्षा के कार्यों की समीक्षा की जाती है तथा सुधार हेतु सुझाव भी प्रस्तुत किये जाते हैं। एक छात्राध्यापक के शिक्षण के पश्चात् अन्य छात्राध्यापक शिक्षण करते हैं।

सिद्धान्त – यह व्यूह रचना निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित है-

  1. छात्राध्यापकों वास्तविक कक्षा शिक्षण से पूर्व अभ्यास का अवसर दिया जाता है।
  2. छात्राध्यापक स्वयं कार्य करने से अधिक सीखता है।
  3. मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त के उपयोग से सामाजिक कौशल का विकास किया जाता है।
  4. पृष्ठपोषण प्रविधि का प्रयोग किया जाता है।

सोपान- इसमें निम्नलिखित छः सोपानों का अनुसरण किया जाता है-

प्रथम सोपान- सर्वप्रथम, कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार की जाती है।

द्वितीय सोपान- छात्राध्यापक को शिक्षक, छात्र तथा निरीक्षक की भूमिका का कब-कब निर्वाह करना होगा, इसकी रूपरेखा तैयार की जाती है।

तृतीय सोपान- छात्राध्यापक अपने प्रकरण का चयन करता है, फिर वह उसके अनुरूप शिक्षण-कौशल का विशिष्ट रूप निश्चित करता है।

चतुर्थ सोपान- शिक्षक-व्यवहार की निरीक्षण विधि का भी चयन किया जाता है। पंचम सोपान- शिक्षण का अभ्यास किया जाता है। साथ ही, उसके निरीक्षण का आलेख तैयार किया जाता है।

षष्ठम सोपान- शिक्षण के अन्त में उसकी आलोचना की जाती है तथा सुधार के लिए सुझाव दिये जाते हैं जिससे उसे पुनर्बलन मिलता है।

गुण- इस व्यूह रचना के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

  1. इससे सामाजिक कौशल का विकास होता है।
  2. शिक्षक व्यवहार के स्वरूप का विकास अपेक्षित ढंग से किया जा सकता है।
  3. इसमें छात्राध्यापक के जीवन से सम्बन्धित कौशल का विकास अनुभव द्वारा किया जाता है।
  4. अपेक्षित उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है।
  5. छात्राध्यापक अपनी क्रियाओं का विश्लेषण, संश्लेषण एवं मूल्यांकन भली प्रकार समझ सकता है।

दोष- इस व्यूह रचना के दोष निम्नांकित हैं-

  1. इसको सामान्य शिक्षक-व्यवहार के विकास के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है किन्तु विशिष्ट शिक्षण-कौशल का विकास इसके द्वारा नहीं किया जा सकता।
  2. इसमें वातावरण बनावटी होता है, छात्राध्यापक इसे वास्तविक रूप देने में असफल रहते हैं।

सुझाव-

  1. इसका प्रयोग करने से पूर्व इसके बारे में समझना चाहिए।
  2. छात्राध्यापक के भूमिका निर्वाह के समय शिक्षक की उपस्थिति भी होनी चाहिए।
  3. वास्तविक कक्षा-शिक्षण से पूर्व इसका अभ्यास करना चाहिए।
  4. शिक्षण के अन्त में रचनात्मक समीक्षा की जानी चाहिए तथा शिक्षक को पुनर्बलन देने का प्रयास करना चाहिए।

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Anjali Yadav

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