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सम्प्रत्यय निर्माण से आप क्या समझते हैं?

सम्प्रत्यय निर्माण से आप क्या समझते हैं?
सम्प्रत्यय निर्माण से आप क्या समझते हैं?
सम्प्रत्यय निर्माण से आप क्या समझते हैं? विस्तार से वर्णन कीजिये।

सम्प्रत्यय वस्तुओं, व्यक्तियों या स्थानों का मानसिक बिम्ब है। किसी वस्तु आदि के बारे में हमारे मन में जो चित्र बनता है वह ही प्रत्यय कहलाता है। वस्तुओं, लोगों, स्थानों आदि के नाम और उनकी विशेषताओं का जो स्वरूप हमारे मन में उभरता है, वह सम्प्रत्यय कहलाता है।

सम्प्रत्यय की परिभाषा –

1. मन के अनुसार प्रत्यय एक ऐसी प्रक्रिया है जो विभिन्न वस्तुओं, स्थितियों या घटनाओं में समानता का प्रतिनिधित्व करती है।”

2. मोर्गेन के अनुसार, “वस्तुओं या घटनाओं की समान विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करने वाली प्रक्रिया प्रत्यय कहलाती है।”

3. बोरिंग एवं लैंगफील्ड के शब्दों में “प्रत्यय किसी सामान्य वर्ग को व्यक्त करने वाला सामान्य विचार है।”

4. रॉस के अनुसार “प्रत्यय वे ढाँचे या मानसिक उपश्रेणियाँ हैं जो हमें अपने विचारों की व्याख्या करने की योग्यता प्रदान करते हैं, भले ही वे विचार वास्तविक हों या काल्पनिक। “

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम प्रत्ययों की विशेषताएँ निम्नवत् बता सकते हैं –

प्रत्ययों की विशेषताएँ

  1. प्रत्यय वस्तुओं, घटनाओं तथा लोगों के प्रति सामान्यकृत विचार है।
  2. प्रत्ययों को ‘सरल से कठिन की ओर’ सूत्र के आधार पर सरलता से सीखा जा सकता है।
  3. प्रत्ययों का अधिगम मूर्त व अमूर्त उदाहरणों के मेल से अधिक सरलता से हो सकता है।
  4. प्रत्ययों में आकार, आकृति और रंग के लक्षण पाये जाते हैं। प्रत्येक लक्षण के अपने मूल्य होते हैं।
  5. प्रत्यय द्वि या त्रि बहुआयामी हो सकते हैं; जैसे नारंगी में रंग, आकार, आकृति एवं बनावट आयाम होते हैं।
  6. प्रत्ययों में प्रधान व गौण लक्षण हो सकते हैं।
  7. प्रत्यय प्रतीकात्मक होते हैं; जैसे सड़क के संकेत।
  8. प्रत्ययों का निर्माण लम्बवत् या समतल रूप में हो सकता है।
प्रत्यय –

प्रत्यय निर्माण एक प्रकार का ऐसा कार्य है जिसके द्वारा नये प्रत्ययों की श्रेणियाँ निर्मित की जाती हैं। यह आविष्कार का कार्य है। बच्चे अपने चारों ओर की दुनिया की जानकारी संवेदनाओं के रूप में इन्द्रियों से प्राप्त करता है। ये संवेदनाएँ पहले असंयुक्त, असम्बद्ध एवं निर्यक होती हैं। इसके बाद संवेदनाएँ संबंधित हो जाती हैं तथा उनकी तुलना पूर्व अनुभव के साथ प्रत्यक्षीकरण के रूप में की जाती है। संवेदनाओं एवं प्रत्यक्षीकरण साथ-साथ निर्मित होते हैं। संवेदनाओं को अर्थ देना ही प्रत्यक्षीकरण या बोध है।

प्रत्यक्षीकरण इन्द्रियानुभवों का, जो किसी वस्तु के बारे में होते हैं, एक संगठन है। प्रत्यक्षीकरण के विकास में मदद करने के लिए किया जाता है। इस तरह बच्चों के प्रत्ययों का धीरे-धीरे विकास होता है। यह विकास मानसिक क्रिया, स्मृतियों तथा बिम्बों से होता है तथा प्रत्ययों के विकास में भाषा का अन्य प्रतीकों का बड़ा सहयोग मिलता है। प्रत्यय बच्चों की अन्य प्रत्ययों के निर्माण में मदद करते हैं।

