लिंग की समानता की शिक्षा में संस्कृति की भूमिका का वर्णन करें ।
लिंग की समानता की शिक्षा में संस्कृति की भूमिका – संस्कृति तथा प्रचलित संस्कृति दोनों ही संस्कृति की द्योतक हैं, परन्तु एक प्राचीन और अर्वाचीन दोनों ही संस्कृतियों का बोध कराती है और दूसरी संस्कृति के प्रचलित स्वरूप का। अन्य शब्दों में कहें तो एक संस्कृति के सैद्धान्तिक स्वरूप का प्रस्तुतीकरण करती है तो दूसरी उसकी व्यावहारिकता का प्रचलित संस्कृति में अन्य संस्कृतियों के तत्त्व इस प्रकार घुल-मिल जाते हैं और उनका व्यवहार में इस प्रकार प्रयोग होता है कि यह समझ पाना मुश्किल होता है कि क्या मूल संस्कृति है और क्या इसमें बाह्य रूप से लिया गया। चुनौतीपूर्ण लिंग अर्थात् स्त्रियों की शिक्षा में संस्कृति की भूमिका का आकलन निम्नवत् है-
1. स्वस्थ सांस्कृतिक मूल्य – चुनौतीपूर्ण लिंग की शिक्षा हेतु संस्कृति तथा प्रचलित संस्कृति लोगों में स्वस्थ सांस्कृतिक मूल्यों का विकास करती है। भूमण्डलीकरण (Globalisation) के परिणामस्वरूप अन्य संस्कृतियों से आदान-प्रदान हो रहा है जिस कारण संस्कृति में कुछ अवांछित तत्त्व या भारतीय संस्कृति की आत्मा का हनन करने वाले तत्त्व सम्मिलित हो जाते हैं। भारतीय संस्कृति के प्रमुख तत्त्व प्रेम, सहयोग, दया, परोपकार, करुणा, अतिथि देवो भवः, अनेकता में एकता, शरणागत की रक्षा, स्त्रियों का सम्मान, सादा जीवन उच्च विचार, अर्थ की अपेक्षा धर्म पर बल तथा कर्म की संस्कृति है । हमारे इन सांस्कृतिक मूल्यों में हास के कारण वर्तमान में स्त्रियों को भोग की सामग्री माना जाने लगा है जिससे प्रत्येक क्षेत्र में उनकी स्थिति दयनीय हो गयी है। अतः हमें चुनौतीपूर्ण लिंग की शिक्षा में प्रभाविता हेतु स्वस्थ सांस्कृतिक मूल्यों का विकास करना होगा ।
2. व्यापकता तथा उदारता — संस्कृति में व्यापकता तथा उदारता होनी चाहिए । संस्कृतियाँ प्रचलन में आने के कारण परस्पर सम्पर्क स्थापित करती हैं जिससे सांस्कृतिक अन्तःक्रिया होती है। इस अन्तःक्रिया के परिणाम सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों ही होते हैं। गतिशील संस्कृतियाँ अन्य संस्कृतियों से उदारता का व्यवहार कर उनकी अच्छाइयों को आत्मसात् करती हैं। व्यापकता तथा उदारता के कारण चुनौतीपूर्ण लिंग की शिक्षा में संस्कृति और प्रचलित संस्कृति महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है ।
3. गतिशीलता – गतिशीलता के गुण का संस्कृति और प्रचलित संस्कृति में होना आवश्यक है, क्योंकि संस्कृति यदि जड़ हुई, गतिशील नहीं हुई तो उसमें व्याप्त बुराइयाँ और दोष कभी भी दूर नहीं किये जा सकेंगे। वहीं गत्यात्मकता के गुण द्वारा संस्कृति चुनौतीपूर्ण लिंग की शिक्षा और समानता के लिए नवीन मूल्यों और आदर्शों को अपनाने से भी नहीं हिचकेगी।
4. सहिष्णुता – वर्तमान युग भले ही सूचना और तकनीकी के कारण भूमण्डलीकरण का हो, परन्तु सांस्कृतिक मोर्चे पर आज भी हम असहिष्णु हैं। अपनी संस्कृति के गौरव की रक्षा बहुत अच्छी बात है, परन्तु उसमें निहित दोषों को भी अपना लेना कहाँ की समझदारी है, अतः अन्य संस्कृतियों के प्रति संस्कृति और प्रचलित संस्कृतियों को सहिष्णु होना चाहिए जिससे चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता हेतु शिक्षा की दिशा में सकारात्मक कार्य किये जा सकें ।
