भारतीय संस्कृति प्राचीनकाल से ही अपनी प्रकृति से ही सहिष्णु रही हैं-इस कथन के आशय को स्पष्ट कीजिए।
विविध सम्प्रदायों के प्रति सहिष्णुता और सम्मान का भाव प्रदर्शित करना भारतीय संस्कृति के प्रमुख अंग रहे हैं। सहिष्णुता की विशिष्टता प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति की प्रधान प्रेरणा रही हैं। व्यक्ति का एक दूसरे के प्रति सहिष्णु होना तथा परिवार और समाज के प्रति सहिष्णुता का व्यवहार करना हिन्दू सामाजिक दर्शन का मुख्य प्रेरक तत्व रहा हैं। इसका सर्वाधिक स्पष्ट स्वरूप हमें धार्मिक क्षेत्र में दिखाई पड़ता हैं। सहिष्णुता का परिचय इस बात से मिलता हैं कि भारत में समय-समय पर विभिन्न धार्मिक एवं दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रणयन होता रहा।
ऋग्वेद में कहा गया हैं “एक सद् विप्रा बहुधा वर्दान्त” अर्थात् सत्य एक हैं किन्तु विद्वान उसकी व्याख्या अनेक प्रकार से करते हैं। जैन धर्म का स्वादवाद का सिद्धान्त सहिष्णुता का स्पष्ट उदाहरण हैं। वैदिक धर्म में सुधार करने के लिए जो धार्मिक आन्दोलन भगवान बुद्ध द्वारा प्रारम्भ किया गया था वह यहाँ के पुरातन धर्म को नष्ट नहीं कर सका इसके विपरीत यहाँ के वैदिक सनातन धर्म ने ही उसे अपने में आत्मसात कर लिया। महात्मा बुद्ध को राम और कृष्ण के समान अवतार मान लिया गया। भगवान बुद्ध का बोद्धिवृक्ष हिन्दुओं का भी पवित्र वृक्ष बन गया और बौद्ध चैत्य हिन्दू मंदिरों में बदल गये। इस प्रकार के वातावरण के बन जाने के फलस्वरूप ही भारत की पुण्य भूमि में तीन धर्मो (सनातन धर्म, जैन धर्म व बौद्ध धर्म) की पवित्र त्रिवेणी प्रवाहित हो सकी थी।
प्राचीन भारत में अन्य देशों की भांति धर्म के नाम पर झगड़े नहीं हुए। सम्राट अशोक का इस दिशा में प्रयास बड़ा ही सराहनीय रहा। उसने अपने शासनकाल में धार्मिक सहिष्णुता के प्रचार-प्रसार के लिए पर्याप्त प्रयास किये। प्राचीन भारत के लगभग सभी राजवंश धर्म के क्षेत्र में सहिष्णु बने रहे। गुप्तवंशीय शासक व राजपूत नरेश शैव व वैष्णव मतों के प्रबल समर्थक होते हुए भी अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु बने रहे। प्राचीन भारत के हिन्दू शासकों ने अन्य धर्मों के शासकों की भांति धर्म के नाम पर अत्याचार नहीं किये।
इसी प्रकार की सहिष्णुता भारतीयों में यवन, शक, कुषाण जातियों के आने पर भी बनी रही। इसका परिणाम भी अच्छा ही रहा। उन विदेशियों ने ही भारतीय संस्कृति को ही अपनाना आरम्भ कर दिया परन्तु मुस्लिम आक्रमणों के होने पर भारत का धार्मिक वातावरण बदलने लगा। प्राचीनकाल के कतिपय मुसलमान शासकों ने बलपूर्वक हिन्दुओं को मुसलमान बनाना चाहा पर सहिष्णुता के उपासक हिन्दू उन के प्रति भी सद्भावना व सदाशयता का ही परिचय देते रहे जबकि इसके विपरीत मुसलमान यहाँ के निवासियों के साथ असहिष्णुता का व्यवहार करते रहे। इस सहिष्णुता का प्रमुख कारण हमारी संस्कृति का धर्म आधारित होना हैं। हिन्दू धर्म समन्वयवादी तथा समभाव धर्म हैं। वह दूसरे धर्मों का न तो विरोध करता हैं और न उन्हें किसी प्रकार का आघात ही पहुँचाता हैं। अद्वैतवाद से प्रभावित होने के कारण हिन्दुओं के धार्मिक कट्टरपन में और कमी आ गई हैं। मुसलमान शासकों द्वारा उनके देवालय धराशायी अवश्य किये गये पर हिन्दुओं ने किसी मस्जिद को नष्ट नहीं किया। वास्तव में देखा जाए तो पराधर्मावलंबियों के साथ जैसा उदार व्यवहार हिन्दुओं ने किया हैं वह वस्तुत विश्व में अतुलनीय हैं।
पाश्चात्य देश धार्मिक सहिष्णुता का बड़ा दंभ भरते हैं परन्तु इतिहास के पृष्ठ साक्षी हैं कि धर्म सुधार आन्दोलन से पूर्व ईसाईयों ने मुसलमानों के साथ धर्म युद्ध लड़े और जब ईसाई धर्म स्वयं कैथोलिक और प्रोटैस्टेन्ट दो सम्प्रदायों में बंट गया तथा उनके मध्य बहुत बड़ा खूनी संघर्ष का दौर आरम्भ हो गया था परन्तु भारत की धरती पर अनेकों पथ, सम्प्रदाय व धर्म विकसित हुए लेकिन उनके मध्य कभी हिंसा अथवा घृणा का दौर नहीं रहा।
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