संस्कृति से क्या अभिप्राय हैं, संस्कृति को परिभाषित कीजिए।
संस्कृति मानव की जीवन शक्ति, प्रगतिशील साधनाओं की विभक्त विभूति, राष्ट्रीय आदर्श की गौरवमयी मर्यादा और स्वतन्त्रता की प्रतिष्ठा होती हैं। इसमें सार्वभौम आदर्शों की प्रेरणा निहित रहती है। राष्ट्र का उत्थान इसी पर अवलम्बित रहता है। इस तथ्य का चिन्तन करते हुए भारतीय परम्परा ने सदैव संस्कृति निष्ठा के मंगल मार्ग को अपनाया। कई विद्वानों ने तो संस्कृति की समता आत्मा से की हैं। जिस प्रकार आत्मा प्रत्येक जीव में विद्यमान हैं उसी प्रकार भारतीय संस्कृति भारत भूमि के कण-कण में व्याप्त हैं। यह भारतीय इतिहास व साहित्य के प्रत्येक पृष्ठ पर अंकित हैं।
महोपाध्याय काव्य सांख्य वेदान्त तीर्थ साहित्य वाचस्पति पं. संकल्लनारायण जी संस्कृति शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि “संस्कृति” शब्द में क के पूर्व सकार हैं उसका अर्थ हैं समूह और अलंकार भूषण, जिस कर्म से समाज की शोभा बढ़ती हैं और समुदाय बनता है, वह संस्कार हैं-संस्कृति हैं।
श्री दादा धर्माधिकारी संस्कृति के सन्दर्भ में लिखते हैं कि “संस्कृति एक अखिल जागविक भाव और सार्वभौम तत्व हैं। इसके लक्षण अखिल जागविक हैं, उसके मूल तत्व भी विश्व के समस्त देशों में विद्यमान हैं। संस्कृति की मूलभूत परिभाषा में एकता झलकती हैं, इसीलिए वह संस्कृति हैं और मनुष्यों को सभ्य बना सकती हैं अत: संस्कृति उस शिक्षा व दीक्षा को भी कह सकते हैं जो सामान्य मानव का जीवन सुधारे इससे स्पष्ट है कि एक देश की संस्कृति में उस देश की पुरातन आदतें प्रथाएं व रहन-सहन भी सम्मिलित होते हैं और वे इस देश के मनुष्यों के चरित्र निर्माण में सहायक होते हैं। वैसे भी संस्कृतियों का लक्ष्य मानव आत्मा को उन्नत करना होता हैं क्योंकि सभी मानव मूलतः एवं प्रकृति से सदृश हैं। इस कारण सभी देशों की जातियों की संस्कृतियाँ कई अंशों में समान पाई जाती हैं लेकिन फिर भी देश, काल और पात्र की परिस्थितियों एवं संस्कृतियों के प्रेरकों निर्माताओं के आदर्श विभिन्न होते हैं। इस विभिन्नता के कारण ही देशों की संस्कृतियों में भी भिन्नता आ जाती हैं। भारतीय संस्कृति के प्रमुख प्रेणता ऋषि महर्षि व दार्शनिक रहे हैं। यही कारण हैं कि भारतीय संस्कृति अन्य देशों की संस्कृतियों से । कुछ भिन्नता लिए हुए हैं। इस संदर्भ में हम भारतीय योगी अरविन्द की परिभाषा उल्लेखित कर देना आवश्यक समझते हैं वे संस्कृति को परिभाषित करते हुए लिखते हैं “इस संसार में सच्चा सुख आत्मा, मन और शरीर के समुचित समन्वय और उसे बनाये रखने में ही निहित होता है। किसी संस्कृति का मूल्यांकन इसी बात से करना चाहिए कि वह इस समन्वय को प्राप्त करने की दिशा में कहाँ तक सफल रही हैं।”
भारतीय संस्कृति धर्म प्रधान एवं आध्यात्मिक होने के कारण दार्शनिक आवरण से अधिक आवृत हो गई हैं इसीलिए भारतीय संस्कृति से तात्पर्य सत्य, शिव सुन्दरम के लिए मस्तिष्क और हृदय में आकर्षण उत्पन्न करना तथा अभिव्यंजना द्वारा उसकी प्रशंसा करने से लिया जाता हैं। संक्षेप में संस्कृति वह हैं जो सूक्ष्म एवं स्थूल, मन एवं कर्म, आध्यात्म जीवन एवं प्रत्यक्ष जीवन में कल्याण करती हैं।
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