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लैंगिक समानता की सुदृढ़ता हेतु राज्य तथा कानून की भूमिका | Role of state and law for parity of gender equality in Hindi

लैंगिक समानता की सुदृढ़ता हेतु राज्य तथा कानून की भूमिका | Role of state and law for parity of gender equality in Hindi
लैंगिक समानता की सुदृढ़ता हेतु राज्य तथा कानून की भूमिका | Role of state and law for parity of gender equality in Hindi

लैंगिक समानता की सुदृढ़ता हेतु राज्य तथा कानून की भूमिका का वर्णन करें । 

लैंगिक समानता की सुदृढ़ता हेतु राज्य तथा कानून की भूमिका – भारत में लिंगीय अनुपात निरन्तर घटता जा रहा है जिसमें कुछ राज्यों की स्थिति तो अत्यन्त चिन्ताजनक है और हरियाणा तथा राजस्थान आदि राज्यों में यह अनुपात न्यून होने के कारण विवाह इत्यादि में परेशानियाँ आ रही हैं, फिर भी लोगों को यह समझ में नहीं आ रहा है कि ये जिन बेटियों को अभिशाप और बोझ समझकर गर्भ में ही मार देते हैं या किसी प्रकार वे पैदा हो गयीं तो आजीवन उनके प्रति दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है वे यही है । इस प्रकार तो यह समस्या दिन-प्रतिदिन गम्भीर ही होती जायेगी ।

घटते लिंगानुपात से राज्य तथा कानून को भी खतरा है, जिसकी आहट प्रबुद्ध वर्ग मूर्त रूप से महसूस करने लगा है। लिंगानुपात के बिगड़ने तथा स्त्री-पुरुषों में भेद-भावपूर्ण व्यवहार के दुष्परिणाम निम्न प्रकार हैं-

1. राज्य तथा कानून के समक्ष चुनौती ।

2. सामाजिक व्यवस्था पर खतरा ।

3. विवाह जैसी संस्था पर खतरा ।

4. व्यभिचार की घटनाओं में वृद्धि

5. वेश्यावृत्ति का प्रचलन ।

6. भावी सन्तानों की उत्पत्ति पर प्रश्न चिन्ह ।

7. परिवार जैसी महत्त्वपूर्ण संस्था का विघटन ।

8. लोकतंत्रीय आदर्शों को चुनौती ।

9. सांस्कृतिक क्षरण ।

10. मानवीयता तथा संवेदना की समाप्ति ।

विभिन्न काल खण्डों में लैंगिक समानता में राज्य तथा कानून की भूमिका (Role of State and Law in Various Period in Gender) — राज्य का अस्तित्व हम आज जैसा देख रहे हैं वैसा राज्य प्राचीन काल में नहीं था, क्योंकि कालचक्र में गति के साथ-साथ राज्य के कार्यों, स्वरूप तथा भूमिका में भी परिवर्तन आया, फिर भी इतना तो तय है कि राज्य सदैव से ही या अपनी स्थापना के काल से ही व्यक्ति के जीवन के सुचारू रूप से सम्पादन, आवश्यकताओं की पूर्ति, सुरक्षा तथा संरक्षण एवं कानून का पालन कराने का कार्य करते रहे हैं। विभिन्न काल खण्डों में राज्य तथा कानून ने किस प्रकार लैंगिक समानता में वृद्धि करने हेतु भूमिका का निर्वहन किया है, वह निम्न प्रकार है-

1. वैदिक काल में राज्य तथा कानून की लैंगिक समानता हेतु भूमिका — वैदिक कालीन समाज में सामाजिक व्यवस्था हेतु कुछ नियम थे, जैसे— आश्रम-व्यवस्था, वर्ण-व्यवस्था तथा चारों पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष) के मध्य समन्वय की स्थिति इस समय राजा का कार्य पिता की भाँति अपनी प्रजा का हित करना था और यदि प्रजा में किसी प्रकार का गतिरोध या समस्या आये तो उसका तत्काल निवारण करना था। राजा के हाथ में ही कानून की भी शक्ति निहित होती थी और वह अपने मंत्रियों तथा गुरु से विचार-विमर्श करने के उपरान्त ही कठिन विषयों पर निर्णय लेता था इस समय स्त्रियों को पुरुषों की ही भाँति अधिकार प्राप्त थे, उनको समाज में विद्वता और आदर का स्थान प्राप्त था। राजकीय विषयों पर भी वे अपना मन्तव्य देने हेतु स्वतन्त्र थीं तथा स्त्रियों से सम्बन्धित सामाजिक कुरीतियाँ नहीं थीं जिससे उनकी दशा उन्नत थी ।

