शिक्षा प्रशासन के अर्थ तथा स्वरूप का वर्णन कीजिए। शिक्षा प्रशासन के स्वरूप को प्रभावित करने वाले कारक कौन-कौन से हैं ? संगठन तथा प्रशासन में क्या अन्तर है ? स्पष्ट कीजिये।
Contents
शिक्षा प्रशासन का अर्थ (Meaning of Educational Administration)
लोकतन्त्र में शिक्षा की आवश्यकता तथा उपयोगिता सर्वविदित है। अतएव वर्तमान युग में शैक्षिक प्रशासन को उच्च कोटि का तथा महत्वपूर्ण बनाना आवश्यक है। “शैक्षिक प्रशासन” का प्रत्यय यद्यपि नवीन है फिर भी इसका क्षेत्र नित्य प्रति बढ़ता ही जाता है। शैक्षिक प्रशासन को आज केवल शिक्षा की व्यवस्था करना ही नहीं समझा जाता, अपितु शिक्षा के सम्बन्ध में योजना बनाना, संगठन पर ध्यान देना, निर्देशन तथा पर्यवेक्षण आदि अनेक कार्यों से इसका गहरा सम्बन्ध है। वास्तव में, शैक्षिक प्रशासन का मुख्य उद्देश्य शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति करना है। शिक्षा के क्षेत्र में अनेक व्यक्ति अपनी-अपनी भूमिका निभाते हैं। विद्यालयों के प्रबन्धक, प्रधानाचार्य, शिक्षक, विद्यार्थी, अन्य कर्मचारी, शिक्षा विभाग के जिला निरीक्षक, उपनिर्देशक, निदेशक आदि सभी मिलकर शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयास करते हैं। इन सभी सम्बन्धित व्यक्तियों के कर्त्तव्यों एवं अधिकारों को ठीक प्रकार से समझने तथा उन्हें कार्यान्वित करने का मुख्य उत्तरदायित्व शैक्षिक प्रशासन पर ही है। शैक्षिक उन्नति के लिए विद्यालयों के स्तर को ऊँचा उठाना अत्यन्त आवश्यक है। विद्यालयों में अनेक उपयोगी उपकरणों को जुटाना तथा सभी कर्मचारियों के कर्त्तव्यों का समुचित विभाजन करना शैक्षिक प्रशासन का कार्य समझा जाता है।
शैक्षिक प्रशासन का सम्बन्ध मुख्यतः शिक्षा से ही होता है। अतएव शिक्षा के क्षेत्र में संगठन जिस ढाँचे अथवा तन्त्र को खड़ा करता है, शैक्षिक प्रशासन उसे कार्यान्वित करने में सहायक होता है, जिससे शैक्षिक उद्देश्यों की अधिकाधिक प्राप्ति सम्भव होती है। इसमें सन्देह नहीं कि शैक्षिक प्रशासन अपने सीमित तथा प्राप्त साधनों के द्वारा सीखने तथा सिखाने की प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाने का यथाशक्ति प्रयास करता है। कक्षा भवन, पुस्तकालय, क्रीडास्थल, कार्यालय, पाठ्येतर क्रियाओं का सफलतापूर्वक संयोजन करना तथा उनमें निरन्तर प्रगति के लिए प्रयत्न करना शैक्षिक प्रशासन का ही कार्य होता है। शिक्षा के सम्पूर्ण ढाँचे में कौन व्यक्ति कितनी लगन से कितना कार्य कर रहा है, इसका ठीक प्रकार से पर्यवेक्षण करना भी शैक्षिक प्रशासन का कार्य है। सभी व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों को मधुर बनाना तथा उनकी कार्यक्षमता को उचित प्रोत्साहन तथा प्रेरणा देना, सहयोगपूर्ण ढंग से कार्य कराना प्रशासन के कार्यों में सम्मिलित किया जाता है। उत्तम प्रशासक शिक्षकों तथा छात्रों तथा अन्य कर्मचारियों के साथ इतनी कुशलता से व्यवहार करता है कि विद्यालय का वातावरण शान्त एवं सुखद बन जाता है, किन्तु इस अद्भुत कला में प्रवीण होने के लिए शैक्षिक प्रशासक को अत्यन्त परिश्रम करना होता है।
शिक्षा प्रशासन की परिभाषाएँ (Definitions of Educational Administration)
शैक्षिक प्रशासन की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-
1. Encyclopaedia of Educational Research के अनुसार, “शैक्षिक प्रशासन एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा सम्बन्धित व्यक्तियों के प्रयास का एकीकरण तथा उचित सामग्री का उपयोग इस प्रकार किया जाता है, जिससे मानवीय गुणों का समुचित विकास हो सके।”
2. मोर्ट तथा रौस के अनुसार- “शैक्षिक प्रशासन का अर्थ है-छात्रों के विकास को निर्धारित उद्देश्यों की ओर मोड़ना, अध्यापकों को साधन के रूप में प्रयुक्त करना तथा सम्बन्धित जनसमुदाय को उद्देश्यों तथा उनकी प्राप्ति के साधनों की ओर प्रेरित करना ।”
3. फॉक्स, विश तथा रफनर के अनुसार- “शैक्षिक प्रशासन एक ऐसी सेवा करने वाली गतिविधि है, जिसके माध्यम से शैक्षिक प्रक्रिया के लक्ष्य प्रभावकारी ढंग से प्राप्त किए जाते हैं।”
4. ग्राहम बैफूलर ने शैक्षिक प्रशासन की परिभाषा निम्न प्रकार से की है-“शैक्षिक प्रशासन का उद्देश्य योग्य छात्रों को योग्य अध्यापकों से उचित शिक्षा ग्रहण करने के लिए इस प्रकार सक्षम बनाना है, जिससे वे सीमित साधनों के अन्तर्गत प्रशिक्षित होकर अधिकाधिक लाभान्वित हो सकें।”
5. जैसी बी० सीयर्स ने शैक्षिक प्रशासन को निम्न प्रकार से प्रमाणित किया है-“शिक्षा के क्षेत्र में प्रशासन का आशय ‘सरकार’ शब्द से ही है, जिसका निकटतम सम्बन्ध विशेष सन्दर्भ में इन शब्दों से होता है, जैसे-अधीक्षण, पर्यवेक्षण, योजना, त्रुटि, निर्देशन, संगठन, नियन्त्रण, समायोजन, नियम आदि। “