शिशु जब बिल्कुल छोटा होता है तब वह वस्तुओं को देखना प्रारम्भ कर देता है। अपनी इन्द्रियों से वह किसी वस्तु के होने का आभास या अहसास करता है। यह स्थिति ही संवेदना की अवस्था कहलाती है। थोड़ा बड़ा होने पर वह वस्तु की उपस्थिति का ज्ञान करता है। उदाहरण के लिए वह मेज पर रखे सेब को देखता है। देखना आभास होने के आगे की अवस्था है। यह अवस्था प्रत्यक्षीकरण की अवस्था कहलाती है। आयु वृद्धि के साथ-साथ बालक में कुछ मानसिक क्षमताओं का विकास भी होने लगता है उसमें चिन्तन स्मृति, कल्पना जैसी मानसिक योग्यताओं का विकास हो जाता है। फलत: वह व्यक्ति, वस्तु तथा घटना का प्रत्यक्षीकरण ही नहीं करता अपितु उन्हें वर्गीकृत करने, नाम देने, उनकी विशेषतायें बताने, उनमें विरोधी तत्वों का ज्ञान करने, जैसी शक्तियाँ भी विकसित हो जाती हैं। यह अवस्था ही प्रत्यय निर्माण की अवस्था । अब मेज पर रखा सेब या संतरा केवल एक वस्तु ही नहीं है अब बालक सेब के आकार, रंग, स्वाद, गंध आदि को पहचान कर उसका नामकरण करने लगा है। वह संतरा तथा सेब में अन्तर करने लगा है। वह सभी सेबों व संतरों व लौकी को पृथक-पृथक फल एवं सब्जियों में विभक्त करने लगा है। यही प्रत्यय निर्माण की स्थिति है।

प्रत्यय-निर्माण की अवस्थायें

प्रत्यय का निर्माण करने के लिए बालक को छः क्रमबद्ध अवस्थाओं को पार करना पड़ता है। ये छः चरण निम्नलिखित है-

1. अवलोकन- प्रत्यय निर्माण की प्रथम अवस्था है किसी वस्तु, प्राणी, घटना आदि का अवलोकन तथा निरीक्षण। उदाहरण के लिए बालक घर में पालतू कुत्ते को देखता है, उसका अवलोकन तथा निरीक्षण करता है फिर वह सड़क के कुत्तों को भी देखता है और उनका निरीक्षण करता है।

2. विश्लेषण- द्वितीय चरण में बालक जब एक ही प्रकार की कई वस्तुओं, प्राणियों या घटनाओं आदि को देखता है तो उनमें जो समान तत्व हैं उनका विश्लेषण करता है। वह जब कई कुत्तों को देखता है तो उनमें जो समान तत्व हैं उनका विश्लेषण करता है।

3. तुलना- प्रत्यय निर्माण की प्रक्रिया में अगला कदम है तुलना करना। द्वितीय चरण में बालक ने जिन तत्वों का विश्लेषण किया है तथा जिन तत्वों को सूचीबद्ध किया है उनके सन्दर्भ में वह वस्तु, प्राणी या घटना आदि की तुलना करता है कि विभिन्न कुत्तों में कौन-कौन से समान या विरोधाभासी तत्व हो सकते हैं। तत्व आकार, प्रकार, स्वरूप, ढाँचा, रंग, अंग आदि के सम्बन्ध में हो सकते है।

4. प्रत्याहार- मन के अनुसार, “प्रत्याहार किसी वस्तु, प्राणी या घटना में समान तत्वों का पता लगाना है।” बालक इस अवस्था में आकर किसी वस्तु, प्राणी या घटना आदि में जो समान तत्व है उनका अवलोकन तथा निरीक्षण करता है। वह कुत्तों के विभिन्न गुण-धर्मों का प्रत्याहार करता है, उनके समान तत्वों का विश्लेषण करता है तथा विभिन्न समान तत्वों का सम्बन्ध परस्पर स्थापित करता है।

5. सामान्यीकरण – किसी वस्तु प्राणी या घटना आदि के समान तत्वों के आधार पर बालक उस वस्तु, प्राणी या घटना की पहचान करने लगता है। सामान्यीकरण के द्वारा वह किसी निष्कर्ष पर पहुँचता है। विभिन्न गुण-धर्मों के आधार पर वह वस्तुओं को एक विशिष्ट वर्ग में रखने लगता है। वह कुत्तों के विभिन्न गुणों के आधार पर उन्हें एक वर्ग में रखने लगता है।