2. बौद्ध काल में राज्य तथा कानून की लैंगिक समानता हेतु भूमिका- बौद्ध काल तक आते-आते भारतीय सामाजिक, धार्मिक तथा राजनैतिक आदि व्यवस्थाओं में परिवर्तन के चिह्न परिलक्षित होते हैं । गणराज्यों का उदय हुआ जिसके रूप में राज्यों में शक्ति का बोलबाला रहा। इस काल में स्त्रियों की दशा में पूर्व की भाँति उन्नति के चिन्ह नहीं दिखाई देते हैं, फिर भी राज्य और कानून स्त्रियों के प्रति लचीला व्यवहार अपनाते थे। परन्तु स्त्रियों को जो सामाजिक प्रवंचना झेलनी पड़ती थी उस पर राज्य सर्वथा मौन सहमति प्रदान करते थे, जैसे—स्त्रियों की शिक्षा की ही बात हो इस पर राज्य तथा कानून ने आगे बढ़कर कोई प्रयास नहीं किया। पश्चात् में प्रियदर्शी अशोक ने अवश्य ही स्त्रियों को पुरुषों के समान शिक्षा प्राप्त करने, बौद्ध धर्म का देश-विदेश में प्रचार-प्रसार करने तथा सभी प्राणियों के प्रति दया इत्यादि के भाव पर बल दिया, जिसे लैंगिक समानता के प्रयासों के रूप में देखा जा सकता है।

3. मध्य काल में राज्य तथा कानून की लैंगिक समानता हेतु भूमिका- मध्य काल को मुस्लिम काल, सल्तनत काल के नाम से जाना जाता है। यह काल भारत में मुस्लिम शासकों के शासन का काल रहा। इसमें गुलाम वंश, खिलजी वंश, सैयद वंश, लोदी वंश तथा मुगल वंश के शासकों ने शासन किया। इन शासकों की शारीरिक बनावट, रंग, कद-काठी, संस्कृति तथा मजहब इत्यादि सभी कुछ भारतीयों से अलग था, फिर भी इन्होंने यहाँ अनेक वर्षों तक शासन किया और यहाँ की संस्कृति तथा समाज पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। भारतीयों ने इस काल में लालच तथा जोर के बल पर मुस्लिम धर्म अपनाया जिससे भारतीयों की अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनैतिक स्थिति को गहरा आघात पहुँचा। इस समय महिलाओं की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गयी। जिन पर भी विलासी शासकों की नजर पड़ जाती वे स्त्रियाँ और लड़कियाँ सुल्तानों के हरम में पहुँचा दी जातीं । अतः भारतीय समाज इस कलंक से बचने के लिए लड़कियों को अभिशाप और बोझ मानने लगा तथा उनकी सुरक्षा और दायित्व की इतिश्री के लिए पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह, सती-प्रथा इत्यादि कुरीतियों का बोलबाला हो गया, जिससे स्त्रियों की स्थिति निम्नतर होती गयी। उनकी शिक्षा आदि का कोई प्रबन्ध नहीं था, केवल सुविधा सम्पन्न वर्ग की स्त्रियों ने ही शिक्षा प्राप्त की, वह भी व्यक्तिगत रूप से घर पर रहकर । चाँदबीबी, रजिया सुल्तान, नूरजहाँ, गुलबदन बेगम, जीजाबाई तथा मुक्ताबाई इत्यादि कुछ महिलाओं नाम प्राप्त होते हैं, जिन्होंने शिक्षा प्राप्त की, परन्तु इतिहास इस बात का साक्षी है कि उमराओं ने रजिया के खिलाफ इसीलिए षड्यन्त्र रचा कि वह स्त्री थी और उसे शासन करने तथा पुरुषों की भाँति वस्त्र पहनकर राजकाज चलाने का कोई अधिकार प्राप्त नहीं था। नूरजहाँ ने पर्दे से शासन कार्य चलाया तथा सिक्कों पर अपनी आकृति छपवायी फिर भी योग्य होने के बाद भी उसे स्त्री होने का खामियाजा पड़ा और वह नजरबन्द कर दी गयी। इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि जनसामान्य में स्त्रियों की दशा कैसी रही होगी और उनके प्रति समाज का दृष्टिकोण कैसा रहा होगा। इस समय राज्य तथा कानून दोनों ही स्त्रियों के प्रति दोहरा तथा भेद-भावपूर्ण व्यवहार करते थे और उनके लिए जो लक्ष्मण रेखा खींच दी गयी थी उसका उल्लंघन करने पर वे निन्दा की पात्र समझी जाती थीं। अकबर जैसे उदार शासक ने स्त्रियों को सम्मान की दृष्टि से देखा, फिर भी लैंगिक भेद-भावों को कम करने तथा उन कारणों की पहचान करने, जिससे स्त्री-पुरुष के मध्य असमानता बढ़ती जा रही थी, कोई प्रयास नहीं किया और स्त्रियों ने भी इसे नियति मानकर स्वीकार कर लिया ।