6. डॉ० एस० एन० मुकर्जी के अनुसार- “शैक्षिक प्रशासन वस्तुओं के साथ-साथ मानवीय सम्बन्धों की व्यवस्था से सम्बन्धित है अर्थात् व्यक्तियों के मिलजुल कर और अच्छा कार्य करने से सम्बन्धित है। वास्तव में, इसका सम्बन्ध मानवीय जीवों से अपेक्षाकृत अधिक है तथा अमानवीय वस्तुओं से कम। “
7. पिटनगर के अनुसार- “शाला – प्रशासन की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है कि इसका कार्य शाला में कर्मचारियों का चुनाव, नियुक्ति तथा कार्य को निर्धारित करना है तथा शाला से सम्बन्धित व्यक्तियों का कर्मचारीगण, छात्र, परिषद् सदस्य, समाज के सदस्यों के बीच समन्वय तथा नेतृत्व करना है, जिससे उचित सक्षम शिक्षा की दिशा में नीतियों का निर्माण, कार्यान्वयन तथा उन्नयन हो ।”
8. बुक एडम्स के अनुसार- “शैक्षिक प्रशासन में अनेकों को एक सूत्र में बाँधने की क्षमता होती है। शैक्षिक प्रशासन प्रायः परस्पर विरोधियों तथा सामाजिक शक्तियों को एक ही संगठन में इतनी चतुराई से जोड़ता है कि वे सब मिलकर एक इकाई के समान कार्य करते हैं। “
शैक्षिक प्रशासन की उपर्युक्त सभी परिभाषाओं का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि शैक्षिक प्रशासन के अन्तर्गत सभी कर्मचारियों को एक साथ सहयोग भावना से कार्य करना होता है। निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सभी व्यक्ति पूर्ण शक्ति का प्रयोग करते हुए एक इकाई में बँधकर कार्य करते हैं। शैक्षिक प्रशासन वास्तव में एक ऐसी सेवा है, जो व्यक्ति एवं समाज की उन्नति में सहायक है। शिक्षा के क्षेत्र में या किसी विद्यालय में उन्नति के साधनों का अधिकाधिक प्रयोग करना प्रशासन का उत्तरदायित्व समझा जाता है। पर्यवेक्षण, निर्देशन, व्यवस्था, मूल्यांकन आदि क्रियाओं द्वारा अत्यन्त सावधानीपूर्वक किसी शिक्षा संस्था के कर्मचारियों को प्रगतिशील बनाने में शैक्षिक प्रशासन का प्रमुख हाथ होता है। वास्तव में, सामान्य प्रशासन के जो लक्षण तथा कार्य होते हैं, वही शैक्षिक प्रशासन के भी होते हैं। जिस प्रकार किसी प्रशासक पर जिले अथवा प्रान्त का उत्तरदायित्व होता हैं और वह अपनी अद्भुत सूझ-बूझ तथा कार्यक्षमता से अपने क्षेत्र को प्रभावशाली बनाता है, उसी प्रकार शैक्षिक प्रशासक भी शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न कार्यप्रणालियों द्वारा शिक्षा जगत को उत्तरोत्तर उन्नति प्रदान करता है। शिक्षा के क्षेत्र में निर्देशक, जिला विद्यालय निरीक्षक आदि के अधिकारों एवं कर्त्तव्यों को समझकर भी शैक्षिक प्रशासन का तात्पर्य समझा जा सकता है।
शिक्षा प्रशासन के स्वरूप को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting the Nature of Administration)
शिक्षा की निरन्तर प्रगति होने के साथ प्रत्येक देश में शैक्षिक प्रशासन का भी क्रमिक विकास हुआ है। किसी भी प्रशासक को समाज में रहकर ही अपना प्रशासनिक कार्य करना होता है। समाज में दर्शन, राजनीति, समाजशास्त्र एवं संस्कृति आदि विषयों पर गूढ़तम विचारों को प्रस्तुत करने वाले व्यक्तियों की कमी नहीं रही है। प्रसिद्ध दार्शनिकों एवं राजनीतिज्ञों का प्रभाव जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में स्वतः दिखाई देने लगता है। महात्मा गाँधी के दार्शनिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक, आर्थिक तथा शैक्षिक विचारों की मान्यता निर्विवाद है। इसी प्रकार स्वामी विवेकानन्द, अरविन्द, दयानन्द तथा मदनमोहन मालवीय आदि भारतीय महापुरुषों ने जीवन के अनेकानेक क्षेत्रों में अपने विचारों की छाप छोड़ी है। लोकप्रिय राजनीतिज्ञ भी शिक्षा की नीतियों में हेर-फेर कर देते हैं। यह और बात है कि आधिकारिक (Authoritarian) प्रशासन में यह परिवर्तन शीघ्रगामी होता है और प्रजातान्त्रिक प्रणाली युक्त देशों में इन नीतियों एवं रीतियों में परिवर्तन कुछ देर से हुआ करता है। शैक्षिक ढाँचे का निर्माण भी देश काल की परिस्थितियों के अनुसार होता है। अतएव शैक्षिक प्रशासन अपने जिस स्वरूप को अपनाता है, वह भी राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक आदि परिस्थितियों से सम्बन्धित और प्रभावित होता है। उनका वर्णन संक्षेप में इस प्रकार किया जा सकता है –
1. ऐतिहासिक कारक (Historical Factor)- प्रत्येक देश का अपना इतिहास होता है। व्यक्तियों से सम्बन्धित विशेष घटनाओं एवं उनकी चारित्रिक विशेषताओं का संकलन ही इतिहास होता है। जनता की चित्तवृत्तियों का प्रतिविम्ब देश के इतिहास में झलका करता है। अमेरिका, रूस, चीन, इंग्लैण्ड, भारतवर्ष आदि सभी देशों का अपना इतिहास है। ऐतिहासिक दृष्टि से अमेरिका का इतिहास अधिक नया है। यही कारण है कि अमेरिका में शैक्षिक प्रशासन का स्वरूप भी सरल है। अमेरिका में जनतान्त्रिक प्रणाली को सरलता तथा सुगमतापूर्वक अपनाया गया है। परिणामस्वरूप इस देश का शैक्षिक प्रशासन भी अधिक जनतान्त्रिक, समृद्ध तथा लचीला है। अमेरिका की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ने वहाँ के शैक्षिक प्रशासन को भी प्रभावित किया है। इसके विपरीत रूस का उदाहरण उल्लेखनीय है। रूस में भयंकर कत्लेआम, अराजकता तथा अमानवीयता का साम्राज्य रहा। विश्व को चकित करने वाली रूसी क्रान्ति ने कुछ समय तक रूस देश को अस्त-व्यस्त तथा दिशाविहीन कर दिया। इस परिस्थिति का प्रभाव रूस की शिक्षा पर भी हुआ, क्योंकि उस समय यह देश शिक्षा के क्षेत्र में कोई निश्चित नीति नहीं अपना सका।
