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समाज तथा समाजीकरण में लिंग की भूमिका का वर्णन धर्म के संदर्भ कीजिए ।
समाज तथा समाजीकरण में लिंगीय सुदृढ़ता और भूमिका धर्म के सन्दर्भ में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होती है। भारतीय समाज धर्मानुप्राणित समाज है । यहाँ धर्म का क्षेत्र इतना व्यापक है कि मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन तथा व्यवहार इसकी परिधि में आ आता है । धर्म से तात्पर्य निम्न प्रकार है-
शाब्दिक अर्थ – धर्म शब्द संस्कृत की ‘धृ’ धातु से निष्पन्न है जिसका अर्थ है-
- धारण करना,
- बनाये रखना, तथा
- पुष्ट करना ।
धर्म हेतु आंग्ल भाषा में ‘Religion’ शब्द का प्रयोग किया गया है जो लैटिन के दो शब्दों ‘Re’ तथा ‘Legere’ से निष्पन्न है, जिसका अर्थ होता हैं—’सम्बन्ध स्थापित करना’ (To Bind Back)।
इस प्रकार ‘रिलीजन’ से तात्पर्य है ‘ईश्वर के साथ सम्बन्ध स्थापित करना । यह सम्बन्ध मनुष्य का मनुष्य तथा ईश्वर के साथ है।”
गिस्बर्ट महोदय का इस विषय में कथन है कि “धर्म दोहरा सम्बन्ध स्थापित करता है । पहला मनुष्य और ईश्वर के मध्य तथा दूसरा मनुष्य तथा मनुष्य के मध्य ईश्वर की सन्तान के रूप में। “
“Religion establishes a double bond one between man of God and the other between man as children of God.”
संकुचित अर्थ – संकुचित अर्थ में धर्म से तात्पर्य है किसी धर्म विशेष के प्रति श्रद्धा, जिसमें धर्म के बाह्य तत्त्वों — टीका लगाना, माला फेरना, नमाज पढ़ना, रोजा रखना, गिरिजा घर एवं गुरुद्वारे इत्यादि जाना आता है।
परिभाषीय अर्थ – धर्म के अर्थ के और अधिक स्पष्टीकरण हेतु कुछ परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं-
भगवदपुराण में धर्म के छः लक्षण, “महर्षि नारद ने धर्म के तीस लक्षण तथा मनु ने धर्म के दस लक्षणों के विषय में बताया है-
“धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
धी विद्या सत्यमक्रोधों दशकं धर्म लक्षणम् ॥”
धर्म की व्यापकता के विषय में महाभारत में आया है-
“धर्म यो बाधते धर्मों न स धर्म कुधर्म तत् ।
अविरोधात् तु यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्रम् ॥’
धर्म मनुष्य बनाता है और पशुता से ऊपर उठाने का कार्य करता है—
“आहार निद्रा भय मैथुन च सामान्य ये तत्पशुभिर्नरणाम्।
धर्मोहितेषामधिको विशेषो धर्मेण हीना पशुभिः समानाः ॥”
पाश्चात्य विद्वानों ने धर्म के विषय में निरूपण इस प्रकार किया है-
काण्ट के अनुसार- “धर्म का सार मूल्यों के धारण करने में विश्वास को कहते हैं।”
एडम्स के अनुसार- “आकाशगंगा के सृष्टा एवं शासन के प्रति शक्ति और जीवों के प्रति मेरा प्रेम ही मेरा धर्म है।”
काण्ट के अनुसार — “धर्म से अभिप्राय है दैवीय अनुदेशों के रूप में अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करना । “
“Religion is the recognition of all our duties as divine commandments.”
डासन के अनुसार – ” जब कहीं और जहाँ कहीं भी मनुष्य बाह्य शक्तियों पर निर्भरता का अनुभव करता है जो रहस्यपूर्ण और मनुष्य की शक्तियों से कहीं अधिक उच्चतम मानी जाती है, वही धर्म होता है ।”
“Whenever and wherever man has a sense of dependence on external powers which are conceived as mysterious and highest than man’s own, there is religion.”
ए. एन. ह्वाइटहेड के अनुसार- ” धर्म एक ऐसे तत्त्व का दर्शन है जो हमारे बाहर, पीछे तथा भीतर है।”
“Religion is a vision of something which stands beyond and within.”