4. ब्रिटिश काल में राज्य तथा कानून की लैंगिक समानता हेतु भूमिका – ब्रिटिश काल में भारतीयों की दशा दिनोंदिन बदतर होती जा रही थी, जिसके परिणामस्वरूप कुछ जागरूक भारतीयों ने आवाज उठायी तथा कुछ अंग्रेज भी भारतीयों की दीन-हीन दशा से चिन्तित थे अंग्रेजों तथा भारतीय दोनों ने भारत में स्त्रियों की दशा पर चिन्ता व्यक्त करते हुए उसमें सुधार हेतु प्रयासों पर बल दिया, जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं की शिक्षा की माँग की जाने लगी और महिलाओं के प्रति किया जाने वाला द्वैधार व्यवहार भी समाप्त किये जाने पर बल दिया जाने लगा। राजा राममोहन राय, समाजी गायकवाड़, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर तथा महात्मा गाँधी इत्यादि ने महिलाओं की शिक्षा तथा महिलाओं की दीन-हीन दशा, स्त्री में सुधार करने के लिए पर्दा प्रथा, बाल-विवाह, सती-प्रथा इत्यादि की समाप्ति के प्रयास किये अंग्रेजों ने भी स्त्रियों की स्थिति के उन्नयन के लिए शिक्षा हेतु सुझाव दिये । स्त्रियों की शिक्षा निःशुल्क, अनिवार्य, महिला शिक्षिकाओं, महिला निरीक्षिकाओं की नियुक्ति, पर्दे में रहने वाली महिलाओं हेतु पृथक् विद्यालयों हेतु विशेष अध्यापिकाओं की नियुक्ति, जो घर पर जाकर पढ़ा सकें तथा महिलाओं हेतु पृथक् विद्यालयों और जीवनोपयोगी एवं व्यवसायपरक पाठ्यक्रमों की व्यवस्था के सुझाव, वुड डिस्पैच, हण्टर आयोग, हग आयोग तथा सार्जेण्ट योजनादि में दिये गये। भारत में इस कारण भी स्त्रियों की स्थिति में जागरूकता आयी क्योंकि पाश्चात्य देशों की स्त्रियों तथा उनकी स्थिति के विषय में भारतवासियों को देखने तथा जानने का अवसर प्राप्त हुआ ।