भारतवर्ष का इतिहास विश्व के सम्मुख एक खुली पुस्तक के रूप में है। शताब्दियों तक अंग्रेजी-शासन की कड़ी निगरानी में रहकर इस देश की प्राचीन संस्कृति नष्ट हो गई। भारतवासी कला, व्यापार, कौशल, नौकरी आदि सभी के लिए अंग्रेजों के संकेत की प्रतीक्षा करते थे। देश की शिक्षा का स्वरूप क्या हो ? इसका विचार भारतवर्ष में नहीं वरन् इंग्लैंड में किया जाता था। उस समय हमारे देश का इतिहास अंग्रेजी शासकों की चारित्रिक घटनाओं से ओत-प्रोत होता था। यही कारण है कि तत्कालीन शिक्षा एवं शैक्षिक प्रशासन पर इंग्लैंड की शैक्षिक नीतियों का गहरा प्रभाव था। स्वतन्त्र देश में नव-जागरण के साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी नवीन प्रयोगों तथा अनुभवों को अपनाया गया है। भारतवर्ष में शैक्षिक प्रशासन का ढाँचा नया ही है। शैक्षिक प्रशासन में अभी तक विशेषतः इंग्लैंड की शैक्षिक नीतियों को ही अपनाया जाता है। प्रजातान्त्रिक देश भारत की शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन करने के लिए अनेक बार गम्भीर घोष किया जाता है, जन आन्दोलन भी होते हैं, परन्तु शैक्षिक प्रशासन का क्षेत्र अभी तक किसी असाधारण नीति से प्रभावित नहीं हो सका। यह सच है कि किसी भी देश के अतीत काल में जो परिस्थितियाँ रही हैं, वे देश की शिक्षा को किसी न किसी रूप में प्रभावित अवश्य करती हैं। यह भी माननीय है कि ऐतिहासिक तत्व शैक्षिक प्रशासन को निश्चित रूप से प्रभावित करता है।
2. सांस्कृतिक कारक (Cultural Factor) – शिक्षा तथा संस्कृति का पारस्परिक सम्बन्ध अत्यन्त गहरा है। संस्कृति वस्तुतः किसी देश या जाति की सम्पूर्ण जीवन शैली होती है। सांस्कृतिक मूल्यों का बड़ा महत्व होता है। संस्कृति’ शब्द व्यापक है। इसके अन्तर्गत धर्म, कला, विज्ञान, वेशभूषा तथा रहन-सहन आदि सभी का ज्ञान करना होता है। सदरलैंड के अनुसार, “संस्कृति में वे सभी वस्तुएँ आती हैं, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक दी जा सकती हैं। मैकाइवर ने संस्कृति की परिभाषा इस प्रकार दी है-
“संस्कृति हमारे दैनिक व्यवहार में, कला, साहित्य, धर्म तथा मनोरंजन में पाए जाने वाले हमारे विचारों तथा रहन-सहन के ढंग में हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति है। “
वास्तव में, संस्कृति के अन्तर्गत वह अच्छाइयाँ होती हैं, जिसे व्यक्ति समाज के श्रेष्ठ व्यक्ति के रूप में विचारता है। इस दृष्टि से “संस्कृति” शिक्षा के अधिक निकट है, क्योंकि शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मानव के व्यक्तित्व का इस प्रकार विकास करना है, जिससे वह एक सुयोग्य नागरिक, श्रेष्ठ मानव तथा जीवन संघर्ष के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति बन सके। शिक्षा ही नवीन संस्कारों को जन्म देती है तथा पुरानी सांस्कृतिक विशेषताओं को जीवित रखती है। शैक्षिक प्रशासन में यदि उस देश की संस्कृति की कुछ विशेषताएँ व्याप्त होती हैं, तभी वह प्रभावशाली होता है। जिस प्रकार शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षण विधि, अनुशासन, अध्यापक, आदि पर संस्कृति का प्रभाव होता है, उसी प्रकार शैक्षिक प्रशासन भी देश की संस्कृति से प्रभावित होता है। शैक्षिक प्रशासन शिक्षा जगत के लिए सजग प्रहरी के समान है। शैक्षिक प्रशासन द्वारा शिक्षा की ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए, जो देश के सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा कर सके। हमारे भारतवर्ष की सांस्कृतिक विशेषताओं को आध्यात्मिकता, मानवीयता आदि को मुख्य रूप में स्वीकार किया जाता है। अतएव उत्तम शैक्षिक प्रशासन में इन विशेषताओं को आवश्यक रूप में सम्मिलित किया जाता है। यदि शैक्षिक प्रशासन उद्दण्डता, अमानवीयता, अनुशासनहीनता को बढ़ावा देता है या मानवीय गुणों के प्रति उदासीन होता है तो ऐसा प्रशासन कभी सराहनीय नहीं कहा जा सकता।’ सामाजिक परिवर्तन के कारण प्रत्येक देश की सभ्यता में कुछ बदलाव अवश्य आता है, वेशभूषा, रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि में परिवर्तन हो जाता है, किन्तु सभ्यता की अपेक्षा संस्कृति अधिक आन्तरिक होती है। सभ्यता यदि बाह्य तथा शीघ्र प्रभावित होने वाली होती है तो संस्कृति आन्तरिक तथा अधिक स्थायी होती है। इसीलिए किसी भी देश की संस्कृति का शैक्षिक प्रशासन पर जो प्रभाव होता है, वह अधिक गहरा होता है। सारांश रूप में कहा जा सकता है कि संस्कृति द्वारा शैक्षिक प्रशासन प्रभावित होता है और शैक्षिक प्रशासन में देश के आदर्श सिद्धान्तों को सम्मिलित किया जाना आवश्यक है।