हेराल्ड डोफलिंग के अनुसार ” धर्म का सार मूल्यों के धारण करने में विश्वास को कहते हैं। “
किल्पैट्रिक के अनुसार “धर्म एक सांस्कृतिक प्रतिकृति है जो अलौकिक अथवा असाधारण से उस प्रकार के सम्बन्ध रखता है जैसे कि उन विशिष्ट व्यक्ति द्वारा समझे जाते हैं जो कि उसमें अलिप्त हैं ।”
विविध धर्मों की दृष्टि में धर्म- विभिन्न धर्मों के अनुसार धर्म निम्न प्रकार हैं-
(i) हिन्दू धर्म — वेदों में धर्म का अर्थ धार्मिक विधियों से लिया गया है। यहाँ धर्म वह मापदण्ड है जो मूल तत्त्व को स्थापित तथा स्थायित्व प्रदान करता है । तैत्तिरीयोपनिषद् में धर्म के द्वारा व्यक्ति के आचरण के सम्पादन का अर्थ लिया गया है। पूर्व मीमांसा में धर्म की विवेचना ऐसे तत्त्व के रूप में की गयी है जो प्रेरणा प्रदान करता है । ‘धारणाद् धर्म इति आहु, धर्मों धारित प्रजा’ अर्थात् जो धारण करने योग्य है वह धर्म है । इस प्रकार यहाँ धर्म से तात्पर्य नित्य-प्रति किये जाने वाले अनुशासित व्यवहार से भी है ।
(ii) ईसाई धर्म – ईसाई धर्म के अनुसार धर्म से तात्पर्य ऐसे उपादान से है जो कि समस्त व्यक्तियों को प्रेम, त्याग, दया, क्षमता, सहानुभूति, कर्त्तव्यों तथा अधिकारों को बाँट देता है।
(iii) इस्लाम धर्म — इस्लाम शब्द का अर्थ ही है शान्तिपूर्वक ईश्वर के समक्ष स्वयं को समर्पित कर देना । यहाँ धर्म से तात्पर्य सभी मनुष्यों के साथ अच्छा व्यवहार करने तथा इस्लाम की शिक्षाओं के अनुरूप जीवन व्यतीत करने से है ।
धर्म का व्यापक अर्थ- धर्म से तात्पर्य केवल धर्म विशेष के प्रति श्रद्धा रखना, माथे पर तिलक लगाना, श्लोकों का उच्चारण करना, जाप करना, माला फेरना, नमाज पढ़ना, रोजा रखना, टोपी लगाना, गिरिजाघर जाकर मोमबत्ती जलाना, धार्मिक ग्रन्थों का पाठ करना या ईश वन्दना करना मात्र नहीं है, क्योंकि धर्म अपने व्यापक अर्थ में मन्दिर, मस्जिद, गिरिजाघर या गुरुद्वारों तक सीमित न होकर उससे कहीं विस्तृत है। धर्म जीवन जीने की पद्धति से सम्बन्धित है जो दिन-प्रतिदिन के कार्यों में पालन किया जाना चाहिए। धर्म सभी उत्कृष्ट आदर्श तथा विचार हैं जिनसे जीवन व्यतीत किया जाता है। धर्म जीवन के उन्नत मूल्य हैं। धर्म परमात्मा के मार्ग पर चलने और उससे साक्षात्कार करने की प्रक्रिया है। मानवता की सेवा, समाज की सेवा, चराचर प्राणियों के प्रति प्रेम का भाव रखना धर्म है । सत्यं शिवं, सुन्दरम् जैसे शाश्वत मूल्यों का पालन करना भी धर्म है। इस प्रकार धर्म से तात्पर्य किसी स्थल विशेष पर जाकर पूजा या दुआ करने से न होकर धर्म व्यक्ति का समग्र जीवन ही है। मनुष्य ही नहीं, सम्पूर्ण चराचर जगत ईश्वर की ही सृष्टि है। अतः प्रत्येक कण में उसका रूप देखना, दया और प्रेम का व्यवहार करना ही वास्तविक धर्म है।
धर्म का समन्वयात्मक स्वरूप- इन सबसे बढ़कर धर्म चाहे कोई भी हो वह समन्वयकारी होता है। आडम्बर की अपेक्षा आध्यात्मिकता का महत्त्व, सभी धर्मों, प्राणियों और चराचर जगत के प्रति प्रेम का विकास ही वास्तविक धर्म है। इसी कारण सभी धर्मों में समभाव पर बल दिया जाता है। विलियम लॉ ने धर्म के समन्वयात्मक स्वरूप का वर्णन इस प्रकार किया है- ” समस्त मानवीय आत्माओं के लिए आत्मा द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार कर लेना ही मुक्ति…. वही ईसाई, यहूदी एवं हीपेन्स के लिए तीसरा नहीं है। मानवीय प्रकृति एक है एवं मुक्ति भी एक ही है और परमात्मा में आत्मा को विलीन करना ही आत्मा की इच्छा है। “