इस प्रकार ब्रिटिश काल में स्त्रियों के प्रति व्याप्त दुर्व्यवहार तथा भेद-भावपूर्ण व्यवहार को शिक्षा के द्वारा कम करने का प्रयास किया गया, जिसके प्रति तत्कालीन अंग्रेजी सरकार, भारतीयों, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों और कुछ अंग्रेजों के द्वारा व्यक्तिगत प्रयास किये गये । इसी समय समाज सुधारकों ने भी महिला-पुरुष दोनों की समानता पर बल दिया। हम कह सकते हैं कि इसी काल से फिर महिलाओं ने अपने अस्तित्व तथा सम्भावनाओं से परिचित होना आरम्भ किया। कई महिलाओं के प्रति चला आ रहा हीनता का भाव कम हुआ । ब्रिटिश काल में लैंगिक भेद-भावों को कम करने के लिए भारतीयों के दबावस्वरूप कुछ कानून भी बनाये गये, जैसे सती प्रथा को रोकने विषयी तथा बाल-विवाह को रोकने के लिए कानून शारदा एक्ट आदि ।

5. आधुनिक काल में राज्य तथा कानून की लैंगिक समानता हेतु भूमिका – 15 अगस्त, 1947 में भारत को आजादी प्राप्त हुई तथा आजादी के पश्चात् जनतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना की गयी और जनतन्त्र की सफलता उसके नागरिकों पर निर्भर करती है। इस समय स्त्रियों की शिक्षा मात्र 6% थी, अतः यह स्थिति नवनिर्मित लोकतन्त्र के लिए चिन्ताजनक थी, क्योंकि अशिक्षित स्त्रियाँ लोकतांत्रिक जिम्मेदारियों का समुचित रूप से निर्वहन नहीं कर पायेंगी और स्त्रियों के जीवन असमानता तथा दुर्दशा भरने के लिए जिम्मेदार कुप्रथायें विधवा-विवाह, बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा, पुरुष की श्रेष्ठता, बालिका पराया धन इत्यादि का समापन किस प्रकार होगा। स्त्रियों की दीन-हीन दशाओं के लिए उत्तरदायी कारक तभी समाप्त हो सकेंगे जब स्वयं स्त्रियाँ तथा समाज में उनको इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए व्याकुलता हो। बिना शिक्षा के समाज तथा स्त्रियों में इस प्रकार के विचारों को भरना कठिन था । अतः शिक्षा और स्त्री शिक्षा पर विशेष रूप से बल दिया गया, जिससे स्त्रियों की दशा में सुधार हो सके। जब तक लोग जागरूक नहीं होंगे तब तक किसी भी कानून की सफलता संदिग्ध होगी । अतः शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना अत्यावश्यक था आधुनिक काल में लैंगिकता की समाप्ति हेतु राज्य तथा कानून के द्वारा कई प्रकार के प्रयास किये गये हैं और किये भी जा रहे हैं जो निम्नलिखित हैं-

1. लैंगिक भेद-भावों विषयी कानूनों में प्रभाविता लाने के लिए लोगों में जागरूकता लाना ।

2. जागरूकता लाने के लिए सरकारी तथा गैर-सरकारी स्तरों पर प्रयास करना ।

3. संविधान की उद्देशिका जो अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है, उसमें ही स्वतन्त्रता, समानता, न्याय इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया गया है जो स्त्री तथा पुरुषों दोनों को ही समान रूप से प्राप्त हैं।

4. संविधान की धारा 14, 15, 17, 21, 22, 23, 24, 25,29 के द्वारा स्त्री-पुरुष दोनों की समानता के लिए उपबन्ध किये गये हैं, जिससे लैंगिक भेद-भावों में बहुत कमी आयी है। स्त्रियों को पुरुषों के समान अभिव्यक्ति, रहन-सहन, धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार प्राप्त है जिससे उनकी स्थिति में बहुत सुधार आ रहा है ।

5. स्त्रियों के लिए पृथक् विद्यालयों, विशेषीकृत पाठ्यक्रमों की व्यवस्था।

6. ग्रामीण तथा दूर-दराज के क्षेत्रों में विद्यालयों की स्थापना, जिससे बालिकाओं की शिक्षा को विशेष प्रोत्साहन प्राप्त होगा, क्योंकि उनको दूर पढ़ने भेजना असुरक्षित माना जाता है।

7. बालिकाओं की निःशुल्क शिक्षा व्यवस्था, छात्रवृत्तियाँ तथा छात्रावासों की पृथक् व्यवस्था जिससे बालिका शिक्षा को प्रोत्साहन मिले तथा उनकी स्थिति में सुधार आये ।

