वर्तमान भारत में इतिहास शिक्षण के उद्देश्य के बारे में लिखिए।
अथवा
इतिहास शिक्षण से अर्जित उद्देश्यों के बारे में आप क्या जानते हैं?
भारत में इतिहास जब से पाठ्यक्रम का विषय बना हैं तब से विशेष आग्रह कुछ सूचनाएँ प्रदान कर उन्हें रटकर वापस प्रस्तुत करने पर रहा हैं। इतिहास का चयन करने वाले छात्रों के मानस में भी प्रायः यही मूल धारणा रही हैं कि ऐतिहासिक तथ्यों को रटकर वापस प्रस्तुत कर देने से विषय का ज्ञान आ जाता हैं। प्रायः इतिहास को परीक्षा का विषय माना गया हैं और इस प्रकार के विषय के साथ जो मान्यता रही हैं, वह मान्यता इतिहास विषय के साथ भी रही हैं अतः प्रायः बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध तक यही धारणा व्याप्त रही हैं कि इतिहास में ज्ञान (सूचना) प्रदान करना मुख्य ध्येय हैं। यही कारण रहा कि राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् द्वारा प्रस्तुत की गई इतिहास को भारत में स्थिति में केवल एक दो ही माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के पाठ्यक्रम में इतिहास के उद्देश्यों का उल्लेख हैं और वह भी संक्षेप सा। इससे स्पष्ट होता हैं कि उद्देश्य निर्धारण के क्षेत्र में विशेष जागरूकता हाल ही में विकसित हो पाई हैं।
अधिकांश अध्यापक आज भी कक्षा अध्यापन में ज्ञानात्मक उद्देश्यों पर बल देते हैं जिसके अन्तर्गत वे बालकों को कुछ तथ्य, कुछ नाम, तिथियाँ या घटनाएँ बताने का प्रयास करते हैं जिनका बालक के जीवन से न तो कोई संबंध होता हैं न जिनका बालक के जीवन में कोई महत्व। इसका फल यह होता हैं कि इतिहास के अध्यापकों के सामने ज्ञान प्रदान करना इतना महत्वपूर्ण हो जाता हैं कि वे अपना श्रम और शक्ति व्यय कर देते हैं।
वो कुछ उद्देश्य इतिहास शिक्षण की पुस्तकों में मिलते हैं उनमें भी प्रायः सभी प्रकार के उद्देश्यों को शामिल कर लिया जाता हैं फलस्वरूप यह स्पष्ट नहीं होता हैं कि किस-किस प्रकार के उद्देश्यों को इसके अन्तर्गत शामिल करना चाहता हैं।
उद्देश्य निर्धारण के लिए हम निम्नलिखित तीन प्रकार की श्रेणियों को मानते हैं।
(अ) ज्ञानात्मक उद्देश्य :- ज्ञानात्मक उद्देश्यों के अन्तंगत बालक उन तथ्यों, घटनाओं, प्रत्ययों और सिद्धान्तों का पुन:स्मरण कर सके या पहचान सके जिनका उसने अध्ययन किया हैं। इसके अन्तर्गत उद्देश्यों में जितनी अधिक विशिष्टता होगी उनकी उपलब्धि में उतनी ही अधिक सुविधा होगी। यदि स्लूम के बताये ज्ञानात्मक उद्देश्यों के अन्य आयामों में नहीं भी उतरे तो भी यह स्पष्ट करना ही चाहिए कि आखिर वे कौनसे प्रमुख प्रत्यय सिद्धान्त तथा सामान्यीकरण हैं जो बालकों को जानने चाहिए। साथ ही जिनके आधार पर बालक को इतिहास की संरचना स्पष्ट हो सकें और इतिहास के मूल तत्व भी वे जान सकें।
(ब) क्षमता एवं कौशल :- इसके अन्तर्गत बालक में वे क्षमताएं एवं कौशल विकसित हो सकें जिनकी सहायता से वह ऐतिहासिक सामग्री एकत्रित कर सकें, उसे ठीक प्रकार से संजोकर, उसका विश्लेषण कर सके और उससे निष्कर्ष निकाल सकें। इसमें विशेष आग्रह इस बात पर होना चाहिए कि बालक में भी शनै-शनै इतिहासकार की भांति खोज करने की कला विकसित हो सके, उससे भी जिज्ञासा की भावना उत्पन्न हो सकें।
(स) भावात्मक मूल्य :- इसके अन्तर्गत रूचियों, मनोवृत्तियों एवं मूल्यों को विकसित कर सकते हैं। इन रूचियों, मनोवृत्तियों एवं मूल्यों के फलस्वरूप बालकों में प्रजातांत्रिक मूल्यों को शामिल किया जा सकें। प्रत्येक बालक अपने जीवन में कुछ मूल्यों का भी निर्माण कर सकेगा।