3. सामाजिक कारक (Social Factor) – समाज तथा शिक्षा का भी अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। वही शिक्षा सर्वोत्तम होती है जो देश की आवश्यकताओं के अनुरूप होती है। समाज की दशा हमेशा एक-सी नहीं होती। समाज कभी धर्म तथा नीति प्रधान होता है तो कभी उसमें अर्थ तथा कौशल का बाहुल्य होता है। समाज में कला, विज्ञान, तकनीकी, व्यावसायीकरण, औद्योगीकरण आदि समय की देन है। इसीलिए देश की शिक्षा में समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तन होता रहता है। शैक्षिक प्रशासन का प्रथम कर्त्तव्य होना चाहिए कि वह देश की शिक्षा को अधुनातन बनाने का भरपूर प्रयास करे। समाज में होने वाले परिवर्तन एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही शिक्षा को सक्षम बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। शैक्षिक प्रशासन पर सामाजिक परिस्थितियों का प्रभाव अवश्य पड़ता है। समाज यदि गत्यात्मक, प्रगतिशील तथा बहुमुखी उन्नति करने वाला होता है तो शैक्षिक प्रशासन भी इसी प्रकार की परिस्थितियों को उत्पन्न करने वाला होता है। जिस समाज के व्यक्ति अकर्मण्य, अन्धविश्वासी एवं मानसिक रूप से पिछड़े हुए होते हैं, उस समाज में शैक्षिक प्रशासन का रूप भी शिथिल तथा उदासीन ही बना रहता है। इसके विपरीत समाज में यदि चैतन्यता है, नवीनता तथा आधुनिकता के प्रति जागरूकता है तो शैक्षिक प्रशासन भी शिक्षा की नीतियों में ऐसा परिवर्तन करने के लिए बाध्य होता है, जो शिक्षित युवकों को आधुनिक बनाने में सहायता कर सके।
वर्तमान युग में शिक्षा के क्षेत्र में वैज्ञानिक तथा तकनीकी प्रयोगों को अपनाया जा रहा है। शिक्षा का व्यावसायीकरण करने पर बल दिया जा रहा है। सम्पूर्ण देश में औद्योगिक, टेक्नीकल, कृषि, व्यावसायिक, चिकित्सा, कला, इंजीनियरिंग, साहित्य आदि की शिक्षा को उन्नत बनाने का पूरा प्रयास किया जा रहा है, शैक्षिक तकनीकी कार्य अनुभव, रोजगारोन्मुख शिक्षा, व्यापार- प्रशासन (M.B.A.) कम्प्यूटर आदि अनेक प्रकार की शिक्षाओं की व्यवस्था की जाती है। वास्तव में, शिक्षा के क्षेत्र में यह विविधता एवं अनेकरूपता सामाजिक परिवर्तन के कारण ही है और इस प्रकार की शिक्षा का सम्यक संचालन शैक्षिक प्रशासन ही करता है। इसमें सन्देह नहीं है कि देश को समाज की आवश्यकताओं के अनुकूल बनाने में शैक्षिक प्रशासन पूर्ण रूप से सहायक होता है।
4. राजनीतिक कारक (Political Factor) – सृष्टि के प्रारम्भ से ही यह देखा जाता है कि राजनीति क्षेत्र में प्रभुता रखने वाले व्यक्तियों का देश तथा समाज में सर्वाधिक प्रभाव होता है। प्राचीन काल में चक्रवर्ती तथा एकाधिपत्य रखने वाले सम्राटों का देश के कोने-कोने में प्रभाव छाया रहता था। उनके एक साधारण संकेत पर ही राज्य के शासन-प्रबन्ध में परिवर्तन होता था। हिटलर, मुसोलिनी तथा नैपोलियन आदि के नाम भी ऐसे ही हैं, जिनके आदेश पर समूचे देश का इतिहास झुक जाता था। फ्रांस, चीन एवं रूस के शासकों की स्वेच्छानुसार ही देश में शासन की व्यवस्था हुई है। शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन का साधन माना जाता है। इसीलिए शासकों ने शिक्षा के स्वरूप में भी अपनी इच्छानुसार सदैव परिवर्तन किया है। अपने देश के इतिहास से हम सभी साधारणतः परिचित हैं। हमारे देश में जब अंग्रेजी शासन था तब यहाँ की शिक्षा इंग्लैण्ड वासियों के संरक्षण में चलती थी। स्वतन्त्रता मिलने के पश्चात् भारतवर्ष की शिक्षा में भी परिवर्तन हुआ है। देश की प्रजातान्त्रिक प्रणाली का प्रभाव शैक्षिक जगत में स्पष्टतः झलकता है। सामान्य रूप से देखा जाता है कि देश एवं राज्यों में जिस दल की सरकार बनती है, उसी दल की नीतियों के अनुरूप ही शिक्षा का संचालन होता है। देश में दस जमा दो, आठ जमा चार, प्रौढ़ शिक्षा, विकलांग शिक्षा आदि के नए रूप में नए नारे सुनाई देते हैं, उनकी पृष्ठभूमि में राजनीति की शक्ति निहित होती है। अतएव शैक्षिक प्रशासन भी राजनीतिज्ञों के सम्मुख घुटने टेक देता है। देश के महान् शिक्षा शास्त्री भी वही बोलते हैं, जो उनके मुख से बुलवाया जाता है। बड़े दुःख की बात है कि विश्वविद्यालयों में रिक्त उच्च पदों की नियुक्ति निष्पक्ष न होकर कभी-कभी राजनीति से प्रेरित होती है। शैक्षिक प्रशासन के उच्चाधिकारियों को कभी राजनीति के दमन चक्र से पीड़ित होना पड़ता है तो कभी अयोग्य व्यक्तियों को भाई-भतीजावाद, खुशामद तथा प्रलोभन के बल पर उच्चतम पदों पर आसीन कर दिया जाता है। वस्तुतः इस प्रकार के राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण शैक्षिक प्रशासन का पूरा ढाँचा अस्त-व्यस्त हो जाता है। इसी प्रकार की राजनीति विद्यालयों और महाविद्यालयों की चारदीवारी के अन्दर प्रविष्ट हो जाती है तथा इन सभी त्रुटिपूर्ण एवं अशोभनीय नीतियों के दुष्परिणामों के शिकार देश के होनहार बालक ही होते हैं। महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों के शैक्षिक प्रशासन में जो दिशाहीनता तथा अस्थिरता दिखाई देती है, उसके मूल में राजनीति ही व्याप्त होती है।
