लड़कियों की शिक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डालें।
स्त्री शिक्षा का स्वरूप समाज में स्त्री के स्थान से जुड़ा हुआ मुद्दा है। आज प्रायः हर देश में स्त्री-शिक्षा के प्रति विशेष चेष्टा एवं चेतना विकसित हुई है क्योंकि पूरे विश्व स्तर पर यह स्वीकारा गया कि मनुष्य के इतिहास में स्त्री-जाति के साथ जो अत्याचार और अनाचार हुआ है, उससे पूरी मानव जाति के अहित हुए हैं। इसी स्थिति को देखते हुए स्त्री के लिए अबला शब्द का प्रयोग हुआ । कुछ तो देश ऐसे थे जैसे चीन में हजार वर्ष तक यह माना जाता रहा है कि स्त्रियों के भीतर कोई आत्मा नहीं होती। भारत में भी स्त्री को पुरुषों के समान जीने का कोई अवसर नहीं मिला लेकिन वर्त्तमान समय में स्त्री पर काफी ध्यान दिया जा रहा है। आचार्य रजनीश की दृष्टि में मनुष्य की पूरी जाति, मनुष्य का पूरा जीवन, मनुष्य की पूरी सभ्यता और संस्कृति अधूरी है क्योंकि स्त्री ने उस संस्कृति के निर्माण में कोई भी दान, कोई भी सहयोग नहीं किया। अतः स्त्री-शिक्षा पर बल देना एक राष्ट्रीय जिम्मेदारी बन गई है।
स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के निम्नलिखित सुझाव हैं:
(i) योग्य स्त्रियों तथा पुरुषों द्वारा मार्गदर्शन कराया जाये जिससे स्त्रियाँ शिक्षा में रुचि लें ।
(ii) समाज में स्त्रियों को उचित स्थान दिलाने के लिए पाठ्यक्रम का नवीनीकरण किया जाये।
(iii) गृह विज्ञान की शिक्षा दी जाये ।
(iv) लड़कों के कॉलेजों में लड़कियों को सुविधा प्रदान की जाये।
(v) सुविधाओं का प्रचार-प्रसार किया जाये।
(vi) समान कार्य के लिए अध्यापिकाओं को पुरुषों के समान वेतन दिया जाये ।
स्त्री-शिक्षा के सम्बन्ध में माध्यमिक शिक्षा आयोग के सुझाव निम्नलिखित हैं:
(i) 11 से 17 वर्ष की बालिकाओं को माध्यमिक शिक्षा दी जानी चाहिए।
(ii) पूर्व निम्न माध्यमिक स्तर पर तीन भाषाएँ पढ़ानी चाहिए।
(iii) माध्यमिक स्तर पर गृह विज्ञान शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए।
राष्ट्रीय समिति (1958) के स्त्री-शिक्षा से सम्बन्धित निम्नलिखित सुझाव हैं-
(i) स्त्री-शिक्षा को राष्ट्रीय समस्या मानकर प्राथमिकता प्रदान की जाये ।
(ii) स्त्री शिक्षा हेतु प्रचार कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
(iii) स्त्री शिक्षा के विकास के लिए शिक्षा सेमिनारों का आयोजन किया जाये ।
(iv) बालक-बालिकाओं की शिक्षा में समानता लायी जाये ।
(v) विवाहित स्त्रियों के लिए अंशकालिक शिक्षा की व्यवस्था की जाये।
(vi) छात्रावास पुस्तकालय और प्रयोगशाला की सुविधा प्रदान की जाये।
(vii) स्त्री शिक्षा के लिए तकनीकी संस्थाएँ स्थापित की जाये।
इस प्रकार हम देखते हैं कि विभिन्न आयोगों एवं शिक्षा समितियों ने स्त्री-शिक्षा के महत्त्व को स्वीकार करते हुए विभिन्न तरह की संस्तुतियाँ की जिससे स्त्री-शिक्षा को दुरुस्त किया जा सके और लिंग-भेद की समस्याओं का समाधान किया जा सके। स्त्री-शिक्षा के माध्यम से स्त्रियोचित गुणों का विकास किया जाना चाहिए तथा स्त्री को योग्य माता एवं कुशल गृहिणी बनाना है। स्त्री शिक्षा के माध्यम से उनके चरित्र निर्माण का विकास तथा नेतृत्व के गुणों का विकास करना है। उन्हें संस्कृति का पोषक एवं रक्षक बनाना है तथा उनमें लोकतंत्र के प्रति निष्ठा की भावना का विकास करना है।
