आध्यात्मिक भारतीय संस्कृति का सार तत्व हैं, इस कथन का परीक्षण कीजिए।
आध्यात्मिक भारतीय संस्कृति का सार तत्व हैं, इसी ने भारतीय संस्कृति को विश्व में अलौकिक तथा अमर बनाया हैं। आर्यों के अन्तवहित सभी कर्मों व उद्योगों का यही मार्गदर्शक सिद्धान्त रहा हैं। आहार-विहार, वस्त्र परिधान, स्नान, निद्रा आदि सामान्य कार्यों में भी भारतीय संस्कृति ने आध्यात्मिकता भर दी हैं। गीता के 17वें और 18वें अध्याय में तप, आहार, यज्ञ, दान, त्याग कर्म आदि के त्रिविध भेद बतलाकर यह समझाया हैं कि किस प्रकार से सब कर्म भी मानव जीवन के परम लक्ष्य (मोक्ष) के साधक बनते हैं। धर्म और ईश्वर की श्रद्धामय और निष्ठायुक्त भावना को ही आध्यात्मिकता कहते हैं। यह हिन्दू जीवन की आधारशिला हैं। आत्मदर्शन व ईश्वरदर्शन हो सकते हैं तो केवल आध्यात्मिकता भावना से हो सकते हैं।
यदि भौतिकवाद से परे हटकर मानव का जीवन सादा तथा संयमी बनाती हैं। इस आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत हो जाने पर लंगोटी धारण किये ऋषि-महर्षियों के आगे चक्रवर्ती सम्राट नतमस्तक रहते थे तथा आध्यात्मिक भावना से ओत-प्रोत राजा की प्रजा सुखी एवं आज्ञाकारी रहती थी। इसी प्रकार राजा जनक शासक होते हुए भी आध्यात्मिक मनोवृत्ति के व्यक्ति थे। प्रजा भी उनके राज्य में धर्मरत थी। इसी प्रकार राजा ऊश्वपति ने अपने राज्य के संबंध में सगर्व से कहा था कि मेरे राज्य में कोई चोर डाकू नहीं हैं, कोई भी व्याभिचारी पुरुष नहीं हैं, फिर व्याभिचारिणी स्त्री कहाँ से होगी? स्पष्ट हैं कि आध्यात्मिक भावना जिस प्रकार ऋषियों में होती थी उसी प्रकार नरेशों में भी होती थी। सामान्य लोगों में बाणप्रस्थ व संन्यास आश्रम इस भावना के उत्प्रेरक व साधक बन जाते थे। लोगों का धर्म नैतिक, आचरण और आत्मज्ञान में पूर्ण विश्वास था इसीलिए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था “यदि मानव के पास प्रत्येक वस्तु है पर आध्यात्मिकता नहीं तो क्या लाभ?” हिन्दू मानते थे कि इस भौतिक दृष्टि के मूल में वह सत्य और दिव्य आत्मा निहित हैं जिसे कोई पाप कलुषित नहीं कर सकता, कोई दुराचार भ्रष्ट नहीं कर सकता कोई दुर्वासना गंदा नहीं कर सकती, उनकी दृष्टि में यह परा प्रकृति आत्मा उतनी सत्य हैं जितना की पाश्चात्य व्यक्ति की इन्द्रियों के लिए कोई भौतिक प्रदार्थ इसी विचारधारा में वह शक्ति निहित हैं जिसने उनको (भारतीयों को) शताब्दियों के उत्पीड़न और वैदेशिक आक्रमण या अत्याचारों के बीच अजेय रखा हैं। आज भी राष्ट्र जीवित हैं और इस राष्ट्र में भयंकर विपत्ति के दिनों में भी आध्यात्मिक महापुरूषों कभी उत्पन्न होने से नहीं चूके हैं। हजारों वर्षों के असंख्य कष्ट और संघर्षो में यह हिन्दू जाति मर क्यों नहीं गयी? भारतीय राष्ट्र मर नहीं सकता। अमर हैं और वह उस समय तक अमर रहेगा जब तक यह विचारधारा (आध्यात्मिकता) भारतीय संस्कृति की पृष्ठभूमि के रूप में रहेगी जब तक की उसके लोग आध्यात्मिकता को नहीं छोड़ेंगे।
हिन्दुओं में आध्यात्मिकता की भावना उनके आश्रम धर्म ने उत्पन्न की। आर्यों को अपने जीवन के अंतिम दो काल (वानप्रस्थ 50 से 75 वर्ष तथा संन्यास आश्रम 75 से 100 वर्ष) भगवान के चिन्तन तथा संसार से विरक्ति में ही व्यतित करने होते थे। इस दीर्घकाल में वे इस अदृश्य महान शक्ति पर चिन्तन तथा मनन करते रहे थे।
आश्रम प्रथा का पालन करते समय आर्यों को अपने चारों पुरुषार्थो (धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष) का भी ध्यान रहता था। अतः मोक्ष प्राप्ति ही उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लिया था और मोक्ष प्राप्ति का भी उत्तम साधन भारतीयों का आध्यात्मिक जीवन हीं होता था। इनके अलावा हमारे मुनियों ने हमारे दिलों में यह भावना प्रबल बनाई कि इस लोक की चिन्ता न करके परलोक की चिन्ता अधिक करनी चाहिए। परलोक सुधारने से ही मानव आवागमन के मार्ग से मुक्ति पाता हैं इस धारणा के पीछे भी आध्यात्मिक भावना ही होती हैं। सचमुच देखा जाए तो भारतीय संस्कृति के आधार पर जीवन प्रणाली निर्मित हुई हैं उसकी प्रगति आध्यात्मिकता की ओर पूर्णत्व की ओर ईश्वात्व की ओर हैं।
हमारे जीवन का लक्ष्य होता हैं ईश्वर को अपने कर्म समर्पण करते हुए मोक्ष (परमशान्ति) प्राप्ति। सुखोपयोग के लिए साधन जुटाना नहीं। अभ्युदय के लिए ऐहिक जीवन व संसार में श्रेष्ठता प्राप्त करना, आशावाद को लेकर सब प्रकार से उच्चतम सभ्यता का विकास करना। निःश्रेयस के अद्भुय काल में अर्जित सौभाग्य और संपति का उपयोग व्यक्तिगत जीवन के लिए कर उसे देश के लिए, समाज की सेवा में लोक कल्याण के निमित्त समर्पित कर देना यह हमारा उद्देश्य हैं।