शैक्षिक प्रशासन में स्वतन्त्रता का बड़ा मूल्य होता है। यदि प्रशासक निडर, निर्वेर एवं निलोंभ होकर शिक्षा की व्यवस्था में दत्तचित्त हों तो वे प्रशासनिक कर्तव्यों का ठीक प्रकार से संचालन कर सकते हैं। पद-पद पर प्रशासकों का परमुखापेक्षी होना तथा विद्यालयों के आन्तरिक मामलों में राजनीतिज्ञों के संकेत की प्रतीक्षा करना वास्तव में शिक्षा की नींव को कमजोर बनाना है। शैक्षिक प्रशासकों तथा अध्यापकों का यदि कोई सर्वोत्तम कार्य है तो वह केवल शिक्षार्थियों को सर्वगुण सम्पन्न बनाना तथा उनके व्यक्तित्व का सर्वागीण विकास करना ही है। इसके लिए शैक्षिक प्रशासन को राजनीतिमुक्त रखना बहुत जरूरी है।
शैक्षिक प्रशासन को प्रभावित करने वाले मुख्य कारकों का उपर्युक्त पंक्तियों में वर्णन किया है। इन कारकों के अतिरिक्त कुछ ऐसे भी कारक हैं, जो शैक्षिक प्रशासन को प्रभावित करते हैं। ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक आदि परिस्थितियों का तो शैक्षिक प्रशासन पर प्रभाव होता ही है, किन्तु स्वयं प्रशासकों की योग्यता, अभिवृत्ति, व्यक्तिगत स्वभाव का भी प्रशासन के कार्य पर निश्चित रूप से प्रभाव होता है। आवेश युक्त, अयोग्य एवं अमानवीय प्रशासक की दुनीर्ति समूचे प्रशासन में भय, आशंका तथा अनिश्चितता को उत्पन्न कर देती है। अत्यधिक क्रोधी, शंकालु एवं अस्थिर चित्त वाले प्रशासक को हार्दिक सहयोग नहीं मिलता। संस्था में कार्य करने वाले व्यक्ति किसी निर्णय को दृढ़तापूर्वक नहीं ले सकते, क्योंकि उन्हें ज्ञात होता है कि अस्थिर चित्त शंकालु प्रशासक द्वारा उनकी बातों का खण्डन कर दिया जाएगा। इसके विपरीत कभी-कभी योग्य तथा कर्मठ प्रशासकों का स्वभाव तथा व्यवहार उपुयक्त होने पर भी वातावरण से सम्बन्धित कुछ विशेष कारक भी प्रशासन की सुव्यवस्था को भंग कर देते हैं। ग्रामीण वातावरण, सामाजिक रीतियाँ, सरकारी हस्तक्षेप आदि कभी-कभी प्रशासन के मार्ग में बाधा उपस्थित कर देते हैं। इनमें से कुछ ऐसे भी कारक अवश्य होते हैं, जो शैक्षिक की स्वच्छता तथा उत्तमता में सहायक होते हैं।
जोहन ए रामेसियर एण्ड अदर्स की पुस्तक, “फेक्टर्स एफेक्टिंग एडमिनिस्ट्रेशन” में जिन घटकों का उल्लेख किया गया है, उनका संक्षेप में वर्गीकरण निम्न प्रकार किया जा सकता है-
- व्यक्तिगत कारक (Personal Factors)
- वातावरण सम्बन्धी कारक (Environmental Factors)
I. व्यक्तिगत कारक
1. अभिवृत्ति (Attitude)
- (i) शिक्षा का उद्देश्य (Purpose of Education)
- (ii) सहयोग (Cooperation)
- (iii) समस्या समाधान (Problem Solving )
- (iv) प्रशासन का उद्देश्य (Purpose of Administration)
- (v) परिवर्तन ( Change) (vi) प्रभुत्व (Authority)
2. योग्यताएँ (Abilities)
- (i) बौद्धिक क्षमताएँ (Intellectual capacities)
- (ii) व्यावसायिक ज्ञान तथा कौशल (Professional knowledge and Skill)
- (iii) समस्या समाधान उपागम (Problem Solving approach)
- (iv) शारीरिकीय क्षमताएँ (Physiological capacities)
- (v) आत्म-जागरूकता (Self-Awareness)
- (vi) निदानात्मक योग्यता (Diagonising ability)
- (vii) प्रशासनिक योग्यता (Administrative Ability)
3. सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक विशेषताएँ (Socio-psychological)
- (i) प्रेरणा (Motivation)
- (ii) सांवेगिकता स्थिरता (Emotional Stability)
- (iii) दूरदर्शिता लक्ष्य (Long range Goals)
- (iv) जैविकता (Vitality)
- (v) सामाजिक गुण (Social Qualities)
- (vi) अनुभवजन्य (Perception)
- (vii) सिद्धान्तों के प्रति दृढ़ता (Adherence to principles)
II. वातावरणजन्य कारक (Environmental Factor)
1. समाज के रीति-रिवाज (Society’s customs)
- नेतृत्व-संरचना (Leaderships values)
- प्रबन्धकीय स्तर (Status of management)
- शैक्षिक मूल्य (Educational values)
- भौतिक एवं मानवीय स्रोत (Material and human resources)
2. सामुदायिक विशेषताएँ (Community characteristics)
- समुदाय की प्रकृति (Nature of community)
- संगठन एवं संस्थाएँ (Organizations and Institutions)
- बाह्य समुदायों का प्रभाव (Impact of outside communication)
- पारिवारिक गुण (Quality of life)
- जीवन की जटिलता (Complexity of life )
