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जाति को आप कैसे परिभाषित करेंगे? जाति पर विभिन्न विद्वानों के लेखन की चर्चा कीजिए।
जब से भारतीय समाज का मानवशास्त्रीय एवं ऐतिहासिक लेखन आरंभ हुआ तब से जाति, जनजाति और जेण्डर के बीच निकट संबंध स्थापित हो गया। उपनिवेशवादी इतिहासकारों और मानवशास्त्रियों ने भारतीय समाज की जाति व्यवस्था की विशिष्टता को पहचाना और रेखांकित किया। उन्होंने यह भी देखा कि भारतीय समाज के एक हिस्से यानि आदिम कबिलों को समाज की जाति व्यवस्था में शामिल नहीं किया गया। जाति समाज कबिलाई समाज से कई मामलों में अलग थे।
लैंगिक भेदभाव के मामले में जाति का संगठन कबिलाई संगठन से बिल्कुल अलग हैं इसके अलावा कबिलाई अर्थव्यवस्था भी जाति अर्थव्यवस्था से अलग हैं। दोनों ही प्रकार के समाजों में शादी विवाह भी अलग ढंग से होते हैं। बाहर से देखने पर यह भी प्रतीत होता हैं कि दोनों ही समाजों में यौन संबंधों का भी फर्क हैं। जाति समाज की शुद्धता और प्रदूषण भी कबिलाई समाज में नहीं पाई जाती हैं। कबिलाई समाज को अनुष्ठानिक पदानुक्रम भी देखने को नहीं मिलता। इसी प्रकार कबिलाईयों की लैंगिक व्यवस्था जाति समाज की विवाह संरचना से अलग होती हैं। वस्तुतः जाति व्यवस्था में लैंगिक भेदभाव का एक विशिष्ट स्वरूप देखने को मिलता हैं।
आमतौर पर यह कहा जा सकता हैं कि लैंगिक भेदभाव में जाति और समाज के अंतरभूत रिश्ते को भारतीय समाज और इतिहास का अध्ययन करते समय अवश्य ध्यान में रखना चाहिए। जाति से संबंधित ऐतिहासिक और मानवशास्त्री साहित्य बड़े पैमाने पर मिलता हैं और यह व्यवस्था काफी लम्बे समय से चली आ रही हैं। अभी हाल ही में लैंगिक भेदभाव से संबंधित अध्ययन और महिलाओं के इतिहास पर नए ढंग से काम शुरू हुआ हैं। भारतीय इतिहास लेखन में जनजातियों को महत्व नहीं दिया गया हैं परन्तु कबीलों से संबंधित काफी मात्रा में मानवशास्त्रीय साहित्य उपलब्ध हैं जिसमें कुछ ऐतिहासिक सामग्री भी शामिल हैं।
जाति की खोज
भारत के औपनिवेशिक अंग्रेज प्रशासन ने भारतीय समाज को समझने के लिए जाति की अवधारणा को समझने का प्रयास किया। अंग्रेजों ने पूर्तगाली शब्द Casta से Caste (जाति) शब्द अपनाया। आरम्भ से पूर्तगालियों ने कास्टा नामक सामाजिक संस्था को परखने का प्रयास किया जिससे कास्ट सिस्टम अर्थात् जाति व्यवस्था की अवधारणा सामने आई। यह उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान सम्पन्न हुआ जब औपनिवेशिक प्रशासन ने जाति व्यवस्था के संदर्भ में सम्पूर्ण सामाजिक बनावट (जिसमें कबीले शामिल नहीं थे) को समझने का प्रयास किया। औपनिवेशिक प्रशासकों ने जाति व्यवस्था पर कच्चे पक्के ढंग से अपनी राय प्रकट की और उन्होंने मुसलमानों और इसाईयों में भी उसे ढूंढ निकाला।
पूर्तगाली लेखक दुआर्ते बारबोसा 1518 में द बुक दुआर्ते बारबोसा ऐन अकांउट ऑफ द कन्ट्रॉज बोडरिंग ऑन द इण्डियन ओसेन एण्ड देयर इन हेबिटेन्डसन नामक यात्रा संस्मरण लिखा जिसका अनुवाद एम. एल डेम्स ने अंग्रेजी में किया। इस यात्रा विवरण में पहली बार जाति व्यवस्था का वर्णन किया गया हैं।
1816 में उसने डेस्क्रिपशन्स ऑफ द करेक्टर, मैनर्स एण्ड कस्टम ऑफ द पीपुल ऑफ इण्डिया एण्ड ऑफ देयर इन्सिच्युशन्स रेलिपियस एण्ड सिविल लिखा जिसका अनुवाद हेनरी के वैसाम्प ने किया हिन्दू मैनर्स कस्टम्स एण्ड सेरेमोनिज (ऑक्सफोर्ड 1906 ) के नाम से किया उन्होंने पहली बार भारत की जाति व्यवस्था के बारे में लिखा। उन्होंने लिखा कि मुझे ऐसा लगा कि भारतीय समाज जाति व्यवस्था में बँटे होने के कारण बर्बरता की स्थिति से मुक्त रहा और उसमें सभ्यता की कला और विज्ञान के तत्व बर्बरता रहे जबकि पूरी दुनिया के अन्य राष्ट्र बर्बरता की स्थिति में थे। लेकिन अन्य ईसाई मशीनरी भारत की जाति व्यवस्था की सभ्यतागत विशिष्टता के बारे में दुबुआ के विचार को स्वीकार नहीं करते और 1850 में मद्रास में हुए मशीनरी कॉन्फ्रेंस में यह कहा में गया कि जाति व्यवस्था भारत में ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में सबसे बड़ी बाधा हैं। भारतीय समाज सुधारकों ने यद्यपि पूरी तरह से जाति व्यवस्था को नहीं नकारा परन्तु उन्होंने इस संस्था के हानिकारक सामाजिक परिणामों पर प्रकाश डाला।