धर्म के कार्य (Functions of Religion)— धर्म के क्षेत्र (Scope) के अन्तर्गत व्यापक अर्थों में मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन ही आ जाता है और धर्म हम जो खुली आँखों से नहीं देख सकते वह भी हैं। धर्म के कार्य निम्न प्रकार हैं-
धर्म के कार्य
- सामाजिक नियंत्रण का कार्य
- सांस्कृतिक कार्य
- शैक्षणिक कार्य
- आर्थिक कार्य
- जनतांत्रिक मूल्यों के विकास का कार्य
- मानव जीवन के उन्नयन का कार्य
- उदारता के दृष्टिकोण के विकास का कार्य
- मानवता, प्रेम तथा सहयोग का कार्य
- आध्यात्मिक तथा नैतिक मूल्यों के विकास का कार्य
- सर्व धर्म समभाव का कार्य
- भेद-भावों की समाप्ति का कार्य
धर्म की उपयोगिता तथा महत्त्व (Utility and Importance of Religion) – हमारा समाज धर्मानुप्राणित समाज है, परन्तु इस विषय में प्रश्न उठता है कि धर्म का मानव जीवन तथा विश्व के लिए क्या उपयोगिता है ? धर्म जैसा कि हम पूर्व में भी जान चुके हैं कि अनेक कार्य हैं। इसी कारण धर्म उपयोगी तथा महत्त्वपूर्ण है। धर्म की उपयोगिता मनुष्य, जीव-जन्तु इत्यादि सभी के हित के लिए है। धर्म की उपयोगिता तथा महत्व को हम निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत देख सकते हैं-
धर्म की उपयोगिता तथा महत्त्व
- व्यक्तित्व विकास हेतु
- सामाजिक हितों हेतु
- सांस्कृतिक विकास हेतु
- आर्थिक गतिशीलता हेतु
- शैक्षिक गतिविधियों के संचालन हेतु
- विभिन्न धर्मों के मध्य समन्वय की स्थापना हेतु महत्त्वपूर्ण
- मनुष्य को शान्ति तथा आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करने हेतु
- मूल्य निर्माण तथा आदर्श चरित्र के निर्माण हेतु
- पवित्र जीवन की तैयारी हेतु
- प्रजातन्त्र की सुदृढ़ता के लिए धार्मिक समन्वय हेतु आवश्यक
- नैतिकता तथा आदर्शों की स्थापना हेतु
- ‘जीवन मात्र की रक्षा हेतु
- मनुष्य के अस्तित्व की रक्षा हेतु
- आत्मबल हेतु
- ‘जीवन की कठिनाइयों का सामना करने की हिम्मत प्रदान करने हेतु।
- विश्व शान्ति तथा सहयोग की स्थापना में महत्त्वपूर्ण
- मनुष्यों के बीच ऊँच-नीच, अमीर-गरीब तथा लैंगिक भेद-भावों की
- समाप्ति की दृष्टि से उपयोगी
समाज तथा समाजीकरण में लिंग की भूमिका के सशक्तीकरण के साधन के रूप में धर्म के कार्य तथा भूमिका
धर्म का प्रभाव भारतीय जनमानस पर प्राचीन काल से ही अत्यधिक रहा है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में दैनिक महत्त्व के कार्यों, पर्यावरण रक्षा, जीव-जन्तुओं की रक्षा आदि के कार्यों को भी धर्म से ही जोड़ दिया गया जिससे हमारी प्रकृति तथा जैव-विविधता (Bio-diversity) संरक्षित होती रहे धर्म अपनी इस लम्बी यात्रा में अब दूषित रूप में हमारे समक्ष दिखता है यह धर्म का वास्तविक रूप नहीं है। कोई भी धर्म सबसे पहले मानवता और प्रेम सिखाता है। धर्म के नाम पर तमाम अन्ध-विश्वास, रूढ़ियाँ और मनुष्यों का खून बहाया जा रहा है, परन्तु धर्म यदि अपने मूल रूप में आ जाये तो यह पापियों का नाशक होता है। गीता में भगवान कृष्ण ने कुछ ऐसा ही उपदेश अर्जुन को दिया-
” यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत: ।
परित्राणाय च साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ॥
अहं संभवामि युगे युगे ॥”
