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सम्प्रेषण प्रक्रिया में भाषा की भूमिका का वर्णन कीजिए।
संचार के प्रकार संचार की विधियों के प्रयोग की योग्यता पर आधारित होते हैं। संचार की योग्यता संचार के सम्प्रत्यय में निहित है। संचार की निम्नांकित परिभाषा में उसके प्रकार भी निहित रहते हैं।
“संचार वह प्रक्रिया है जिसमें विचारों, सम्प्रत्ययों, सम्मत्तियों, भावनाओं व सूचना का सम्प्रेषण, प्रेषण, निर्देशन तथा परस्पर विनिमय होता है। संचार-प्रेषक दूसरों से वार्ता या विचार-विनिमय बोले हुए शब्दों व मौन, भाव-भंगिमाओं, संकेतों तथा मुखाकृति द्वारा अभिव्यक्ति लिखित शब्दों (भाषा) व रेखाचित्रों, आकृतियों, संगीत, चित्रांकन तथा अन्य कलात्मक अभिव्यक्तियों के माध्यम से होता है। शिक्षाविद् शिक्षक व शिक्षार्थी के मध्य संचार प्रक्रिया से सम्बन्धित होते हैं।”
संचार के प्रकार
अतः संचार के प्रमुख प्रकार निम्नांकित हो सकते हैं-
1. बोलना तथा सुनना- संचार के इस प्रकार में और विद्यार्थी उसे सुनते व समझते हैं। इसी प्रकार रेडियो या टेप रिकॉर्डर या कैसेट्स से वार्ता सुनना इसी श्रेणी में आता है। इस संचार को मौखिक संचार भी कहते हैं।
2. कल्पना करना या संकेतन तथा अवलोकन या प्रेक्षण – इस प्रकार के संचार में संदेश या सम्प्रेषक अपने विचार सम्प्रत्यय आदि का संकेतन कुछ चित्रों या अन्य विचारों, सम्प्रत्ययों या संदेशों को समझता है। उदाहरणार्थ हम विभिन्न यातायात चिन्हों का अवलोकन कर उनका अभिप्राय समझ लेते हैं। यह संचार का प्रकार दृश्य संचार कहा जा सकता है।
3. बोलना व कल्पना करना- संचार के इस प्रकार में बोलकर व संकेतन कर दोनों विधियों से एक साथ संदेश प्रेषित किया जाता है। संदेश-ग्रहणकर्त्ता संचार समझने हेतु सुन सकता है तथा अवलोकन भी कर सकता है। उदाहरणार्थ जब हम टी.वी. देखते हैं या कोई फिल्म (सवाक) देखते हैं। हम बोले हुए शब्दों तथा संकेतों दोनों को समझते हैं। प्राय: यह माना जाता है कि यह संचार का प्रकार अत्यधिक प्रभावी होता है।
4. लेखन तथा पठन- इस संचार के प्रकार में संदेश-सम्प्रेषक किसी वस्तु पर शब्द और वाक्य लिखता है। ये शब्द और वाक्य संदेश-ग्रहणकर्त्ता द्वारा पढ़े और समझे जाते हैं। यह आवश्यक नहीं कि यह पठन-क्रिया सदैव नेत्रों के द्वारा ही हो। उदाहरणार्थ नेत्रहीनों के लिये “ब्रेल” लिपि में लेखन होता है जिसमें उभरे हुए “बिन्दुओं” का प्रयोग किया जाता है। नेत्रहीन लोग इन बिन्दुओं को स्पर्श कर उनके माध्यम से प्रेषित संदेश को समझ लेते हैं।
5. कक्षा-कक्ष संचार – शिक्षण को एक प्रकार का संचार समझा जाना चाहिए। शिक्षक अपने शिक्षार्थियों को नवीन विचार, अभिवृत्तियाँ, सूचना, व्यवहार, कौशल आदि को सम्प्रेषित करता है। शिक्षक द्वारा यह संचार प्रक्रिया तब ही प्रभावी हो सकती है जबकि शिक्षार्थी इसे ग्रहण करे और समझ सकें तथा उससे अधिगम कर सकें। इस स्थिति में शिक्षक संचार का प्रेषक होता है और शिक्षार्थी इस संचार प्रक्रिया के ग्रहणकर्त्ता होते हैं। शिक्षार्थी इस संचार प्रक्रिया की सही प्रतिक्रिया वे शिक्षक द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर के रूप में व्यक्त करते हैं। यह प्रतिक्रिया अन्य रूप में भी अभिव्यक्त हो सकती है और वह है शिक्षार्थियों के व्यवहार या अभिवृत्तियों में परिवर्तन के रूप में।