स्त्री शिक्षा को प्रभावी बनकर महिलाओं को समानता का अधिकार दिलाया जा सकता है तथा महिलाओं को सशक्त बनाया जा सकता है। उन्हें आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बनाया जा सकता है जिसके लिए स्त्री शिक्षा को रोजगारपरक शिक्षा से जोड़ना आवश्यक है। आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बनाकर महिलाओं का राष्ट्रीय प्रगति में योगदान सुनिश्चित किया जा सकता है तथा महिलाओं के लिए घर तथा बाहर सुरक्षात्मक वातावरण तैयार किया जा सकता है । इसके माध्यम से महिलाओं के स्वास्थ्य तथा गरिमामयी जीवन को सुनिश्चित की जा सकती है। इसके लिए व्यावहारिक तौर पर पुरुष प्रधानता और श्रेष्ठता के जाल को तोड़ना जरूरी है यह तभी संभव है जब महिलाओं को आत्माभिव्यक्ति और आत्म प्रकाशन के अवसर प्रदान किये जायें। प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की शक्ति का सदुपयोग किया जाये। सामाजिक कुरीतियों तथा अंध-विश्वासों की समाप्ति की जाये ।
सुयोग्य भावी संतानों की तैयारी हेतु स्त्री शिक्षा एक अनिवार्य एवं महत्त्वपूर्ण शर्त है बिना स्त्री-शिक्षा के हम सुयोग्य भावी संतानों की कल्पना नहीं कर सकते। इसके लिए जरूरी है कि महिलाओं में जागरूकता तथा शिक्षा का प्रसार किया जाये। महिलाओं की समाज में सहभागिता में वृद्धि की जाये। महिला सशक्तीकरण हेतु महिलाओं की व्यक्तिगत रुचियों तथा क्षमता के अनुरूप शिक्षा प्रदान की जाये। अपव्यय तथा अवरोधन और निर्विद्यालयीकरण की रोकथाम की जाये ।
अतः महिलाओं को स्वस्थ, शिक्षित एवं सशक्त बनाने के लिए कल्याणकारी योजनाओं का क्रियान्वयन किया जा रहा है। किरण बेदी के शब्दों में, “एक स्वस्थ तथा शिक्षित महिला राष्ट्र के लिए सम्पदा होती है ।
वह समाज की समृद्धि में उसी प्रकार योगदान करती है जैसे एक निरक्षर, निर्धन तथा अस्वस्थ महिला कमजोर कुपोषित बच्चों को जन्म देकर समाज का बोझ बढ़ाती हैं अतः महिलाओं से सम्बन्धित मुद्दे केवल महिलाओं को ही नहीं हैं, उनका सम्बन्ध समूचे समाज और राष्ट्र से है।” हंसा मेहता समिति (1962) का इस विषय में विचार है कि “यदि नये समाज का निर्माण ठोस आधार पर करना है तो स्त्रियों को वास्तविक एवं प्रभावपूर्ण ढंग से पुरुषों के समान अवसर देने होंगे।”
इसी कारण से भारतीय तथा पाश्चात्य शिक्षाविदों ने पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की शिक्षा को प्रमुखता दी क्योंकि महिला शिक्षित होकर पूरे समाज को शिक्षित करने का कार्य करती हैं। इस विषय में विश्वविद्यालय आयोग के विचार इस प्रकार हैं :
“स्त्री शिक्षा के बिना लोग शिक्षित नहीं हो सकते । यदि शिक्षा को पुरुषों अथवा स्त्रियों के लिए सीमित करने का प्रश्न हो तो यह अवसर स्त्रियों को दिया जाये क्योंकि उनके द्वारा ही भावी संतान को शिक्षा दी जा सकती है।”
अतः आवश्यक है कि स्त्री शिक्षा जन-साधारण के लिए सुलभ एवं आवश्यक बनाया जाये । उन्हें घर की चहारदीवारी में कैद कर न रखा जाये अपितु उनके साथ अनगिनत संभावनाएँ हैं जिनके माध्यम से हम अपने भावी पीढ़ी को और भी अधिक उत्पादक एवं सशक्त बना सकते हैं।
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