19वीं शताब्दी के अंतिम दौर और 20वीं शताब्दी के आरम्भ में औपनिवेशिक सामाजिक मानवशास्त्र में जाति के उद्भव और कार्यों पर विस्तार से बहस की गई। 1881 की जनगणना के आधार पर पंजाब और उत्तर पश्चिमी प्रांतों तथा अवध से प्राप्त अपने रिपोर्टों के आधार पर दो औपनिवेशिक प्रशासकों ने जाति को मूलतः एक रूढ़ पेशेवर व्यवस्था के रूप में व्याख्यापित किया था।
एच.एच. रिजले नामक बंगाल के एक मेधावी ब्रिटिश अधिकारी ने इस मत से अपनी असहमति व्यक्त की ओर जोरदार ढंग से अपनी यह बात सामने रखी कि जाति का संबंध प्रजाति अर्थात् रेस या नस्ल से हैं इसे आर्यों द्वारा भारत के मूल निवासियों पर आधिपत्य में ढूंढा जाना चाहिए। सभी औपनिवेशिक अधिकारी उसके इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं थे। रिजले ने अपना यह मत द ट्राइस्स ऐंड कास्ट्स ऑफ बंगाल द खण्ड (कलकत्ता 1892) और द पिपुल ऑफ इण्डिया (कलकत्ता 1908) में विस्तार से प्रस्तुत किया था। अधिकारिक तौर पर यह मान लिया गया था कि भारतीय समाज को समझने के लिए और उसका विश्लेषण करने के लिए जाति को एक मुख्य अवधारणा के रूप में स्वीकार करना अपरिहार्य हैं। रिजले ने जनगणना के आधार पर सामाजिक पदानुक्रम बनाने का जो सिलसिला शुरू किया उससे जाति समुदायों में अपने ओहदे और पदानुक्रम को लेकर होड़ मच गयी।
शनै-शनै औपनिवेशिक प्रशासन ने इन विभिन्न जातियों में राजनीतिक वैमनस्य पैदा करने को प्रोत्साहित किया और कुचले हुए वर्गों के लिए विधानसभा में अलग से प्रतिनिधित्व देने का प्रस्ताव रखा। महात्मा गांधी ने इसका विरोध किया और इस प्रस्ताव के खिलाफ आमरण अनशन कर दिया। इसके बाद सवर्ण हिन्दू जाति और दलितों के नेता वी. आर. अम्बेडकर के बीच समझौता हुआ। भारतीय विद्वानों के साथ-साथ विदेशी विद्वानों ने भी जाति व्यवस्था और उसके विश्लेषण में गहरी रूचि दिखाई। नृपेन्द्र कुमार दत्त: ओरिजन ऐंड ग्रोथ ऑफ कास्ट इन इण्डिया (लंदन 1931) जे. एच. हट्टन कास्ट इन इण्डिया इटस् नेचर, फक्शन ऐण्ड ओरिजिन्स और जी. एस. घुर्टो कास्ट ऐण्ड क्लास इन इंडिया (बम्बई 1950) यद्यपि इनमें से कोई भी पेशेवर इतिहासकार नहीं था परन्तु इन तीनों ने ही जाति के उद्भव और अर्थ को ढूँढने का प्रयास किया। हट्टन जो कि 1931 में जनगणना आयुक्त था ने जाति के प्रजाति और रोजगार मूलक सिद्धान्तों से अपनी असहमति व्यक्त की थी उनके अनुसार “वस्तुस्थिति यह हैं कि समय-समय पर भारत ” में आकर कई लोग बस गये। इसके परिणामस्वरूप विभिन्न सांस्कृतिक स्तरों और अलग अलग रीति रिवाजों से मुक्त कई समाज यहाँ आते गये और कारवां बनता गया। इस समाजों में आपसी रिश्ता बना और साथ ही साथ उनकी व्यक्तिगत पहचान भी कायम रही। विभिन्न संस्कृतियों के बीच तालमेल बिठाने के क्रम में जाति व्यवस्था बनती चली गयी थी।”
आजादी के बाद भी जाति की प्रकृति पर विचार जारी रहा। लुई ड्यूमा ने अपनी आधुनिक श्रेष्ठ कृति होमो हापरकिकस (1967) में यह तर्क दिया गया कि शुद्धता प्रदूषण पदानुक्रम जिसके तहत सभी जातियों का आपसी संबंध और रिश्ता तय होता हैं जाति व्यवस्था की मुख्य विशिष्टता हैं।
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