5. चरित्र-निर्माण तथा नैतिकता — संस्कृति में चरित्र-निर्माण और नैतिक मूल्यों को वर्तमान के अर्थ की अपेक्षा कम महत्त्व दिया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप प्रचलित संस्कृति अर्थ की संस्कृति हो गयी है। सांस्कृतिक मूल्यों के मूल में चरित्र तथा नैतिकता को उच्च स्थान प्रदान किया गया है। अतः संस्कृति अपने इन गुणों के द्वारा समाज में नैतिकता और चारित्रिक उन्नयन का कार्य करती है जिसमें चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता की शिक्षा का मार्ग प्रशस्त होता है।
6. स्वाभाविक शक्तियों का विकास- संस्कृति तथा प्रचलित संस्कृति समय-समय पर विभिन्न सांस्कृतिक क्रिया-कलाप का आयोजन करते हैं जिसके द्वारा व्यक्ति की स्वाभाविक शक्तियों का विकास होता है। इस कार्य के द्वारा संस्कृति स्त्री-पुरुषों को एक-दूसरे की क्षमताओं तथा योग्यताओं से परिचय प्राप्त करने के अवसर प्रदान करते हैं, जिससे चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता की शिक्षा में वृद्धि होती है ।
7. सामाजिक नियन्त्रण – संस्कृति सामाजिक नियंत्रण का कार्य सम्पन्न करती है। संस्कृति यदि प्रगतिशील है तो उसमें स्त्री-पुरुष दोनों के लिए नियंत्रण व्यवस्था एक जैसी होगी तथा दोनों को ही आजादी होगी। ऐसी परिस्थितियों में चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता और शिक्षा सुनिश्चित की जा सकती है। कुछ संस्कृतियाँ ऐसी हैं जहाँ बालिकाओं का अशिक्षित होना, दहेज लेना इत्यादि को अच्छा नहीं समझा जाता है जिसके कारण इनकी समानता हेतु शिक्षा का विकास हो रहा हैं ।
8. वयस्क जीवन की तैयारी- बालक अबोध होता है। वह जैसा अपने बड़ों को देखता है उसी प्रकार से अनुकरण करता है और बड़े लोगों के व्यवहारों तथा दैनिक क्रिया-कलापों पर सांस्कृतिक प्रभाव स्पष्ट रूप से होता है। संस्कृति के प्रभावस्वरूप बालक तथा बालिकाओं को वयस्क जीवन हेतु जहाँ तैयार किया जाता है वहाँ असमानता कम होती है और शिक्षा का विस्तार होता है। इसके विपरीत जहाँ पर वयस्क जीवन की तैयारी में लिंगीय भेद-भाव किये जाते हैं उन संस्कृतियों के मानने वाले पीछे रह जाते हैं और चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता हेतु शिक्षा की प्रभाविता कम हो जाती है।
9. समानता एवं सामूहिकता की भावना – जैसा कि पूर्व में भी कहा जा चुका है कि विभिन्न संस्कृतियों में समय-समय पर आयोजन होते हैं जिससे उन संस्कृतियों के लोग आपस में मिलते हैं, विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। सांस्कृतिक क्रिया-कलापों के द्वारा समानता और सामूहिकता की भावना का विकास होता है जिससे लिंगीय भेद-भावों की समाप्ति के प्रति जागरूकता आती है और उनकी समानता हेतु शिक्षा में उन्नति होती है ।
10. समाज सुधारों को प्रोत्साहन— प्रचलित संस्कृतियों में कुछ बुराइयों, अन्ध-विश्वासों और रूढ़ियों का समावेश नीर-क्षीर (पानी एवं दूध) की भाँति हो जाता है जिसे विवेकपूर्णता के साथ दूर किया जाना चाहिए। समय-समय पर मूल सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा हेतु समाज सुधार आन्दोलनों को चलाया गया। समाज सुधारों को यदि संस्कृति प्रोत्साहित करे तो वह न केवल अपने मूल स्वरूप और अस्मिता को प्राप्त करेगी, अपितु चुनौतीपूर्ण लिंग को समानता तथा शिक्षा की सुनिश्चितता भी प्रदान कर सकेगी।