यदि अधिगम को प्रभावी बनाना है तो संचार-क्रिया जिन मार्गों द्वारा प्रेषित होती है वह बिना किसी बाधा के होती रहे।
सम्प्रेषण-प्रक्रिया में भाषा की भूमिका
संचार प्रक्रिया में भाषा की भूमिका निम्नांकित रूप में अभिव्यक्त होती है-
- संचार प्रक्रिया में विचारों व भावनाओं के आदान-प्रदान तथा व्यक्तियों के मध्य अन्तःप्रक्रिया, पृष्ठपोषण तथा पुन: संचार द्वारा स्पष्टीकरण को भाषा ही सुलभ बनाती है।
- संचार प्रक्रिया में भाषा तब ही प्रभावी भूमिका निभा सकती है जब संदेश प्रेषक तथा संदेश ग्रहणकर्ता दोनों ही संचार में प्रयुक्त भाषा को जानते और समझते हैं।
- संचार व शिक्षण प्रक्रिया में भाषा का ही अधिक प्रयोग किया जाता है क्योंकि यह सरलता से प्रयुक्त की जा सकती है।
- भाषा ही व्यक्तियों के मध्य विचारों व भावनाओं के आदान-प्रदान की विकसित व प्रभावी विधि है।
संचार प्रक्रिया में भाषा सम्बन्धी बाधाएँ
संचार प्रक्रिया में भाषा सम्बन्धी निम्नांकित बाधाएँ उपस्थित होती हैं-
1. अस्पष्ट चित्रात्मक सामग्री व संकेत-चिन्हों का प्रयोग- यदि संदेश-प्रेषण या संचार प्रक्रिया में जिन चित्रात्मक सामग्री या संकेत-चिन्हों का प्रयोग किया जाए, वे अस्पष्ट और भ्रामक होते हों, तो वे भाषा को स्पष्ट बनाने की अपेक्षा और दुरूह बना देते हैं।
2. अतिशाब्दिक मौखिकता – जब संदेश-प्रेषक या शिक्षक अपनी भाषा में अत्यधिक मौखिकता व शब्दावली का प्रयोग करता है तो उसके शब्द-जाल में संदेश का मूल तात्पर्य या अभिप्राय लुप्त होता है और संदेश ग्रहणकर्ता शब्दों की बाजीगरी में भ्रमित होकर संदेश को समझने में असमर्थ होता है। इस प्रकार भाषा का अत्यधिक प्रयोग संचार प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करता है।
3. निरर्थक शब्दों का व्यर्थ प्रयोग – जब संदेश-प्रेषक संचार प्रक्रिया में अनेक निरर्थक शब्दों का प्रयोग करता है तो शब्द-जाल में संदेश-ग्रहणकर्ता उलझकर रह जाता है और वह संदेश को समझ नहीं पाता है।
संचार प्रक्रिया में भाषा सम्बन्धी बाधाओं को दूर करने के उपाय – इस हेतु निम्नांकित उपाय अपनाए जाने चाहिए-
- शिक्षार्थियों को संचार के बिन्दु तैयार कर दें व संदर्भ पुस्तकें बनाएँ।
- श्रव्य-दृश्य स्रोतों का प्रभावी प्रयोग करें।
- सरल भाषा का प्रयोग और मौखिकता का कम प्रयोग करें।
- संचार की विविध विधियाँ अपनाइए।
उपर्युक्त सावधानियों से संचार प्रक्रिया में भाषा की भूमिका अत्यधिक प्रभावी सिद्ध होगी।
संचार का अर्थ – “संचार वह प्रक्रिया है, जिसमें सम्प्रेषण, प्रेषण, प्रदत्तीकरण तथा विनिमय विचारों, सम्प्रत्ययों, सम्मतियों, भावनाओं तथा सूचना का होता है। कोई भी व्यक्ति अन्य व्यक्ति से संचार प्रक्रिया, बोले गये शब्दों तथा मौन, शारीरिक भंगिमाओं, संकेतों तथा मुखाकृति प्रदश, लिखित शब्दों या चित्रों, संगीत, चित्रकला तथा अन्य अभिव्यक्ति के कलात्मक रूपों के माध्यम से सम्पन्न कर सकता है। शिक्षाविद् का सम्बन्ध शिक्षक व शिक्षार्थी के बीच होने वाले संचार से है।”
उपरोक्त परिभाषा से यह स्पष्ट है कि संचार की प्रक्रिया की प्रभावोत्पादकता संचार-माध्यमों द्वारा संचारकर्त्ता की सम्प्रेषण की योग्यता तथा उसकी अभिवृत्ति पर निर्भर होती है।