8. महिला शिक्षिकाओं तथा विद्यालय निरीक्षिकाओं की नियुक्ति, जिससे विद्यालयों में बालिकाओं की सुरक्षा तथा लिंगीय भेद-भावों में कमी आये ।

9. संविधान की धारा 45 के द्वारा 14 वर्ष की आयु तक अनिवार्य तथा निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था ।

10. स्त्रियों की शिक्षा को व्यवसायपरकं बनाना तथा उनके लिए उपयोगी और व्यावहारिक विषयों, जैसे—गृह-विज्ञान इत्यादि की व्यवस्था की गयी है। इस प्रकार से भी स्त्रियों की शिक्षा की उपयोगिता आयी है।

11. नौकरियों में स्त्रियों को आरक्षण प्रदान किया जा रहा है, जिससे वे प्रत्येक पद पर अपनी योग्यता और प्रतिभा के बल पर आसीन हो रही हैं जिससे वे आर्थिक रूप से सशक्त हो रही हैं और लिंगगत भेद-भावों में भी इस कारण कमी आ रही है।

12. स्त्रियों की शिक्षा में सुधार लाने के लिए प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था राज्य सरकार द्वारा की गयी, जिससे स्त्रियों की समझ और जागरूकता में वृद्धि हुई है। प्रौढ़ शिक्षा के द्वारा साक्षर प्रौढ़ाओं ने लिंगगत भेद-भावों को कम किया है।

13. पत्राचार पाठ्यक्रमों, खुला विश्वविद्यालयों इत्यादि के द्वारा भी महिलाओं की शिक्षा में वृद्धि और उनकी कुशलता में वृद्धि का प्रयास किया जा रहा है।

14. महिलाओं हेतु विद्यालयों, महाविद्यालयों इत्यादि को खोलने के लिए, प्रोत्साहित करने हेतु राज्य सरकारें नियमों में कुछ शिथिलता देती हैं।

15. सातवीं पंचवर्षीय योजना द्वारा कार्यरत मजदूरों के बच्चों की शिक्षा हेतु सचल शिशु सदनों की स्थापना की गयी, जिससे भी बालिकाओं की शिक्षा के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता का ज्ञान होता है।

16. आँगनबाड़ी केन्द्रों की स्थापना की गयी ।

17. महिला समाख्या, कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालयों, महिला पॉलीटेक्निकों, महिला विद्यालयों तथा महिला महाविद्यालयों की स्थापना करके राज्य के द्वारा लैंगिक भेद-भाव को कम करने का प्रयास किया जा रहा है।

18. महिलाओं के सशक्तीकरण हेतु राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में प्रत्येक शिक्षा संस्थान में 1995 तक महिला विकास हेतु सक्रिय कदम उठाने, सभी शिक्षकों तथा अनुदेशकों (Instructors) को स्त्री सशक्तीकरण का अभिकर्त्ता (Agent) बनाने हेतु प्रशिक्षण, NIEPA के अन्तर्गत राज्य स्तरीय सभी उपयुक्त संस्थाएँ, शिक्षकों, प्रशिक्षकों, आयोजकों और प्रशासकों की स्त्रियों की समस्याओं के विषय में जागरूकता बढ़ाने इत्यादि के प्रयासों तथा ‘ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड’ के अन्तर्गत प्रत्येक विद्यालय में मूलभूत सुविधाओं तथा शिक्षिकाओं की नियुक्ति का प्रावधान कर स्त्रियों की स्थिति में सुधार हेतु प्रयास किया गया।

19. स्त्रियों को स्वावलम्बी तथा आत्म-निर्भर बनाने हेतु सस्ते कार्य प्रदान करना जिससे स्त्रियाँ अपने पैरों पर खड़ी होकर पुरुषों से समानता कर सकें ।

20. स्त्रियों की सशक्तता हेतु महिला समूहों के निर्माण पर बल ।

21. स्त्रियों को पुरुषों की भाँति समान कार्य हेतु समान वेतन तथा काम करने की यथोचित दशायें राज्य सरकार द्वारा प्रदान की जा रही हैं। इससे भी स्त्रियों की स्थिति में सुधार आया है ।

