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आधुनिक भारतीय इतिहास लेखन में विपिन चन्द्र के योगदान को रेखांकित कीजिए।
अथवा
मार्क्सवादी विचारधारा के लेखक के रूप में विपिन चन्द्र के बारे में आप क्या जानते हैं।
आधुनिक भारतीय इतिहास लेखन में विपिन चन्द्र के योगदान- भारत में मार्क्सवादी विचारधारा के साथ आधुनिक भारतीय इतिहास को लिखने का श्रेय विपिन चन्द्र को जाता हैं। मार्क्सवादी विचारधारा के साथ उनके इतिहास लेखन को निम्नांकित बिन्दुओं के रूप में रखा जा सकता हैं।
विपिन चन्द्र एक जीवन परिचय
विपिन चन्द्र का जन्म 27 मई 1928 ई. को कांगडा-पंजाब में सूद परिवार में हुआ था। बचपन से ही वे उन्मुक्त वातावरण में पले बढ़े थे। उनकी शिक्षा दीक्षा बहुत ही अच्छे स्कूलों में हुई थी उसी के परिणामस्वरूप लाहौर ईसाई कॉलेज में इतिहास प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हुए थे। कालान्तर में उनके इतिहास योगदान को देखते हुए सेन्टफोर्ड विश्वविद्यालय तथा दिल्ली विश्वविद्यालय में भी इतिहास का अध्ययन अध्यापन करवाया था। उन्होंने प्रो. विश्वेश्वर प्रसाद के नेतृत्व में अपना शोधपूर्ण कार्य पूर्ण किया था। दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद उन्होंने अनुसंधान नामक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया था। 1985 में उन्हें अखिल भारतीय इतिहास परिषद कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। 1993 में उन्हें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग में सदस्य बनाया गया। उनकी साहित्यिक अभिरूचि को ध्यान में रखकर ही 2004 में उन्हें राष्ट्रीय पुस्तक मण्डल (NBT) का अध्यक्ष बनाया गया जहां वे 2012 तक अध्यक्ष के रूप में कार्य करते रहे थे। उनकी साहित्य लेखन की विचारधारा पूर्णतः मार्क्सवादी होने के कारण कई बार उन्हें आलोचनाओं का भी शिकार होना पड़ा था।
विपिन चन्द्र का साहित्यिक योगदान
विपिन चन्द्र ने आधुनिक भारत के प्रायः सभी विषयों पर लेखन कार्य किया था लेकिन उनकी तीन पुस्तकें साहित्य व लेखन की दृष्टि से बड़ी ही प्रमाणिक व उपयोगी मानी गयी हैं:
(i) The Rise and growth of Economic Nationalism (1966)
(ii) Nationalism and Colonialism in India
(iii) Indias Struggle for Independence 1857-1947
(iv) Communalism in modern India.
अपनी पहली पुस्तक भारत में आर्थिक राष्ट्रवाद का उदय और विकास (1966) में उन्होंने कहा कि सामाजिक संबंध मनुष्य द्वारा निरूपित विचारों से स्वतन्त्र होते हैं। तथाकथित नरमपंथियों और गरमपंथियों से जुड़े आरंभिक राष्ट्रवादी नेताओं की आर्थिक सोच के विश्लेषण के आधार पर विपन चन्द्र यह निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं कि उनका समग्र आर्थिक नजरिया मूलत पूंजीवादी था। इससे उनका तात्पर्य यह हैं कि “आर्थिक जीवन के सभी मामलों में वे आमतौर पर पूंजीवादी विकास के समर्थक और खासतौर पर औद्योगिक पूंजीवाद के हितो के रक्षक थे, इसका मतलब यह नहीं था कि वे पूंजीवादियों के व्यक्तिगत हित के लिए काम कर रहे थे वस्तुत आरंभिक चरण में कांग्रेस को मिला पूंजीवादी समर्थन नगण्य था जब राष्ट्रवादियों को यह महसूस हुआ कि पूंजीवादी ढरे पर होने वाला औद्योगिक विकास ही देश को आर्थिक प्रगति के पथ पर आगे बढ़ सकता हैं या दूसरे शब्दों में औद्योगिक पूंजीपति वर्ग के हित उस समय के प्रमुख राष्ट्रीय हित से जुड़ गया तो राष्ट्रवादियों ने औद्योगिक पूंजीवाद को समर्थन प्रदान किया।”
भारतीय जनता और राष्ट्रवादियों के बीच का संबंध हमेशा समस्याओं से ग्रस्त रहा हैं। नरमपंथि नेताओं की योजना में जनता की कोई भूमिका नहीं थी। गरम दल के सदस्यों की वाणी में जोश था परन्तु वे जनता को लामबंद करने में असफल रहे। यद्यपि गांधी युग में जनता राष्ट्रवादियों के साथ जुड़ी परन्तु उनका राजनीतिकरण नहीं हुआ और देश के अधिकांश हिस्सों में खेतिहर मजदूरों और गरीब किसानों के निम्न कार्यों को कभी भी राजनीतिक तौर पर लामबंद नहीं किया जा सका और इस प्रकार 1947 में भी राष्ट्रीय आंदोलन का सामाजिक आधार बहुत सुदृढ़ नहीं था। जनता को लामबंद करते समय उन्हें निर्णय लेने की प्रक्रिया से नहीं जोड़ा गया और जनता और नेताओं के बीच सदैव खाई बनी रही थी। प्रो. विपिन चन्द्र के अनुसार “कुल मिलाकर जनता की राजनीतिक गतिविधि पूरी तरह ऊपर से नियंत्रित थी जनता कभी भी स्वतन्त्र राजनीतिक शक्ति नहीं बन सकी। निर्णय लेने की प्रक्रिया में उनकी भागीदारी का सवाल कभी नहीं उठा। जनता हमेशा मूक दर्शक या उंगलियों पर नाचने वाली कठपुतली बनती रही जिनकी राजनीतिक गतिविधि पर मध्य वर्ग के नेताओं का कड़ा नियन्त्रण था और वे बुर्जुआ सामाजिक विकास की आवश्यकताओं से हो परिचालित थे। गांधी ने जिस प्रकार अंहिसा को परिभाषित किया और उसका प्रयोग किया उसमें इस प्रवृत्ति की महत्वपूर्ण भूमिका थी।”