6. नामकरण- सामान्यीकरण के आधार पर वस्तु, प्राणी या घटना को एक वर्ग विशेष में रखने के बाद उस वर्ग विशेष को नाम दिया जाता है। कुत्तों में पाये जाने वाले विशिष्ट गुण-धर्मों के आधार पर वह कुत्ते को एक वर्ग विशेष में रखने लगता है और उस वर्ग को ‘कुत्ता’ नाम देता है। वह जिस प्राणी में ऐसे गुण-धर्म पाता है उस प्राणी को कुत्ता कहने लगता है। अब वह कुत्ता, बिल्ली, सूअर, घोड़ा, आदमी, पेड़, पहाड़ आदि का वर्ग निर्धारित कर उन्हें नाम से पहचानने लगता है।

बालक के प्रत्यय जब और विकसित हो जाते है तो वह इनमें से अन्तर तथा स्पष्टीकरण करने लगता है जैसे अब वह कुत्ता- कुतिया, घोड़ा- घोड़ी, पुरुष-स्त्री, पेड़ पौधा आदि में अन्तर कर उनकी पृथक पहचान करने लगता है।

प्रत्यय-निर्माण के प्रभावक तत्व

प्रत्यय निर्माण पर अनेक तत्वों का प्रभाव पड़ता है। इन विभिन्न प्रभावक घटकों में से कुछ प्रमुख घटक निम्नलिखित है-

1. ज्ञानेन्द्रियाँ – हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान तथा अनुभव प्राप्त करने का प्रमुख साधन हैं। प्रत्यय निर्माण में अनुभव तथा ज्ञान, का मुख्य स्थान होता है। बालक अपने अनुभव तथा ज्ञान के आधार पर ही वस्तुओं, प्राणियों तथा घटनाओं आदि की पहचान करता है। उनके विभिन्न गुण-धर्मों की व्याख्या तथा विश्लेषण करता है, उनका सामान्यीकरण करता है तथा उनका नामकरण करता है। प्रत्यय निर्माण के लिए स्वस्थ एवं सक्रिय ज्ञानेन्द्रियों का होना आवश्यक है। यदि बालक की कोई भी एक ज्ञानेन्द्रिय दोषपूर्ण है या सभी ज्ञानेन्द्रियाँ कमजोर हैं तो वह समुचित मात्रा में अनुभव प्राप्त नहीं कर पायेंगी, और न प्रापत अनुभवों को धारण ही कर सकेंगी। अतः प्रत्यय निर्माण के लिए सामान्य तथा स्वस्थ ज्ञानेन्दियों का होना आवश्यक है।

2. बौद्धिक क्षमता- प्रत्यय निर्माण के लिए पर्याप्त बौद्धिक योग्यताओं का होना अत्यन्त ही आवश्यक है। बालक में जितनी अधिक बौद्धिक योग्यता होगी, वह उतने ही अधिक अनुभव प्राप्त करेगा, उन्हें उतना ही अधिक धारण करेगा तथा उतना ही अधिक उनके आधार पर सामान्यीकरण करेगा। उसकी बौद्धिक क्षमता पर ही उसकी स्मृति, चिन्तन, मौलिकता तथा तर्क जैसी अन्य मानसिक योग्यतायें निर्भर करती है। इस प्रकार की मानसिक क्षमतायें प्रत्यय निर्माण के लिए बड़ी आवश्यक है। लांग ने अपने अध्ययन से निष्कर्ष निकाला कि बौद्धिक क्षमताओं तथा प्रत्यय निर्माण में उच्च धनात्मक सहसम्बन्ध होता है अर्थात् ये दोनों ही एक-दूसरे को सकारात्मक रूप में प्रभावित करती है।

3. अनुभव – प्रत्यय निर्माण में बालक के प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से अर्जित अनुभवों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहता है। अनुभव ही प्रत्यय निर्माण के द्वार खोलते हैं। अवलोकन तथा निरीक्षण करके बालक नये-नये अनुभव प्राप्त करता है। बाद में अपने अनुभवों को सत्यापित कर उनके आधार पर सामान्यीकरण करता है तथा नामकरण करता है। अनुभवों के अभाव में किसी भी प्रकार का प्रत्यय निर्मित नहीं हो सकता है।

4. शिक्षा- प्रत्यय निर्माण में शिक्षा भी सहायता करती है। शिक्षा चाहे वह औपचारिक हो या अनौपचारिक, बालक की मानसिक क्षमताओं का परिमार्जन करती है, नये-नये अनुभव प्रदान करती है तथा नये-नये प्रतीक सीखने के अवसर देती है। इनके कारण प्रत्यय निर्माण प्रभावित होता है।

5. परिवेश की सम्पन्नता – बालक का सामाजिक तथा भौतिक परिवेश जितना अधिक सम्पन्न होगा, उसे सीखने, नये-नये अनुभव प्राप्त करने तथा नई-नई वस्तुओं का अवलोकन करने के उतने ही अधिक अवसर प्राप्त होंगे। बालक को सीखने के जितने अवसर मिलेंगे, उसे प्रत्यय निर्माण के भी उतने ही अधिक अवसर मिलेंगे।