- भौगोलिक एवं भौतिक स्रोत (Geographical and material resources)
- शक्ति संघर्ष (Power conflict)
3. राज्य की प्रकृति (Nature of the state)
- सरकार के कार्य (Functions of the Government)
- सरकार की प्रकृति (The Nature of the Government)
- वित्तीय विधान (Financial provision)
शिक्षा की परिनियमावली व्यवस्था (Statutory Provision for Education)
शैक्षिक प्रशासन के उपर्युक्त वर्गीकरण को देखने से यही ज्ञात होता है कि प्रशासक के व्यक्तिगत गुणों का भी प्रशासन पर गहरा प्रभाव होता है। प्रशासक को अपनी प्रवृत्ति (Attitude) ऐसी बना लेनी चाहिए, जिससे उसके अधीनस्थ कर्मचारी सन्तुष्ट तथा सहयोगी बने रहें। व्यक्तिगत विभिन्नता के आधार पर ऐसा स्वीकार किया जा सकता है कि समाज के व्यक्तियों की बौद्धिक क्षमताएँ, स्वभाव तथा व्यवहार एक समान नहीं होते। अतएव इन्हीं योग्यताओं के अधिक या न्यून स्तर के कारण व्यक्तियों की प्रशंसा अथवा भर्त्सना की जाती है। यह देखा जाता है कि यदि प्रशासक का शिक्षा के उद्देश्यों के प्रति पूरा झुकाव है, उनकी पूर्ति में प्रशासक का विश्वास है तो उसका प्रशासनिक दृष्टिकोण भी उत्तम होता है। शैक्षिक प्रशासक को शिक्षा के सिद्धान्त तथा प्रयोगात्मक व्यवहार के विषय में ध्यान रखना चाहिए। यह माननीय है कि प्रशासक की सहयोगात्मक अभिवृत्ति, प्रेरणा की विधि एवं जनतन्त्रात्मक प्रवृत्ति का प्रशासन पर गहरा प्रभाव होता है। प्रशासन में “प्रभुता” भी महत्वपूर्ण होती है। प्रभुता यदि सरकार अथवा राज्य में निहित होती है तथा प्रत्येक कार्य में पत्र व्यवहार करके आदेशों तथा अनुदेशों की प्रतीक्षा करनी पड़े तो प्रशासन मन्द-गामी और उदासीन बन जाता है। ऐसे प्रशासन में कोई भी व्यक्ति न तो उत्साहित होता है और न किसी कार्य को करने में रुचि लेता है। कुछ प्रशासकों का स्वभाव आलस्य युक्त तथा परम्परागत प्रणाली में विश्वास रखने वाला होता है। इसका प्रभाव कक्षा भवनों, कार्यालयों तथा खेल के मैदानों तक निष्क्रियता के रूप में पाया जाता है। कुछ प्रशासक नवीनता को चाहते हैं, शिक्षा में नवीन प्रयोगों को अपनाते हैं, उनके प्रभाव से विद्यालय एवं कोई भी संस्था प्रगतिशील हो जाती है। वास्तव में, प्रशासक की प्रगतिपूर्ण परिवर्तन करने की अभिवृत्ति प्रशासन को सजीव बना देती है। इसके साथ ही साथ प्रशासक की विभिन्न प्रकार की योजनाएँ भी प्रशासन को प्रभावित करती हैं। प्रशासक ही शारीरिक शक्ति, कार्यक्षमता, जैविक शक्ति, बौद्धिक योग्यता आदि भी प्रशासन पर गहरा प्रभाव छोड़ती हैं। प्रशासक शीघ्र थकने वाला एवं रोगी नहीं होना चाहिए। अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा उसे अधिक बुद्धिमान एवं शीघ्र निर्णय लेने वाला होना चाहिए। उसका कर्त्तव्य है कि वह अपने समूह के सभी व्यक्तियों की बौद्धिक योग्यताओं का ठीक ज्ञान रखे। प्रशासक की अपेक्षा समूह के कुछ व्यक्ति किन्हीं विशिष्ट क्षेत्रों में उससे अधिक अच्छा कार्य कर सकने की क्षमता रखते हैं। ऐसे व्यक्तियों के प्रति ईर्ष्या भाव न रखकर यदि मुक्तकंठ से प्रशंसा का भाव रखा जाता है तो प्रशासन की उत्तमता में निश्चित रूप से वृद्धि होती है। प्रशासक का विषय-ज्ञान, अध्यापन कौशल एवं नवीनतम उपागमों के प्रति सुपरिचित होना चाहिए। प्रशासक यदि शैक्षिक तकनीकी, श्रव्य-दृश्य सामग्री, नवीन युक्तियों और नीतियों के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी रखता है तथा उनके प्रयोगों से विद्यालय को लाभान्वित भी करता है तो उसकी सर्वत्र प्रशंसा की जाती है। प्रशासक में निदानात्मक शक्ति का होना भी प्रशासन को प्रभावित करता है। छात्रों, अध्यापकों, संरक्षकों, विभिन्न स्रोतों की परख करने में प्रशासन को तीव्र होना चाहिए। यह देखा जाता है कि कुछ प्रशासक अपनी संस्थाओं में नवीन तथा उपयोगी बातों को शीघ्रतापूर्वक अपना लेते हैं, परन्तु अन्य प्रशासक तन्द्रा तथा आलस्य में ही पड़े रहते हैं। उपलब्ध साधनों को अपनाने से ही प्रशासन कुशलता की ओर अग्रसर होता है।
प्रशासक की सुनिश्चित तथा सुनियोजित प्रशासनिक योग्यता प्रशासन को सुव्यवस्थित बनाती है, द्रुतगति से किए हुए या बिना विचारे हुए कार्यों का परिणाम अच्छा नहीं निकलता। प्रशासक की सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति का भी प्रशासन पर सीधा प्रभाव होता है। प्रशासक यदि स्वयं को भली प्रकार समझता है तथा अन्य सहयोगियों की विशेषताओं का भी उसे ठीक ज्ञान है तो वह श्रेष्ठ प्रशासन करने में सफल होता है। आत्म-प्रशंसा, प्रदर्शन, आवेश, विषम परिस्थितियों में भय या दबाव के कारण समझौता, अधिकारियों के अनुचित दबाव को सहना, आदि प्रशासक के ऐसे दुर्गुण हैं, जिनसे प्रशासन की अवनति होती है। इसके विपरीत प्रशासक की निर्भीकता, निर्णयात्मक शक्ति आदि योग्यताओं का कुशल प्रशासन में बड़ा महत्व होता है। प्रशासक को प्रेरणा