11. अर्न्तसांस्कृतिक अवबोध का विस्तार— प्रत्येक संस्कृति में कुछ अच्छाइयाँ और बुराइयाँ होती हैं। कुछ संस्कृतियों ने अपनी बुराइयों से संघर्ष कर अपने आदर्श और मूल रूप को प्राप्त किया। इस प्रकार की बातों के ज्ञान हेतु यह आवश्यक है कि संस्कृतियों के मध्य आपसी समझ का विकास किया जाये जिससे वे सांस्कृतिक आदान-प्रदान के साथ-साथ सांस्कृतिक विडम्बना, संस्कृति में निहित बुराइयों पर एक राय बना सकें। सांस्कृतिक अवबोध के द्वारा स्त्रियों की शिक्षा के प्रसार हेतु आम सहमति बन सकेगी और इस दिशा में गति आयेगी ।
12. नेतृत्व की क्षमता का विकास- संस्कृति अपने सदस्यों की क्षमताओं के प्रकाशन हेतु समय-समय पर अवसर प्रदान करती है। नेतृत्व क्षमता की कुशलता का विकास संस्कृतियाँ निष्पक्ष और भेद-भाव रहित होकर यदि करें तो स्त्रियों के भीतर निहित नेतृत्व शक्ति से लोगों को परिचय प्राप्त होगा, जिससे उनके प्रति समान व्यवहार तथा उनकी प्रतिभाओं के समुचित उपयोग हेतु शिक्षा प्रदान करने की दृढ़ संकल्पना में तीव्रता आयेगी ।
13. कर्त्तव्य-बोध- संस्कृति और प्रचलित संस्कृतियाँ अपने नागरिकों को कर्त्तव्य-बोध कराती हैं। कर्तव्य-बोध की भावना के द्वारा नागरिकों में अपने कर्तव्यों के प्रति तथा छात्रों के प्रति आदर का भाव विकसित होता है । कर्तव्यपरायण व्यक्ति शिक्षा तथा समानता का पालन करना भी अपना कर्तव्य मानते हैं जिससे चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता हेतु शिक्षा का प्रसार हो सके।
14. अन्योन्याश्रितता – संस्कृतियों को परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्धों की स्थापना करनी चाहिए। अन्योन्याश्रितता के बिना वर्तमान में कोई भी संस्कृति तथा व्यक्ति उन्नति नहीं कर सकता है। ऐसे में संस्कृति और उन संस्कृतियों के व्यक्तियों के मध्य आपसी सम्बन्ध मधुर होने चाहिए। अन्योन्याश्रितता के भाव के कारण लिंगीय भेद-भावों में कमी आयेगी जिससे चुनौतीपूर्ण समानता की शिक्षा में वृद्धि होगी ।
15. राष्ट्रीय एकता का भाव- संस्कृति कभी भी राष्ट्रीय एकता में बाधक नहीं होनी चाहिए, अपितु संस्कृति के तत्त्वों को राष्ट्रीय एकता की वृद्धि करने में सहयोग प्रदान करना चाहिए। कभी-कभी सांस्कृतिक तत्त्वों और राष्ट्रीय एकता तथा अखण्डता में विप्रतिषेध की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। अतः संस्कृति को इन तत्त्वों का परित्याग करना चाहिए। लिंगीय भेद-भाव जब तक होंगे तब तक राष्ट्रीय एकता, अखण्डता और सुदृढ़ीकरण का कार्य पूर्ण नहीं हो पायेगा अतः संस्कृति को चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता की शिक्षा की व्यवस्था पर राष्ट्रीय एकता में वृद्धि का कार्य करना चाहिए ।
16. संस्कृति के मूल तत्त्वों से परिचय – अपनी जीवनधारा में संस्कृति कभी-कभी मूल तत्त्वों को छोड़कर अत्यधिक कृत्रिम और अस्वाभाविक हो जाती है। अतः ऐसे में संस्कृति के मूल तत्त्वों से व्यक्तियों का परिचय कराया जाना चाहिए, क्योंकि सभी संस्कृतियाँ समानता की पक्षधर हैं जिससे चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता हेतु शिक्षा में गति आयेगी ।
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