22. कामकाजी स्त्रियों को मातृत्व अवकाश प्रदान किया जाना, चाहे वह सरकारी हो या निजी स्तर, अत्यन्त सराहनीय है, क्योंकि स्त्री को माता या काम दोनों में से किसी एक को चयनित करने की स्थिति नहीं आती और कामकाजी महिलाओं के प्रति पुरुष वर्ग का दृष्टिकोण सकारात्मक होता है ।

स्त्रियाँ प्रत्येक क्षेत्र में आगे आयें, इस हेतु राज्य तथा कानून उन्हें पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करते हैं तथा स्त्रियों की सुरक्षा और उनको पुरुष-प्रधान समाज में सशक्त बनाने के लिए. कुछ प्रावधान निम्न प्रकार किये गये हैं-

1. 26 अक्टूबर, 2006 को घरेलू हिंसा अधिनियम लागू किया गया जिसका निर्माण घर में स्त्रियों की सुरक्षा के लिए 2005 में किया गया था।

2. धारा 366 के द्वारा महिलाओं को शादी, अपहरण हेतु मजबूर करने पर दस वर्ष की सजा का प्रावधान है।

3. धारा 494 के अन्तर्गत एक पत्नी के रहते दूसरा विवाह करने पर सात वर्ष की सजा का प्रावधान है।

4. धारा 498 के द्वारा स्त्रियों का अपमान करने, उनके प्रति क्रूरता का व्यवहार करने पर तीन वर्ष की सजा का प्रावधान है।

5. धारा 498 (a) में दहेज लेने इत्यादि के विषयों पर सजा का प्रावधान किया गया है।

6. धारा 306 में स्त्रियों को आत्म-हत्या हेतु उकसाने या वैसी परिस्थिति का सृजन करने पर दस वर्ष की सजा का प्रावधान किया गया है।

7. अश्लील कार्य करने पर धारा 306 के अन्तर्गत दस वर्ष की सजा का नियम है।

8. धारा 294 के अनुसार स्त्रियों के प्रति अश्लील क्रिया-कलाप करने, अश्लील गीत इत्यादि गाने पर तीन माह की कैद तथा जुर्माने की सजा दिया जाता है ।

9. किसी स्त्री की शालीनता भंग करने पर धारा 354 के अन्तर्गत दो वर्ष की सजा का प्रावधान है।

10. धारा 509 के अन्तर्गत स्त्रियों के प्रति अपशब्दों हेतु एक वर्ष की सजा का प्रावधान है ।

11. धारा 376 में बलात्कार के लिए दस वर्ष की सजा अथवा उम्र कैद का प्रावधान है।

12. धारा 313 के अनुसार यदि स्त्री का गर्भपात बिना उसकी सहमति के कराया जा रहा है तो दस वर्ष की सजा या आजीवन कारावास और जुर्माने का प्रावधान किया गया है।

13. प्रत्येक राज्य में स्त्रियों की समस्याओं से निपटने तथा स्त्रियों के सशक्तीकरण हेतु ‘राज्य महिला आयोग’ की स्थापना की गयी है।

14. महिला थानों की स्थापना कर महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करने का कार्य किया जा रहा है जिससे महिलाओं के प्रति किये जाने वाले शोषण और अभद्र व्यवहारों के प्रति भय व्याप्त हुआ है।

15. महिलाओं सुरक्षित करने के लिए 24 x 7 महिला हेल्प लाइन नम्बरों की व्यवस्था प्रत्येक राज्य सरकार कर रही है जिससे महिलायें किसी प्रकार की सुरक्षा प्राप्त कर सकती हैं।

16. समय-समय पर महिलाओं की स्थिति का आंकलन करना और आँकड़े जारी करना, ‘जिससे महिलाओं के प्रति भेद-भाव के प्रति सरकारें और प्रशासन सचेष्ट हो सकें।

17. महिलाओं की उच्च शिक्षा को कुछ राज्यों निःशुल्क में करके उनकी स्थिति पुरुषों के समानान्तर करने का प्रयास किया गया है।