देने की विधियों में अत्यन्त कुशल होना चाहिए। किसी भी समूह में सभी व्यक्ति एक जैसी रुचि के नहीं होते। कुछ व्यक्ति शाब्दिक प्रशंसा चाहते हैं, कुछ केवल पुरस्कार तथा प्रलोभन वश ही अच्छा कार्य करते हैं, परन्तु कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जिन्हें कार्य करने के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता एवं पूर्ण अभिव्यक्ति के अवसर प्रदान किए जाएँ तो वे श्रेष्ठतम कार्य कर सकते हैं। अतएव अधीनस्थ सहयोगियों के व्यक्तिगत मूल्यों का यदि प्रशासक को ठीक ज्ञान है तो प्रशासन भी उत्तम होता जाता है। प्रशासक यदि अपने संवेगों को नियन्त्रण में रखता है, निराशा तथा संघर्ष से दूर रहता है और आत्मानुशासित होता है तो उसका प्रशासन के सम्पूर्ण ढाँचे पर गहरा प्रभाव होता है। प्रशासक में सिद्धान्तों तथा आदर्शों के प्रति आस्था दिखाई देनी चाहिए। उत्तम प्रशासन की परख ऐसे अवसरों पर होती है, जब एक ओर तो संस्था के कल्याण हेतु उत्तम आदर्शों की रक्षा तथा दूसरी ओर प्रतिदिन सहयोग देने वाले अपने ही व्यक्तियों की स्वार्थ भावना सम्मुख उपस्थित हो, किन्तु आदर्श तथा सिद्धान्त व्यक्तिगत स्वार्थ से सदैव बड़े होते हैं। प्रशासन का निष्पक्ष निर्णय लेने का कार्य यद्यपि कठिन अवश्य होता है, किन्तु उसका परिणाम लाभकारी तथा सम्मान में वृद्धि करने वाला होता है। प्रशासक की दूरदर्शिता तथा सामाजिकता भी प्रशासन को सुदृढ़ बनाने में सदैव सहायक होती है।
संस्था अथवा संगठन को वातावरण के प्रभाव से भी बचाया नहीं जा सकता। अनेक प्रकार की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक परिस्थितियों के बीच में ही शिक्षण संस्थाओं को कार्य करना पड़ता है। अतएव शैक्षिक प्रशासन पर भी सामाजिक रीति-रिवाज, समुदायों के लक्षणों तथा सरकार अथवा राज्य की नीतियों का प्रभाव अवश्य पड़ता है। यदि किसी समाज के व्यक्तियों की शिक्षा के सम्बन्ध में धारणा केवल साक्षरता तक ही सीमित है तो उसके सम्पर्क में आने वाला शैक्षिक प्रशासन भी गिने-चुने उद्देश्यों की प्राप्ति करने में ही विश्वास रखेगा। शैक्षिक प्रशासन पर समाज के मूल्यों का प्रभाव होता है। देश या राज्य में नेतृत्व शक्ति की जिस प्रकार की संरचना होती है, उसका वैसा ही प्रभाव शैक्षिक प्रशासन पर होता है। भौतिक तथा मानवीय स्रोतों का भी शैक्षिक प्रशासन पर प्रभाव होता है। समुदाय के व्यक्ति यदि किसी संस्था की प्रगति में रुचि लेने लगते हैं, स्थानीय नेता संस्था की प्रगति में सहायता करते हैं तो उस शिक्षण संस्था का प्रशासन स्वयमेव ऊपर उठने लगता है। इसके विपरीत नगरीय क्षेत्र से दूर और व्यक्तियों के अन्तर्क्रिया सम्बन्धों से अलग रहने वाली संस्था का प्रशासन भी साधारण स्तर का होता है। प्रबन्धकारिणी के सदस्यों का स्तरीकरण भी शैक्षिक प्रशासन पर गहरा प्रभाव डालता है। उद्योगपतियों, सम्पन्न परिवारों एवं बड़े अधिकारियों के संरक्षण में रहने वाली संस्थाओं का शैक्षिक प्रशासन भी अच्छे स्तर का होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में अर्द्धशिक्षित तथा साधारण स्तर पर रहने वाले व्यक्ति स्कूलों की प्रबन्धकारिणी में चुन लिए जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों की विचार शक्ति एवं कार्य प्रणाली साधारण तथा अनुभवहीन होती है। उसकी मिथ्या अहं भावना, पारस्परिक वैमनस्य प्रकृति और आक्रामक नीति शिक्षण संस्थाओं की प्रगति में बाधक बनती है और इसका घातक प्रभाव शैक्षिक प्रशासन पर भी पड़ता है।
किसी भी शिक्षण संस्था की उन्नति या किसी शैक्षिक प्रशासन की उत्तमता बालकों की उन बौद्धिक, सांवेगिक, नैतिक तथा सामाजिक विशेषताओं पर अवलम्बित होती है, जिन्हें वे बालक अपने परिवार से सीधा लाते हैं। अतएव सुयोग्य प्रशासक को बालक के परिवारों का भी अच्छा ज्ञान रखना परमावश्यक है। यह ज्ञान पारस्परिक सम्बन्धों को सुदृढ़ बनाता है तथा शैक्षिक प्रशासन में भी इसका योगदान होता है। राज्य या सरकार की प्रकृति का भी अत्यधिक प्रभाव होता है। सरकार की अधिकारिक और जनतान्त्रिक प्रकृति का प्रभाव भी अलग-अलग रूप में होता है। उसके अतिरिक्त आर्थिक सहायता तथा सरकार के कानून तथा नियमों की दृढ़ता या शिथिलता का भी शैक्षिक प्रशासन पर प्रभाव पड़ता है। सारांश यह है कि शैक्षिक प्रशासन पर व्यक्तिगत एवं वातावरणजन्य कारकों का प्रभाव अवश्य होता है। प्रशासक की व्यक्तिगत योग्यता आदि प्रशासन पर उत्तम प्रभाव डालती है तो बाह्य परिस्थितियाँ भी विभिन्न रूपों में शैक्षिक प्रशासन को प्रभावित करती हैं।
शिक्षा प्रशासन की प्रकृति (Nature of Educational Administration)