सम्प्रेषण के कौशल अथवा सम्प्रेषण की योग्यता के कारक – सम्प्रेषण की मानवीय योग्यता निम्नांकित कारकों की है-
- इस तथ्य का अब बोध होना चाहिए कि संचार एकल या व्यक्तिनिष्ठ सम्प्रत्यय नहीं बल्कि यह युग्मक या द्विव्यक्तिक सम्प्रत्यय है अर्थात् द्विमार्गी प्रक्रिया है।
- मनोविज्ञान के सिद्धान्तों का महत्व समझना, जैसे-मानव-प्रकृति, उत्तेजक अनुक्रिया आदि।
- चिन्तन या विचारण के कौशल, बहुपक्षीय चिन्तन की योग्यता, रचनात्मकता समवाय और विश्लेषण
- अभिव्यक्ति के कौशल कल्पना करने की योग्यतख चिऋांकन- योग्यता तथा विचारों के लिये कोमल शिल्प बनाने की योग्यता।
सम्प्रेषण एवं अन्तः क्रिया
सम्प्रेषण तथा अन्तःक्रिया का अटूट व घनिष्ठ सम्बन्ध है। जहाँ सम्प्रेषण होगा वहाँ अनिवार्यतः अन्तःक्रिया होगी। अन्तः क्रिया क्या है इसकी परिभाषा देने के स्थान पर इसे एक उदाहरण से स्पष्ट करना अधिक सरल है। सबसे पहले व्यक्ति द्वारा कोई क्रिया की जाती है, इस क्रिया के फलस्वरूप दूसरा या दूसरे व्यक्ति प्रतिक्रिया करते हैं। यह प्रतिक्रिया प्रथम व्यक्ति के लिए क्रिया का कार्य करती है फलतः वह प्रथम प्रतिक्रिया के बदले प्रतिक्रिया करता है। इस प्रकार दोनों पक्षों के मध्य क्रिया-प्रतिक्रिया की एक श्रृंखला चलती है। यह श्रृंखला ही अन्तःक्रिया होती है। सम्प्रेषण चाहे भाषागत हो या संकेतात्मक, | निश्चित रूप से अन्तःक्रिया को जन्म देता है। अन्तःक्रिया के कारण सम्प्रेषण में दो या दो से अधिक व्यक्ति अपने अनुभवों का आदान-प्रदान करते हैं। इसी तथ्य के कारण कई विद्वानों ने सम्प्रेषण तथा अन्तःक्रिया के सम्बन्ध पर आधारित परिभाषायें दी हैं, जैसे-
- फलोत्पादक सम्प्रेषण एक द्वि-पथी प्रक्रिया है जिसमें पृष्ठपोषण एवं अन्तः क्रिया शामिल है।
- सम्प्रेषण सामाजिक अन्तःक्रिया की प्रक्रिया है।
- सम्प्रेषण में अन्तःक्रिया की भावना अन्तर्निहित होती है जो आदान-प्रदान की प्रक्रिया को पुष्ट करती है।
सरल शब्दों में कहें कि जब दो या अधिक व्यक्तियों के बीच विचारों का आदान प्रदान होगा तो वहाँ अनिवार्यतः अन्तःक्रिया कम होगी। कक्षा में शिक्षक का कार्य शिक्षण कराना है। शिक्षण भी बिना सम्प्रेषण के सम्भव नहीं है। जब शिक्षण होगा तो सम्प्रेषण होगा और कक्षा में सम्प्रेषण होगा तो अन्तःक्रिया होगी। यही कारण है कि प्रत्येक कक्षा में अनिवार्यतः शिक्षक तथा छात्रों के मध्य अन्तःक्रिया होती है। यह अन्तः क्रिया ही कक्षा में शैक्षणिक वातावरण का निर्माण करती है।
सन्देश प्रदाता सन्देश प्राप्तकर्त्ता के व्यवहारों को परिवर्तित करता है तथा उसके परिवर्तित व्यवहार पृष्ठपोषण के द्वारा सन्देश प्रदाता के साथ अन्तःक्रिया करते हुए उसे (प्रदाता को) प्रभावित करते हैं।
सम्प्रेषण-चक्र तथा प्रेषक एवं प्रेषी के मध्य अन्त:क्रिया को सम्पथ तथा साथियों ने स्पष्ट किया है। सम्पथ एवं साथियों के अनुसार सन्देश प्राप्तकर्त्ता के लिए यह आवश्यक है कि वह सन्देश को अर्थपूर्ण रूप से समझे तथा उसकी विवेचना करे, वांछित प्रतिक्रिया करे तथा इस प्रतिक्रिया को सन्देश प्रदाता के द्वारा प्राप्त करना आवश्यक है। प्रेषक द्वारा प्रेषी की प्रतिक्रिया प्राप्त करना ही पृष्ठपोषण है। यही अन्तःक्रिया का आधार है।
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