18. महिलाओं तथा पुरुषों के मध्य शताब्दियों से व्याप्त असमानता और पुरुषों की श्रेष्ठता के मनोविज्ञान में कमी लाने के लिए राज्य सरकारें, गैर-सरकारी तथा स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद ले रही हैं जो महिलाओं से सम्बन्धित मुद्दों पर नुक्कड़ नाटक, गीत, वाल राइटिंग, वार्ता, कार्यशाला, सेमिनार, चित्र-प्रदर्शनी, कठपुतली शो तथा डॉक्यूमेण्ट्री फिल्मों का प्रदर्शन कर जागरूकता का कार्य कर रहे हैं।

19. स्त्रियों की शारीरिक स्वस्थता हेतु CARE, NHRM आदि के द्वारा योजनायें राज्य, केन्द्र तथा WHO की सहायता से चलायी जा रही हैं, जिससे ये स्वस्थ शरीर और स्वस्थ विचारों को प्राप्त कर पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने में समर्थ हो रही हैं।

20. प्रत्येक राज्य की शासन व्यवस्था वहाँ पर निवास करने वाली महिलाओं की उन्नत स्थिति पर भी निर्भर करती है। अतः राज्य सरकारें इस बात का भरसक प्रयास करती हैं कि महिलाओं और पुरुषों की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक स्थितियों में भेद-भाव कम-से-कम हो ।

21. आरक्षण के द्वारा महिलायें विकेन्द्रीकृत व्यवस्था में गाँवों से लेकर जिले तथा राज्य के पदों पर जा रही हैं जिससे महिलाओं की स्थिति में सुधार आ रहा है।

22. कन्या भ्रूण हत्या, पर्दा प्रथा, स्त्रियों के प्रति असमानता, बाल-विवाह, विधवा विवाह की आयु, दहेज प्रथा, सती प्रथा इत्यादि को कानूनी रूप से निषेधित कर दिया गया है, जिससे स्त्रियों की स्थिति में सुधार आया है ।

23. बालिकाओं में शिक्षा के विविध स्तरों पर होने वाले अपव्यय तथा अवरोधन की पहचान कर उसके लिए समुचित रणनीति बनाना ।

24. स्वतन्त्रता के पश्चात् पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा स्त्रियों की स्थिति को उन्नत करने के लिए धन का आबंटन ।

25. स्वतन्त्र भारत में गठित सभी आयोगों, जैसे— राधाकृष्णन् आयोग, मुदालियर आयोग, शिक्षा आयोग (कोठारी आयोग), राममूर्ति आयोग, राष्ट्रीय शिक्षा नीतियों, दुर्गाबाई समिति, हंसा मेहता समिति इत्यादि ने की शिक्षा को उनकी स्थिति में सुधार के लिए प्रभावी साधन मानकर उल्लेखनीय सुझाव दिये, जिसका क्रियान्वयन सरकारों द्वारा किया जा रहा है ।

इस प्रकार स्त्रियों को सशक्त बनाकर, कर, नौकरियाँ प्रदान कर, घर तथा बाहर सुरक्षात्मक वातावरण की सृष्टि कर, पुरुषों के समान मताधिकार तथा अन्य अधिकारों को प्रदान कर और इन अधिकारों की सुनिश्चितता का कार्य राज्य कानून के द्वारा करता है। प्रत्येक राज्य का अपना दर्शन होता है और लोकतांत्रिक राज्यों का प्रमुख दर्शन समता और न्यायाधारित होता है चाहे वह कोई भी क्षेत्र हो। इस प्रकार राज्य और कानून के को सशक्त स्थिति प्रदान कर लिंगीय भेद-भावों को समाप्त करने में सर्वाधिक सहायता द्वारा स्त्रियों इसलिए प्राप्त होगी कि राज्य के पास असीम शक्तियाँ और कानून का पालन कराने की क्षमता तथा विस्तृत जनाधार होता है। वर्तमान में जन-प्रतिनिधि भी महिलाओं की समानता के विषय पर सजग रहते हैं, जिससे राज्य इस विषय पर और भी अधिक प्रतिबद्ध परिलक्षित होते हैं।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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