शैक्षिक प्रशासन का स्वरूप अत्यन्त गहरा एवं व्यापक होता है। इसके द्वारा शिक्षा संस्था की सम्पूर्ण क्रियाओं में सुधार होता है। शिक्षा के उद्देश्यों को शैक्षिक प्रशासन मूर्त रूप देने में अधिक सहायक होता है। शैक्षिक प्रशासन का स्वरूप लचीला होता है। मानवीय तथा भौतिक साधनों का सदुपयोग करने में सहायक होता है। शैक्षिक प्रशासन वास्तव में बाल-केन्द्रित होता है। बालकों की अन्तर्निहित शक्तियों को निरन्तर जागृत करने तथा उन्हें सदैव प्रगतिपूर्ण बनाने में शैक्षिक प्रशासन महत्वपूर्ण कार्य करता है। शैक्षिक प्रशासन के स्वरूप का विवेचन संक्षेप में इस प्रकार किया जा सकता है-
1. शैक्षिक प्रशासन की प्रक्रिया बालक के सम्पूर्ण जीवन से सम्बन्धित होती है। बालक के सर्वांगीण विकास पर यह प्रक्रिया अत्यधिक ध्यान देती है।
2. शैक्षिक प्रशासन अन्य सभी प्रकार के प्रशासनों से पृथक् होता है, क्योंकि इसका उद्देश्य मानवीय व्यक्तित्व को आदर्श शैक्षिक विकास की ओर मोड़ना होता है।
3. शैक्षिक प्रशासन का स्वरूप सदैव गत्यात्मक (Dynamic) होता है, क्योंकि इसमें व्यापक क्षेत्र को अपनाने तथा आवश्यक परिवर्तन की प्रक्रिया का स्वागत किया जाता है।
4. शैक्षिक प्रशासन की उत्तमता शिक्षकों को प्रशासन में भाग लेने तथा अधिकार सुख भोगने की प्रेरणा देती है अर्थात् उत्तम शैक्षिक प्रशासन में शिक्षक निडर होकर कार्य करते हैं।
5. शैक्षिक प्रशासन की श्रेष्ठता पर शिक्षा, राष्ट्र तथा व्यक्ति विशेष की प्रगति आश्रित होती है।
6. शैक्षिक प्रशासन कठोर, निष्ठुर तथा विनाशकारी नहीं होता, अपितु सहानुभूति, सहयोग तथा सद्भाव को बढ़ावा देता है।
7. शैक्षिक प्रशासन का ध्येय विद्यालय को गम्भीर तथा भयावह बनाना नहीं होता, वह तो स्वतन्त्रता की भावना का अधिक आदर करता है।
8. शैक्षिक प्रशासन एक मानवीय प्रक्रिया है, जो दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, राजनीतिक आदि परिस्थितियों से प्रभावित होती हैं।
9. शैक्षिक प्रशासन में मानव स्वभाव, विचार तथा आदर्शों का आदर किया जाता है।
10. शैक्षिक प्रशासन केवल शैक्षिक विकास ही नहीं करता, अपितु व्यक्ति की अन्तर्दृष्टि को भी विकसित करता है।
11. शैक्षिक प्रशासन केन्द्रीयकरण (Centralized) तथा विकेन्द्रीकरण (Decentralized) दोनों ही स्वरूपों को अपनाता है।
12. शैक्षिक प्रशासन पर सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक गतिशीलता का भी गहरा प्रभाव पड़ता है।
13. शैक्षिक प्रशासन लचीला तथा नम्र अवश्य होता है, किन्तु इसका विश्वास ठोस आधार तथा नियन्त्रण में भी होता है।
14. शैक्षिक प्रशासन का आधुनिकतम स्वरूप परम्परागत रूढ़ियों में विश्वास नहीं रखता। उसका ध्येय निरर्थक वार्तालाप द्वारा बालकों के समय का अपव्यय करना नहीं होता। वह तो बालकों के विश्वास को उचित निर्देशन द्वारा सही दिशा में प्रोत्साहित करता है।
15. शैक्षिक प्रशासन का विकास प्रयोग तथा शोध कार्यों पर आधारित होता है। अतएव उसमें सुनिश्चितता तथा उपयोगिता अधिक होती है।
वस्तुतः शैक्षिक प्रशासन का गहन अध्ययन करने से विदित होता है कि शिक्षा उन्नत करने तथा बालकों स्तर के व्यक्तित्व का व्यापक विकास करने में शैक्षिक प्रशासन की परमावश्यकता है। राष्ट्रीय लक्ष्यों की पूर्ति कराने में शैक्षिक प्रशासन भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है। अन्य प्रकार के प्रशासनों की अपेक्षा शैक्षिक प्रशासन की उपयोगिता अधिक है।
शिक्षा प्रशासन तथा संगठन में अन्तर
प्रशासन (Administration) | संगठन / व्यवस्था (Organization) |
1. प्रशासन द्वारा अपेक्षित उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन प्रशासन होता है। | 1. संगठन का प्रारूप उद्देश्यों की दृष्टि से विकसित किया जाता है। संगठन वह व्यवस्था है, जिसके द्वारा कोई संस्था अपना लक्ष्य प्राप्त करती है। |
2. प्रशासन के अन्तर्गत जिन साधनों एवं व्यक्तियों को लगाया जाता है, उनका मूल्यांकन भी किया जाता है। | 2. संगठन में साधनों एवं व्यक्तियों की भूमिका निर्धारित की जाती है। |
3. प्रशासन की प्रकृति व्यावहारिक अधिक होती है। संगठन के प्रारूप का क्रियान्वयन, पर्यवेक्षण तथा मूल्यांकन करना है। प्रबन्ध संगठन की पूरक प्रणाली है। | 3. संगठन का प्रारूप तार्किक तथा सैद्धान्तिक होता है। नियोजन की क्रिया प्रमुख होती है। प्रशासन से पहले की अवस्था है। |
4. प्रशासन प्रबन्ध का गतिशील तथा क्रियात्मक पक्ष होता है। | 4. संगठन/व्यवस्था, प्रबन्ध प्रारूप मात्र होता है। स्वयं क्रियाशील नहीं होता है। |
5. प्रशासन एक कार्य प्रणाली है, जिसमें व्यक्तियों एवं सामग्री को प्रयुक्त किया जाता है |
5. संगठन एक प्रारूप होता है, उसी की दृष्टि से कार्य सम्पादित किए जाते हैं । |
6. प्रशासन एक प्रणाली है, जो प्रबन्ध तथा संगठन के प्रारूप को क्रियान्वित करती है तथा निर्देशित एवं नियन्त्रित भी करती है। | 6. संगठन के अन्तर्गत क्रियाओं, उपकरणों त्या व्यक्तियों के कार्यों एवं उपयोग का स्वरूप सुनिश्चित किया जाता है। |