अपने समाज में व्याप्त कुरीतियों में से ही एक है— लैंगिक भेद-भाव लैंगिक भेद-भावों में एक भूमिका स्त्रियों के विषय में नकारात्मक धार्मिक विचारों की रही है जिसका बढ़ा-चढ़ाकर धर्म के ठेकेदारों ने अपने छोटे स्वार्थों की सिद्धि हेतु प्रयुक्त किया है, परन्तु धर्म तथा उसके पहरेदार और मतावलम्बी चाह लें तो धार्मिक बुराइयाँ जड़ से समाप्त हो जायेंगी। स्त्रियों के साथ होने वाले दोयम दर्जे के व्यवहार को भी धर्म अपनी सशक्त भूमिका द्वारा समाप्त कर सकता है। धर्म स्त्रियों को प्रोत्साहित कर समाज तथा समाजीकरण की प्रक्रिया में आने के लिए प्रेरित कर सकता है, धार्मिक प्रावधान कर सकता है जिसका व्यापक प्रभाव होगा। धर्म की लैंगिक सुदृढ़ता, समाज में लिंगीय भेद-भाव कम करने तथा बालिकाओं की समाजीकरण की गति तीव्र करने में भूमिका तथा कार्य निम्न प्रकार हैं-
1. धर्म को अपने मूल स्वरूप तथा मूल स्रोतों की ओर अग्रसर होना, जिससे धर्म में आई विसंगतियों को दूर किया जा सके।
2. धर्म को अपने तत्वों में आधुनिकता और गतिशीलता के आत्मसातीकरण द्वारा स्त्रियों को धार्मिक कार्यों में भाग लेने के अवसर तथा धार्मिक समाज में उनके महत्त्व की पुनर्स्थापना का कार्य सम्पन्न करना चाहिए।
3. अन्ध-विश्वास तथा कुरीतियाँ, जिसमें स्त्रियों की उपेक्षा तथा निरादर होता हो, उनको समाप्त करने का प्रयास कर लैंगिक सुदृढ़ता की स्थापना की जानी चाहिए।
4. धार्मिक सम्मेलनों तथा कार्यक्रमों में स्त्रियों को पुरुषों के ही समान अवसर प्रदान करना, जिससे समाज को उनकी क्षमताओं के विषय में ज्ञान हो सके ।
5. धर्म को चाहिए कि वह अपने सभी नागरिकों का चारित्रिक विकास तथा नैतिक विकास करे जिससे वे स्त्रियों को समुचित स्थान और आदर प्रदान कर सके। इससे स्त्रियों का सामाजिक सम्मान, सामाजिक आदान-प्रदान और सशक्तीकरण होगा ।
6. स्त्रियों के प्रति यदि कोई व्यक्ति अनादर या अभद्र व्यवहार करता है तो धर्म में सख्त नियम तथा अनुशासनात्मक कार्यवाही किये जाने का प्रावधान होना चाहिए। धर्म के इस उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य से लोगों पर अंकुश रहेगा ।
7. स्त्रियों को समुचित आदर और सम्मान जो लोग प्रदान नहीं करते हैं उन्हें धर्म द्वारा बहिष्कृत किया जाना चाहिए, इससे स्त्रियों का सशक्तीकरण होगा ।
8. प्रत्येक धर्म के अपने संस्कार और रीति-रिवाज होते हैं, जिनका पालन सभी धर्मानुयायियों हेतु आवश्यक होता है। धर्म के द्वारा स्त्रियों को वैवाहिक जीवन को गरिमापूर्ण जीने तथा उनके आर्थिक हितों की रक्षा हेतु आगे आना चाहिए और यदि आवश्यक हो तो आवश्यक संशोधन भी किया जाना चाहिए, जिससे स्त्रियों का समाज में समाजीकरण और लैंगिक सुदृढ़ता में वृद्धि हो सके।
9. परस्पर धर्मों तथा संस्कृतियों का आदर कर लैंगिक भेद-भावों की समाप्ति के प्रयास किये जाने चाहिए ।
10. धर्म को आर्थिक स्वावलम्बन तथा क्रिया के सिद्धान्त का पालन करना चाहिए जिसमें स्त्री-पुरुष दोनों की सहभागिता हो । इस प्रकार स्त्रियों को सामाजिक सम्पर्क में आने, समाजीकरण तथा सुदृढ़ीकरण के पर्याप्त अवसर प्राप्त होंगे।
11. कन्या भ्रूण हत्या, कन्या शिशु हत्या, दहेज प्रथा आदि को धर्म के द्वारा अनैतिक कृत्य तथा दण्डनीय घोषित कर देना चाहिए, जिससे लैंगिक सुदृढ़ीकरण में सहायता प्राप्त होगी ।
12. धर्म को चाहिए कि वह स्त्रियों के आदर्श चरित्र और कार्यों को सम्मुख रखकर लैंगिक सुदृढ़ता का कार्य करे ।
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