6. सामाजिक संस्कृति – समाज का वातावरण तथा सांस्कृतिक विशेषतायें भी प्रत्यय निर्माण में सहायता करती हैं। उदाहरण के लिए ‘नाश्ता’ का विभिन्न सामाजिक परिवेश में पृथक-पृथक आशय होता है। किसी सामाजिक परिवेश में नाश्ते से आशय है ब्रेड तथा बटर, दूसरे समाज में इसका अर्थ है ‘मिस्सी रोटी’ तथा छाछ, तो किसी समाज में इसका तात्पर्य हे पराठा-लस्सी गरीब परिवार का बालक कार के विभिन्न अंगों का प्रत्ययीकरण नहीं कर पाता है जबकि अमीर परिवार का बालक कार के प्रमुख अंगो का प्रत्ययीकरण कम उम्र में ही कर लेता है।

प्रत्यय निर्माण को प्रभावित करने वाले कारक –

निम्नांकित कारक प्रत्यय निर्माण को प्रभावित करते हैं:

  1. ज्ञानेन्द्रियों की दशा
  2. बुद्धि
  3. अधिगम के अवसर
  4. अनुभव का प्रकार
  5. निर्देशन की मात्रा
  6. जनसंचार साधन का प्रकार
  7. लिंग
  8. व्यक्तित्व
प्रत्यय निर्माण के स्तर –

प्रत्यय निर्माण के निम्नांकित चार स्तर हैं :

1. मूर्त स्तर –इस स्तर पर व्यक्ति वस्तु की पहचान करता है। उदाहरण के लिए लाल गेंद की पहचान का अर्थ है गेंद का संज्ञान करना, अन्य बातों से उसका अन्तर करना, उसके लक्षणों को याद करना ।

2. पुनर्पहचान स्तर :- इस स्तर पर व्यक्ति एक वस्तु को पहचान लेता है। जहाँ वह भिन्न परिप्रेक्ष्य में देखी जाती है। उदाहरणार्थ हम मन्दिर की घण्टी की ध्वनि को जिसे हमने पहले मन्दिर में देखा था पहचानते हैं।

3. वर्गीकरण स्तर :- इस स्तर पर व्यक्ति वस्तुओं का वर्गीकरण करता है। उदाहरण के लिए एक बच्चा खिलौने वाले कुत्ते और वास्तविक कुत्ते को एक ही वर्ग में रखता है।

4. औपचारिक स्तर:- इस स्तर पर व्यक्ति नाम एवं लक्षण को परिभाषित करता है; जैसे जब पेड़, झाड़ी एवं जड़ी-बूटी को प्रस्तुत किया जाये तो व्यक्ति पेड़ को पहचान कर उसका नाम बताता है तथा उसके लक्षणों की परिभाषा देता है तथा स्पष्ट करता है। कि पेड़-झाड़ी एवं जड़ी-बूंटी में क्या अन्तर है।

बौद्धिक विकास तथा प्रत्यय 

बौद्धिक विकास तथा प्रत्यय निर्माण में गहरा सम्बन्ध है। बालक का जैसे-जैसे बौद्धिक विकास होगा, वह प्रत्ययों का निर्माण भी करता चलेगा। जीन पियाजे ने बौद्धिक विकास की चार अवस्थायें बताई हैं। इन चारों अवस्थाओं का हम पूर्व में ही अध्ययन कर चुके हैं। बौद्धिक विकास के क्रम में बालक जब सूक्ष्म विचारों का विकास कर लेता है तब ही वह प्रत्यय निर्माण का कार्य कर सकता है। सामान्यतः 7 से 11 वर्ष स्थूल संक्रिया की अवस्था होती है। इसी अवस्था में सूक्ष्म विचारों का विकास होता है फलतः शुद्ध रूप से यहीं से प्रत्ययों का निर्माण करने की योग्यता विकसित होती है। वैसे स्थूल प्रकार के प्रत्यय जैसे चम्मच, चाकू, आलू, आदि का विकास इस अवस्था से पूर्व में ही प्रारम्भ हो जाता है। गागने के अनुसार किण्डरगार्डन में आते-आते बालक ऊपर, नीचे, आगे, पीछे जैसे कुछ प्रत्यय जान लेता है किन्तु वह अभी भी ‘सबसे ऊपर’ सबसे नीचे, एक के बाद एक छोड़कर’ जैसे प्रत्यय नहीं समझ पाता है।

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Anjali Yadav

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