तीसरे आंदोलन के सभी चरणों में राष्ट्रवादी नेताओं ने इस बात पर बल दिया कि देश की आजादी प्राप्त करने के लिए क्रान्तिकारी नहीं बल्कि विकासात्मक पथ का अनुगमन करना चाहिए और ऐसा करने के लिए दबाव समझौता दबाव की रणनीति अपनाई गई। इस रणनीति के तहत औपनिवेशिक शासकों द्वारा दी गई राजनीतिक रियासतें स्वीकार की जाती थी और उनकों व्यावहारिक जामा पहनाया जाता था। इसके बाद कांग्रेस और भी रियासते प्राप्त करने के लिए आन्दोलन की तैयारी में जुट जाती थी। इस दौर में अंग्रेजों से अहिंसात्मक तरीके से कई राजनीतिक रियासते प्राप्त की गई और उसी प्रक्रिया में अन्तत देश आजाद हुआ। सामाजिक आधार, विचारधारा, राजनीतिक संघर्ष की रणनीति का विश्लेषण कर विपिन चन्द्र इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाला राष्ट्रवादी आन्दोलन बुर्जुआ लोकतांत्रिक आन्दोलन था। इसने साम्राज्यवाद के विरूद्ध भारतीय समाज के सभी वर्गों और हिस्सों का प्रतिनिधित्व किया परन्तु उसका नेतृत्व भारतीय बुर्जुआ वर्ग के हाथ में रहा।
विपिन चन्द्र ने अपने बाद की एक पुस्तक भारत का स्वतन्त्रता संग्राम-1857 1947 (1988) में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन पर दत्त और देसाई की व्याख्या से बिल्कुल हटकर अपनी बात कहीं। अपने विचारों से मेल खाते कुछ अन्य विद्वानों के साथ अपनी इस पुस्तक में राष्ट्रीय आन्दोलन पर विचार करते हुए उन्होंने ग्रामशी के दृष्टिकोण की मदद ली थी।
अभी तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संबंध में जो कुछ भी उन्होंने कहा था या तो इसे जोड़ दिया या संशोधित किया। कांग्रेस की रणनीति को अब वे दबाव-समझौता दबाव की रणनीति के रूप में नहीं देखते हैं अब वे ग्रामशी के युद्ध की नाकेबन्दी की अवधारणा का सहारा लेते हैं जिसके अनुसार लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपनी लड़ाई लड़नी पड़ती हैं।
विपिन चन्द्र के अनुसार “भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन एक मात्र ऐसा आन्दोलन हैं जिसमें ग्रामशी के सैद्धांतिक दृष्टिकोण युद्ध की नाकेबन्दी को व्यावहारिक जामा पहनाया गया हैं। यहाँ किसी एक क्रांति के दौरान राजनीतिक सत्ता नहीं हथिया ली गई बल्कि नैतिक, राजनीतिक और विचारधारात्मक स्तर पर लम्बे जन आन्दोलन के तहत विजय प्राप्त की गई। लगातार आगे बढ़ते हुए एक ताकत और एक माहौल बनाया गया। इस दौरान ऐसे कई दौर आए जिसे निष्क्रियता का दौर भी कहा जा सकता हैं।”
यह संघर्ष कभी भी हिंसात्मक नहीं हुआ क्योंकि राष्ट्रावादी नेताओं को एक ओर भारतीय जनता को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करना था और दूसरी ओर औपनिवेशिक वर्चस्व को समाप्त करना था। अपने लम्बे संघर्ष के दौरान वे अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन के बारे में दो मिथ्या धारणाओं का खण्ड़न करना चाहते थे कि यह भारतवासियों के लिए लाभप्रद हैं और दूसरा कि यह अभेध हैं। गांधीजी की अहिंसा को भी इसी परिपेक्ष्य में देखना होगा। विपन चन्द्र के अनुसार “यह न तो गांधीजी का कोई पाखण्ड था और न ही यह धनी वर्ग के निर्देशों से परिचालित और निर्देशित था। यह आन्दोलन का एक अनिवार्य हिस्सा था जिसके जरिए जनता को साथ लेकर एक व्यापक जनाआन्दोलन किया गया जिसका उद्देश्य अंग्रेजों से संघर्ष करना था। इस प्रक्रिया में यथासंभव और यथाशक्ति लोगों को लामबंद किया गया।”
अब राष्ट्रीय आन्दोलन को एक अखिल वर्गीय आन्दोलन के रूप में देखा जाने लगा जिसमें सभी वर्गों को अपना वर्चस्व स्थापित करने की जगह और अवसर मिलने लगा। इसके अलावा मुख्य दल कांग्रेस उस समय यानी 1885 से 1947 तक एक दल नहीं बल्कि आन्दोलन था।
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